Tuesday 28 August 2018

महाभारत के असली श्रीकृष्ण


भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि की घनघोर अंधेरी आधी रात को मथुरा के कारागार में वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था। यह तिथि उसी शुभ घड़ी की याद दिलाती है और सारे देश में बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। हर वर्ष की भांति एक बार फिर श्रीकृष्ण जी का जन्मदिवस का उत्सव निकट आ रहा है। एक बार फिर वही होगा जो होता आया है। जगह-जगह दही-हांड़ी के आयोजन होंगे। भागवत गीता के पाठ होंगे, कहीं कथावाचक योगी राज श्रीकृष्ण को माखन चोर बताकर गोपियों से उनकी रासलीला का वर्णन करते दिखेंगे तो कोई गोपियों के कपड़े चुराने का वर्णन करेंगें सजे पंडाल और मंदिरों में जमा लोग चटकारे ले-लेकर कर अपने घरों की ओर लौट जायेंगे। जब यह सब कुछ होगा लोग सोचेंगे कि कृष्ण का जन्म होगा लेकिन असल मायने में ये कृष्ण का जन्मदिवस नहीं बल्कि गीता में कहे गये उनके विचारों की हत्या होगी। 

कथा वाचकों ने मन्त्र घड़ दिया कि जब-जब धर्म की हानि होगी मैं वापस आऊंगा, यानि मेरा जन्म होगा। ये लोग खुद तो कायर थे ही वीर लोगों को भी प्रतीक्षा में बैठा दिया कि कुछ मत करो धर्म की हानि होने पर प्रभु खुद आ जायेंगे। कहा जाता कि चमत्कारों से प्रभावित होकर उत्पन्न हुई श्रद्धा धर्म के विनाश का कारण बनती है लेकिन जिन्होंने गीता के सच्चे अर्थों को जाना है, जिन्होंने योगिराज श्रीकृष्ण के विचारों को आत्मसात किया, वह इस चक्कर में फंस ही नहीं सकते। उनके पास जरूर सवाल होंगे कि जो श्रीकृकृष्ण नग्न द्रोपदी को ढ़क सकते हैं क्या वे श्रीकृष्ण गोपियों को नग्न देखना पसंद करते होंगे? कितनी विरोधभाषी बात है एक ही चरित्र से लोगों ने दो अलग-अलग कार्य करा दिए। इसीलिए महापुरुषों की जिंदगी कभी भी ऐतिहासिक नहीं हो पाती सदा धार्मिक हो जाती है जब हम पीछे लौट कर देखते हैं तो हर चीज प्रतीक हो जाती है दूसरे अर्थ ले लेती है जो अर्थ कभी नहीं रहे होंगे वह भी जन्म लेते हैं। 
इसी कारण श्रीकृष्ण जैसे महापुरुषों की जिंदगी एक बार नहीं लिखी जाती शायद सदी में बार-बार लिखी जाती है। हजारों लोग लिखते हैं हजारों व्याख्या होती चली जाती हैं फिर धीरे-धीरे श्रीकृष्ण की जिंदगी किसी व्यक्ति की जिंदगी नहीं रह जाती श्रीकृष्ण एक संस्था हो जाते हैं। फिर वह अंधश्र(ा के सबूत हो जाते हैं। जब ऐसा होता है तो श्रीकृष्ण मंदिरों के पुजारियों के व्यापार हो जाते हैं। संस्थाओं की दान पेटियों के कान्हा बन जाते हैं वे राधा के प्रेमी हो जाते हैं, वह रासलीला के श्रीकृष्ण बन जाते हैं। वे गोपियों के कान्हा हो जाते हैं फिर वे गीता के वो श्रीकृष्ण कहाँ रह जाते हैं जो मानवता को कर्मयोग का रास्ता दिखाते है। 
ध्यान से पढ़े तो भागवत के श्रीकृष्ण में और महाभारत के श्रीकृष्ण में तालमेल समझना कोई बड़ी बात नहीं।  दोनों में बड़ा अंतर दिखेगा। गीता के श्रीकृष्ण बड़े गंभीर हैं, धर्म, आत्मा, परमात्मा, योग और मोक्ष की बात करते हैं। कहते हैं- जब मनुष्य आसक्तिरहित होकर कर्म करता है, तो उसका जीवन यज्ञ हो जाता है किन्तु भागवत के श्रीकृष्ण एकदम गैर गंभीर वे माखन चुरा रहे हैं, नहाती हुई लड़कियों के कपड़े चुरा रहे हैं। कितना विरोध है दोनों में एक तरफ परम आत्मा है जो परम को जानती है जो रण में निराश अर्जुन को आरम्भ और अंत की व्याख्या सहज भाव से गम्भीर मुस्कुराहट के साथ समझा रही है कि अर्जुन तू रुकभाग मत! क्योंकि जो भाग गया, स्थिति से, वह कभी भी स्थिति के ऊपर नहीं उठ पाता, जो परिस्थिति से पीठ कर गया, वह हार गया। दूसरी ओर भागवत में एक स्वरचित पात्र है जो चोरी कर रहा है और माँ से झूठ बोल रहा है। क्या दोनों एक हो सकते हैं?
कुछ लोग कह सकते हैं नहीं यही श्रीकृष्ण का बाल्यकाल था और बचपने में बच्चे ऐसा ही करते हैं तब ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण को समझना बहुत आवश्यक है। श्रीकृष्ण महाभारत में एक पात्र हैं जिनका वर्णन सबने अपने-अपने तरीके से किया सबने श्रीकृष्ण के जीवन को खंडो में बाँट लिया, सूरदास ने उन्हें बचपन से बाहर नहीं आने दिया, सूरदास के श्रीकृष्ण कभी बच्चे से बड़े नहीं हो पाते। बड़े श्रीकृष्ण के साथ उन्हें पता नहीं क्या खतरा था? इसलिए अपनी सारी कल्पनायें उनके बचपन पर ही थोफ दीं। रहीम और रसखान ने उनके साथ गोपियाँ जोड़ दीं, इन लोगों ने वह श्रीकृष्ण मिटा दिया जो वेद और धर्म की बात कहता है और मीरा के भजन में दुःख खड़े हो गये, इस्कॉन वालों ने अलग से श्रीकृष्ण खड़ा कर लिया, श्रीकृष्ण का जो असली चरित्र कर्मयोग का था, जो ज्ञान का था, जो नीति का था, जिसमें धर्म का ज्ञान था, जिसमें युद्ध की कला थी वह सब हटा दिया नकली खड़ा कर दिया। 

धर्म और इतिहास में श्रीकृष्ण अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जो धर्म की परम गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी अहंकार से परे थे। श्रीकृष्ण समस्त को स्वीकार कर रहे हैं, कृश्रीकृष्ण दुख को भी नहीं पकड़ रहे हैं, सुख को भी नहीं पकड़ रहे हैं। गीता के श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि शरीर मूल तत्व नहीं है, मूल तत्व आत्मा है, जन्म आरम्भ नहीं है और मृत्यु अंत नहीं है क्योंकि आत्मा की यात्रा अनंत है अतः शरीर की यात्रा यानि जन्म मरण पर कैसी खुशी, कैसा उत्सव! और कैसा शोक?


बाढ़ और अंधविश्वास के बीच डूबता केरल


देश का दक्षिणी राज्य केरल पिछले करीब 100 साल की सबसे भीषण बाढ़ का सामना कर रहा है. कई दिनों से भारी बारिश, भूस्खलन और बाढ़ में करीब 300 से अधिक  लोगों की मौत हो गई. सेना और एनडीआरएफ के जवान दिन-रात राहत कार्य में जुटे हैं. इस भयंकर जल प्रलय में लोग जीवन और मौत के बीच जूझ रहे है. लेकिन इससे भी दुखद यह है कि जहाँ इस प्राकृतिक आपदा के खिलाफ जहाँ लोगों को एकजुट होकर सामना करने का होसला दिया जाना चाहिए वहां उल्टा मौत के मुंह से बचें लोगों को अंधविश्वास में डुबोया जा रहा है. लोग कह रहे है केरल उन लोगों की वजह से डूब रहा है जिन्होंने सबरीमाला मंदिर के अनुशासन में हस्तक्षेप किया. भगवान अयप्पा गुस्से में हैं और बाहरी लोगों के दखल देने के कारण केरल को दंडित कर रहे हैं. ज्ञात हो इस महीने की शुरुआत में, सुप्रीम कोर्ट ने केरल के सबरीमाला मंदिर में मासिक धर्म के उम्र वाली महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को चुनौती देने वाली याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था. कुछेक लोगों का मानना है केरल को बाढ़ का सामना इसी वजह से करना पड़ रहा है.

सवाल ये भी है कि बाढ़ में डूबे लोगों को तो भारतीय सेना उपयुक्त साधनों से बचा सकती है लेकिन अंधविश्वास में डूबे लोगों को किन साधनों से बचाए, यह कोई समझ नहीं पा रहा है? इस अंधविश्वास का शिकार सामान्य जन ही नहीं बल्कि भारतीय रिजर्व बैंक के बोर्ड में ऊँचे पद पर आसीन एस गुरुमुर्ति जैसे लोग है जिन्हें हाल ही आरबीआई में पार्ट टाइम गैर-आधिकारिक निदेशक के रूप में नियुक्त किया है. गुरुमुर्ति ने लिखा हैं सुप्रीम कोर्ट के जजों यह देखना चाहिए कि इस मामले और सबरीमाला में जो भी हो रहा है उसके बीच में क्या कोई संबंध है. अगर इन दोनों के बीच संबंध होने का चांस लाख में एक हो तो भी लोग अयप्पन के खिलाफ किसी भी तरह के फैसले को स्वीकार नहीं करेंगे. यदि इस मामले और बारिश में हल्का  सा भी कनेक्शन हुआ तो लोग नहीं चाहेंगे कि फैसला भगवान अयप्पन के खिलाफ जाए.

असल में हजारों वर्ष से चली आ रही परंपराओं के कारण हिन्दू धर्म में विश्वास- अंधविश्वास बन गए हैं? ये विश्वास शास्त्रसम्मत है या कि परंपरा और मान्यताओं के रूप में लोगों द्वारा स्थापित किए गए हैं? ऐसे कई सवाल है जिसके जवाब ढूंढ़ने का प्रयास कम ही लोग करते हैं और जो नहीं करते हैं वे किसी भी विश्वास को अंधभक्त बनकर माने चले जाते हैं और कोई भी यह हिम्मत नहीं करता है कि ये मान्यताएं या परंपराएं तोड़ दी जाएं या इनके खिलाफ कोई कदम उठाए जाएं
कुछ लोग कह रहे है कि इतिहास में केरल के अन्दर कभी भी, कुछ भी बुरा नहीं घटा. हमें अविश्वास का अधिकार है. लेकिन सदियों से चली आ रही अपनी प्रथा से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए. जबकि केरल में बाढ़ का असली कारण कोई देवीय प्रकोप नहीं है इस विनाशकारी बाढ़ से ठीक एक महीने पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक आंकलन में केरल को बाढ़ को लेकर सबसे असुरक्षित 10 राज्यों में रखा गया था. साथ ही पिछले माह चेतावनी दी थी कि केरल राज्य जल संसाधनों के प्रबंधन के मामले में दक्षिण भारतीय राज्यों में सबसे ख़राब स्तर पर है. ऐसा लगता है कि एक महीने बाद ही इस सरकारी रिपोर्ट के केरल में इस के परिणाम भी मिलने लगे हैं. जल प्रबंधन अधिकारियों और विशेषज्ञों का कहना है कि यदि प्रशासन कम से कम 30 बांधों से समयबद्ध तरीके से धीरे-धीरे पानी छोड़ता तो केरल में बाढ़ इतनी विनाशकारी नहीं होती. इससे बचा जा सकता था. एक किस्म से देखा जाये तो जल प्रबन्धन से जुड़े तमाम संस्थान और राज्य सरकार अपनी नाकामी सबरीमाला के अंधविश्वास की ओट में छिपा देना चाहती है.

दरअसल तमाम अध्यन और केन्द्रीय जल प्रबन्धन से जुड़े लोगों के बयानों से यह भी स्पष्ट है कि केरल में बाढ़ आने से पहले ऐसा काफी वक्त था जब पानी को छोड़ा जा सकता था. जब पिछले हफ्ते पानी उफान पर था, तब 80 से अधिक बांधों से एक साथ पानी छोड़ा गया. जो इस तबाही का सबसे बड़ा जिम्मेदार है.

असल में इस राज्य में कुल 41 नदियां बहती हैं. आपदा प्रबंधन नीतियां भी हैं लेकिन इस रिपोर्ट के आने के बावजूद केरल ने किसी भी ऐसी तबाही के ख़तरे को कम करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए. हालाँकि पहले के वर्षों में पिछले चार महीने के दौरान जितनी बारिश होती थी इस बार केवल ढाई महीने में ही इससे 37 फीसदी अधिक बारिश हुई है. लेकिन इसका कारण प्रबंधन नीति रही या अंधविश्वास ये लोगों को सोचना होगा.

कौन भूल सकता है कि ऐसा ही हादसा 2015 में चेन्नई में हुआ था और साल 2013 में केदारनाथ त्रासदी भी इसी देश में हुई थी. यदि यहाँ भी अंधविश्वास से बाहर निकलकर सच का सामना करें तो पर्यावरणविद इसके लिए जंगलों की कटाई को दोष दे रहे हैं. तेजी से होते शहरीकरण और बुनियादी ढांचों के निर्माण की वजह से बाढ़ की विभीषिका से प्राकृतिक तौर पर रक्षा करने वाली दलदली जमीनें और झीलें गुम होती जा रही हैं. लगातार हो रहे शहरीकरण से पेड़ पौधे कटने लगे और उनकी जगह कॉटेज और मकान बनने लगे. भारत के उन दूसरे हिस्सों में भी जहां वनों की कटाई की गई है, वहां बहुत कम समय में भारी बारिश की वजह से पहले भी तबाही मच चुकी है. इसे किसी किसी भी अंधविश्वास से मत जोड़िए. पर्यावरण की रक्षा के साथ इस समय केरल के लोगों को मदद की जरूरत है न कि अंधविश्वास की..राजीव चौधरी 

Monday 20 August 2018

धार्मिक व सामाजिक अंधविश्वास व पाखण्डों का कारण अविद्या है”


हमारे देश में अनेक प्रकार के धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वास एवं पाखण्ड प्रचलित हैं। इन अन्धविश्वास एवं पाखण्डों का कारण देश में प्रचलित सभी मत-मतान्तरों की अविद्या है। इस अविद्या के कारण अनेक प्रकार की कुरीतियां भी प्रचलित हैं और सामाजिक विद्वेष उत्पन्न होने सहित किन्हीं दो समुदायों में हिंसा भी होती रहती है। अन्धविश्वासों व पाखण्डों का कारण अविद्या है, यह सत्य होने पर भी कोई मत-मतान्तर इसे स्वीकार नहीं करता। सभी मतों के आचार्य एवं उनके अनुयायी मुख्यतः अविद्या एवं अपने-अपने प्रयोजन की सिद्धि आदि के कारण जानबूझकर भी सत्य वैदिक मत को स्वीकार नहीं करते। यह भी तथ्य है कि महाभारतकाल के बाद लोगों के आलस्य व प्रमाद के कारण वैदिक धर्म का सत्यस्वरूप विकृत व विलुप्त हो गया था। लोगों ने वेदाध्ययन करने में प्रमाद किया जिससे सत्य वेदार्थ विलुप्त होते गये। कुछ स्वार्थी प्रकृति के लोगों ने अपनी अविद्या के कारण वेदों के मिथ्या व भ्रान्तियुक्त अर्थ भी किये जिससे समाज में मिथ्या विश्वासों की वृद्धि हुई। समय बीतने के साथ समाज में अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड तथा सामाजिक कुरीतियां में वृद्धि होती गई। बौद्ध काल में महात्मा बुद्ध ने मुख्यतः यज्ञ में पशु हिंसा एवं अन्य कुप्रथाओं का विरोध किया। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियो ंने बौद्धमत की स्थापना की। इसी कालावधि में देश में महावीर स्वामी के अनुयायियों ने जैनमत की भी आलोचना की। लोग वैदिक मत छोड़कर नव-बौद्ध-मत व जैनमत को स्वीकार करने लगे। कालान्तर में स्वामी शंकराचार्य जी का आविर्भाव हुआ। उन्होंने बौद्ध व जैन मत की ईश्वर के अस्तित्व को न मानने के सिद्धान्त को वेद विरुद्ध होने के कारण उनसे शास्त्रार्थ करके उनकी मान्यताओं का खण्डन किया और विजयी हुए। इसके परिणाम स्वरूप तत्कालीन जैनी वा बौद्धमत के राजाओं ने स्वामी शंकराचार्य के अद्वैतमत को स्वीकार किया। इससे बौद्ध व जैन मत पराभव को प्राप्त हुए और स्वामी शंकराचार्य का मत देश भर में प्रचलित हुआ। ऐसा होने पर भी देश व समाज से अज्ञान व अन्धविश्वास आदि समाप्त न हुआ और अल्पकाल में ही स्वामी शंकर की मृत्यु के कारण बौद्ध व जैन मत पुनः प्रभावशाली होने लगे। बौद्ध व जैन मत भी सत्य पर आधारित न होने के कारण वह भी सर्वमान्य नहीं हुए। वैदिक मत के अन्धविश्वास व मिथ्या परम्पराओं में वृद्धि होती गई। इस कारण वह भी वेद की सत्य मान्यताओं से बहुत दूर चले गये। कालान्तर में देश में 18 पुराणों का प्रचलन हुआ जिससे अनेक पौराणिक मत अस्तित्व में आये। मुख्य मत शैव, वैष्णव व शाक्त थे। कालान्तर में इनकी भी अनेक शाखायें हुईं और अन्य अनेक नये मत प्रचलित हो गये जिनका आधार सत्य ज्ञान न होकर अविद्या थी। स्वामी दयानन्द (1825-1883) के समय तक देश में मत-मतान्तरों की वृद्धि के साथ अन्धविश्वासों व कुप्रथाओं में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई और आज भी यह क्रम बढ़ता ही जा रहा है।


संसार में जितने भी मत-मतान्तर हैं उनमें कुछ ज्ञानपूर्वक मान्यतायें भी हैं, वह सब मतों में सामान्य हैं। मत-मतान्तरों की जो मान्यतायें भिन्न व परस्पर विरुद्ध हैं, उसका कारण अज्ञान वा अविद्या है। धर्म सार्वभौमिक सत्य सिद्धान्तों को कहते हैं जिनका प्रतिपादन सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने वेदों में किया है। वेद की सभी बातें व सिद्धान्त सत्य पर आधारित हैं। हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों ने वेद के सिद्धान्तों की परीक्षा कर इसे सत्य व धर्म का मूल सिद्ध किया था। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में भी वेदों के सिद्धान्तों को समग्रता व सम्पूर्णता से सत्य पाया और उसका प्रचार किया। उन्होंने डिन्डिम घोष कर कहा कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसके साथ उन्होंने यह सिद्धान्त भी दिया कि सब सत्य विद्या (चार वेद) और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है।इसका अर्थ यह है कि चार वेद और सृष्टि के पदार्थ जिन्हें हमारे विद्वान व वैज्ञानिक विद्या से जानते हैं उन सब पदार्थों का आदि मूल अर्थात् रचयिता, उन्हें बनानेवाला व पालक परमेश्वर है। वेदों के आधार पर ऋषि दयानन्द ने ईश्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप भी जनसमुदाय के सम्मुख रखा और घोषणा की कि ‘‘ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।आज भी कोई मत व उनका बड़ा या छोटा आचार्य और वैज्ञानिक ऋषि दयानन्द के इस सत्य सिद्धान्त को झुठला नहीं पाया। इससे ईश्वर विषयक यह सिद्धान्त सत्य सिद्ध हुआ है।

जीवात्मा अर्थात् मनुष्यात्मा व प्राणिमात्र की आत्मा के विषय में ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाशमें लिखा है कि जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अत्पज्ञ नित्य है उसी को जीवमानता हूं। उन्होंने जीव और ईश्वर के स्वरूप के विषय में आगे लिखा कि जीव और ईश्वर स्वरूप और वैधर्म्य से भिन्न और व्याप्य-व्यापक और साधर्म्य से अभिन्न है अर्थात् जैसे आकाश से मूर्तिमान् द्रव्य कभी भिन्न न था न है, न होगा और न कभी एक था, न है, न होगा इसी प्रकार परमेश्वर और जीव को व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक और पिता-पुत्र आदि सम्बन्धयुक्त मानता हूं। ऋषि दयानन्द अभाव से भाव का उत्पन्न होना व भाव का अभाव होना नहीं मानते। यह आधुनिक विज्ञान का नियम भी है कि हर पदार्थ की उत्पत्ति का कोई एक व कुछ उपादान कारण होते हैं। उस उपादान कारण से ही ज्ञान व शक्ति का प्रयोग कर कोई चेतन सत्ता, ईश्वर व मनुष्य, नया पदार्थ बना सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने भी दर्शनों के आधार पर इस सृष्टि का निमित्त कारण ईश्वर तथा उपादान कारण प्रकृति को बताया हैं। वैदिक सिद्धान्तों से भी कारण-कार्य सिद्धान्त पुष्ट होता है। यह भी महत्वपूर्ण बात है कि किसी वेद में अन्य मत-मतान्तरों के ग्रन्थों की तरह यह नहीं लिखा व कहा है कि ईश्वर ने कहा कि हो जाया बन जाऔर इतना कहने मात्र से ही यह ब्रह्माण्ड बन गया। ऐसा कहना व मानना अज्ञानता व सत्य का परिहास है। महर्षि दयानन्द के वैदिक सिद्धान्तों का किसी भी मत व वैज्ञानिकों ने खण्डन नहीं किया। उनमें खण्डन की क्षमता है भी नहीं। हमारा मत है कि जो बात तर्क व युक्ति से सिद्ध हो वह सत्य होती है और वही विज्ञान भी है। ईश्वर व जीवात्मा के सम्बन्ध में वेद, दर्शन और ऋषि दयानन्द सहित हमारे सभी ऋषि पर्याप्त प्रमाण देते हैं। अतः संसार में वेद और वैदिक सिद्धान्त, जो महर्षि दयानन्द आदि ऋषियों के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश आदि में वर्णित हैं, वह पूर्ण सत्य व पूरे विश्व के सभी लोगों के लिए मान्य व स्वीकार्य होने चाहिये। इन्हें मानकर ही देश व समाज सुखी हो सकता है और साथ ही कल्याण को प्राप्त हो सकता है। समस्त मानव समाज मिथ्या अन्धविश्वासों सहित पाखण्डों से मुक्त भी हो सकता है।

अन्धविश्वास का अर्थ होता है कि किसी असत्य, लाभरहित अथवा हानिकारक मान्यता व सिद्धान्त को सत्य स्वीकार कर उसका आचरण करना। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म, निराकार, सर्वशक्तिमान, अजन्मा आदि गुणों वाला है। सर्वव्यापक व निराकार स्वरूप वाले ईश्वर की मूर्ति व आकृति कदापि नहीं बनाई जा सकती। ईश्वर प्रत्येक स्थान पर होने से मूर्ति के अन्दर व बाहर दोनों स्थानों पर होता है। फिर मूर्ति के बाहर स्वीकार न करना व उसे दृष्टि से ओझल करना, मूर्ति से बाहर उसका ध्यान न करना, ईश्वर को मूर्ति में ही मानना तथा उस पाषाण जड़ मूर्ति से अपनी इच्छाओं की पूर्ति व कामनाओं को सफल होना मानना यह घोर अविद्या व अज्ञान है। ऋषि दयानन्द और वेदों की मान्यता है कि हम मूर्ति की कितनी भी पूजा कर लें, उससे हमें किसी प्रकार के सुख व कामना पूर्ति आदि का कोई लाभ नहीं होता। इसके स्थान पर यदि हम ईश्वर को निराकार, सर्वव्यापक, सर्वत्र उपलब्ध वा विद्यमान तथा सर्वशक्तिमान मानकर गायत्री मन्त्र आदि से उसका ध्यान, प्रार्थना व उपासना करते हैं तो इससे ईश्वर हमारी प्रार्थना को स्वीकार करता है। फलित ज्योतिष भी मिथ्या ज्ञान है। इसको मानने से मनुष्य अपनी हानि ही करता है, लाभ इससे कुछ होता नहीं। आज विज्ञान ने विश्व में जो उन्नति की है वह फलित ज्योतिष की उपेक्षा करके ही की है। हर्ष का विषय है कि हमारे वैज्ञानिक भी फलित ज्योतिष को नहीं मानते। विवाह के अवसर पर जन्म पत्रियों का मिलान फलित ज्योतिष की मान्यताओं के आधार पर करते हैं। इस कारण कई योग्य वर-वधुओं के विवाह नहीं हो पाते। हमने ऐसे ज्योतिषी भी देखें हैं जिन्होंने किसी वृद्ध महिला को बताया कि तुम्हारे परिवार में पुत्र के यहां पुत्र उत्पन्न न होगा। वह महिला मर गई और उसके बाद उसके पुत्र के यहां दो पुत्र हो गये। वेदों के ऋषि दयानन्द ने भी फलित ज्योतिष को मिथ्या और देश की गुलामी का प्रमुख कारण माना है।

मृतक श्राद्ध भी मिथ्या मान्यता है। मरने के बाद जीवात्मा का पुनर्जन्म हो जाता है या फिर लाखों व करोड़ों आत्माओं में किसी एक धर्मात्मा व वेदज्ञानी मनुष्य की आत्मा का मोक्ष होता है। अन्य सब आत्माओं का पुनर्जन्म होना निश्चित है। जिस आत्मा का पुनर्जन्म हो गया उसे भोजन जहां उसका जन्म हुआ है, वहां उसके माता-पिता आदि व वह स्वयं पुरुषार्थ कर प्राप्त करेगा। यहां से बिना पते के भोजन वहां कदापि नहीं पहुंच सकता। वर्ष में एक दो बार भोजन बनाकर अग्नि में डाल देने से मृतक का पूरे वर्ष के लिए पेट नहीं भर सकता। यदि यह मान लें कि मृतक आत्मा का जन्म नहीं हुआ तो भी उस अजन्मी आत्मा को तो भोजन की आवश्यकता ही नहीं होगी। भोजन की आवश्यकता तो शरीर को होती है न कि आत्मा को। अतः मृतक श्राद्ध भी अन्धविश्वास व पाखण्ड है और इसे कुछ लोगों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए बनाया हुआ प्रतीत होता है। जन्मना जातिवाद भी एक बहुत बड़ा अन्धविश्वास व कुपरम्परा है। अतीत में यह बहुत से निर्दोष लोगों पर सबल लोगों के अत्याचार का कारण बना है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन काल में सबसे पहले इसका विरोध किया था। आज के आधुनिक युग में जन्मना जातिवाद जारी है। यह लोगों के अज्ञान व अविद्या के कारण ही विद्यमान है अन्यथा इसे आज और अभी समाप्त कर देना चाहिये। किसी को भी जन्मना जातिवाचक शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। अपने बच्चों के विवाह भी सबको गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर वैदिक धर्म के ही भीतर ही करने चाहियें। अविद्या और अन्धविश्वास केवल हिन्दूओं में ही नहीं हैं अपितु बौद्ध, जैन, ईसाई व मुसलमानों सहित सभी मत-मतान्तरों में भी हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्य के निर्णयार्थ सत्यार्थप्रकाश में मत-मतान्तरों की अविद्या व अन्धविश्वासों का दिग्दर्शन कराया है। सभी समझदार व बुद्धिमान मनुष्यों को सत्यासत्य का विचार कर अन्धविश्वास और पाखण्डों सहित मिथ्या कुपरम्पराओं का त्याग करना चाहिये और सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर एकमात्र सत्य वैदिक धर्म की शरण में आकर अपने जीवन को सुखी व कल्याण से युक्त करना चाहिये। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य 

धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिन्दूओं के लिए ही क्यों?


जब ये खबर पढ़ी कि बागपत के बाबू खान को कांवड़ लाने की सजा मिल रही है. वह हरिद्वार से कांवड़ लाया था लेकिन कुछ मुस्लिमों युवाओं को रास नहीं आया और अपने मजहब का हवाला देते हुए उसे पीट डाला गया कहा जा अब मंदिर में ही घंटा बजा और कीर्तन कर. इसके बाद बाबूखान ने उनसे नमाज अदा करने देने की मनुहार भी लगाई लेकिन सब व्यर्थ रहा. आरोपियों ने धमकी दी कि जहां चाहे शिकायत कर ले लेकिन तुझे मस्जिद में नहीं घुसने दिया जाएगा. कल तक जब हिंदू-मुस्लिम एकता के गवाह बने बाबू खान को अपने ही समाज के लोगों द्वारा की जा रही उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है.
शायद अब बात-बात पर धर्मनिरपेक्षता, और गंगा-जमुनी तहजीब का हवाला देने वाले लोगों की आँखों से सेकुलरता का पर्दा हटें कि जब हजारों लाखों हिन्दुओं के द्वारा कब्र,मजार या दरगाह पूजने से धार्मिक एकता बढती हैं तो एक बाबु खां के कावड ले आने से मजहब को खतरा क्यों हो जाता है? मजारो पर हिन्दु मुस्लिम एकता का प्रतीक कहकर हिन्दुओं से चादर चढ़ाते दिखाया जाता है. किन्तु एक भी मंदिर में मुसलमानों से पूजा करवाकर हिन्दु-मुस्लिम एकता का उदाहरण क्यों नही पेश कराते? क्या धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिन्दुओ का त्यौहार है.

हम सभी जानते हैं कि हम क्या सोचते हैं इसका मतलब है, लेकिन क्या विचार वास्तव में इतना आसान है, और धर्मनिरपेक्षता का लक्ष्य क्या हमारे लिए अच्छा है? यहाँ एक बात समझ लेनी जरुरी होगी कि दरअसल, भारतीय गणतंत्र के मूल में ही धर्मनिरपेक्षता नहीं थी. यहां यह मान लेने में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि भारतीय राष्ट्रवाद का चरित्र मौलिक रूप से धर्मनिरपेक्ष कभी नहीं रहा. हां, उस पर धर्मनिरपेक्षताकी परत अवश्य चढ़ा दी गयी लेकिन इसमें कोई राष्ट्रीय एकता का सिद्धांत नहीं था यह केवल वोट लेने की राजनीति तक सीमित रहा.
इस कारण राजनेताओं की राजनीति खंड-खंड होकर लूटमार पर आधारित हो गई. बड़े-बड़े घोटालों और भीषण नव साम्राज्यवादी लूट ने देश को जब खोखला कर दिया तो उनका राजनीतिक प्रभाव भी शून्य हो गया. तब यह लोग धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत घडकर गोल जालीदार टोपी पहनकर राजनीति करते नजर आने लगे.
क्या कोई एक कथित धर्मनिरपेक्ष नेता बता सकता है कि कश्मीर में अपनी जमीन से जबरन खदेडे गए कश्मीरी पंडितों का क्या हुआ? जब जिहाद के नाम पर उन्हें मारा जा रहा था, तब कहाँ थी धर्मनिरपेक्षता? सच्चाई यह है कि कई वर्ष पहले जब औवेसी बंधुओं का हिन्दुओं को ख़त्म करने वाला बयान आया था, तब से ही पूरे देश में उनके समर्थक बढ़ रहे हैं. ये सब बातें किस तरफ इशारा कर रहीं हैं? लेकिन हमें क्या, हम तो शुतुरमुर्ग बन गए हैं और उसी की तरह हमने अपना सिर धर्मनिरपेक्षता की रेत में गाड़ लिया है, लेकिन आँखों को बंद कर लेने से मुसीबत ख़त्म नहीं होती. जब विश्वरूपंम का विरोध करने वालों के लिए मुस्लिम संगठन व मुस्लिम समुदाय जैसे शब्द उपयोग किये जाते हैं तब धर्मनिरपेक्षता बनी रहती है लेकिन जब हिन्दू रानी पद्मावती फिल्म का विरोध करते है तब उन्हें कट्टरपंथी हिन्दू शब्द पकड़ा दिए जाते है जरा सोचिये यह सब करनी वाली मीडिया खुद कितनी धर्मनिरपेक्ष है इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.
हिन्दु-मुस्लिम एकता की बात क्यों की जाती है  जवाहर लाल नेहरु, महात्मा गांधी, इन्दिरा गांधी, डा. राजेन्द्र प्रसाद आदि की समाधि पर उनकी पुण्यतिथि को गीता, कुरान आदि सभी धर्मो की पुस्तकों का पाठ होता है. लेकिन जाकिर हुसैन, मौलाना आजाद, फखरुद्दीन अली अहमद आदि मुसलिम नेताओं की मजार पर केवल कुरान का पाठ होता है. वहाँ यह नेता गीता का पाठ क्यों नही करवाते? क्या धर्मनिरपेक्षता और दूसरे धर्मो की इज्जत करने का ठेका केवल हिन्दुओं ने ही ले रखा है?
पिछले वर्ष दिसंबर, 2017 को, एक मुस्लिम प्रवासी मजदूर मोहम्मद अफ्राजुल को राजसमंद में शंभू लाल रेंगर नाम के आदमी ने हत्या कर दी थी उस समय वाशिंगटन स्थित एक बलूच के कार्यकर्ता अहमार मस्तिखन जो काफी समय से हिंदू धर्म का समर्थक रहा उसनें लिखा आज मेरे सिर से हिंदू धर्म के एक मानवतावादी होने का विश्वास उठ गया. यह बात एक मुस्लिम कह रहा था एक मानसिक रोगी द्वारा की हत्या से उसका विश्वास डोल गया लेकिन अमेरिका में हुए 26ध्11 और भारत ने हुए ताज होटल पर हमले और इस्लामिक स्टेट द्वारा हजारों यजीदी समुदाय के लोगों की हत्या और रेप के बाद उसका विश्वास कभी इस्लाम से नहीं उठा बस यही वो सवाल है जो धर्मनिरपेक्षता को खंगाल डालते है.
तसलीमा नसरीन भी धर्मनिरपेक्ष है और अरुधंति राय भी. पर कमाल देखिये! अरुंधती को अलगावादी नेताओं और कश्मीर का दर्द तो दिखता है पर बांग्लादेश में हिन्दुओं की चीख नहीं सुनती. दरअसल ये बहरापन नहीं बल्कि एक विचारधारा है. जिसे यहाँ धर्मनिरपेक्षता और अन्य देशों में पागलपन कहा जाता है. अमेरिकी राष्ट्रपति बनने से पहले ट्रम्प ने अपने एक अहम नीतिगत भाषण में कहा था कि अगर मैं राष्ट्रपति बनता हूं तो मैं राष्ट्र निर्माण के युग को बहुत तेजी से निर्णायक अंत की ओर ले जाऊंगा. हमारा नया दृष्टिकोण निश्चित तौर पर कट्टरपंथी इस्लाम को रोकने वाला होगा. पूरे भाषण में, कुछ मुझे परेशान करता रहा और वह ये था कि मैं एक भी ऐसे भारतीय नेता के बारे में नहीं सोच सकता जो ऐसा भाषण दे सके. शायद तभी आज भारतीय राजनीतिक परिदृश्य आज एक रेगिस्तान बन गया है हमें एक साफ राजनीतिक प्रवचन की आवश्यकता है जिसमें वास्तविक राजनीतिक और धार्मिक समस्याओं पर चर्चा की जा सके लेकिन ऐसा नहीं होगा और हम एकतरफा धर्मनिरपेक्षता की मछली तब तक पकड़ते रहेंगे....

आर्य समाज में मूर्ति पूजा करना क्यों है गलत?


महर्षि दयानन्द के अनुसार मूर्ति-पूजा करना वैसा ही है जैसे एक चक्रवर्ती राजा को पूरे राज्य का राजा न मानकर एक छोटी सी झोपड़ी का स्वामी माना जाना
सनातन धर्म को मानने वाले हर रोज सुबह-शाम किसी न किसी देवी-देवता की पूजा करते हैं. हिंदू धर्म को मानने वाला किसी न किसी मूर्ति रूपी भगवान का उपासक है. किसी की राम मेंकिसी की कृष्ण में तो किसी की शंकर में आस्था है. इसके विपरीत महर्षि दयानंद द्वारा स्थापित आर्य समाज का मानना है कि मूर्ति पूजा नहीं करनी चाहिए या कह सकते हैं कि वह मूर्ति पूजा के खिलाफ हैं. आर्य समाज के अनुसारमूर्ति पूजा करने वाला व्यक्ति अज्ञानी होता है.
आर्य समाज के ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्ति पूजा को अमान्य कहा गया है. इसके पीछे कारण बताया जाता है कि ईश्वर का कोई आकार नहीं है और ना ही वो किसी एक जगह व्याप्त है. आर्य समाज के अनुसार ईश्वर दुनिया के कण-कण में व्याप्त है. इसलिए सृष्टि के कण-कण में व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के खिलाफ है. ईश्वर हमारे हृदय में स्थित आत्मा में वास करते हैं. इसलिए भगवान की पूजा, प्रार्थना एवं उपासना के लिए मूर्ति अथवा मंदिर की कोई जरूरत नहीं है.


किसने की मूर्ति पूजा की शुरुआत
ऐसा माना जाता है कि भारत में मूर्ति पूजा की शुरुआत लगभग तीन हजार साल पहले जैन धर्म में हुई थी. जैन धर्म के समर्थकों ने अपने गुरुओं की मूर्ति पूजा कर इसकी शुरुआत की थी. जबकि उस समय तक हिंदू धर्म के शंकराचार्य ने भी मूर्ति पूजा का विरोध किया था, लेकिन शंकराचार्य की मृत्यु के बाद उनके समर्थकों ने उनकी ही पूजा शुरू कर दी, जिसके बाद हिंदू धर्म में भी मूर्ति पूजा शुरू हो गई.

महर्षि दयानंद के अनुसार मूर्ति-पूजा करना वैसा ही है जैसे एक चक्रवर्ती राजा को पूरे राज्य का राजा न मानकर एक छोटी सी झोपड़ी का स्वामी माना जाना. इसी तरह भगवान को भी संपूर्ण विश्व का स्वामी न मानकर सिर्फ उसी मंदिर का स्वामी माना जाना जिस मंदिर में उस भगवान की मूर्ति स्थापित है. इनके अनुसार चारों वेदों के 20589 के मंत्रो में से ऐसा कोई मंत्र नहीं है, जिसमें मूर्ति पूजा का जिक्र या समर्थन किया गया हो. जबकि इसके उलटा वेदों में वर्णित किया गया है कि भगवान की कोई मूर्ति नहीं हो सकती.
न तस्य प्रतिमाsअस्ति यस्य नाम महद्यस: – (यजुर्वेद अध्याय 32 , मंत्र 3)
मूर्ति पूजा के विरोध पीछे क्या है आर्य समाज का तर्क?
मूर्ति पूजा के विरोध में खड़े लोगों में सबसे पहले नाम आता है 'आर्य समाज' का. जिसकी स्थापना महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा अप्रैल 1875 में मुंबई में की गई थी. इस समाज के नियमों में ही है कि आप मूर्ति के उपासक नहीं हो सकते. गुरुकुल पौंधा देहरादून में धर्म विषय के आचार्य शिवदेव शास्त्री एक कहानी सुनाते हुए कहते हैं कि जब दयानंद सरस्वती अपने बाल्यकाल अवस्था में थे, और उनका नाम मूलशंकर हुआ करता था. वो शिव के बहुत बड़े भक्त हुआ करते थे. वो प्रत्येक सोमवार और शिवरात्रि को व्रत रखा करते थे.
इसी तरह एक बार शिवरात्रि के त्योहार पर रात को पूजा और भजन करने के बाद मूलशंकर अन्य सभी शिव भक्तों की तरह वहीं मंदिर में रुक गए. आधी रात के बाद जब बालक मूलशंकर की नींद खुली तो उन्होंने देखा कि शिवलिंग पर चढ़ाए हुए प्रसाद पर चूहे चढ़े हुए हैं. वो बताते है कि दयानंद सरस्वती के दिमाग में उसी समय यह बात खटकी की जो मूर्ति में समाया हुआ भगवान एक छोटे से चूहे से अपनी रक्षा नहीं कर सकता तो पूरे विश्व की क्या रक्षा करेगा?
इसी आधार पर आर्य समाज मूर्ति पूजा का पुरजोर विरोध करता है. बकौल, शिवदेव शास्त्रीमहर्षि दयानंद सरस्वती के अनुसार मूर्ति-पूजा कोई सीढ़ी या माध्यम नहीं बल्कि एक गहरी खाई है. जिसमें गिरकर मनुष्य चकनाचूर हो जाता है और एक बार इस खाई में गिर जाता है वो इस खाई से आसानी से नहीं निकल सकता है.
सुधांशु गौर