Wednesday 27 February 2019

देश में क्यों बढ़ रही है आत्महत्या


बड़ा आसान है न खुद को मिटाना खुद पर तेल छिड़ककर आग लगा लो, छत से कूद जाओ या फिर पंखे में रस्सी डालकर लटक जाओ, इतना नहीं हो सकता तो ट्रेन की पटरी पर चले जाओ, ब्लेड से नस काट लो. और भी न जाने कितने तरीके हैं जीवन ख़त्म करने के. घर में जरा सी बात हुई या अपनी पसंद का काम न हुआ तो चलो आत्महत्या कर लो, पत्नी नाराज है या पति से कहासुनी हो गयी चलो आत्महत्या कर लो जैसे जिन्दगी, जिन्दगी न होकर कोई मजाक हो हर बात में आत्महत्या ये आज के भारत की कहानी हो गयी.

कई रोज पहले घटना ही ले लो बांदा जिले की बबेरू कोतवाली के पतवन गांव में 22 फरवरी की रात 28 साल के विकास ने आत्महत्या कर ली. विकास की शादी 21 फरवरी को हुई थी. विकास का शव तो पोस्टमॉर्टम के लिए चला गया लेकिन सवाल घर और समाज में जरुर चीख रहे है कि आखिर ऐसा क्या कारण हुआ जो पहले दिन शादी के सात फेरों पर सात जन्मों के बंधन और रिश्ते को निभाने की शपथ लेकर उठे विकास ने अगली ही रात खुद को मिटा डाला.
वैसे देखें तो हर रोज अखबारों और न्यूज चैनलों में ऐसी खबरें आम होती हैं कि शादी का प्रस्ताव ठुकराए जाने से आहत एक प्रेमी ने खुदकुशी कर ली, शादी के बाद महिला ने आग लगाकर आत्महत्या कर ली या शादी के बाद युवक ने जहर खाकर जान दी और प्रेम प्रसंग के चलते नवविवाहिता ने पंखे से लटककर जान दी 23 मई 2018 की बात है साउथ द्वारका में शादी के पंद्रह दिन बाद ही आपसी झगड़े में पत्नी ने चुन्नी से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी झगड़े की वजह मामूली कहासुनी थी. 18 जुलाई 2018 को तमिल फिल्म इंडस्ट्री की जानी मानी एक्ट्रेस प्रियंका ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी प्रियंका ने अपने सुसाइड नोट में घरेलू कलह इसकी वजह लिखी थी
पिछले वर्ष जारी इस रिपोर्ट दावा किया गया है कि भारत में आत्महत्या करने वालों में किसान नहीं बल्कि सबसे ज्यादा युवा हैं. आत्महत्याओं के मामलों को ठीक से जान लेने का यह बिलकुल सही समय है. हमारे देश में हर साल करीब एक लाख लोग आत्महत्या करते हैं. 1994 में जहां 89195 आत्महत्याओं के मामले रिकार्ड किए गए, वो 2004 में 113697 हो गए और 10 साल बाद यानि 2014 में कुल 131666 मामले सामने आए. नेशनल हेल्थ प्रोफाइल की इस रिपोर्ट के अनुसार आत्महत्या की घटनाओं में 15 साल में 23 प्रतिशत का इजाफा हुआ. साल 2015 में एक लाख 33 हजार से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की जबकि 2000 में ये आंकड़ा एक लाख आठ हजार के करीब था.
आत्महत्या करने वालों में 33 प्रतिशत की उम्र 30 से 45 साल के बीच थी, जबकि आत्महत्या करने वाले करीब 32 प्रतिशत लोगों की उम्र 18 साल से 30 साल के बीच थी.
अब सवाल ये उठता है कि आखिर क्या कारण कि जीवन से इतनी बड़ी संख्या में लोग भाग क्यों रहे है. परिस्थितियों से जूझने का जज्बा समाप्त हो गया या रिश्तों की जिम्मेदारी से भाग रहे है. या फिर अपरिपक्वता के कारण आज का युवा आत्महत्या को ही एक बेहतर विकल्प समझने लगा है. विवाह के उपरांत हुई आत्महत्याओं में अनेकों कारण ये पाए जाते कि लड़की या लड़के के विवाह से पहले प्रेम सम्बन्ध होते है पर विवाह परिवारजनों की इच्छा से होता है पारिवारिक दबाव में हुई शादियाँ भी कई बार आत्महत्या का कारण बन जाती है.
इसके अलावा आधुनिक जीवनशैली और दौड़-भाग भरी जिंदगी के कारण बढ़ता तनाव, पारिवारिक उलझनें आर्थिक कारण जैसी अनेकों परेशानी कई बार सामने आ जाती है. पहले बड़े परिवारों में ऐसी परेशानियों का मिलकर सामना किया जाता था लेकिन आज परिवार छोटे हो गये कई बार तनाव के समय मानसिक सहारा नहीं मिल पाता तो इससे बचने के लिए जेहन में आत्महत्या का ख्याल आता है. उन्हें ये एहसास होने लगता है कि अब बस बहुत हो गया, और खुद को खत्म कर लेते हैं.
इसका एक बहुत ही आसान उदाहरण हम विद्यार्थियों में पाते हैं. जब कड़ी मेहनत के बाद भी वे परीक्षा में फेल या फिर उनके नंबर काफी कम आते हैं तो उन्हें यह एक बड़ी गलती लगने लगती है. तब उन्हें पल-पल अपनी गलती का डर सताता है बाद में यही डर बढ़ता हुआ उन्हें आत्महत्या की ओर ले जाता है. जबकि उन्हें समझना होगा कि गलती  सुधारी जा सकती है, लेकिन एक बार उनकी जिंदगी खत्म हुई तो वह वापस नहीं आएगी.
अपमान एक ऐसा शब्द है जिसे कई लोग बेहद गंभीरता से लेते है उनका अंतर्मन टूट जाता है. वह काफी उदास हो जाते हैं, उन्हें दुनिया के सामने जाने से भी शर्म आने लगती है इस कारण से भी यह कदम उठा लेते है.
भावनाओं के चलते आत्महत्या का फैसला लेते हैं, शारीरिक शोषण की तरह ही किसी की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना, आत्महत्या का एक बड़ा कारण बन जाता है. इसके अलावा पिछले दिनों एक बच्चे ने इस कारण खुदकुशी की  क्योंकि उसके माता-पिता उसे समय नहीं देते थे. एक दूसरी घटना में एक मां और बेटी ने आत्महत्या इस वजह कर ली क्योंकि शहर के एक दबंग ने बेटी को उठाने की धमकी दी थी. और भी न जाने कितने ऐसे कारण जो हम सबके सामने एक सवाल छोड़ जाते हैं. कहते हैं आत्महत्या करने वाले बेहद दुखी और लाचार होते हैं जिसका दर्द सिर्फ उसे करने वाला ही जानता है, पर क्या आत्महत्या उस दर्द को खत्म कर देती है. लेकिन ये सच नहीं है असल में वो आत्महत्या दर्द किसी और को दे देती है. गुस्सा, मजबूरी, नासमझी या फिर सोच समझकर की गई आत्महत्या का हश्र सिर्फ दुख ही होता है जो मरने वालों के अपनों को हमेशा के लिए मिल जाता है. जाहिर है, मौजूदा व्यवस्था में विरोध की सामूहिक अभिव्यक्तियों के दायरे जितने संकुचित होते जाएंगे, अपराध और आत्महत्याओं में उतनी ही बढ़ोतरी की आशंका बनी रहेगी.
विनय आर्य 

अंधविश्वास और पाखण्ड पर कानून जरुरी क्यों..?


महाराष्ट्र और कर्नाटक भारत के ऐसे दो राज्य है जिनमें अंधविश्वास निरोधक कानून लागू है। दोषी पाए जाने पर कम से कम एक साल की सजा और 5000 तक का जुर्माना किया जाएगा। इस बिल में काला जादू, जादू टोना, ज्योतिषीय भविष्यवाणियों को भी शामिल किया गया है। इस बिल के तहत इस तरह के अंधविश्वास भरे तरीकों जैसे बलि देना, बीमारी ठीक करने के लिए हिंसक तरीके अपनाना, काला जादू, ख़ुद को चोट पहुंचाने जैसे अंधविश्वासों, ज्योतिष के आधार पर भविष्यवाणियों को अपराध माना जाएगा
राज्यों का मानना है कि नागरिकों में वैज्ञानिक सोच और जानने−समझने का जज़्बा विकसित किया जा सके आस्था और मान्यता के नाम पर होने वाले गैर कानूनी इरादों पर इससे लगाम लगेगी। भारतीय समाज में लंबे वक्त तक बैठे धार्मिक अंधविश्वास ने अपनी पैठ बनाई हुई थीं और अपनी जड़ें काफी गहरी करता चला गया। ऐसे में बाकी राज्यों को भी आगे आना होगा।
एक तरह से राष्ट्रीय स्तर पर भी इस कानून की जरूरत है। आखिर जरूरत क्यों है, इसे समझना बड़ा जरुरी है। यदि यह कानून पूरे देश में लागू नहीं किया गया तो 21 वीं सदी का विज्ञान हवा में रह जायेगा और यह अंधविश्वास रूपी दीमक अन्दर ही अन्दर समाज के विवेक को चट कर जाएगी क्योंकि लोग जागरूकता के अभाव में अंधश्रद्धा को ही धर्म और यहां तक जीवन का कर्त्तव्य मान बैठते हैं। परंपरा के नाम पर अनेकों अंधविश्वास है इन्हें धर्म का आचरण करने वाले कथित बाबा बढ़ावा दे रहे है
अंधविश्वास वह बीमारी है जिससे हमनें अतीत में इतना कुछ गवांया। इसकी पूर्ति करने में पता नहीं हमें कितने वर्ष और लगेगें। हम जब इतिहास उठाते हैं भारत की अनेकों हार का कारण जानना चाहते तो उसमें सबसे बड़ा कारण हमेशा अंधविश्वास के रूप में सामने पाते हैं। याद कीजिए सोमनाथ के मंदिर का इतिहास जब सोमनाथ मंदिर का ध्वंस करने महमूद गजनवी पहुंचा था। तब सोमनाथ मंदिर के पुजारी इस विश्वास में आनन्द मना रहे थे कि गजनवी की सेना का सफाया करने के लिए भगवान सोमनाथ जी काफी है। यदि इस अंधविश्वास में न रहे होते और एक-एक पत्थर भी उठाकर गजनवी की सेना पर फेंकते तो सोमनाथ का मंदिर बच जाता और भारतीय धराधाम का सम्मान भी।
अन्धविश्वास, पाखण्ड एवं कुरीतियां अथवा मिथ्या परम्पराओं के कारण देश को अनेक विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ा और आज भी देश की धार्मिक व सामाजिक स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। इस स्थिति को दूर कर पाने के लिए देश से अज्ञान व अन्धविश्वासों का समूल नाश करना जरुरी हैं वरना धार्मिक तबाही पिछली सदी से कई गुना बड़ी होगी।
दुर्भाग्य आज सूचना क्रांति और तमाम तरक्की के इस दौर में भी यह संघर्ष जारी है, पाखंड जारी है, अंधविश्वास जारी हैं और आज ये लुटेरे अपने नये रूप धारण कर नये हमले कर रहे है। कोई बंगाली बाबा बनकर, भूत-प्रेत वशीकरण के नाम पर, कोई नौकरी दिलाने के बहाने यहाँ तक कि परीक्षा में अच्छे अंक हासिल करने के टोटके भी बंगाली बाबा बता रहे हैं।
नित्य नये अंधविश्वास खड़ें हो रहे हैं। आज यह लोग झाड़-फूंक के जरिये गर्भ में पल रहे शिशु के लिंग का पता लगाने और उसे बदलने के दावें कर महिलाओं को आसानी से शिकार बना रहे है, बहुतेरे मामलों में महिलाओं और लड़कियों के यौन शोषण को अंजाम दिया जाता रहा हैं। धार्मिक संस्कारों और ईश्वरीय शक्ति के नाम पर गैर कानूनी तरह से लोगों का इलाज करना और डराया धमकाया जाता रहा है।
यदि देखा जाये तो आज समाज में अंधविश्वास का बाजार इतना बढ़ चूका है कि जिसकी चपेट में पढ़े लिखें भी उसी तरह आते दिख रहे है जिस तरह अशिक्षित लोग। जबकि यह लंबे संघर्ष के बाद मानव सभ्यता द्वारा अर्जित किए गए आधुनिक विचारों और खुली सोच का गला घोंटने की कोशिश है। यदि सरकार राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाकर अंधविश्वास फैलाने वाले तत्वों के खिलाफ, उसका प्रचार-प्रसार कर रहे लोगो के खिलाफ एक्शन लेने का प्रावधान बना दे, आज भी काफी कुछ समेटा जा सकता है। यह सच है कि कानून तो अमल के बाद ही समाज के लिए उपयोगी बन पाता हैं, किन्तु फिर भी उम्मीद है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में पहुंच चुके हमारे समाज को ऐसे ऐतिहासिक कानून की आंच में विश्वास और अंधविश्वास के बीच अंतर समझने में कुछ तो मदद मिलेगी। हमारा अतीत भले ही कैसा रहा हो पर आने वाली नस्लों का भविष्य तो सुधर ही जायेगा।
विनय आर्य  


Wednesday 20 February 2019

क्या वेटिकन को पादरियों के पाप स्वीकार हैं?

साल 2005 में एक फिल्म (सिंस) को सेंसर बोर्ड ने प्रतिबंधित कर दिया था फिल्म केरल के एक पादरी पर आधारित थी जिसमें उसके हवस के कृत्यों को उजागर किया था। कैथोलिक लोगों को यह फिल्म बिलकुल भी पसंद नहीं आई थी जिसके चलते इस फिल्म पर बैन लगा दिया गया था। वैसे देखा जाये तो आमतौर पर भारतीय फिल्मों में सफेद लम्बें चोंगे धारण किये, चर्च के पादरी दया के सागर मानवता और अहिंसा की प्रातिमूर्ति दिखाए जाते हैं। लेकिन असल जीवन में देखें तो वेटिकन के पोप फ्रांसिस अपनी प्रार्थना करने के बजाय अपने इन लंपट पादरियों के कुकर्मों के लिए माफी मांगते घूम रहे हैं। वेटिकन राज्य के पोप फ्रांसिस ने पिछले सप्ताह माना कि कैथोलिक चर्च में पादरियों और बिशपों  ने ननों का यौन उत्पीड़न किया। वेटिकन सिटी की महिलाओं पर केंद्रित एक पत्रिका में पादरियों द्वारा ननों के उत्पीड़न की बात सामने आई है. इसमें कहा गया था कि ननों का गर्भपात कराया गया है या उन्हें अपने बच्चों की परवरिश अकेले करनी पड़ रही है।

इससे पहले जुलाई 2008 में 16 वें पोप बेनेडिक्ट ने भी आस्ट्रेलिया दौरे में पादरियों द्वारा यौनाचार किए जाने के मामलों के लिए भी माफी मांगी थी। उस समय वहां 107 अभियोग सामने थे। पोप दुराचार के शिकार लोगों से मिले थे तथा माफी मांगी थी। उन्हें न्याय दिलाने का भरोसा दिलाया तथा युवाओं को भविष्य में पादरियों की वासना हवस से बचाने के लिए प्रभावी तरीके लागू किए जाने का आश्वासन दिया था। एक रिपोर्ट के अनुसार 1980 से 2015 के बीच ऑस्ट्रेलिया के 1000 कैथोलिक संस्थानों में 4,444 बच्चों का यौन उत्पीड़न हुआ था वहीं एक दूसरी जांच के मुताबिक देश के करीब 40 फीसदी चर्च पर बच्चों के यौन शोषण के आरोप हैं।
 अभी तक आस्ट्रेलिया, आयरलैंड, बैल्जियम, अमेरिका पादरियों द्वारा यौन शोषण के सबसे ज्यादा प्रभावित देश माने जाते थे अब इस कड़ी में तेजी से भारत का नाम भी उभरता जा रहा है। चर्च के सीटिंग रूम में, ईसा मसीह की निहारती हुई तस्वीर धीमे-धीमे चलते पंखे और वहां फुसफुसाहट में बात करती ननें ऐसी घटनाओं की जिक्र करती हैं कि जब चर्च से जुड़े पादरी उनके बेडरूम में घुसे और उन्हें अपनी हवस का शिकार बनाया। पिछले दिनों एक नन ने जालंधर के बिशप फ्रैंको मुलक्कल पर 2014 से 2016 के बीच उसके साथ 13 बार बलात्कार करने का आरोप लगाया था। पिछले वर्ष ही एक के बाद एक, कुल 5 पादरियों ने एक महिला को ब्लैकमेल कर उसके साथ 380 बार बलात्कार करने की खबर ने भी पादरियों के कारनामों से चर्च पर सवाल खड़े किये थे। 2017 में केरल के कन्नूर में चर्च के पादरी के नाबालिग लड़की के साथ रेप के के मामले में पुलिस ने पांच नन के खिलाफ भी मामला दर्ज किया था।
पादरियों की हवस के शिकार बच्चें और ननों की बातें उजागर होते देख कर वैटिकन को चर्च की अपनी नीव हिलती दिख रही हैं क्योंकि अब आम जनता के नैतिकता के पैमाने बदल गए हैं। चर्च अपने पादरियों की नाजायज संतानों की समस्या को भी झेल रहा है। भारत, अमेरिका, ब्रिटेन, आयरलैंड, जर्मनी, फ्रांस, इटली और आस्ट्रेलिया में कई औरतें पादरियों से गर्भवती हो कर उन के अवैध बच्चों को पालने पर मजबूर हैं। कई चर्चों से इन औरतों से समझौते पर साइन करवा कर मुआवजे दे दिए गए हैं। लेकिन वैटिकन इन मामलों को रोक नहीं पा रहा है। चर्चों के सैक्स किस्से कम होने के बजाय बढ़ते जा रहे हैं। मार्च 2010 में न्यूयार्क टाइम्स की सैक्स स्कैंडलों पर कवरेज के लिए आलोचना भी की गई थी। क्योंकि अखबार ने 200 बहरे बच्चों के साथ पादरियों द्वारा किये गये दुराचार की खबरें प्रकाशित कर दी थीं।
हालाँकि यह कोई नये ताजातरीन मामले नहीं है शुरू से पादरी और बिशप ननों का यौन शोषण करते आ रहे हैं। इसके बावजूद भारत की ननों की समस्या धुंधली पड़ी रहती है। इसकी वजह चुप रहने की संस्कृति भी हो सकती है। कई ननों को लगता है कि शोषण तो आम है, कोई भी खुलकर बोलने को तैयार नहीं, ज्यादातर ननें तभी बात करती हैं जब उन्हें यह तसल्ली दी जाए कि उनकी पहचान छुपाई जाएगी। दूसरा अनेकों ननें पादरियों को ईसा मसीह का प्रतिनिधि भी मानती हैं धार्मिकता के बहाव में खामोश रह जाती है। तीसरा आवाज उठाने का मतलब आर्थिक परेशानी भी होगी। कई ननों के समूह वित्तीय रूप से पादरियों और बिशपों के अधीन होते हैं। इस सबके बाद यह भी है कि एक अरब से ज्यादा जनसंख्या वाले भारत में कैथिलक ईसाइयों की संख्या करीब 2 करोड़ है। कई ननों को लगता है कि यौन शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करना, चर्च की प्रतिष्ठा धूमिल कर सकता है। अन्य मतों की आलोचना भी झेलनी पड़ेगी इस सबकी आड़ में कैथोलिक चर्च के पादरियों अपनी हवस का खेल रहे हैं जिसकी कीमत ननों और बच्चों को चुकानी पड़ रही है।

लेखक- राजीव चौधरी

जगत कल्याण के लिए एक अच्छा बिल

अक्सर देश में मांसाहारी भोजन पर प्रतिबंध को लेकर कोई न कोई बहस चल रही होती है। मांसहार के समर्थक और आलोचक दोनों ही तरह के लोग आमने-सामने भी आते रहते हैं। कई बार अभद्र भाषा का भी इस्तेमाल किया जाता है और सरकारों पर दबाव भी बनाया जाता है कि मांसाहारी भोजन पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। हर बार सरकारें असमंजस में भी होती है कि क्या किया जाये, क्या नहीं!

किन्तु इसका हल भारतीय जनता पार्टी के सांसद प्रवेश साहिब सिंह ने पिछले दिनों लोकसभा में पेश कर दिया। उनकी तरफ एक निजी बिल पेश किया गया जिसमें सरकारी बैठकों और कार्यक्रमों में मांसाहारी भोजन परोसने पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई है। अपने बिल पर प्रवेश सिंह ने कहा कि, मांसहारी खाद्य पदार्थों के सेवन से ना केवल जानवरों के साथ दुर्व्यवहार और हत्याएं होती हैं, बल्कि विनाशकारी पर्यावरणीय प्रभाव भी होते हैं। उन्होंने इन बिल में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि दुनिया को जलवायु परिवर्तन के बुरे प्रभावों से बचाने के लिए पशु उत्पाद की कम खपत आवश्यक है। मांस उद्योग के विनाशकारी प्रभाव है तथा इस उधोग से जानवरों को भी भीषण पीड़ा वेदना से गुजरना पड़ता है।
इसे एक अच्छी खबर और बेहतरीन मांग कही जानी चाहिए, क्योंकि दूसरों को सही रास्ते पर लाने से पहले खुद सही रास्ते पर आना जरुरी होता है। सरकारों का दायित्व भी यही बनता है कि पहले स्वयं शाकाहार अपनाया जाये बाद में इसके लाभ जनता तक पहुंचाए जाये। निसंदेह पश्चिम दिल्ली के भाजपा सांसद प्रवेश साहिब सिंह की इस बिल के पेश करने को लेकर जितनी प्रसंशा की जाये उतनी कम है। हालाँकि पिछले वर्ष मई में रेल मंत्रालय द्वारा भी 2 अक्टूबर को रेलवे परिसर में नॉनवेज न परोसने की सिफारिश की थी कि गांधी जयंती स्वच्छता दिवस के साथ-साथ शाकाहारी दिवस के रूप में भी जाना जाएगा। इससे पहले अप्रैल 2017 में पशु प्रेमी संस्था पेटा द्वारा भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पत्र के माध्यम से अपील की गयी थी कि सभी सरकारी बैठकों और कार्यक्रमों में सभी तरह के मांसाहार भोजन पर रोक लगा दी जाये।
पेटा ने अपने पत्र में लिखा था कि पेटा की इस मांग का समर्थन करते हुए जर्मनी के पर्यावरण मंत्री ने सरकारी बैठकों में खाने की सूची से मांसाहारी पदार्थों को परोसे जाने को प्रतिबंधित कर दिया है। इससे से प्रभावित होकर पेटा ने भारत के प्रधानमंत्री मोदी से भी आग्रह किया था कि इससे ग्रीन हाउस गैसों पर नियंत्रण होगा। साथ ही जलवायु परिवर्तन के मुद्दे से निपटने में भी मदद मिलेगी।
अथर्ववेद में भी कहा गया है कि जो मनुष्य घोड़े, गाय आदि पशुओं का मांस खाता है, वह राक्षस है और यजुर्वेद में कहा गया है कि सभी प्राणीमात्र को मित्र की दृष्टि से देखो। किन्तु दुखद कि आज ऐसे सुंदर कथनों का पालन नहीं किया जा रहा है। ये जरुर है कि दिल्ली सहित पूरे उत्तर भारत में नवरात्र और सावन के महीने में बड़ी संख्या में लोग मांसाहार बंद कर देते हैं। पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार में छठ के दौरान मांसाहार बंद हो जाता है लेकिन कोई प्रतिबंधित नहीं करता। इस तरह की मांग की अपनी एक समस्या है। परन्तु लोगों को समझना चाहिए कि यह मामला धार्मिक नहीं है या प्रकृति से जुड़ा मामला है जब किसी पशु को मारा जाता है तब उसे उतनी ही वेदना होती है जितनी किसी मनुष्य को मारने से होती है। पशु स्वेच्छा से नहीं मर रहा है। अगर कोई हमें तुम्हें मारता है, तो हम स्वेच्छा से नहीं मरोगे। जो उस समय हमारे मन पर बीतेगी वही उस समय पशु के मन पर बीतती हैं। उसके पूरे शरीर पर हिंसा, वेदना, पीड़ा फैल जाती है। उसका पूरा शरीर विष से भर जाता है, शरीर की सब ग्रंथियां जहर छोड़ती हैं क्योंकि पशु न चाहते हुए भी मर रहा है और फिर जो लोग मांस खाते वही जहरीले भाव उनके शरीर में चले जाते हैं। वह मनुष्य दिखने में ही मनुष्य रहता है अंदर हिंसा भर जाती है और हिंसा कहां व्यक्त हो रही है यह भी छिपा नहीं हैं।
आज लोगों को समझना चाहिए कि हम ऋषि-मुनियों की संताने है और हमारे ऋषि मुनि शाकाहारी थे यही बात पश्चिम के लोगों को भी समझ जानी चाहिए कि वैज्ञानिक इस तथ्य को मानते हैं कि मानव शरीर का संपूर्ण ढांचा दिखाता है कि वह पूर्णतया शाकाहारी हैं। इसके अलावा यदि वह डार्विन पर भरोसा करते है और अगर डार्विन सही है तो आदमी को शाकाहारी होना चाहिए क्योंकि वह आदमी को बन्दर की संतान मानता था और बन्दर मांसाहारी नही होते, बंदर पूर्ण शाकाहारी होते हैं। बरहाल मूल विषय और मुद्दा यही है कि एक मानव होने के नाते हमे मानव समाज में जीना है, एक जंगल में नहीं, हमें हिंसा से प्रेम से जीना होगा उसके लिए शाकाहार अपनाना होगा। इसलिए हम सांसद प्रवेश साहिब सिंह का आभार व्यक्त करते है एक किस्म से उन्होंने जगत कल्याण के लिए इस बिल को संसद में पेश किया हैं।

विनय आर्य

आधुनिक समय में विवाह का महत्व


विवाह भारतीय समाज में परम्परा के रूप एक महत्वपूर्ण और पवित्र हिस्सा रहा है। बल्कि ये कहिये कि विवाह एक जन्म का नहीं बल्कि सात जन्मों का पवित्र बंधन भी माना जाता रहा है। विवाह एक नवयुवक एवं एक नवयुवती के साथ रहने जीने आगे बढ़ने का रिश्ता नहीं बल्कि यह दो परिवारों के बीच बहुमूल्य सम्बन्ध भी स्थापित करता चला आ रहा हैं। किन्तु आज की भागती दौडती जिन्दगी की तेज रफ्तार में यह रिश्ता बेहद कमजोर होता जा रहा है। यदि आंकड़ों पर नजर डाले तो इसके टूटने की संख्या पश्चिम के देशों मुकाबले कुछ कम रह गयी हैं। ये भी कह सकते है कि आज के आधुनिक समय में विवाह का महत्व दिन पर दिन कम होता जा रहा हैं।

यदि गंभीरता से इस विषय पर चर्चा की जाये तो यह एक ऐसी समस्या का बनती जा रही है जो आने वाले समय में समाज और परिवारों की तबाही का बड़ा कारण बनेगी। आज हो ये रहा है कि इस आधुनिक सदी में एक तो नौजवान युवक-युवती विवाह के लिए आसानी से तैयार नहीं हो रहे और जो हो रहे है उनमें से अधिकांश के जल्द ही तलाक के मामले कोर्ट में खड़े मिल रहे हैं। जहाँ तेजी से बदलते समय में आज कई चीजें बदली वहां कुछ सामाजिक प्रतिष्ठा के रूप भी बदल गये हैं। मसलन कुछ समय पहले तक लडकें-लड़कियां मां-बाप की इच्छा के अनुसार विवाह करके घर गृहस्थी बसाकर संतुष्ट हो जाया करते थे लेकिन आज ऐसा बहुत कम देखनें को मिल रहा हैं। बदलते इस दौर की बात करें तो स्वतंत्रता के साथ लड़कियों को अपने न सिर्फ पंख मिले, बल्कि उन पंखों को फैलाने के लिए आसमान भी मिला। ऐसे में शादी करके घर बसाने के कथन में बदलाव आ गया। अब सामाजिक रूप से स्थापित होने का मतलब शादी करके बच्चे पैदा करना नहीं रह गया, बल्कि एक अच्छी नौकरी,व्यवसाय या आर्थिक संपन्नता से हो गया हैं।
इसी विषय को यदि पलटकर लड़कों के मामले में देखें तो अधिकांश लड़के भी इससे बचने की कोशिश करते हुए लिव इन रिलेशनशिप जैसे रिश्तों को प्राथमिकता दे रहे है। दिन पर दिन दहेज के बढ़ते झूठे सच्चें मुकदमों ने कानून का किसी एक पक्ष में ज्यादा झुकना और दूसरे पक्ष को इसके खतरनाक नुकसान झेलने देना भी शादी का चलन घटने का बड़ा कारण है। ऐसा कतई नहीं है कि विवाह की संस्था खोखली हो गयी है और समाज को इससे किनारा करने की जरूरत है। नहीं बल्कि यह जो कमी हो रही है आज इसमें सुधार करने की जरूरत हैं। आज जब किसी युवा से शादी के बारे में चर्चा की जाती है तो वह नकारत्मक भाव प्रकट करते हैं यानि वह इस पवित्र संस्था को एक गुलामी जिन्दगी बताकर इससे बचने का प्रयास करेंगे।
आज से 10 वर्ष पहले हुई शादी और पिछले दो से तीन वर्षों में हुई शादियों में काफी अंतर देखने को मिलता है मसलन दस वर्ष माता-पिता और परिवारों की सहमति से हुई शादियाँ जिनमें लड़का-लड़की, दो परिवार, रिश्तेदारों के साथ जितने सैकड़ों-हजार परिवार शामिल होते थे सभी एक तरह से इसके साक्षी बन जाते थे। ऐसे में जब कभी इस रिश्ते में कुछ समस्या उत्पन्न होती थी तो पूरा परिवार और समाज इसे बचाने की कोशिश में जुट जाता था। किन्तु प्रेम विवाह या कुछ समय में एक दूसरे से आकर्षित होकर की गयी शादियाँ जल्द टूट रही हैं।
सामाजिक प्रतिष्ठा का भय जो हमेशा रिश्ता बचाने में मदद करता था आज वह पूरी तरह से गायब होता जा रहा हैं। अगर अभी वर्तमान समय की बात किया जाए, तो अगर सामने वाला लड़का हो या लड़की अगर किसी से प्रेम कर लेता है, फिर वह विवाह के बंधन मे बंधने के बाद जरा सी बात पर रिश्ता तोड़ देते हैं। पिछले दिनों में ऐसे कई रिश्ते देखें एक लड़की के तलाक का कारण सिर्फ इतना था कि शादी के बाद लड़के ने उसके मुंह पर थप्पड़ मार दिया था। लड़की ने यह बात बर्दास्त नहीं की और तलाक की अर्जी डाल दी।
एक दूसरे लड़के ने अपनी पत्नी से सिर्फ इस बात से तलाक लिया कि वह देर रात तक सोशल मीडिया फेसबुक आदि पर अपने मित्रों से चेट किया करती थी। यानि आजकल के लोगों की धारणा संकीर्ण विचारधारा जैसी हो गई है, क्योंकि उन्हें प्यार क्या होता है? विवाह क्या होता है? और इसकी पवित्रता क्या होती है? उनके बारे में यह अभी तक अनभिज्ञ है। पहले के समय और आज के समय में यही अंतर है कि पहले के लोग विवाह को एक पवित्र रिश्ता मानकर हर सुख- दुख,उतार- चढ़ाव मैं साथ चल कर अपने रिश्ते को एक मंजिल तक पहुंचाते थे। परंतु आजकल के विवाह में अगर थोड़ा भी एक दूसरे को रोक- टोक किया या एक दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति ना कर पाए तो फिर यह रिश्ता ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाता, और तलाक की नौबत आ जाती है। इसीलिए  आजकल की युवा पीढ़ी द्वारा विवाह को मजाक बनाया गया है, एहसास और रिश्ता अब पूर्ण रूप से खतम हो गया है।


गांडीव उठाओं राजन अब शांति का समय नहीं है


धरो कवच आभूषण तजकर, नयनों में अब क्रोध भरों, किस उलझन में पड़े हो राजन, तत्काल कटी कृपाण धरो बजने दो अब रणभेरी तुम रणचंडी का आहवान करो।
दुःख की इस असहनीय घड़ी में प्रश्न भी है कि कब तक हमारे सैनिक इस लाक्षाग्रह में जलते रहेंगे, उठो राजन! अब सहन मत करो, बन अर्जुन इतिहास को पुन: गांडीव की टंकार सुना दो देश को हिला देने वाले पुलवामा हमले में जिस माँ ने बेटा खोया है उस माँ की छाती जरुर फटी होगी, दुनिया उस बाप की भी उजड़ी होगी, जिसने अपना सहारा खोया है दर्द के चाबुक पत्नी और उस संतान के तन मन में पड़े होंगे, जिनकी मांग का सिंदूर और जिसके सर से बाप का साया छिना है, आज इनका दर्द देखकर देश के अन्तस् से अथाह पीड़ा और आक्रोश की लहर उठ रही है आखिर कैसे मजहबी भेडियों ने कश्मीर को कब्रिस्तान बना डाला वो किस तरह दुश्मन देश से मिलकर देश की संप्रभुता, अखंडता पर चोट कर रहे है एक कथित मजहबी आजादी का सपना पाले वो लोग बार-बार ललकार रहे है और हम सहिष्णुता और अहिंसा के सिद्दांतों का पालन करते-करते कायरता का आवरण ओढ़कर कश्मीरियत और जमुहुरियत का गाना गा रहे है

एक तरफ हम लोग विश्व शक्तियों के भारत की साथ तुलना करते नहीं थकते, दूसरी और देखे तो हम इतने कमजोर राष्ट्र बन चुके है कि अपने हितों पर होती चोट पर निंदा से ज्यादा कभी कुछ नहीं कर पाते बेशक किसी की धार्मिक आस्था पर चोट नहीं करनी चाहिए किन्तु जहाँ धर्म ही न हो अधर्म ही अधर्म दिख रहा हो तो आतंक में आस्था रखने वाले इन जहरीले सांपो के फन क्यों न कुचले जाये? शायद ऐसा न करना तो हमारे किसी धर्म शास्त्र में नहीं लिखा हैं
पठानकोट के बाद उरी इसके बाद अब पुलवामा देश के सैनिक एक-एक कर भेडियों के चोरी छिपे हमलों का निवाला बन रहे है और हम सर्वशक्ति संपन्न होते हुए भी सिवाय आंसू पोछने, पीड़ा की कविता गाने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे है कम से कम हमें राष्ट्र रक्षा में तो अपने ग्रंथो का ध्यान करना चाहिए कि जब दुश्मन बार-बार अट्टहास करता है जैसे अभिमन्यु वध के उपरांत अर्जुन को आत्मदाह करते देखने के लिए जयद्रथ कौरव सेना के आगे आकर अट्टहास करने लगा था तब जयद्रथ को देखकर श्रीकृष्ण बोले थे पार्थ! तुम्हारा शत्रु तुम्हारे सामने खड़ा है उठाओ अपना गांडीव और वध कर दो इसका आज भी समय वही मांग दोहरा रहा है गांडीव उठाओं कलयुग के राजन कर दो दुश्मन का विनाश
आखिर हम कब तक अपनी भारत माता के वीर सपूतों के शवों पर आंसू बहाते रहेंगे जबकि दुश्मन हर बार हमें घाव देकर चला जाता है इन 40 जवानों बलिदान से देश के किस नौजवान का खून नहीं खोला होगा किस माँ की आँखे नम नहीं हुई होगी, 40 घरों के चिराग बुझ गये, आखिर हम कब तक श्रद्धांजलि देते रहेंगे? हर दिन, हर सप्ताह, हर महीना, हर साल हमारे जवान मरते रहते है और राजनेता आरोप प्रत्यारोप लगाकर इस खून सनी जमीन पर मिटटी डालते रहते है जो लोग आज इन मजहबी भेडियों का साथ दे रहे शुरू उनसे करना चाहिए क्योंकि महाभारत में युद्ध के दौरान कई बार कृष्ण ने अर्जुन से परंपरागत नियमों को तोड़ने के लिए कहा था जिससे धर्म की रक्षा हो सके जो अधर्म के रास्ते पर चलेगा उसका सर्वनाश निश्चित है, फिर चाहे वह कोई भी व्यक्ति क्यों ना हो कर्ण गलत नहीं थे सिर्फ उन्होंने गलत का साथ दिया था इस कारण उन्हें मौत मिली समझने के लिए यही काफी है अब केवल अकर्मण्य बने रहने का खतरा देश कब तक उठाता रहेगा
हमे श्रीलंका जैसे छोटे देश से भी सीखना चाहिए कि किस तरह उन्होंने लिट्ठे जैसे मजबूत आतंकी नेटवर्क के ढांचे को नेस्तनाबूद किया, हमें इजराइल से सीखना चाहिए कि अपने दुश्मनों के बीच रहकर अपना स्वाभिमान कैसे बचाया जाता है म्यूनिख ओलिंपिक खेलों के दौरान 11 इजराइली एथलीटों को बंधक बनाया और बाद में सबकी हत्या कर दी बंधकों को छुड़ाने की कोशिश में वेस्ट जर्मनी द्वारा की गई कार्रवाई में 5 आतंकी मारे गए थे लेकिन इसके बाद बाकी बचे तीन आतंकियों, जिनमें इस साजिश का मास्टरमाइंड भी शामिल था, को वहां की खुफिया एजेंसी मोसाद ने सिर्फ एक महीने के अंदर ही ऑपरेशन रैथ ऑफ गॉडचलाकर न सिर्फ खोजा बल्कि मार भी गिराया इजराइल ने हमले की निंदा नही की थी बस प्रतिकार किया था। जिसकी जरुरत आज हमें भी हैं।
अभी तक जो चल रहा था वह एक राजनितिक गलती हो सकती हैअगर आगे भी यही होगा तो इतिहास इसे सर्वदलीय गलती कहने से गुरेज नहीं करेगा आज राजनेताओं को समझना होगा धर्मनिरपेक्षता सामाजिक समरसता का विषय हो सकता है किन्तु यदि शत्रु धर्म के सहारे ही हमला करता रहेगा तो कैसी धर्मनिरपेक्षता यह बात सभी को समझनी चाहिए कि कोई भी देश वीरता के साथ जन्म लेता है और कायरता के साथ मर जाता है, अत्यधिक शांति भी कायरता का रूप होती है अंत में सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि आत्मा ही नहीं दिल भी रोता है जब सरहद पर कोई जवान शहीद होता है सभी वीर बलिदानी सैनिकों को आर्य समाज शत-शत नमन  
rajeev choudhary