Wednesday 25 October 2017

इस्लाम का कौनसा प्रचार?

फारूक अब्दुल्ला की चिंता राजनीतिक है या मजहबी यह तो अभी स्पष्ट नहीं है लेकिन एक बार फिर नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ने इस्लाम की शिक्षाओं के प्रसार के लिए काम करने की अपील की है. दारूल उलूम के प्रमुख मुल्लवी वाहिद अहमद बंदे के नेतृत्व वाले छात्र पांच दिवसीय काश्मीर की यात्रा पर गये थे.फारूक ने विद्यार्थियों को पवित्र कुरान सीखने और इस्लाम की शिक्षाओं को अपनी वास्तविक भावना में आत्मसात करने के लिए जोर दिया. उन्होंने छात्रों से कहा, मुसलमानों के रूप में, इस्लाम का प्रसार हमारा प्राथमिक कर्तव्य है रास्ता तुम्हारे सामने है, जो पहले तुम्हे सीखना है और फिर पवित्र पुस्तक की शिक्षाओं को फैलाने और दूसरों को इसे समझाने में मदद करना है. इसलिए यह आपका कर्तव्य बन जाता है कि आप सभी इस्लाम को फैलाए.

बेशक यह एक अच्छा सेमिनार हो लेकिन इसमें जो बात सामने आई वो काफी हद तक विचलित भी कर देने वाली है क्योंकि फारुख कई बार दबे शब्दों में ही सही किन्तु कश्मीर में आतंक को जायज सा ठहराने का कार्य भी कर चुके है. इसलिए उन्होंने जो कहा कि इस्लाम का प्रचार हमारा पहला प्राथमिक कर्तव्य है और रास्ता तुम्हारे सामने है, जो पहले तुम्हे सीखना है और दूसरों को इसे समझाने में मदद करना है. जबकि वो युवाओं के बीच में थे उन्हें लोकतंत्र में विश्वास और इस्लाम के साथ मुख्यधारा वाली शिक्षा के लिए भी प्रोत्साहित कर सकते थे.
 
अपने प्रारंभिक काल से लेकर समय के साथ-साथ इस्लाम के प्रचार प्रसार में काफी बदलाव आया है. हालाँकि कहा जाता है कि धर्म का स्वरूप किसी भी काल में एक सा रहता है समय बदलता रहता है उसकी शिक्षा, उसके उपदेशक भले ही बदल जाते हो पर उसके उपदेश नहीं बदलते जबकि इस्लाम समय के साथ बदलता रहता है इसलिये इस्लाम के सम्बन्ध में यह समझना गलत होगा कि मजहब को सदैव वैसा ही रहना चाहिये जैसा वह था. एक बार काइरो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हसन हनाफी ने कहा था कि कुरान एक सुपरमार्केट है जहाँ से जिसे जो चाहिये वह उठा लेता है और जो नहीं चाहिये वह छोड देता है. इस प्रसंग में यदि गणित से शब्दावली उधार ली जाये तो, ओवेशीफारुख अब्दुल्ला और कुछ सुन्नी वहाबी विचाधारा को मानने वाले नेता मुश्किल से इस्लामवाद का एक या डेढ़ फीसदी प्रतिनिधित्व करते हैं. लेकिन इस बात से भी कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रतिनिधित्व बिलकुल नहीं करते.

इस बयान को यदि अतीत के दिग्दर्शन से जोड़कर देखें तो कुछ इस तरह निकलकर आता है कि केवल 700 ईसवी के आसपास जब अब के विशाल अरब साम्राज्य के शासकों ने अनुभव किया कि उन्हें एकता के लिये एक राजनीतिक दर्शन की आवश्यकता है तो शायद वे इस्लाम मजहब के इर्द गिर्द एकत्र हुए. और साम्राज्यवाद के लिए तरीको की उपेक्षा न करते हुए इस्लाम के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया. भारत में भी महमूद गजनवी, मुहम्मद गौरी वाला प्रचार प्रसार कहो या 12 वीं से 15वीं शताब्दी तक दिल्ली सल्तनत पर गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक सैयद और लोदी वंश की हुकूमत करने वालों की तरह, तैमूर लंग से लेकर औरंगजेब तक और लव जिहाद जैसे घटिया तरीके अपनाकर प्रचार हुआ और हो रहा है.

दरअसल इस्लाम का प्रचार-प्रसार करना कोई समस्या नहीं है वर्तमान भारत एक बहुधर्मीय राष्ट्र के रूप में विख्यात है यहाँ का संविधान हर किसी को अपने धर्म के अनुसार जीने का अधिकार प्रदान भी करता है. लेकिन इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए अतीत के तरीके काफी दुःख समेटे हुए है. जैसे मध्य युगीन भारत में हिंदू मंदिरों का विध्वंस किया जाना. 90 के दशक में मक्का की प्राचीन कलाकृतियों को सऊदी द्वारा ध्वस्त किया जाना. 2001 में तालिबान द्वारा बामियान बुद्ध की मूर्तियों को तोडा जाना. 2002 में अल कायदा द्वारा ट्यूनीशिया में गरीबा गिरिजाघर पर बम गिराया जाना. 1974 में उत्तरी साइप्रस में से तुर्की द्वारा चर्च का विध्वंस करने के साथ ही 2003 में इराकी संग्रहालय , पुस्तकालय और अभिलेखागार को लूटा जाना आदि कुछ कडवे अनुभव याद आने लगते है और वर्तमान स्थितियाँ भी उत्साहजनक नहीं हैं, कश्मीर में इस्लाम के नाम पर आतंक आईएस के झंडे लहराए जाना, वहां की फिजा में अशांति का खड़ा होना भी इस्लामवाद के अत्याधिक प्रचार प्रसार का ही नतीजा रहा है. जिसे राजनेता आजादी के साथ जोड़कर तीन पांव पर खड़े कैमरों से दिखाने का कार्य करते है.

दरअसल अधिकांश इस्लामवादी नेता लोकतंत्र को बेकार और इस्लामी मूल्यों के साथ विश्वासघात घोषित करने वाला मानते हैं लेकिन जो उनमें चतुर हैं वे अपनी व्यापक लोकप्रियता को देखते हुए लोकतंत्र का प्रयोग सत्ता प्राप्ति के साधन के रूप में करते हैं. कोई भी रणनीति अपनाकर सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं दूसरा पिछले तीन दशकों में जबसे इस्लामवाद एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा है तब से इसका उपयोग अधिकांश हिस्सों में सत्ता में हिस्सेदारी के लिए किया जा रहा है बुद्धिजीविओं के लिए यह कोई शैक्षिक कसरत नहीं है. जैसे 150 वर्ष पूर्व यहूदियत और ईसाइयत को भी उच्च स्तरीय आलोचना का सामना करना पडा था जिसने कि धर्म के नाम पर आस्था के समक्ष ऐसी ही चुनौती खडी की थी...फोटो साभार गूगल लेख राजीव चौधरी 


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