Monday 30 July 2018

पवित्रता के नाम पर यह कैसा पाप


साल 2014 और महीना था फरवरी का भारत के उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक सरकार के मुख्य सचिव को निर्देश देते हुए कहा था कि प्रदेश के देवनगर जिले के एक मंदिर में महिलाओं को जबरन देवदासीबनने से रोकने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाए जाये. उच्चतम न्यायालय में दायर इस याचिका में देवदासी प्रथा को राष्ट्रीय शर्म का विषय बताया था. उस समय अनेक बुद्धिजीवी लोग मैदान में आये और कागज पर कलम की खुदाली से हिन्दू धर्म में व्याप्त अनेक कुप्रथाओं को खोद-खोदकर सामने रख धर्म पर सवाल उठाये थे.

शायद उत्तर भारत में रहने वाले बहुत सारे लोग इस प्रथा से अनभिज्ञ हो तो उन्हें जानना चाहिए कि छठी सातवीं शताब्दी में दक्षिण भारतीय मंदिरों में आरम्भ हुई प्रथा में मंदिर के देवताओं से कुवारीं लड़कियों की शादी कर दी जाती थी. इसके बाद वह अपना पूरा जीवन ईश्वर को समर्पित कर देती थी. हालाँकि यह कोई सनातन धर्म का हिस्सा नहीं था, न हमारें वेदों और या उपनिषदों में इस प्रथा का जिक्र. इसलिए 19 सदीं के पुनर्जागरण काल में इस प्रथा पर आवाज़ उठने लगी थी. जिसे बाद में कानून द्वारा अपराध की श्रेणी में लाया गया था. अगर यह प्रथा आज भी कहीं किसी कोने में जारी है, तो इसकी मुख्य वजह इस कार्य में लगी महिलाओं की स्वयं सामाजिक स्वीकार्यता है.
दरअसल ये हिन्दू समाज की जागृत चेतना के असर का परिणाम था कि धर्म के नाम पर या प्राचीनता के नाम पर हम कुप्रथाओं को नहीं ढ़ों सकते. लेकिन इस प्रथा का एक दूसरा रूप ईसाई समाज में अभी तक जारी है. ईसाई समाज में स्त्रियाँ भी अपना जीवन धर्म के नाम कर देती हैं और आजीवन कुँवारी रहती हैं. इन्हें नन कहा जाता है. जब यह नन बनाने की शपथ लेतीं हैं तो एक औपचारिक समारोह में विवाह के वस्त्र धारण किए इनका ईसा मसीह से विवाह रचाया जाता है. किन्तु इस प्रथा के खिलाफ आजतक किसी सामाजिक संगठन ने याचिका दायर करने की हिम्मत नहीं जुटाई और न उच्च न्यायालय द्वारा कोई निर्देश जारी किया गया. क्योंकि मामला वेटिकन से जुड़ा है. वेटिकन के प्रतिनिधि बिशप चर्च के अधिनायकवाद के खिलाफ भला कौन बोल सकता है? जबकि अनेक नन चर्च के इस सिस्टम के अंदर दिन-रात घुट रही हैं.
इस घुटन को निकालते हुए कुछ समय पहले एक नन सिस्टर जेस्मी की आत्मकथा बाजार में आई थी. आमीन एक नन की आत्मकथा यह उनके अपने जीवन के अनुभवों की कथा थी. यह एक भयावह अनुभव हैं. बल्कि इतना भयावह अनुभव कि पढ़कर चर्च और पादरियों से चिढ़ हो जाए. अपने काल्पनिक पति जीसस के प्रति पूर्णतः समर्पित, सत्रह साल की उम्र में कॉन्वेंट में दाखिल हो जाने वाली और लंबे समय तक नन बनी रहने वाली सिस्टर जेस्मी ने जब खुली आँखों से अपने धर्म की बुराइयों को देखा तब उन्होंने कॉन्वेंट की चहारदीवारी तोड़कर बाहर निकलने का दुस्साहसिक फैसला ले लिया. वह मीडिया के सामने आईं और चर्च की खामियों पर खुलकर बोलीं, धवल वस्त्रों से सुसज्जित पवित्र माने जाने वाले पादरियों के वासना के उदाहरण के पेश किये तो ननों के समलैंगिक आचरण के बारे में खुलकर लिखा. उनका यह फैसला कहीं से भी क्षणिक आवेश का नतीजा नहीं था. लंबे समय तक वह इसमें बनी रहीं और इस शोषण को झेलती रहीं.
प्रभु जीजस को पति मानकर ईसाइयत के रास्ते स्वेच्छा से जाने वाली नन जेस्मी की आत्मकथा कैथोलिक धर्मसंघो के लिए एक भूचाल बन कर आयी थी, कहा जाता है आस्था का संस्था से संघर्ष पुराना है. जेस्मी का संघर्ष भी कुछ ऐसा ही है. कभी जीजस में पूरी आस्था डूबी जेस्मी जब परिवार की अनिच्छा,रिश्तेदारों के विरोध के बावजूद वह नन ही बनीं, जीजस को पति स्वीकार कर आजीवन ब्रह्मचर्य की शपथ ली किन्तु उसनें सपने में भी नहीं सोचा था कि उसका शोषण होगा और एक दिन भागकर अपने इसी भगवान से तलाक लेना पड़ेगा. लम्बे समय तक समलैंगिक शोषण की शिकार रहीं. एक भ्रष्ट पादरी द्वारा उनका यौन-शोषण हुआ. जिसके बाद पवित्रता के नाम पर चर्चो के अन्दर हो रहे पाप सिस्टर जेस्मी ने उजागर किये.
ईसाई समाज की धार्मिकता और शुचिता के इस्पाती पर्दों के पीछे छिपे कड़वे सच को सामने लानी वाली जेस्मी ही नहीं बल्कि इसी दौरान केरल की एक पूर्व नन मैरी चांडी ने आत्मकथा के जरिए कैथोलिक चर्चों में पादरियों द्वारा ननों के यौन शोषण पर से पर्दा हटाकर सच को बयाँ किया था अपनी आत्मकथा ननमा निरंजवले स्वस्तिमें सिस्टर मैरी चांडी ने लिखा है कि एक पादरी द्वारा रेप की कोशिश का विरोध किए जाने के कारण ही उन्हें 12 साल पहले चर्च छोड़ना पड़ा था. चर्च और उसके एजुकेशनल सेंटरों में व्याप्त अंधेरेको उजागर करने की कोशिश करने वाली सिस्टर मैरी ने लिखा कि चर्च के भीतर की जिंदगी आध्यात्मिकता के बजाय वासना से भरी थी. मैं 13 साल की आयु में घर से भागकर नन बनी बदले में मुझे शोषण और अकेलापन मिला. मेरी ने आगे लिखा है, ‘मुझे तो यही लगा कि पादरी और नन, दोनों ही मानवता की सेवा के अपने संकल्प से भटककर शारीरिक जरूरतों की पूर्ति में लग गए हैं. इन अनुभवों से आजिज आकर चर्च और कॉन्वेंट छोड़ दिया. मेरी के चर्च छोड़ने और इस सच्चाई को सामने रखने के बावजूद भी चर्चों में लगातार हो रहे इन घ्रणित कार्यों पर कोई लगाम न लग सकी.
एक के बाद एक नन के खुलासे के बाद भी पवित्रता के नाम पर यह कुप्रथा आज भी ढोई जा रही है. आखिर क्यों एक नन शादीशुदा नहीं हो सकती? दुनिया भर में फैली कुरूतियों पर शोर मचाने वाले ईसाई संगठन इस बात पर कब राजी होंगे कि एक महिला नन इन्सान है और उसका विवाह किसी मूर्ति के बजाय इन्सान से ही किया जाये? सब मानते है कि धर्म अपने मूल स्वरूप में कोई बुरी चीज नहीं है. विरोध वहाँ शुरू हो जाता है जहाँ धर्म की गलत व्याख्याओं के बल पर कोई किसी का शोषण करने लग जाता है और धार्मिक पाखंडों, धर्म की बुराइयों, और आडंबरों के खिलाफ लिखने वाले कलमकार आखिर ऐसे मामलों पर हमेशा मौन क्यों हो जाते है?
लेख - राजीव चौधरी 

आर्य महासम्मेलन देश के लिए जरुरी क्यों..?


यह सर्वविदित है कि 19 वीं सदी के इतिहास को जितनी बार भी निचोड़ा जायेगा उतनी बार ही आर्य समाज के समर्पण और बलिदान की धारा बहकर सामने आएगी या ये कहें उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास और साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले, देश और समाज पुनर्जीवित करने वाले आर्य समाज की गाथा के सामने सभी भारतीय आन्दोलनों की गाथा बोनी नजर आएगी. करीब 143 साल पहले भारत ही नहीं, विश्व क्षितिज पर ज्ञान के जिस आन्दोलन का आविर्भाव हुआ था. जिसके कारण भारत ही नहीं मारीशस, दक्षिण अफ्रीका, सूरीनाम बर्मा जैसे देशों में एक सामाजिक, धार्मिक राजनितिक क्रांति का उदय हुआ था. आज की दुनिया उस आन्दोलन को आर्य समाज के नाम से जानती है. भारत को आत्मगौरव, और चरित्र निर्माण का संदेश देने वाले इस सामाजिक आन्दोलन की लड़ाई आज भी उसी वेग से जारी है.

आज से 70 साल पहले आर्य समाज के आन्दोलन के कारण देश को पूर्ण स्वतन्त्रता तो मिली किन्तु धर्म को कुरूतियों और विसंगतियों से पूर्ण स्वतन्त्रता अभी तक नहीं मिल पाई. कारण आर्य समाज के सिपाही एक कुरूति, अंधविश्वास को खंडित करते तो धर्म के पाखंडी दूसरी कुरूति और अंधविश्वास खड़ी कर देते थे. अंत में इन विसंगतियों से किस तरह एकजुट होकर लड़ा जाये तो आर्य समाज के पूर्व विद्वानों ने वैचारिक मंथन कर सन् 1927 में आर्य महासम्मेलन की नीव रखी थी. जिसके उपरांत समय-समय पर आर्य समाज अलग-अलग देशों और स्थानों पर कार्यकर्ताओं को एकत्र कर निरंतर देश और विदेशों में अपनी संस्कृति अपने वैदिक धर्म का प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से आर्य महासम्मेलन आयोजित करता आ रहा है. इसी पावन कार्य को आगे बढ़ाते हुए एक बार फिर सार्वदेशिक सभा और दिल्ली सभा सामूहिक प्रयास से इस वर्ष 25 से 28 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय आर्य महासम्मेलन दिल्ली में होने जा रहा है.
बात केवल पाखंड और अंधविश्वास तक सीमित रहती तो शायद महासम्मेलन की उतनी आवश्यकता नहीं होती अंतरंग सभाओं में चर्चा कर इससे लड़ने की बात की जा सकती थी लेकिन आज तो चारों ओर अपने धर्म और संस्कृति के विरुद्ध एक षड्यंत्र सा रचा जा रहा है. किशोर-शिक्षा के नाम पर एक अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय चल पड़ा है, जो यौन-रोगों को रोकने के नाम पर भारत में ऐसी शिक्षा परोसी जा रही है मानो बच्चों को यौन-संबंध तो बनाना ही है. बस, जरा सुरक्षितबनाएं. आखिर इस मान्यता का आधार क्या है यही कि किशोर बच्चे यौन-संबंध के बिना नहीं रह सकते? यह स्थिति पश्चिमी संस्कृति में हो सकती है, जो ब्रह्मचर्य चेतना से अपरिचित है. हमारे यहाँ तो ऋषि मुनि इन सब बिमारियों से बचने के लिए ब्रह्मचर्य जैसी ठोस मजबूत चेतना से परिचित करा गये हैं.
दूसरा आज हमारे सामने हमारे बौद्धिक जीवन में नया युद्ध खड़ा कर दिया गया है अपनी मूलभूत शिक्षाओं की उपेक्षा करते हुए विदेशी भाषाओँ, वैचारिक फैशनों का अंधानुकरण चल पड़ा है. शिक्षा के पाठ्यक्रमो में विदेशी कहानियाँ विदेशी नायक खड़े किये जा रहे है. हमारे महापुरुषों और अनेक मनीषियों को लगभग विस्मृत कर दिया हैं. यहाँ तक कि समाज को दिशा देने वाले साहित्य पर भी आज अश्लीलता ने डेरा जमाया लिया हैं. सूचना क्रांति में अग्रणी भूमिका निभा रहे सोशल मीडिया जैसे प्लेटफार्म पर इन विचारों से भारतीय संस्कृति को हानि पहुंचाई जा रही है.
लड़ाई सिर्फ एक मोर्चे पर नहीं है आज हम अपनी संपूर्ण शिक्षा, विमर्श, पाठ्यचर्या आदि को उलटें, तो हमारे एतिहासिक नायकों की कही गयी बातों में एक भी शायद ही कहीं मिलें. फिर देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं, टेलीवीजन चैनलों की संपूर्ण सामग्री पर ध्यान दें जहाँ ये लिखा जाना चाहिए था कि वैदिक संस्कृति के साथ चलो आज वहां मोटे-मोटे अक्षरों में छापा जाता है कि कंडोम के साथ चलो! यह सब पढने में जितनी शर्म महसूस होती है. अब उतना ही लिखने में भी शर्म महसूस हो रही है लेकिन क्या करें जिस तरह आज ये सब परोसा जा रहा है तो शायद कल कुछ भी बचाने को हमारे पास शेष न रहे.
इस अंधानुकरण मानसिकता से हमारा घोर सांस्कृतिक पतन होता जा रहा है. इसी की परिणति बच्चों समेत सब को खुले व्यभिचार की स्वीकृति देने में हो रही है. सिनेमा, विज्ञापन आदि उद्योग हमारे बच्चों, किशोरों में ब्रह्मचर्य की उलटी गतिविधियों की प्रेरणा जगाते हैं. यह हमारे सबसे अग्रणी पब्लिक स्कूलों की शिक्षा है. महर्षि दयानन्द सरस्वती समेत सभी महापुरुषों की सारी बातें कूड़े में और विकृत भोगवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है. इसीलिए अधिकतर लोग भोग के अलावा नितांत उद्देश्यहीन जीवन जीते हैं. लोगों को सिर्फ उत्तेजक भोजन, उत्तेजक सिनेमा, उत्तेजक विज्ञापन, उत्तेजक संगीत, चित्र, मुहावरे आदि सेवन करने को परोसे जा रहे है.
एक ओर कथित बाबा देश धर्म के नाम पर हमारी प्राचीन वैदिक संस्कृति की गरिमा को तार-तार कर रहे है तो दूसरी तरफ इनके कारनामों का फायदा उठाकर विरोधी धर्मांतरण करने में लगे पड़े है. युवा बहनें भी इस धार्मिक कुचक्र का शिकार बनाई जा रही है. चारों ओर चुनोती है, धर्म से लेकर शिक्षा तक संस्कार से लेकर संस्कृति तक. सामाजिक उन्नति के मूलमंत्रों और सारतत्वों का खुलेआम दहन किया जा रहा है. बचाव का कोई सहारा नहीं दिख रहा है इस कारण इस डूबती संस्कृति को बचाने के लिए सिर्फ और सिर्फ आर्य समाज ही एक टापू के रूप में दिखाई दे रहा है. 
देश ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रहा है, त्यों-त्यों सामाजिक -समस्या गहरी और व्यापक हो रही है. हमारी उन्नति के मार्ग में ऐसे काफी विघ्न हैं. विवादों के बाजार में राजनीती सर चढ़कर बोल रही है. छुट-मूट नेता चुनाव जीतने के लिए धर्म के नाम पर भाषण दे जाते है लेकिन कितने लोग मानते है कि उन्हें अपनी राजनीति से ज्यादा धर्म से प्यार हो? आज एक आर्य समाज ही हैं जो स्वदेश के हितार्थ में सदा कमर कसे तैयार रहता हैं जिसकी अपने पूर्वजों महापुरुषों और अपनी वैदिक संस्कृति पर आंतरिक श्रद्धा और भक्ति है,  किन्तु ये काफी नहीं है हमारी लड़ाई लम्बी है जो सभी आर्यों के सहयोग से पूर्ण हो सकती है. हमारी आध्यात्मिकता और देश ही हमारा जीवनरक्त है. यदि यह साफ बहता रहे, यदि यह शुद्ध है तो सब कुछ ठीक है. चाहे देश की निर्धनता ही क्यों न हो, यदि खून शुद्ध है, तो संसार में हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा. यदि इस खून में ही व्याधि उत्पन हो गयी तो क्या होगा! यह आप स्वयं अनुमान लगा सकते है. इन सब विसंगतियों, कुप्रथाओं, अंधविश्वासो से हो रही सांस्कृतिक हानि से किस प्रकार बचना है कैसे इस देश को पुन: राम और कृष्ण के विचारों भूमि बनाना है. किस प्रकार महर्षि देव दयानन्द जी के सपनों को पूरा करना है. यही सब विचार करने हेतु अंतर्राष्ट्रीय आर्य महासम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है. आशा है आप सभी लोग देश-विदेश के जिस भी कोनें में होंगे इस महासम्मेलन में हिस्सा बनकर अपने पूर्ण सहयोग से देश और समाज हित के इस कार्य में अपनी वैचारिक आहुति जरुर देंगे तथा अन्य लोगों को प्रेरित भी करेंगे...
लेख - राजीव चौधरी 

चन्द्र ग्रहण के बाद अब क्या होगा ?


27 जुलाई की रात गुरु पूर्णिमा पर सदी का सबसे लंबा चंद्र ग्रहण लगा। इस चंद्र ग्रहण की अवधि 3 घंटे 55 मिनट रही। ग्रहण रात 11 बजकर 54 मिनट से शुरू हुआ जो 28 जुलाई की सुबह 3 बजकर 49 मिनट पर समाप्त हो गया. लेकिन 28 जुलाई की सुबह समस्त न्यूज चैनलों पर ज्योतिषियों की भरमार थी। विज्ञान के अनुसार यह एक घटना खगोलीय थी पर जिस तरीके से ये ज्योतिषी आम मनुष्य के जीवन पर उसके परिणाम और प्रभाव बता रहे हैं उसे सुनकर लग रहा था आज चंद्रमा किसी खगोलीय घटना से नहीं बल्कि कथित ज्योतिषों से डरकर इधर-उधर छिप गया हो।

विज्ञान कहता है ये स्थिति तब उत्पन्न होती है जब सूर्य, पृथ्वी और चांद लगभग एक सीधी रेखा में आते हैं। इस स्थिति में सूरज की रौशनी चांद तक नहीं पहुंच पाती है और चांद पैनंबरा की तरफ जाता है तो वे हमें धुंधला सा दिखाई देने लगता है। वैज्ञानिक भाषा में पैनंबरा को ही ग्रहण कहा जाता है। दुनिया के लिए भले ही यह घटना अन्तरिक्ष विज्ञान से जुड़ी हो पर भारत के लिए यह किसी धार्मिक उत्सव से कम नहीं होती। लम्बे-लम्बे तिलक लगाये, मुगेम्बो टाइप कोट पहने पंडित जी इसका असर देश के बजट की तरह पेश कर रहे थे। बस अंतर इतना है, बजट में उच्च-माध्यम और निम्न वर्ग का ध्यान रखा जाता है यहाँ नाम और राशि के हिसाब से भय बांटा जा रहा है।

बता रहे हैं कि पुराणों के अनुसार राहु ग्रह चन्द्रमा और सूर्य के परम शत्रु हैं। जब सागर मंथन से प्राप्त अमृत कलश प्राप्त हुआ तो राहु अमृत पीने के लिए देवताओं की पंक्ति में बैठ गया लेकिन सूर्य और चन्द्रमा के इशारे पर भगवान विष्णु राहु को पहचान गए और अमृत गटकने से पहले ही सुदर्शन चक्र से राहु का गला काट डाला। इस घटना के बाद से ही समय-समय पर राहु चन्द्रमा और सूर्य को खाने की कोशिश करता है लेकिन कभी खा नहीं पाता क्योंकि कटे सिर की वजह से राहु के मुंह में जाकर सूर्य और चन्द्रमा पुनः मुक्त हो जाते हैं। जबकि विज्ञान का मानना है कि जब सूर्य चन्द्र के मध्य पृथ्वी आ जाती है तो चन्द्रग्रहण लग जाता है।

आधुनिक फलित ज्योतिष विद्या या कहो लूट विद्या के अनुसार माना जाता है कि ग्रहण का प्रभाव काफी लम्बे समय तक रहता है और इसका प्रभाव कम करने के लिए स्नान, दान और धार्मिक कार्य करने के लिए कहा जाता है। इस दिन किए गए दान-पुण्य से मोक्ष का द्वार खुलता है, साथ ही ये भी बता रहे थे कि दान-पुण्य करने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि जो भी करना हो वह फला समय से पहले कर लें। एक महाराज बता रहे है कि रहिए सावधान वरना आपकी लव लाइफ पर इतना बड़ा असर डाल सकता है चन्द्रग्रहण,  तो दुसरे ज्योतिष महाराज बता रहे हैं कि इस चन्द्र ग्रहण का हर राशि पर अलग प्रभाव होगा। किस राशि के लोगों को कितना दान करना चाहिए वे बता रहे थे फला राशि वाले मंगल से संबंधित द्रव्यों गुड़ और मसूर की दाल का दान करें, इस राशि वाले का धन व्यर्थ व्यय होगा, मानसिक चिंता से बचने के लिए श्री सूक्त का पाठ करें और मंदिर में दिल खोलकर दान करें या इस राशि वाले शिव उपासना करें, ग्रहण के बीज मंत्र का जप करें। वरना रोगों में वृधि होगी, बने काम बिगाड़ जायेंगे, शारारिक कष्ट होगा, संतान सुख नहीं होगा आदि-आदि।


ये लोग हर एक अंधविश्वास फैलाने से पहले यह कहना नहीं भूल रहे थे कि शास्त्रों के दिशानिर्देश के अनुसार ये करना चाहिए वो करना चाहिए। लेकिन ऐसा झूठ और भय फैलाने का कौन सा शास्त्र आज्ञा देता है। वेद में तो ऐसा कुछ नहीं है? न गीता में न किसी उपनिषद में फिर वह कौन सा शास्त्र है? शायद यह इनका काल्पनिक शास्त्र होगा। 
दरअसल हमारी प्राचीन ज्योतिष विद्या समय की गणना का वैज्ञानिक रूप है। जिसकी सराहना करने और समझने के बजाय लोग उसके अन्धविश्वास से भरे व्यापारिक रूप का ज्यादा समर्थन करते हैं। आखिर इस पाखण्ड की शुरुआत कहाँ से हुई? प्राचीन समय में राजा होते थे और राजाओं के बड़े-बड़े राजसी शौक थे, उनका कोई भी कार्य साधारण कैसे हो सकता है तो वे हर कार्य के लिए ज्योतिषियों से शुभ मुहूर्त निकलवाते थे। अब आज के समय में सभी के लिए यह ज्योतिष की सुविधा उपलब्ध है हर चौराहे पर ज्योतिषी उपलब्ध है तो सभी इसका आनंद उठा रहे हैं, आज सभी राजा हैं। लेकिन आज के समय में ज्योतिष विद्या का पूरी तरह से बाजारीकरण हो चुका है अब बहुत से पाखण्डी आपको डरा कर अपना उत्पाद आपको बेच रहे हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार फेयर एण्ड लवली वाले आपको गोरा कर देने का दावा करते हैं।


इस ढोंग का  सबसे बड़ा नुकसान यह है की इंसान यह भूल जाता है कि जीवन, होनी और अनहोनी, सुख और दुःख, कभी अच्छा तो कभी बुरा इन दोनों पहलुओं को लेकर आगे बढ़ता है। दूसरा एक नुकसान यह भी है कि यदि व्यक्ति से कोई गलती हो भी जाए तो वह भाग्य या ग्रहों को दोषी ठहरा देता है बजाय इसके कि वह उस पर आत्ममंथन करके उसके मूल कारण को समझे। जिससे भविष्य में उसी गलती के पुनरावृत्ति होने की सम्भावना बढ़ जाती है। मतलब ऐसे किसी भी नियम को स्थापित करने के पीछे मुख्य रूप से दो बातें प्रभावी होती हैं, पहली-भय और दूसरी-लोभ या लालच। धर्म के नाम इन दोनों बातों का समावेश कर दिया गया है। 

इस सत्य से शायद ही कोई इंकार करे कि हम जब भी किसी संकट में घिर जाते हैं तो अपने से सक्षम का सहारा तलाशते हैं, विशेष रूप से अपने से बड़े का। दैवीय शक्ति की मान्यता के पीछे भी यही उद्देश्य रहा होगा कि जब इन्सान किसी मुसीबत में घिर जाये तो उसका स्मरण करके खुद में एक तरह का विश्वास पैदा कर सके। लेकिन इस मान्यता को भी धार्मिक कर्मकांडियों ने अपनी गिरफ्त में लेकर लोगों के सामने भगवान का भय जगाना शुरू कर दिया। मुसीबतों से बचाने का कारोबार करना शुरू कर दिया। हर समस्या का समाधान निकालना शुरू कर दिया। अशिक्षितों की कौन कहे जब पढ़े-लिखे लोग ही ढ़ोंगियों के चक्कर में फंसकर धर्म को रसातल की ओर ले जाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय द्रष्टि से बनाई गई मान्यताओं को अन्धविश्वास के सहारे पल्लवित-पुष्पित करने लगे। आज हालत ये है कि अधिसंख्यक व्यक्ति या तो घनघोर तरीके से धर्म के कब्जे में हैं। इसके लिए हमें अंध-विश्वास से बाहर आना होगा, अंध-श्रद्धा से बाहर आना होगा, अंध-व्यक्ति से बचना होगा। आने वाली पीढ़ी को उन्नत ज्ञान वेद का मार्ग समझाना होगा वरना अंधविश्वास के इस जाल से न धर्म बचेगा न विज्ञान।
अंधविश्वास निरोधक वर्ष 2018 दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा
-विनय आर्य


भारत माता का महान सपूत था अमर शहीद ऊधम सिंह


13 मार्च 1940 की उस शाम थी लंदन का कैक्सटन हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था. मौका था ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक का. हॉल में बैठे कई भारतीयों में एक ऐसा भी था जिसके ओवरकोट में एक मोटी किताब थी. यह किताब एक खास मकसद के साथ यहां लाई गई थी. इसके भीतर के पन्नों को चतुराई से काटकर इसमें एक रिवॉल्वर रख दिया गया था.


बैठक खत्म हुई. सब लोग अपनी-अपनी जगह से उठकर जाने लगे. इसी दौरान इस भारतीय ने वह किताब खोली और रिवॉल्वर निकालकर बैठक के वक्ताओं में से एक माइकल ओ’ ड्वायर पर फायर कर दिया. ड्वॉयर को दो गोलियां लगीं और पंजाब के इस पूर्व गवर्नर की मौके पर ही मौत हो गई. हाल में भगदड़ मच गई. लेकिन इस भारतीय ने भागने की कोशिश नहीं की. उसे गिरफ्तार कर लिया गया. ब्रिटेन में ही उस पर मुकदमा चला और 31 जुलाई 1940 को उसे फांसी हो गई. इस क्रांतिकारी का नाम उधम सिंह था.

इस गोलीकांड का बीज एक दूसरे गोलीकांड से पड़ा था. यह गोलीकांड 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुआ था. इस दिन अंग्रेज जनरल रेजिनाल्ड एडवार्ड हैरी डायर के हुक्म पर इस बाग में इकट्ठा हुए हजारों लोगों पर गोलियों की बारिश कर दी गई थी. बाद में ब्रिटिश सरकार ने जो आंकड़े जारी किए उनके मुताबिक इस घटना में 370 लोग मारे गए थे और 1200 से ज्यादा घायल हुए थे. हालांकि इस आंकड़े को गलत बताते हुए बहुत से लोग मानते हैं कि जनरल डायर की अति ने कम से कम 1000 लोगों की जान ली. ड्वॉयर के पास तब पंजाब के गवर्नर का पद था और इस अधिकारी ने जनरल डायर की कार्रवाई का समर्थन किया था.

उधम सिंह भी उस दिन जलियांवाला बाग में थे. उन्होंने तभी ठान लिया था कि इस नरसंहार का बदला लेना है. जनरल डायर को मारने के बाद बैरिक्सटन जेल में रहे ऊधम सिंह को पूरा आभास था कि जल्द ही उन्हें फांसी दी जाएगी और उन्हें इसकी जरा भी परवाह नहीं थी। ऊधम सिंह फांसी से इतने बेखौफ थे कि वो फांसी के फंदे को वरमाला के रूप में देख रहे थे। जेल में रहते हुए उन्हें इस बात का मलाल भी था कि उनके मुकद्मे पर भारी पैसा खर्च हो रहा है और उन्हें बचाने की कोशिश नहीं की जाए।

उक्त जज्बात खुद ऊधम सिंह ने अपने हस्तलिखित पत्रों में जाहिर किए हैं। अंग्रेजी में लिखे इन पत्रों को पंजाबी में अनुवाद करके महान शहीद ऊधम सिंह के पैतृक घर में लगाया गया है और इन पत्रों को पढ़कर लोगों में देशभक्ति की भावना पैदा हो रही है। 
फांसी का फंदा चूमने से महज पौने चार माह पहले बैरिकस्टन जेल से लंदन में मित्र शिव सिंह जौहल को लिखे पत्र में ऊधम सिंह ने कहा कि मुझे मालूम है कि जल्द ही मेरी शादी मौत से होने वाली है। मैं मौत से कभी नहीं डरा और मुझे कोई अफसोस नहीं हैं। क्योंकि मैं अपने देश का सिपाही हूं। दस वर्ष पहले मेरा दोस्त मुझे छोड़ गया था। मरने के बाद मैं उसे मिलूंगा और वह भी मेरा इंतजार कर रहा होगा।

अगर आपको पता है कि मेरी मदद कौन कर रहा है तो कृपा करके उन्हें ऐसा करने से रोकें। मुझे खुशी होगी। यह पैसा जरूरतमंदों की पढ़ाई पर खर्च करें। इसके अलावा कई अन्य पत्रों में ऊधम सिंह ने उस वक्त के देश की दयनीय हालात बयां की है। इसके लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद को जिम्मेदार ठहराया है। शहीद ऊधम सिंह ने इन पत्रों में देश प्रेम का जज्बा कूटकूट कर भरा है। आज के नौजवानों को इस जज्बे से अवगत करवाने की जरूरत है। 31 जुलाई आज के दिन जलियांवाला बाग हत्याकांड के दोषी जनरल डायर को मौत के घाट उतारने वाले भारत के मां के वीर सपूत महान क्रांतिकारी अमर शहीद ऊधम सिंह जी की पुण्यतिथि पर आर्य समाज की विनम्र श्रद्धांजलि..

आर्य समाज

अहंकार : अभिमान क्या है


संसार में लोगों की अनगिनत इच्छायें होती हैं और उनकी पूर्ति के लिए व्यक्ति जीवनभर प्रयत्नशील रहता है । जब इन इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है और व्यक्ति जब उन योग्यता आदि से युक्त हो जाता है तब व्यक्ति के अन्दर अभिमान उत्पन्न हो जाता है, इसी अभिमान को ही अहंकार कहा जाता है


अहंकार एक पदार्थ का नाम भी है जिसे ईश्वर ने हम सब जीवात्माओं के लिए इस सृष्टि के निर्माण के समय बनाया है । सांख्य दर्शन के अनुसार ईश्वर जब सत्व-रज-तम रूप मूल-प्रकृति से सृष्टि की रचना करता है तो पहली वस्तु महतत्व अर्थात् बुद्धि नमक तत्व को बनाता है जिसके माध्यम से हम किसी भी विषय में निर्णय करते हैं । उसके पश्चात् इस अहंकार नामक वस्तु का निर्माण करता है जिसके माध्यम से हम अपने आपको अनुभव करते हैं । यदि ईश्वर यह अहंकार ही बनाकर न दे तो हम इतना भी जान नहीं सकते कि, - "मैं हूँ" । अपने आप को जानने का यह एक साधन मात्र है।

इस साधन के अतिरिक्त अहंकार एक और ऐसी वस्तु है जब व्यक्ति मिथ्याभिमान के कारण यह कहता है कि "मैं ही हूँ" । जिसको हम अभिमान, घमण्ड, गर्व और अहंकार आदि शब्दों से कहते या व्यवहार करते हैं ।
अहंकार का मुख्य कारण है अविद्या, अज्ञानता । वास्तव में हमें अपने स्वरुप के विषय में अज्ञानता रहती है और अपने आप के प्रति व्यक्ति अधिक आसक्त हो जाता है, कुछ भी भौतिक उन्नति कर लेता है तो उसको व्यक्ति अपने साथ जोड़ लेता है और उसको अपना ही स्वरुप वा स्वभाव मान लेता है । यदि किसी के पास क्रोध और अहंकार (अभिमान) है तो उसको किसी दूसरे शत्रुओं की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यही उस व्यक्ति को समूल नाश करने के लिए पर्याप्त हैं । क्योंकि किसी ने कहा भी है कि "घमण्ड न करना जिंदगी में तक़दीर बदलती रहती है, शीशा वही रहता है बस तस्वीर बदलती रहती है ।
यदि हम एक प्याज के बारे में विचार करते हैं तो, जब हम उसे छीलते हैं, तो उसमें से एक के बाद एक परत निकलती जाती है, क्योंकि उसके अंदर कोई गूदा ही नहीं होता है। इससे पृथक उसका अपना कोई अलग स्वरुप होता ही नहीं है, इस प्रकार जीवात्मा का जो कुछ भी अर्जित किया हुआ है वह सबकुछ उसके अपने स्वरुप से अलग ही है और सदा अलग ही रहेगा, वह सब कुछ कभी भी उसका अपना हो ही नहीं सकता । जिस पर हम घमण्ड करते या अहंकार महसूस करते हैं, अर्थात् हम उन उपलब्धियों से, योग्यताओं से, सफलताओं से अपने आपको जुड़ा हुआ मानते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के पास अपने-अपने क्षेत्र में काम, सफलता, परिवार या प्रसिद्धि, पद-प्रतिष्ठा, धन-संपत्ति, मान-सम्मान आदि से संबंधित मिथ्याभिमान, गर्व, घमण्ड या अहंकार होता है। अहंकार एक व्यक्ति या दूसरे व्यक्तियों के बीच अंतर पैदा करता है। प्रत्येक व्यक्ति बिना नाम और पहचान के ही पैदा होता है। वह भूल जाता है कि - वह मूल रूप से ईश्वर की ही एक रचना है और जो कुछ भी योग्यता प्राप्त की है वह सब इसी सृष्टि में ही ईश्वर की कृपा से प्राप्त की है ।
व्यक्ति अहंकार से ग्रस्त क्यों होता ? उसके मुख्य कारण हैं मूर्ख व्यक्ति को अल्प ज्ञान की प्राप्ति हो जाना, अन्यायी-अधर्मी को शारीरिक बल और कंजूस व्यक्ति को धन-वैभव की प्राप्ति हो जाना । लेकिन जो व्यक्ति इन सब योग्यताओं, उपलब्धियों, सफलताओं को प्राप्त करते हुए भी, वैदिक योग्य गुरुओं के सानिध्य में रहकर आध्यात्मिक शुद्धज्ञान प्राप्त कर तदनुसार व्यवहार करता है और वैदिक शास्त्रों का अध्ययन, ईश्वर के प्रति समर्पण, ईश्वर के गुण तथा महिमा का स्मरण, मन्त्रों का जप करना तथा अपने से अधिक योग्य व्यक्तिओं को देखना आदि कार्य करता है, तो उसमें अहंकार बहुत कम होता है अथवा धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है । जो योगाभ्यासी होता है वह सबकुछ प्राप्त ज्ञान,बल, सामर्थ्य, योग्यता आदि का मूल स्रोत ईश्वर को ही स्वीकार करते हुए अपने वास्तविक स्वरुप को स्मरण करते हुए अभिमान को छोड़कर विनम्रता से युक्त हो जाता है वही व्यक्ति अहंकार से मुक्त हो जाता है ।
यदि हम में किसी विषय को लेकर अधिक अहंकार या अभिमान भरा हुआ है, तो उसी मिथ्या अहंकार के कारण कभी हमें अत्यधिक दु:ख और हानि का समाना भी करना पड़ता है। यदि किसी एक सुन्दर व्यक्ति या महिला की समय के साथ-साथ सुन्दरता नष्ट होती जाती है और वृद्धावस्था आती जाती है या बीमार हो जाती है तो वह उसे अपने अभिमान के कारण स्वीकार ही करना नहीं चाहता या चाहती और दु:खी हो जाते हैं । और इसी प्रकार अगर कोई धन-संपन्नता से युक्त व्यक्ति की अचानक किसी कारण वशात् ऐश्वर्य-सम्पन्नता नष्ट हो जाये तो वह उस स्थिति को सहन नहीं कर पाता और इसके लिए अत्यन्त दु:खी हो जाता है, क्योंकि उसने अपनी अहंकार से मिथ्या-मान्यता बना रखी है कि मैं ही सबसे संपन्न व्यक्ति हूँ और सदा ऐसा ही रहूँगा, कभी भी विपन्नता नहीं आएगी । कभी-कभी अहंकार की वजह से व्यक्ति को जो मानसिक दु:ख प्राप्त होता है वह शारीरिक कष्ट से भी कहीं ज्यादा असहनीय होता है।
यह अहंकार या अभिमान एक ऐसा दोष है कि बहुत सूक्ष्मभाव से भी व्यक्ति के अन्दर घर किया हुआ रहता है । जब व्यक्ति योगाभ्यास करते हुए ऊँची स्थिति को प्राप्त कर लेता है और अनेक प्रकार के दोषों को छोड़ देता है, शांत, सरल, विनम्र, इर्ष्या-द्वेष रहित, क्रोध-रहित बन जाता है तो भी उसको अभिमान हो जाता है कि हमने ऐसी ऊँची स्थिति को प्राप्त कर लिया है । अतः इस दोष को बहुत ही सूक्ष्मता से निरीक्षण करके ईश्वर की सहायता से सब संस्कारों को नष्ट करना होता है, उसके पश्चात् ही हम ईश्वर के आनन्द में मग्न होने के अधिकारी बन पाते हैं ।
लेख - आचार्य नवीन केवली