Wednesday 30 January 2019

आबादी तो बढ़ रही है लेकिन किसकी?


आज दुनिया की जनसँख्या सात अरब से ज्यादा है। विश्व भर के सामाजिक चिन्तक इस बढ़ती जनसँख्या पर अपनी गहरी चिंता भी प्रकट कर रहे हैं। जनसंख्या विस्फोट के खतरों की चर्चा हो रही है। तमाम देश, बढ़ती आबादी पर लगाम लगाने की बातें कर रहे हैं और प्रकृति के सीमित संसाधनों का हवाला दिया जा रहा है।

यह तो तय है कि पृथ्वी का आकार नहीं बढाया जा सकता और यहां मौजूद प्राकृतिक संसाधन भी अब बढ़ने वाले नहीं, जैसे पानी, खेती के लायक जमीन। इस कारण सामाजिक चिन्तक चेतावनी दे रहे हैं कि बढ़ती आबादी, इंसानों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि धरती, कितने इंसानों का बोझ उठा सकती है?

जहाँ ये सवाल पूरी गंभीरता से उठाया जा रहा है वहीं अमेरिकी लेखिका कैथरीन रामपाल ठीक इसके उलट एक दूसरा सवाल लेकर पूरी दुनिया के सामने हाजिर है कि आबादी बढ़ रही है लेकिन किसकी? वे अमेरिका समेत अनेकों देशों में कम हो रही आबादी पर चिंता व्यक्त कर रही है। उसने जापान का उदाहरण देते हुए कहा है कि जापान में मौतें लगभग एक सदी में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गईं हैं। जन्म दर गिर रही है। इन आंकड़ों को एक साथ रखें तो इसका मतलब है कि जापान की आबादी तेजी से कम हो रही है। आगे चीजें बदतर हो सकती हैं। इस जनसांख्यिकीय संकट के कारण आगे चलकर अमेरिका और यूरोप को कुछ सबक मिल सकते हैं।

इस लिहाज से कैथरीन की यह चिंता दिलचस्प है और यदि इसका गहराई से विश्लेषण करें और साथ ही एक छोटा सा उदाहरण रूस से भी अगर ले लिया जाये तो केथरीन की इस चिंता को आसानी से समझा जा सकता है। सन् 2025 तक रूस की आबादी 14 करोड़, 37 लाख से घटकर 12 करोड़, 50 लाख और सन् 2050 तक केवल 10 करोड़ रह जाएगी। विशेषज्ञों की माने तो रूस में हर दिन दो गांव खत्म हो रहे हैं। पिछले आठ महीनों में ही रूस की आबादी 5 लाख, 40 हजार कम हो चुकी है और पूरे साल में यह कमी 7-8 लाख तक पहुंच जाएगी।

शायद आगे चलकर भारत भी इस समस्या का सामना करने जा रहा हैं। क्योंकि अमेरिका से लेकर जापान और यूरोप की तरह यहाँ भी समस्या समान है। एक तो शादी की दरें गिर रही हंै। आज अधिकांश युवा और युवतियां शादी को एक फालतू का झमेला समझकर प्रेम या लिव इन रिलेशनशिप जैसे रिश्तों को प्राथमिकता प्रदान कर रहें हैं। कुछ अनियमित नौकरियों में फंसे होने के कारण शादी नहीं कर पा रहे है तो कुछ शादी से पहले अधिक आर्थिक सुरक्षा चाहते हैं।
इसके विपरीत यदि सामाजिक और पारिवारिक दबाव में जो शादियाँ की जा रही है उनमें फेमिली प्लानिंग के साथ एक बच्चे पर ही जोर दिया जा रहा हैं। इससे साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि निकट भविष्य में भारत में भी बुजुर्गों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि होने वाली है यानि इसके बाद मृत्यु दर बढ़ेगी और जन्मदर गिरेगी।

अब सवाल यह है कि यदि यह सब है तो फिर आबादी किसकी बढ़ रही है? इसे हम धार्मिक आधार पर सही ढंग से समझ सकते है। इस समय पूरे विश्व में ईसाई धर्म को मानने वाले करीब तैतीस फीसदी लोग है, इस्लाम को पच्चीस फीसदी, हिन्दू सोलह फीसदी और बौद्ध मत को मानने वाले सात फीसदी के अलावा अन्य मतो को मानने न मानने वाले करीब अठारह फीसदी लोग भी हैं।

किन्तु वह अभी इस मोटे अनुमान से बाहर है यदि बढती और घटती आबादी को भारत के ही लिहाज से देखें तो वर्ष 2011 में हुई जनगणना के अनुसार हिन्दू जनसंख्या वृद्धि दर 16.76 प्रतिशत में रहा, किन्तु इसके विपरीत भारत में मुस्लिमों का जनसंख्या वृद्धि दर 24.6 है जो और कही नहीं है।

मुसलमान कम उम्र में शादियाँ करते हुए जनसख्या वृद्धि के अपने धार्मिक आदेश का पालन कर रहे है तथा एक साथ कई-कई पत्नियाँ उनसे उत्पन्न बच्चें विश्व में बढती जनसँख्या में अपनी भागेदारी दर्शा रहे हैं। इस कारण प्यू रिसर्च सेंटर और जॉन टेंपलटन फाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के 60 प्रतिशत मुसलमान वर्ष 2030 तक एशिया प्रशांत क्षेत्र में रहेंगे। 20 प्रतिशत मुसलमान मध्य पूर्व में, 17.6 प्रतिशत अफ्रीका में, 2.7 प्रतिशत यूरोप में और 0.5 प्रतिशत अमेरिका में रहेंगे। अगर मौजूदा चलन जारी रहा तो एशिया के अलावा अमेरिका और यूरोप में भी मुस्लिम आबादी में काफी बढ़ोतरी होगी। दुनिया के हर 10 में से 6 मुसलमान एशिया प्रशांत क्षेत्र में होंगे। भारत अभी मुसलमानों की आबादी के मामले में दुनिया का तीसरा देश है। अध्ययन के मुताबिक, 20 साल बाद भी भारत मुस्लिम आबादी के मामले में इसी स्थिति में होगा।

अमेरिकी अध्ययन के मुताबिक यूरोप में अगले 20 सालों में मुसलमान आबादी 4.41 करोड़ हो जाएगी जो यूरोप की आबादी का 6 प्रतिशत होगा। यूरोप के कुछ हिस्सों में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत दोहरे अंकों में हो जाएगा। फ्रांस और बेल्जियम में 2030 तक 10.3 फीसदी मुस्लिम होंगे अमेरिका में भी मुसलमानों की जनसंख्या दोगुनी से अधिक हो जाएगी। सन 2010 में अमेरिका में 26 लाख मुसलमान थे, जो सन 2030 में बढ़कर 62 लाख हो जाएंगे।
इस सब आंकड़ों की माने तो जब जनसंख्या का यह विशाल बिंदु पूरे विश्व में फैलेगा और जब यह परिस्थिति पैदा होगी तब विज्ञान को चुनौती के साथ-साथ अन्य मतो पर भी सांस्कृतिक और धार्मिक हमलों में तेजी आने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इस कारण आज भले ही यह मुद्दा राजनीति और धर्मनिरपेक्षता की आग में फेंक दिया जाये पर वास्तव में यह भविष्य का राजनैतिक और धार्मिक रेखाचित्र खींचता दिखाई दे रहा हैं।


जीवन और मृत्यु का अनुभव


जीवित हुए अथवा मृत्यु को प्राप्त हुए व्यक्तिओं को हम कैसे पहचान सकते हैं ? सामान्य रूप से जो व्यक्ति प्राण धारण किया हुआ है अर्थात् जब तक श्वास-प्रश्वास की क्रिया से युक्त है तब तक उसे हम यह कह देते हैं कि यह व्यक्ति जीवित है। ठीक इसी प्रकार जब श्वास-प्रश्वास की गति रुक जाती है, प्राण छूट जाते हैं, तब हम यह कह देते हैं कि यह व्यक्ति मृत हो गया । यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विचारणीय बिंदु है । यदि हम जीवित रहना चाहते हैं तो इसके ऊपर अवश्य चिन्तन करना चाहिये ।
किसी नीतिकार ने कहा है कि – “स जीवति गुणा यस्य धर्मो यस्य स जीवति। गुणधर्मविहीनो यो निष्फलं तस्य जीवितम् जिसके पास सद्गुण हैं, तथा जिसके पास धर्म है, वही वास्तव में जीवित है। गुण और धर्म- दोनों जिसके पास नहीं है, उसका जीवन निरर्थक है, वह व्यक्ति मरा हुआ है । हमें स्वयं निरीक्षण करके देखना चाहिए कि क्या मैं अच्छे अच्छे गुणों से युक्त हूँ अथवा अपने व्यवहार में धर्माचरण करता हूँ या नहीं ? यदि मेरे अन्दर धैर्य, क्षमा, आदि धर्म के दस लक्षण विद्यमान नहीं हैं, और यदि मैंने अच्छे गुणों का संग्रह भी नहीं किया तो फिर मेरा जीवन व्यर्थ ही है । जब हम इस प्रकार स्वावलोकन करने लग जायेंगे तो निश्चित रूप से हमें विदित हो जायेगा कि हम जीवित हैं अथवा मरे हुए हैं ।

और भी कहा गया है कि – “आत्मार्थं जीवलोकेSस्मिन्को न जीवति मानवः | परं परोपकारार्थं यो जीवति सः जीवति |” अर्थात् इस संसार में अपने स्वार्थ के लिए अपना ही कल्याण करने के लिए कौन व्यक्ति प्रवृत्त नहीं होता ? अर्थात् सभी मनुष्य अपने ही प्रयोजन सिद्ध करने हेतु जीवित रहते हैं, इस प्रकार के जीवन का कोई महत्व नहीं है, उसको जीवित रहना नहीं कहा जा सकता, परन्तु जो व्यक्ति अपना स्वार्थ छोड़कर दूसरे के कल्याण हेतु, परोपकार के लिए, प्रयत्नशील रहता है वास्तव में उसी का जीवन ही सार्थक है उसी को कहा जा सकता है कि यह व्यक्ति जीवित है । जो व्यक्ति न अपने समाज के लिए और न ही राष्ट्र की उन्नति के लिए अपना तन-मन-धन समर्पित करता है, ऐसे व्यक्ति को कभी भी जीवित नहीं कहा जा सकता ।
अब आइये देखते हैं कि वेद क्या कहता है इस विषय में – “यस्य छायामृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेमअर्थात् जो ईश्वर हमें आत्मबल का देने वाला है, समस्त संसार जिसकी उपासना करता है, और विद्वान् लोग जिसके अनुशासन का पालन करते हैं, जिसने समग्र सृष्टि की रचना की, पालन कर रहा और समयानुसार विनाश भी करता है, उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना, उसी ईश्वर के सान्निध्य में रहना, शरण में जाना ही अमृतत्व है अर्थात् जो व्यक्ति सदा ईश्वर के सानिध्य में रहता, उसी का ध्यान उपासना करता, उसी की छाया में उसके आज्ञाओं का पालन करता, वास्तव में वही व्यक्ति जीवित है और जो व्यक्ति इसके विपरीत ईश्वर की छाया में नहीं रहता, उसके आज्ञाओं का परिपालन नहीं करता, ईश्वर की भक्ति या उपासना नहीं करता, ईश्वर का यह निर्देश है कि वास्तव में वह व्यक्ति जीवित है ही नहीं बल्कि वह मरा हुआ है, उसकी मृत्यु हो गयी है, ऐसा समझना चाहिए ।
हम प्रायः प्रातःकाल उठते हैं और सबसे पहले यह अनुभव करते हैं कि मैं जीवित हूँ क्योंकि मैं देख पा रहा हूँ, सुन रहा हूँ, बोल पा रहा हूँ, खाना खा रहा हूँ, पानी पी रहा हूँ, समस्त क्रियाओं को करने में समर्थ हो पा रहा हूँ और मुख्यतः मैं श्वास-प्रश्वास ले रहा हूँ और छोड़ रहा हूँ, प्राणधारण किया हुआ हूँ, अतः जीवित हूँ । परन्तु यह भूल जाते हैं कि मैं वास्तव में जीवित हूँ या मरा हुआ हूँ । केवल खाते-पीते रहने मात्र से, प्राण-धारण किये हुए होने मात्र से ही यह सिद्ध नहीं होता कि मैं सही अर्थ में जीवन व्यतीत कर रहा हूँ ।
मेरे जीवन में यदि प्रतिदिन सत्य, न्याय, परोपकार, सरलता, विनम्रता, दया, आदि कुछ उत्तम गुणों का संग्रह कर पा रहा हूँ और झूठ, छल-कपट, इर्ष्या, द्वेष, क्रोध, आदि कुछ दुर्गुणों का या दोषों का परित्याग भी कर पा रहा हूँ तो मैं वास्तव में जीवित हूँ । इसके विपरीत यदि मैं दोषों को ग्रहण करता जाता हूँ किन्तु गुणों को अपनाने में समर्थ नहीं हो पाता हूँ तो मैं जीवित नहीं हूँ, मरा हुआ हूँ । इस जीवन का मुख्य लक्ष्य है जीवन में ज्ञान, वैराग्य तथा आध्यात्मिकता हो और उससे फिर सुख-शान्ति, आनन्द, उत्साह, दया, परोपकार आदि गुणों का विकास हो। समाधि की प्राप्ति हो, आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार हो, सभी क्लेशों का विनाश हो और हम मोक्ष के अधिकारी बन जायें । यदि हमारी प्रत्येक क्रिया हमारे जीवन के उद्देश्य की पूर्ति में सहायक नहीं हो रही है और हम अपने लक्ष्य की और आगे नहीं बढ़ रहे हैं, तो हमारा जीवन व्यर्थ ही है, हमारा जीना जीना नहीं किन्तु मृत्यु के समान ही है । इस विषय में स्वयं निर्णय कर सकते हैं कि हमारी क्या स्थिति है ?

यदि आतंकी धरती के बेटे है तो देश सैनिक क्या हैं?


कई रोज पहले वर्ष 2010 सिविल सेवा परीक्षा में देशभर में अव्वल रहने वाले पहले कश्मीरी आईएएस अधिकारी शाह फैसल ने कश्मीर में कथित रूप से लगातार हो रही हत्याओं और भारतीय मुसलमानों के हाशिये पर होने का आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे दिया। इसके बाद जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा ने बयान देते हुए कहा कि आतंकी धरती के बेटे हैं और इन्हें बचाने की कोशिश करनी चाहिए, वह हमारी धरोहर हैं। इसके बाद भी यदि कोई यह जानना चाहता हो कि आतंक का कोई धर्म होता हैं? तो जवाब होगा नहीं। आतंकवादी आतंकवादी होता है। आतंकवादी का कोई धर्म, जाति नहीं होती और वह पूरी तरह मानवता का दुश्मन होता है। और ये मीडिया के सामने दिया जाना वाला वह बयान है जिसे एक नेता राजनीति में प्रवेश करने से पहले रट लेता है।

हालाँकि अपनी राजनीति चमकाने के लिए इस तरह का यह कोई पहला बयान नहीं है। सत्ता की कुर्सी पाने को लालायित जीभ अक्सर ऐसे बयान देती रही हैं। सितंबर 2008 को दिल्ली के जामिया नगर इलाके में इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादियों के खिलाफ की गयी मुठभेड़ जिसमें दो संदिग्ध आतंकवादी आतिफ अमीन और मोहम्मद साजिद मारे गए, इस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस निरीक्षक मोहन चंद शर्मा भी शहीद हुए किन्तु देश में व्यापक रूप से विरोध प्रदर्शन किया गया। सपा, बसपा जैसे कई राजनीतिक दलों ने संसद में मुठभेड़ की न्यायिक जांच करने की मांग उठाई। यहाँ तक भी सुनने को मिला था कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गाँधी आतंकियों की मौत की खबर सुनकर रोने लगी थी।

मोहन चंद शर्मा के बलिदान को भुला दिया गया और देश की राजनीति से स्वर फूटते रहे कि आतंक का कोई मजहब नहीं। आतंकवादी सिर्फ आतंकवादी होता है, उसकी कोई भाषा नहीं होती। किन्तु फिर बारी आई लोकतंत्र के मंदिर संसद भवन पर हमले के आरोपी आतंकी अफजल गुरु को फांसी देने की तो अचानक फिर राजनीति ने करवट ली और कम्युनिष्ट दलों को अफजल में वोट बेंक दिखाई दिया। वामपंथी लेखिका अरुंधती राय ने तो अफजल गुरु को मासूम बताने में पूरी पुस्तक लिख दी, जिसमें कहा कि अफजल को जेल में तरह-तरह की यातनाएं दी गयी। उन्हें पीटा गया, बिजली के झटके दिए गये, ब्लैकमेल किया गया और अंत में अफजल गुरू को अति-गोपनीय तरीके से फांसी पर लटका दिया गया। यही नहीं यह तक कहा गया कि उनका नश्वर शरीर भारत सरकार की हिरासत में है और अपने वतन वापसी का इंतजार कर रहा है।

इस घटना के बाद कुछ समय शांति रही फिर बारी आई जून 2004 को अहमदाबाद में एक मुठभेड़ होती हैं जिसमें लश्कर ए तैयबा के आतंकी इशरत जहां और उसके तीन साथी जावेद शेख, अमजद अली और जीशान जौहर मारे गए थे। जब इस मुठभेड़ का जिन्न बाहर आया तो बिहार राज्य के मुख्यमंत्री ने तो उन्हें बिहार की बेटी तक बता डाला. इशरत के नाम पर एक एंबुलेंस भी चलाई जाती है, जिस पर शहीद इशरत जहां लिखा होता है। जबकि मुंबई विस्फोट मामले के आरोपी डेविड हेडली ने पुष्टि कर दी थी कि इशरत जहां आतंकवादी थी। लश्कर ए तैयबा की वेबसाइट पर भी उसकी मौत पर मातम मनाया गया था। किन्तु इसके बाद भी आतंक अपनी और राजनीति अपनी चाले चलती रही।

घड़ी की सुई एक बार फिर आगे बढती है अब बारी आती है आतंकी याकूब मेमन की फांसी की। वह याकूब जो 1993 का मुंबई हमले में शामिल था और जिसमें 250 से ज्यादा लोग मारे गए थे। बड़ी संख्या में लोग घायल भी हुए थे। देश की आन्तरिक सुरक्षा चरमरा गयी थी और देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई खौफ के साये में सिमट गयी थी। किन्तु जब इस हत्यारे की फांसी की बात आई तो आंतक के मजहब से अनजान नेता अभिनेता और कथित सामाजिक कार्यकर्ता सामने आकर रोने लगते हैं। यहाँ तक कि 40 लोगों द्वारा राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर याकूब की फांसी रोकने की अपील तक की जाती हैं। चिट्ठी में फिल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट, अभिनेता नसीरुद्दीन शाह, स्वामी अग्निवेश, बीजेपी सांसद शत्रुघ्न सिन्हा के अलावा जाने-माने वकील तथा सांसद राम जेठमलानी, वृंदा करात, प्रकाश करात और सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी आदि दस्तखत कर रात भर सर्वोच्च न्यायलय में सुनवाई कराते हैं।

समय फिर गति से आगे बढ़ता है राजनेताओं के बयान आतंक और मजहब को लेकर वोट की रोटी सेंकते है। अचानक सेना को बड़ी कामयाबी तब मिलती है जब वह हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकवादी कमांडर बुरहान वानी को मार गिराती है। घाटी में आक्रोश उठता है और उस आक्रोश को देश में बैठे कथित बुद्धिजीवी और राजनेता हवा देने लगते हैं। इस बार भारतीय सेना के मनोबल पर पहली चोट करती हुई सीपीएम कार्यकर्ता कविता कृष्णन बुरहान के एनकाउंटर को शर्मनाक बताती हुई कहती है जो मरा है उस पर बाद में चर्चा होगी,  लेकिन कोई बुरहान के एनकाउंटर की जांच जरूर होनी चाहिए। यही नहीं दिल्ली में एक युवा छात्र नेता उमर खालिद ने अपने फेसबुक अकाउंट पर बुरहान कि तुलना लैटिन अमेरिकी क्रांतिकारी चे ग्वेरा से करता है तो देश का एक बड़ा पत्रकार राजदीप सर-देसाई बुरहान वानी की तुलना अमर शहीद भगत सिंह से करने लगता हैं।

शायद इन सब कारणों से ही सुरेश चाहवान यह सवाल पूछने को मजबूर हुए कि कोई मुठभेड़ शुरू होती है तो आतंकी व सुरक्षा बल आमने-सामने होते हैं। उस समय कोई कुछ भी नहीं कर सकता है। सत्ता पाने के लिए महबूबा ने तो आतंकियों को धरती पुत्र करार दिया है लेकिन यहाँ सवाल यह खड़ा होता है कि हिंदुस्तान तथा हिंदुस्तान के सैनिकों को अपना दुश्मन मानने वाले आतंकी अगर धरती के बेटे हैं तो देश के लिए बलिदान देने वाले सैनिक क्या हैं?

दानवीर कर्मवीर और धर्मवीर महाशय धर्मपाल जी को पद्मभूषण सम्मान


समस्त आर्य समाज से जुड़े लोगों के लिए यह एक गर्व, गौरव और प्रेरणा देने वाली खबर है कि महाशय धर्मपाल जी को भारत सरकार द्वारा नामित किये जाने पर उन्हें गणतंत्र दिवस के मौके पर पद्मभूषण से सम्मानित किया गया है। ट्रेड एवं इंडस्ट्री में काम के लिए उन्हें ये पुरस्कार मिला है। शून्य से चले महाशय आज शिखर तक कैसे पहुंचे ये कोई रहस्य नहीं हैं बल्कि उनकी मेहनत, कर्तव्यनिष्ठा और लग्न का परिणाम है कि एक साधारण सा तांगे वाला आज भारत में व्यापार के क्षेत्र में पद्मभूषण बन गया।

लेकिन उनकी इस प्रसिद्धि की केवल यही एक वजह नहीं है और न ही महाशय जी कार्यों और प्रसिद्धी का उल्लेख कागज के कुछ टुकड़ों पर किया जा सकता है। क्योंकि महाशय जी ने सार्वजनिक जीवन के दायित्व का पालन तो बखूबी किया ही साथ ही समाज में गरीब, बेसहारा लोगों के अनाथालय, स्कूल, अस्पताल जैसे न जाने कितने संस्थानों का निर्माण कराकर समाज को समर्पित किये, जिनकी सूची काफी लम्बी है। इन अनुकरणीय कार्यों के बाद भी महाशय जी ख्याति यही समाप्त नहीं होती यह टीवी विज्ञापन में आने वाले दुनिया के सबसे अधिक उम्र के स्टार के रूप में भी जाने जाते हैं। 
उनकी लंबी उम्र का राज उनका शुद्ध शाकाहारी भोजन और रोजाना किये जाने वाले व्यायाम है। पार्क में सैर करने के लिए वह रोज सुबह 4 बजे उठते हैं, वह योगा भी करते हैं वह शाम को भी सैर करने जाते हैं और रात को खाने के बाद भी। बावजूद इसके वह हर रोज कम से कम एक फैक्ट्री में जाते हैं। चाहे फिर वह दिल्ली की फैक्ट्री हो या फरीदाबाद और गुरुग्राम की।

इस सबके बावजूद महाशय जी एक सबसे बड़ी ख्याति यह है कि वह महर्षि दयानन्द सरस्वती जी द्वारा स्थापित और समाज को श्रेष्ठ मार्ग दिखाने वाले संगठन आर्य समाज के ध्वज को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। हम आर्यजनों के लिए यह गौरव का विषय इसलिए भी है कि भारत जैसे धार्मिक देश में कथित छत्तीस करोड़ देवी देवताओं उनके नाम पर कार्य करने वाले हजारों संगठनों और लाखों स्वयंभू बाबाओं से न जुड़कर महाशय जी ने आर्य समाज की आवाज को न केवल बुलंद किया बल्कि आर्य समाज के कार्यों को आगे बढ़ाने में अपने तन, मन और धन से सहयोग दिया। यही कारण है कि आज महाशय जी के आशीर्वाद से देश के पूर्वोत्तर भाग से लेकर मध्य भारत और दक्षिण भारत में वेद रिसर्च सेंटर से लेकर, गरीब आदिवासी बच्चों के लिए स्वामी दयानन्द सरस्वती जी द्वारा दिखाए मार्ग को प्रेरणादायक मानते हुए स्कूल कालिजो की स्थापना की। यदि पूर्वोत्तर भारत में आज वेद के मन्त्र गूंज रहे है तो इसका एक बड़ा श्रेय महाशय जी ही को जाता हैं।

हाल ही अंतर्राष्ट्रीय आर्य महासम्मेलन का सफलतापूर्वक सम्पन्न होना इसके पश्चात आर्य समाज को वैचारिक दुनिया में संवाद के रूप में आर्य मीडिया सेंटर के तौर पर एक हथियार देना महाशय जी की दानवीर ख्याति को दर्शाने के लिए काफी हैं। आर्य जगत से जुड़ें लोगों से निरंतर संवाद आर्य समाज की गतिविधियों की निंरतर जानकारी लेना हम सब लोगों को प्रेरित करना एवं स्वयं 96 वर्ष की अवस्था में एक युवा की भांति साथ चलना ही महाशय जी को दानवीर, कर्मवीर और धर्मवीर बना जाता हैं। महाशय जी आर्य रत्न तो थे ही अब उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से सम्मानित किया जाना हम सब आर्यों को एक नई दिशा, उत्साह और प्रेरणा देगा। हम भारत सरकार का ह्रदय से आभार व्यक्त करते है साथ ही महाशय जी कर्तव्यनिष्ठा को भी नमन करते हैं। अंत में एक शायर की कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी कि खुश रहे तुम्हे देखने वाले वरना किसने खुदा को देखा है

क्या चीन में बदल दिया जाएगा इस्लाम


हाल में विश्व भर के अखबारों की यह सुर्खिया हर किसी को सोचने पर मजबूर कर रही कि क्या वास्तव में चीन इस्लाम को बदलने जा रहा है! सूचनाओं के माध्यम से खबर है कि चीन अपने यहाँ मुसलमानों पर नियंत्रण करने के लिए एक राजनीतिक अभियान की शुरुआत करने वाला है। इसके लिए एक पंचवर्षीय योजना बनाई जा रही है जिसके तहत इस्लाम का चीनीकरण किया जाएगा ताकि इस्लाम को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के विचारों के अनुरूप ढाला जा सके। अगर ऐसा हुआ तो यह अपने आप में एक बड़ा क्रांतिकारी कदम होगा जिसकी मांग भी पिछले काफी समय से बार-बार की जा रही है।

इस बात से सारी दुनिया परिचित है कि इस्लाम अपने आप में एक साम्राज्यवादी विचारधारा है और जिसका लक्ष्य अधिक से अधिक भूभाग पर अधिकार और सातवीं सदी में बनाएं गये कानून से लोगों को हांकना है। कई इस्लामविद इसके लिए हर एक वो रास्ता भी अपनाने से नहीं चुकते जिसे आधुनिक संविधान कई मायनो में अपराध की संज्ञा भी प्रदान करता है। यानि जो भी टकराव है वह सिर्फ आधुनिक संविधान और शरियत कानून के मध्य रहा है। अब हो सकता है चीन इस टकराव को समाप्त करने लिए इस्लाम की अवधारणाओं को अपने कम्युनिस्ट कानून के अनुरूप ढालना चाहता हो।

बताया जा रहा है कि शुरुआत में मुसलमानों को मूल सामाजिक मूल्यों, कानून और पारंपरिक संस्कृति पर भाषण और प्रशिक्षण दिया जाएगा। मदरसों में नई किताबें रखी जाएंगी ताकि लोग इस्लाम के चीनीकरण को और बेहतर ढंग से समझ सकें। सकारात्मक भाव के साथ विभिन्न कहानियों के माध्यम से मुसलमानों का मार्गदर्शन किया जाएगा। हालांकि, इस योजना के बारे में और ज्यादा जानकारी नहीं दी गई है। अभी इसे गुप्त रखा जा रहा है।

यह बात तो मान्य है कि वतर्मान परिस्थितियों में इस्लाम अपने आप में एक बड़े बदलाव की बाट जोह रहा है। पिछले दिनों सऊदी अरब में महिलाओं के लिए बने कई कठोर कानूनों में बदलाव किया गया हैं। वर्ष 2005 में इस्लामिक लेखक सलमान रुश्दी ने ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र द टाइम्स में अपने एक लेख में कहा था कि अब इस्लामवादियों को इस बात की जरूरत है कि परंपरा से अलग हटकर बढ़ा जाए। इसके लिए एक सुधार आंदोलन चलाना होगा जिससे इस्लाम की मूल भावनाओं को आधुनिक दौर में लाया जा सके। रुश्दी ने ये भी तर्क दिया है कि पवित्र ग्रंथ कुरान को एक ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह पढ़ाया जाना चाहिए ना कि किसी ऐसी पुस्तक के तौर पर जिसपर कोई सवाल ना उठाया जा सके। अगर सुधार हुए तो तभी सातवीं शताब्दी में बनाए गए कानून 21वीं सदी की जरूरतों को अपना मार्ग बनाने दे पाएँगे।

अब सवाल यही उठता है इस्लाम के अन्दर यह बदलाव कैसे हो सकता है? चीन के संदर्भ में जो अनुमान लगाये जा रहे है वह इस प्रकार कि इस्लामिक पहनावे में बदलाव किया जायेगा।  रोजाना के धार्मिक प्रयोग जैसे नमाज पढ़ना, रोजा रखना जैसी पारम्परिक बाध्यता को खत्म किया जायेगा, साथ ही दाढ़ी बढ़ाने भी पांबदी की तैयारी है। कट्टर इस्लामिक नाम रखने पर पाबंदी होगी और इस्लाम से पहले चाइना की संस्कृति को महत्व देना होगा। हालाँकि इस पहल की शुरूआती तौर पर चीन की मस्जिदों से इस्लामिक ध्वज उतारकर उनकी जगह चीनी ध्वज भी लगाये जा रहे है।

अब यदि इस प्रश्न को चाइना की सीमा पार कर भारत के संदर्भ में रखा जाये मुझे नहीं पता कितना उपयुक्त होगा। किन्तु इतना तय की इस बदलाव से काफी धार्मिक संघर्षो एवं राष्ट्रीय मुद्दों को कफन जरुर पहनाया जा सकता है। किन्तु धर्मनिरपेक्षता के ढोंग की राजनीति के रहते यहाँ ऐसा संभव होता दिखाई नहीं देता, क्योंकि जब-जब हमारे पास बदलाव के ऐसे अवसर आये तब-तब हमने बदलाव को अस्वीकार कर वोट बेंक को तरजीह ज्यादा दी।
   
कौन भूल सकता है 1978 का पांच बच्चों की मां 62 वर्षीय शाहबानो का मामला जिसने तलाक के बाद गुजारा भत्ता पाने के लिए कानून की शरण ली थी। कोर्ट ने सुनवाई के बाद अपना फैसला सुनाते हुए शाहबानो के हक में फैसला देते हुए उसके पति को गुजारा भत्ता देने का आदेश भी दिया था। परन्तु शाहबानो के कानूनी तलाक भत्ते पर देशभर में राजनीतिक बवाल मच गया और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाले मुआवजे को निरस्त करते हुए एक साल के भीतर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। अगर यह फैसला ना पलटा गया होता तो जरुर मुस्लिम महिलाओं को सातवीं सदी के एक कानून से तो छुटकारा मिल गया होता किन्तु मुल्ला मौलवियों के दबाव में यह बड़ा बदलाव नहीं सका।

असल में आज मुस्लिमों को भी एक बात स्वीकार करनी होगी कि पूरी दुनिया में जो प्रगति और परिवर्तन हो रहे हैं मुस्लिम उससे कटे हुए नहीं बल्कि ज्यादातर उस परिवर्तन का लाभ उठाने वालों में शामिल हैं, परिवर्तन लाने वालों में नहीं। आधुनिक शिक्षा के विकास के साथ यह स्थिति बदल रही है। मगर मुल्ला मौलवियों का एक बड़ा वर्ग अब भी पुरानी लीक पर जमा हुआ है। इससे इस तर्क को बल मिल जाता है कि पूरा मुस्लिम समाज कट्टरपंथी है शायद यही इस्लाम अस्थिरता का कारण भी है। कहा जाता है कि एक बार मौलाना आजाद ने अपने एक इंटरव्यू में इन्हीं मौलवियों के लिए कहा है,  इस्लाम की पूरी तारीख उन मौलवियों से भरी पड़ी है जिनके कारण इस्लाम हर दौर में सिसकियां लेता रहा है।

अब चीन से सबक लेकर सभी उदारवादी मुस्लिमों को समझ जाना चाहिए कि मध्यकालीन पुस्तकों और कानूनों से भले ही उन्होंने अनेक शताब्दियों तक काम चलाया हो परंतु अब परिस्थियाँ बदल रही और इस कारण स्वयं ही आगे बढ़कर सामाजिक बदलाव और आधुनिक संविधान को स्वीकार कर लेना चाहिए इससे ही अनेकों स्थानों से सामाजिक और धार्मिक संघर्षों को मुक्ति मिल सकती है।