Wednesday 31 August 2016

कश्मीर पर पाकिस्तानी अजान?

कश्मीर के मामले में भारत पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाने को पाकिस्तान अपने 22 सांसदों का दल विश्व के अलग-अलग देशो में भेजेगा| ये 22 प्रतिनिधि जाकर विश्व के अन्य देशो को बतायेंगे कि कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा है| इनमे एक सांसद है, अल्म्दाद लालिका ये चीन जायेंगे और वहां बताएँगे कि कश्मीर हमारा है दुसरे है मलिक परवेज ये लाहौर में अवेध कब्जे करने के लिए जाने जाते है ये जनाब हिंसा और इस्लामिक आतंक से झुझते देश तुर्की को समझाने जायेंगे, एक तीसरे है अब्दुल रहमान ये दक्षिण अफ्रीका जायेंगे और अफ़्रीकी समुदाय को बतायेंगे कि कश्मीर उनका है| लिस्ट लम्बी है और इसमें सबसे गजब बात ये है कि इनमें आधे से ज्यादा सांसदो को अंग्रेजी भाषा का ज्ञान नहीं है| सर्वविदित है कि पिछले 70 सालों से पाकिस्तान कश्मीर को लेकर परेशान है| जिस कारण एक बार फिर घाटी के कई जिले हिंसा से बुरी तरह प्रभावित है| डल झील में हॉउसबोट सुनसान दिखाई पड़ते है तो घाटी के सभी होटल खाली पड़े है| ईश्वर ने जम्मू कश्मीर को अप्रतिम प्राकृतिक सुषमा एवं जल संसाधन प्रदान किए हैं जिनका पर्यटन के संवर्धन के लिए समुचित ढंग से दोहन करने की जरूरत है। श्रीनगर में पर्यटन की वजह से जिन लोगों का भी कारोबार चलता है, उन लोगों में मायूसी छाई हुई है ञात हो कि पिछले साल 2015 में सबसे पीक सीजन 2014 में आए बाढ़ की वजह से प्रभावित हो गया था। इस साल वहां के कारोबारी उम्मीद लगाकर बैठे थे लेकिन श्रीनगर में चल रही हिंसा की घटनाओं ने एक बार फिर से उनकी उम्मीदों को झटका दिया है।
शायद लोगों के मन में यही सवाल खड़ा हो रहा है कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है? कुछ महीने पहले दिल्ली के जेएनयू से कश्मीर की आजादी के लिए निकला नारा कश्मीर में पंहुचकर घाटी को इस तरह लाल बना देगा किसी ने सोचा भी नहीं होगा| आज वहां सड़कें सूनी हैं। चौक पर बिखरे पत्थर, कंटीले तार और जली हुई गाड़ियां जंग सा अहसास कराते हैं। गलियों की खिड़कियों के टूटे कांच से खौफ झांकता दिखाई देता है| मुख्यमंत्री मुफ़्ती ने कहा है 95  फ़ीसद लोग बातचीत के ज़रिये सूबे में शांति की बहाली चाहते हैं और सिर्फ़ पांच प्रतिशत पूरी प्रक्रिया में रुकावट पैदा कर रहे हैं| अब प्रश्न यह है कि ये पांच प्रतिशत 95 प्रतिशत आबादी पर हावी कैसे होते है तो सुनिए पिछले दिनों एक प्रसिद्ध न्यूज़ चैनल की घाटी से रिपोर्ट आई थी कि वहां पर कदम-कदम पर मस्जिदों और मदरसों का निर्माण हो रहा है जो घाटी के लिए सबसे खतरनाक हो चला है| एक तरफ गरीब तबका और दूसरी ओर आलिशान मस्जिदे इस बात की गवाह है कि मस्जिदों में लगा धन वहां के लोगों के बजाय विदेशी है| तो सोचिये उनका सञ्चालन कहाँ से हो रहा होगा! इन मदरसों में कौन लोग पढ़ा रहे है और उनकी गतिविधियां क्या रहती इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया| कुछ स्थानीय लोगों के अनुसार सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकने का काम अलगावादी ताकतों के द्वारा इन्ही मदरसों के छात्रों को उकसाकर कराया जाता है| हिजबुल कमांडर बुरहान की मौत के बाद कश्मीर में सबने देखा है कि किस तरह मस्जिदों से मोमिनो का आवाहन होता रहा| घाटी में आजादी के गीत और इस्लाम के नाम पर सहादत की नज्म और तराने सुनाई देते रहे|

दरअसल कश्मीर पर पाकिस्तान की डबल नीति है एक को लॉन्ग टर्म पॉलिसी और दूसरी को शोर्ट टर्म बोला जाता है| लॉन्ग टर्म तो कश्मीर को हासिल करने की है और शोर्ट टर्म पॉलिसी यह है जब भी कश्मीर में कोई घटना हो तो उसे तुरंत मजहब से जोड़कर लोगों को उकसाकर हिंसा द्वारा उसका फायदा उठाया जाना| अब सवाल यह है कि सीमा पर सेना होने के बावजूद घाटी में पाकिस्तान की ये मजबूत पकड कैसे है? तो सुनिए अलगावादी नेता यासीन मलिक की पाकिस्तानी पत्नी मुशाल मलिक इन्ही दिनों पाकिस्तान में कश्मीर की आजादी का केम्पेन चला रही है तो अलगाववादी नेता गिलानी भी हर रोज कश्मीर बंद का आहवान करते है इसमें आसिया हो या मीरवाइज उमर इन लोगो ने घाटी के अन्दर अपनी एक वैचारिक फौज तैयार कर ली है|तो इस विचार को धन भी पाकिस्तान से मुहया हो जाता जिसका उपयोग शांत कश्मीर को अशांत बनाकर किया जाता है|कुछ रोज पहले ही एक रिपोर्ट के हवाले से पता चला था कि एक पत्थरबाज को इस काम को करने के 5 सौ रूपये मिलते है| दरअसल, घाटी में पत्थरबाजों ने एक रूल बना रखा है। हर घर से एक व्यक्ति को प्रदर्शन में भीड़ बढ़ाने जाना जरूरी है। नहीं गए तो अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहो। संवेदनशील इलाकों में ज्यादा फोर्स तैनात रहती है। शुक्रवार को ज्यादा बढ़ा दी जाती है। शाम को जब ये फोर्स अपने कैम्प में लौटने लगती है तो लड़के पीछे से उन पर पथराव करते हैं। हर रोज घंटे दो घंटे इन पत्थरबाजों का यही ड्रामा चलता है। सेना भी पहले पत्थर से ही इनका जवाब देती है। जब ये कैम्प और उनकी गाड़ियों के नजदीक आने लगते हैं तो आंसू गैस और रबर बुलैट का इस्तेमाल करती है। अगर भीड़ ज्यादा है और बेकाबू होने का खतरा है तब जाकर पैलेट गन चलाई जाती है। यहां भीड़ कई बार कुल्हाड़ी फेंकती है। पिछले एक महीने में तीन चार बार भीड़ में से एके-47 से फायर किया गया और ग्रेनेड भी दागे गए। हालाँकि विपक्ष ने संसद से लेकर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक पैलेट गन के इस्तेमाल पर रोक की मांग की, जिसके बाद गृह मंत्रालय का एक एक्सपर्ट पैनल पैलेट गन की जगह 'पावा शेल्स' यानी मिर्ची के गोले के इस्तेमाल पर विचार कर रहा है|


अक्सर कश्मीर के मुद्दे पर कई बार आम भारतीय सोचता है कि आखिर इस समस्या को भारत क्यों लिए डोल रहा क्यों वहां पर सैनिक मर जाते है क्यों वहां देश का पैसा वहां बर्बाद किया जा रहा है? इन सारे प्रश्नों का जबाब राजनाथ सिंह ने कश्मीर पहुंचकर दिया कि हिंदुस्तान का भविष्य कश्मीर के भविष्य से जुड़ा हुआ है| क्यों है जुडा हुआ इसका जबाब यह है कि घाटी में बेहिसाब जल श्रोत व् दुर्गम वनस्पति का भंडार है जिनपर चीन की नजर है| इस वजह से चीन हिमालय क्षेत्र पर कब्ज़ा करना चाहता है| कश्मीरी आज नासमझ है वो नहीं समझ पा रहे कि उनकी असली स्वतन्त्रता उनके नैतिक मूल्य उनकी कश्मीरियत उनके हित तब तक जिन्दा है जब तक वो भारत के साथ है| जिस दिन भारत अपना दावा छोड़ देगा उस दिन पाक की सहायता से चीन तिब्बत की तरह कब्ज़ा कर जायेगा फिर ना कश्मीर बचेगा ना कश्मीरियत|......चित्र साभार गूगल लेख राजीव चौधरी 

मदर टेरेसा मेक इन वेटिकन संत

चार सितम्बर को वेटिकन में मदर टेरेसा को संत घोषित करने के लिए आयोजित होने वाले कार्यक्रम में भारत प्रतिनिधित्व करेगा| विदेश मंत्री सुषमा स्वराज उस 12 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करेंगी| दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी रोम की यात्रा करेंगी| मार्च में पोप फ्रांसिस ने घोषणा की थी कि मिशरीज आफ चैरिटी की स्थापना करने वाली मदर टेरेसा को संत घोषित किया जाएगा| इससे पहले उनके निधन के बाद 1997 में गिरजाघर ने उनसे जुड़े दो चमत्कार की पहचान की थी| मदर टेरेसा को अब रोमन कैथोलिक चर्च का संत घाषित किया जाएगा| वैसे चमत्कार पर विश्वास भारत के मूल सविंधान के खिलाफ है और भारत सरकार का इसमें सम्मिलित होना एक गलत परम्परा को भी जन्म देगा क्योकि जिस आधार पर मदर टेरेसा को चमत्कारिक संत घोषित किया जा रहा है वो भारत जैसे देश में अन्धविश्वास को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने वाला कदम होगा|
सरकार द्वारा लोगों के साथ यह एक धार्मिक व्यंग है कि भारतीय संतो की दुनिया में एक विदेशी ब्रांड संत जल्दी आने वाली है| अभी तक भारतीय धर्म नगरी देशी संतो से सराबोर थी| अब पहली बार एक देश को विदेशी संत मिलेगी जो चार सितम्बर को वेटिकन से लांच होगी प्योर रोमन केथोलिक संत| पर अच्छा होता यह सब भी सरकार के मेक इन इंडिया प्रोग्राम के तहत होता| या ऐसा हो सकता है वर्तमान सरकार ने धर्म में भी एफ.डी.आई. लागू की हो कि संत भी अब विदेशी होंगे! यदि नहीं तो क्या सरकार ये बता सकती है कि अगर वो भारतीय थी तो उसे ये संत की डिग्री विदेश से क्यों? क्या चमत्कार करने वाले बाबाओं को भी संत की डिग्री देगी सरकार? ये प्रश्न उठने जायज है क्या अब सरकार टेरेसा के चमत्कारों से उत्साहित होकर चमत्कार अस्पताल खोलेगी? जिसमें दवा के बजाय चमत्कारों से असाध्य रोगियों का इलाज होगा! हो सकता है केजरीवाल जी भी मोहल्ला क्लीनिक के बजाय चमत्कार क्लीनिक खोल दे या फिर सुषमा स्वराज जी के आदेश पर स्वास्थ मंत्रालय में एक विभाग बना दे चमत्कार विभाग!
21 सदी में भारत जैसे गरीब देश में जहाँ सरकारों की कोशिश होनी चाहिए थी कि व्यापक पैमाने पर शिक्षा घर-घर तक पहुचाई जाये और लोगों को इन तथाकथित संतो देवी देवताओं पशु बली टोने टोटके आदि से बाहर निकाला जाये तब वहां वर्तमान सरकार इसे और अधिक बढ़ावा देने का कार्य सा करती नजर आ रही है| पिछले कुछ वर्षो में अंधविश्वास पर बारीकी से अध्यन करने के बाद एक बात सामने आई है कि कोई भी मजहब या समप्रदाय हो इस प्रकार की हरकते होती रही है और आगे भी होती रहेगी जब तक कि आम जनता अपने कर्मो पर विस्वास करने की बजाय बाबाओ, संतो माताओं, देवियों आदि के चक्कर में पड़ी रहेगी|
हो सकता है मदर टेरेसा की सेवा अच्छी रही होगी परन्तु इसमें एक उद्देश्य हुआ करता था कि जिसकी सेवा की जा रही है उसका इसाई धर्म में धर्मांतरण किया जायेपर मदर टेरेसा सिर्फ और सिर्फ इसाई कैथोलिक प्रचारक थी मदर टेरेसा की संस्था के अनाथालयों में अनाथ बच्चों को रोमन कैथोलिक चर्च के रीति रिवाजों और विधि विधान के मुताबिक पाला पोसा जाता रहा है यदि वहां से कोई बच्चा गोद लेना चाहे तो वो सिर्फ कैथोलिक इसाई बनने के बाद ही दिया जाता है एक बार एक प्रोटेस्टेंट इसाई परिवार बच्चा गोद लेने गया तो उसे यह कहकर मना कर दिया कि आपके साथ बच्चों के मनोवैज्ञानिक विकास पर बहुत बुरा प्रभाव होगा| उनके विकास की गति  छिन्न भिन्न हो जायेगी| हम उन्हें आपको गोद नहीं दे सकते क्योंकि आप प्रोटेस्टेंट हैं|उसी दौरान भारतीय संसद में धर्म की स्वतंत्रता के ऊपर एक बिल प्रस्तुत किया जाना था बिल प्रस्तुत करने के पीछे उद्देश्य था कि किसी को भी अन्यों का धर्म बदलने की अनुमति नहीं होनी चाहिए| जब तक कि कोई अपनी मर्जी से अपना धर्म छोड़ कर किसी अन्य धर्म को अपनाना न चाहे और मदर टेरेसा पहली थीं जिन्होने इस बिल का विरोध किया| उन्होंने तत्कालीन सरकार को पत्र लिखा कि यह बिल किसी भी हालत में पास नहीं होना चाहिए क्योंकि यह पूरी तरह से हमारे काम के खिलाफ जाता है| हम लोगों को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और लोग केवल तभी बचाए जा सकते हैं जब वे रोमन कैथोलिक बन जाएँ|
एक बड़ा सवाल लोग यह भी करते है कि यदि हम अपने लोगों की सेवा करते तो बाहरी लोगों को यहाँ आने की जरूरत नहीं पड़ती यह बात बिलकुल सत्य के करीब है क्योकि गरीब आदमी के पेट और अशिक्षा पर धर्म बड़ा जल्दी खड़ा होता है उड़ीसा के दाना मांझी वाले मामले में ही देख लीजिये कि बहरीन के सुल्तान ने उसे पैसे देने की पेशकश तक कर डाली वरना लोग तो सीरिया में भी रोजाना मर रहे है जो मुसलमान भी है उनके प्रति उसके मन में कोई संवेदना क्यों नही जगी? पर नहीं वह जानता है कि दाना मांझी एक हिन्दू आदिवासी है और इनकी गरीबी पर इस्लाम थोफा जा सकता है| जिस तरह मदर टेरेसा की नजर में उसके लिए गरीब आदमी सबसे बड़ा वरदान था मदर टेरेसा ऐसा क्यों चाहती थी| इसका जबाब 1989 में मदर टेरेसा ने खुद टाइम मैगजीन को दिए एक इंटरव्यू में दिया था|
प्रश्न- भगवान् ने आपको सबसे बड़ा तोहफा क्या दिया है?
मदर टेरेसा- गरीब लोग
प्रश्न भारत में आपकी सबसे बड़ी उम्मीद क्या है ?
मदर टेरेसा  सब तक जीसस को पहुंचाना

यह सब सुनकर पढ़कर क्या कोई उसे संत या कोई धार्मिक मानेगा शायद नहीं मेरे लिए मदर टेरेसा और उनके जैसे लोग पाखंडी हैं, क्योंकि वे कहते एक बात हैं, और करते दूसरी बात हैं| पर यह सिर्फ बाहरी मुखौटा होता है क्योंकि यह पूरा राजनीति का खेल है, आज वर्तमान सरकार भी पूर्वोत्तर राज्यों में अपनी पैठ बनाने के लिए इस पाखंड के खेल का हिस्सा बनने जा रही है संख्याबल की राजनीति| टेरेसा की मौत के बाद पॉप जॉन पॉल को उन्हें संत घोषित करने की बेहद जल्दबाजी हो गयी थी हो सकता है इसका मुख्य कारण भारत में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण किया जाना रहा हो? बहरहाल इस मामले पर प्रश्न इतना है कि यह इसाई समुदाय का अपना व्यक्तिगत मामला ना होकर धार्मिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह बन जाता कि क्या दो संयोग हो जाने पर किसी को संत घोषित किया जा सकता है? मनुष्य ईश्वर की बनाई व्यवस्था को संचालित कर उसके वजूद को टक्कर दे सकता है? यदि मदर टेरेसा को याद करने से दो रोगी ठीक हो सकते है तो समूचे विश्व में अस्पतालों की जरूरत क्या है? हर जगह टेरेसा का फोटो टांग दो मरीज ठीक हो जाया करेंगे| या फिर भारत में और अंधविश्वास को बढ़ावा देने की योजना हैवैसे देखा जाये तो पिछले कुछ सालों में भारत के अन्दर भी कोई दो ढाई करोड़ लोग संत शब्द का इस्तेमाल करने लगे है पर सही मायने में यह संत शब्द का अपमान है| सरकार को इस तरह के आयोजन में शरीक होने के बजाय बचना चाहिए| चित्र साभार गूगल लेख आर्य समाज 

Saturday 27 August 2016

केवल दरगाह से नहीं मिलेगी मुक्ति!!

अभी चार दिन पहले ही खालिद मिर्जा नाम के आदमी ने अपनी पत्नी फैजीना को पांच लाख रूपये दहेज ना लाने पर फोन पर ही तलाक दे डाला जिसकी मीडिया में चर्चा तो हुई पर उस पर बड़े प्रोग्राम नहीं चले जो एक मुस्लिम महिला की असल समस्या थी जो उसकी असली जंग थी उसकी बजाय 27 अगस्त की सुबह भारत के तमाम समाचार पत्रों की सुर्खियाँ देखे तो तो हाजी अली दरगाह पर महिलाओं द्वारा जंग जीतना बताया जा रहा है कि वो अपने मौलिक अधिकारों और समानता की जंग जीत गयी, अब वो दरगाह के अन्दर कब्र तक जा सकेगी! इस खबर से देश के मीडिया चैनल खुश है| भूमाता बिग्रेड की नेता तृप्ति देसाई से लेकर मजार वाले हिस्से में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी के फैसले को कोर्ट में चुनोती देने वाली जाकिया सोमन और नूरजहां नियाज ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि कोर्ट ने महिलाओं को समानता का अधिकार दिया है।
मुझे नहीं पता इसमें खुशी की कौनसी बात है और इससे भारतीय मुस्लिम महिलाओं को क्या लाभ होगा? क्या अब उसे जरा-जरा सी बात पर तलाक मिलना बंद हो जायेगा? क्या तीन तलाक़़, निकाह हलाला और बहुविवाह को अंसवैधानिक और मुस्लिम महिलाओँ के गौरवपूर्ण जीवन जीने के अधिकार मिल जायेंगे? क्या उसकी प्रताड़ना बंद हो जाएगी? घरेलू कलह, अत्याचारों से पार पाने की इस इस नकली जंग में चक्कर में अपनी असली लड़ाई भूल बैठी है| बॉम्बे हाईकोर्ट ने शुक्रवार को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए मुंबई में हाजी अली दरगाह के भीतरी भाग में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को हटा दिया है और कहा है कि यह प्रतिबंध किसी भी व्यक्ति के मूलभूत अधिकार का विरोधाभासी है। जबकि ट्रस्ट इसे इस्लाम की नजर में गुनाहे-अजीम बताया है| हाजी अली दरगाह ट्रस्ट ने कहा है कि वह हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगा| अल कुरआन फाउंडेशन के अध्यक्ष मौलाना नदीमुल वाजदी ने भी दरगाह में महिलाओं के प्रवेश को गलत बताया है।
जो भी हो अब प्रश्न यह है कि क्या यह मुस्लिम महिलाओं की जीत है? आखिर कौन थे हाजी अली जिनकी कब्र पर जाने के लिए लोग कोर्ट तक चले गये? एक तरफ तो मुस्लिम समाज बुत परस्ती पत्थर पूजने के खिलाफ है| दूसरी और जब कोई पीर मजार की बात आती है समस्त मुस्लिम समाज एकजुट होता दिखाई देता है| क्या बस इसलिए कि इन पर चढ़ावे का धन बरसता है? देवबंदी उलेमा ने कहा है कि शरीअत में महिलाओं का कब्र पर जाना जायज नहीं है| शरियत में तो कब्र भी पूजना मनाही है फिर क्यों वहां पर चादर और नकद राशि स्वीकार की जाती है? जो लोग इस फैसले को नारीवाद से जोड़कर उसकी जीत बता रहे क्या वो बता सकते है कि यह नारी सशक्तिकरण कैसे है? इस सवाल का जबाब भले ही किसी के पास ना हो पर मुस्लिम पत्रकार शीबा असलम जरुर देती है वो कहती है कि भारतीय मुस्लिम समाज में आस्था के नाम पर चल रहे गोरखधंधे का सबसे विद्रुप, शोषणकारी रूप हैं दरगाहें, जहां परेशानहाल, गरीब, बीमार, कर्ज में दबे हुए, डरे हुए लाचार मन्नत मांगने आते हैं और अपना पेट काटकर धन चढ़ाते हैं ताकि उनकी मुराद पूरी हो सके|
दुनिया के देशों में जहां भ्रष्ट सरकारें स्वास्थ्य, शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सामाजिक सुरक्षा जैसे अपने बुनियादी फर्ज पूरा करने में आपराधिक तौर पर नाकाम रही हैं वहीं परेशान हाल अवाम भाग्यवादी, अंधविश्वासी होकर जादू-टोना-झाड़-फूंक, मन्नतवादी होकर पंडों, ओझा, जादूगर, बाबा-स्वामी, और मजारों के सज्जादानशीं-गद्दीनशीं-खादिम के चक्करों में पड़कर शोषण का शिकार होती है| ऐसे में मनौती का केंद्र ये मजारें और दरगाह के खादिम और सज्जादानशीं मुंहमांगी रकम ऐंठते हैं| अगर कोई श्रद्धालु प्रतिवाद करे तो घेरकर दबाव बनाते हैं, जबरदस्ती करते हैं, वरना बेइज्जत करके चढ़ावा वापस कर देते हैं| जियारत कराने, चादर चढ़ाने और तबर्रुख (प्रसाद) दिलाने की व्यवस्था करवाने वाले को खादिम कहते हैं, जिसका एक रेट या मानदेय होता है| अजमेर जैसी नामी-गिरामी दरगाह में खादिमों के अलग-अलग दर्जे भी हैं, यानी अगर आप उस खादिम की सेवा लेते हैं जो कैटरीना कैफ, सलमान खान जैसे ग्लैमरस सितारों की जियारत करवाते हैं तो आपको मोटी रकम देनी होगी| मुंबई की हाजी अली दरगाह एक फिल्मी दरगाह है जिसकी ख्याति अमिताभ बच्चन की फिल्म कुली से और भी बढ़ गई थी, यहां फिल्मों की शूटिंग आम बात है| पिछले कुछ सालों से वहां के मुतवल्ली (कर्ता-धर्ता) और सज्जादनशीनों ने महिलाओं को कब्र वाले हुजरे में न आने देने का फैसला किया है| उनका तर्क है, ‘कब्र में दफ्न बुजुर्ग को मजार पर आने वाली महिलाएं निर्वस्त्र नजर आती हैं,  लिहाजा महिलाएं कब्र की जगह तक नहीं जाएंगी, कमरे के बाहर से ही जाली पर मन्नत का धागा बांध सकती हैं.21वीं सदी की दूसरी दहाई में जब मर्दों को भी दरगाहों से बचाना था, ताकि वो भी इस अंधविश्वास, शोषण और अराजकता से बच सकें, तब महिलाओं को शोषण में लपेटने का एजेंडा नारीवाद कैसे हुआ?
भारत की मुस्लिम बेटियां समाज का सबसे अशिक्षित वर्ग हैं, सम्मानित रोजगार में उनकी तादाद सबसे कम है, अपने ही समाज में दहेज के कारण ठुकराई जा रही हैं, गरीबी-बेरोजगारी और असंगठित क्षेत्र की शोषणकारी व्यवस्था की मजदूरी में पिस रही हैं| ऐसे में सवाल पैदा होता है कि असल समस्याओं से जूझती मुस्लिम महिलाओं को इस नकली समस्या में क्यों घसीटा जा रहा है? वो कौन लोग हैं जिन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, तीन-तलाक, भगोड़े पति, पति की दूसरी शादी से उत्पन्न अभाव, परिवार नियोजन का अभाव, जात-पात, दहेज, दंगों में सामूहिक बलात्कार जैसी भयानक समस्याओं के निराकरण के बजाए हाजी अली दरगाह के गर्भ-गृह में दाखिले को मुस्लिम महिलाओं का राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की सूझी है? इस सब के बावजूद जो महिलाएं आज हाजी अली दरगाह में जाने को अपनी जीत के तौर पर देख रही है उसे रूककर एक बार जरुर सोचना चाहिए क्या पुरुषवादी सोच से ये ही उसकी असल लड़ाई थी! कहीं दरगाह की नकली जंग में उसे उसके असल मुद्दे से भटकाया तो नहीं जा रहा है(दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा) चित्र साभार गूगल लेख राजीव चौधरी 

Tuesday 23 August 2016

भागवत पर बेकार का बवाल

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत के हिन्दुओं की आबादी के सिलसिले में दिये गये बयान को लेकर मीडिया को तो मानों बारूद मिल गया न्यूज रूम में समाचारों के लगातार विस्फोट से हो रहे है जिनकी धमक राजनीति के गलियारों में भी सुनी जा सकती है| मालूम हो कि भागवत ने शनिवार को आगरा में शिक्षकों के एक कार्यक्रम में देश में मुसलमानों के मुकाबले हिन्दुओं की आबादी वृद्धि दर में कमी संबंधी एक सवाल पर कहा था, कौन सा कानून कहता है कि हिन्दुओं की आबादी नहीं बढ़नी चाहिये। जब दूसरों की आबादी बढ़ रही है तो हिन्दुओं को किसने रोका है। मोहन के इस भागवत ज्ञान को लेकर कई राजनैतिक दल फैलते नजर आये यहाँ तक कि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल व बसपा प्रमुख मायावती द्वारा भागवत के बयान की कड़ी आलोचना के बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव गुलाम नबी आजाद ने यहां प्रेस कांफ्रेंस में भागवत के मुसलमानों की जनसंख्या दर ज्यादा होने संबंधी सवाल पर कहा, श्श्वह (भागवत) तो धर्म की ही खाते हैं...वह और क्या बात करेंगे। उन्होंने कहा कि भागवत अपनी हर बात और हर शब्द में तोड़ने की ही बात करते हैं। खैर यह भी सही कहा कि भागवत धर्म की खाते है वरना इसी देश में रहकर बहुतेरे लोग अधरम की भी खा रहे है|
चलो इस देश में अभिव्यक्ति की आजादी है जिस कारण हम भी अपनी बात रख सकते है| प्रश्न है कि जब हिन्दुओं द्वारा ज्यादा बच्चे पैदा करने वाला बयान विवादित हो सकता है तो धर्म विशेष की वो किताब क्यों विवादित नहीं जो ज्यादा बच्चे पैदा करने की नेक सलाह देती है? हालाँकि मोहन के इस बयान को शिव सेना द्वारा भी दकियानूसीबताते हुए कहा कि मुस्लिमों की बढ़ती आबादी से निपटने के लिए हिंदुओं की आबादी को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, नरेंद्र मोदी की सरकार को जल्दी से जल्दी समान नागरिक संहिता लागू करनी चाहिए। सरकार परिवार नियोजन पर बहुत धन खर्च कर रही है। मुस्लिम आबादी में बढ़ोत्तरी से निश्चित तौर पर देश का सामाजिक और सांस्कृतिक संतुलन प्रभावित होगा लेकिन हिंदुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए कहना इस समस्या का समाधान नहीं है।हो सकता है भागवत का तर्क यही हो कि अगर हिन्दुओं ने अपनी आबादी तेजी से न बढ़ायी तो एक दिन वह अपने ही देश में अल्पसंख्यकहो जायेंगे!
यदि ऐसा है तो इसे गलत भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह रिपोर्ट 2011 की जनगणना की है| देश की आबादी में मुसलमानों का हिस्सा किस तरह बढ़ गया है इसमें स्पष्ट दिखाई देता है 2001 में कुल आबादी में मुसलमान 13.4 प्रतिशत थे, जो 2011 में बढ़ कर 14.2 प्रतिशत हो गये! असम, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर, केरल, उत्तराखंड, हरियाणा और यहाँ तक कि दिल्ली की आबादी में भी मुसलमानों का हिस्सा पिछले दस सालों में काफी बढ़ा है! असम में 2001 में करीब 31 प्रतिशत मुसलमान थे, जो 2011 में बढ़ कर 34 प्रतिशत के पार हो गयेद्य पश्चिम बंगाल में 25.2 प्रतिशत से बढ़ कर 27, केरल में 24.7 प्रतिशत से बढ़ कर 26.6, उत्तराखंड में 11.9 प्रतिशत से बढ़ कर 13.9, जम्मू-कश्मीर में 67 प्रतिशत से बढ़ कर 68.3, हरियाणा में 5.8 प्रतिशत से बढ़ कर 7 और दिल्ली की आबादी में मुसलमानों का हिस्सा 11.7 प्रतिशत से बढ़ कर 12.9 प्रतिशत हो गया| हो सकता है इन आंकड़ों के बाद हिन्दू समुदाय के चिन्तक अपनी चिंता जता रहे हो पर क्या चिंता भी अब विवादित हो गयी? यह बात सब जानते है कि जिस देश में मुस्लिम बहुसंख्यक होता है वहां क्या होता है इस्लामिक कानून की मांग होती है, हर एक बात में शरियत कानून के फतवे जारी होते है लोकतंत्र नहीं रहता समाजवाद और समानता जैसी चीजें बुनयादी रूप से गायब होकर सारी कानून व्यवस्था मुल्ला मौलवियों के हाथों में चली जाती है| 

हाँ यदि भारत को इस टकराव से बचना है तो समान नागरिक सहिंता का लागू होना लाजिमी है एक मिथक यह है कि मुसलमान परिवार नियोजन को नहीं अपनाते तो अब यह मिथक भी पूरी तरह गलत हो गया है कुछ मुस्लिम देशों की मुसलिम आबादी बड़ी संख्या में परिवार नियोजन को अपना रही है| तो भारत का इस्लाम कोई अलग तो नहीं है  ईरान और बांग्लादेश ने तो इस मामले में कमाल ही कर दिया है. 1979 की धार्मिक क्रान्ति के बाद ईरान ने परिवार नियोजन को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया था, लेकिन दस साल में ही जब जनन दर आठ बच्चों तक पहुँच गयी, तो ईरान के इसलामिक शासकों को परिवार नियोजन की ओर लौटना पड़ा और आज वहाँ जनन दर घट कर सिर्फ दो बच्चा प्रति महिला रह गयी है इसी प्रकार बांग्लादेश में भी जनन दर घट कर अब तीन बच्चों पर आ गयी है हम यह बात केवल भारतीय मुस्लिम की बढती आबादी के संदर्भ में नहीं बल्कि विश्व के उन खंडहर हुए देशों के संदर्भ में कह रहे है जिनका जन जीवन आज नरक से भी बदतर हो रहा है| क्या हुआ ट्युनिसिया का, सीरिया, यमन, सोमालिया, अफगानिस्तान और इराक को देखों और वहां के अल्पसंख्यक समुदाय यजीदी को देखों जिनकी स्त्रियाँ को इस्लामिक स्टेट के आतंकी धर्म की आड़ लेकर कोडियों के दामों में यौनदासी बनाकर बेच रहे हैद्य यह सब कुछ देखकर क्या किसी की चिंता विवादित हो सकती है? शायद नहीं क्योंकि जो लोग इस देश को लोकतान्त्रिक देश देखना चाहते हैं वो कुछ भी करके हिन्दू की जनसंख्या के अनुपात को कभी न कम होने दें। यदि यह देश हिन्दू बाहूल्य नहीं रहेगा तो लोकतान्त्रिक भी नहीं रहेगा। (दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा) लेख राजीव चौधरी 

मानवाधिकार आयोग के दो चेहरे!!

 आज पूरे विश्व में ताकत और पैसे के बल पर होने वाली हिंसा इस बात का प्रत्यक्ष सबूत है कि मानवता खतरे में है। हाँ मानवता बच सकती है उसे सहेजा और सुरक्षित रखा जा सकता है यदि उसके रखवाले पूर्ण जिम्मेदारी से अपनी भूमिका का निर्वाहन करें| आज एमनेस्टी इंटरनेशनल की भूमिका में हर जगह दोहरा मापदंड दिखाई दे रहा है| आतंकी याकूब मेमन की फांसी के मामले में मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल का चेहरा सबके सामने आ ही गया था लेकिन अभी हाल ही में बेंगलूरू पुलिस ने एमनेस्टी इंटरनेशनल और उसके सेमिनार में कथित तौर पर भारत विरोधी नारे लगाने वालों के ख़िलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया है| कश्मीर में आतंकी मरे तो मानवाधिकार आयोग आँखों में आंसू लेकर जनाजे में शामिल हो जाता है किन्तु जब देश की रक्षा करते हमारे जवान सरहद पर या आतंकी हमलों में शहीद होते है तो ये देश विरोधी संस्था गायब हो जाती है| इसे देश देश विरोधी इसलिए कहा क्योकि इस संस्था के कार्यकर्ताओं पर भारत विरोधी नारे लगाने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया है| सर्वविदित है कि दादरी में अखलाक की मौत पर मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने विश्वभर में देश में असहिष्णुता के बढ़ावे को लेकर जो भ्रामक प्रचार किया वो किसी से छिपा नहीं है| वैश्विक मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल जो खुद को मानवता का रक्षक बताता है ने जम्मू एवं कश्मीर सरकार में पैलेट गन का इस्तेमाल बंद करने की मांग की| किन्तु सेना के जवानों पर ग्रनेड व् पत्थरों से हो रहे हमले को कभी भी स्वाभाविक रूप से गलत और विवेकहीन नहीं बताया|
बुरहान वानी, अफजल गुरु, याकूब मेनन अजमल कसाब आदि की मौत पर रोना वाला कन्हिया कुमार व उमर खालिद के देश विरोधी नारों को अभिवयक्ति की आजादी बताने वाला मानवधिकार आयोग और फिलिस्तीन पर इजराइल हमले पर रोने वाला मानवधिकार आयोग कहीं आतंक को अंदरूनी बढ़ावा तो नहीं दे रहा है? क्योंकि जब 14 अप्रैल 2014 को चिबोक के गवर्नमेंट गर्ल्स सेकेंडरी स्कूल की 276 लड़कियों को बोको हरम के आतंकियों द्वारा अगवा कर लिया जाता तब मानवधिकार आयोग शांत पाया जाता है परन्तु जब रूस द्वारा खूंखार आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट पर हमला करते समय सीरिया के अलेप्पो प्रांत में एक स्कूल में 12 स्कूली बच्चों की मौत  हो जाती है तो मानवधिकार आयोग रोता दिखाई देता है| मतलब आतंक कुछ करता है तो खामोश पर यदि आतंकियों या उसके समर्थको पर कुछ होता है तो मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल सिसकता दिखाई देता है| जब सीरिया में समुंद्र के किनारे एक कुर्दी शरणार्थी एक बच्चे एलन कुर्दी की लाश पाई जाती है तो समूचे विश्व की मीडिया और मानवाधिकार आयोग बिलखता दिखाई देता पर जब बलूचिस्तान में सड़कों के किनारे पाकिस्तानी सेना द्वारा बलूची बच्चों की लाश हत्या कर फेंक दी जाती है उन्हें जलाकर मारा जाता है तो मानवाधिकार आयोग मौन पाया जाता है|

क्या बलूच लोग मानव नही है? क्या गुलाम कश्मीर में इन्सान नहीं रहते या वहां पाक सेना का अत्याचार एमनेस्टी को नहीं दिखता? हम मानवता के पक्षधर है ना ही हम एलन कुर्दी की मौत को सही बताते ना सीरिया में 12 बच्चों की| दोनों ही घटनाएँ निंदा का विषय थी| मनुष्य होने के नाते दुःख होता है| किन्तु हमे तब भी इतना ही दुःख होता है जब यजीदी बच्चियों को इस्लामिक स्टेट के लड़ाके यौनदासी बनाते है, उन्हें सिगरेट के पैकिटो के बदले बेचते है और चिबोक से सैंकड़ो बच्चियां अपहरण कर ली जाती है| परन्तु तब हमारी आँखे मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल को भी खोज रही होती है कि उनकी आँखों में भी इस घटना पर कुछ नमी दिख जाये|
आखिर तब क्यों इन तथाकथित मानवतावादी ठेकेदारों का एक स्वर कहीं सुनाई नहीं देता? अब यह प्रश्न जरुर प्रासंगिक होता है कि आखिर इनकी इस दोहरी मानसिकता को भोजन-पानी कहां से मिलता है। आतंक पर दुनिया को फटकारने वाला स्वम्भू दरोगा अमेरिका भी यहाँ गोरे काले आतंक के भेद में उलझा है| कोई भी सामाजिक चिंतनशील प्राणी, कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहने वाला व्यक्ति  कभी भी सभ्यताओं के संघर्ष को सही नहीं बताएगा| आज वो मुस्लिम भी दिखाई नहीं दे रहे है जो मोहम्मद साहब के चित्र पर लाखो की संख्या में सड़कों पर उतर जाते है|
गाजा पर हमलें को इजरायल के खिलाफ सड़कों उतारने में देर नहीं लगाते| ना आज वो मौलवी दिखाई दे रहे है जिनका वंदेमातरम् कहने पर धर्म खतरे में आ जाता है किन्तु सेकड़ों बच्चियों के यौनाचार पर नहीं क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि मुसलमानों को इस्लाम के अलावा किसी चीज से मतलब नहीं और इस्लामिक कट्टरपंथ को इस्लाम के निजाम की आड़ में इन हरकतों से शर्मिंदगी नहीं? यदि ऐसा है तो यह बात बिलकुल सत्य के पास है कि जब तक यह दोहरा जब चरित्र लेकर मानवधिकार आयोग इस आतंकी मानसिकता को पुष्ट करता रहेगा तब तक दुनिया में शांति की उम्मीद ही नहीं हो सकती है।   चित्र साभार गूगल (दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा) लेख राजीव चौधरी 

Friday 19 August 2016

70 साल बाद याद आया कि हिन्दू भी विवाह करते है!

पाकिस्तान में दशकों की देरी और निष्क्रियता के बाद हिंदू अल्पसंख्यक समुदाय के पास अब जल्दी ही एक विवाह कानून होगा। पाकिस्तान के संसदीय पैनल ने हिंदू विवाह विधेयक को मंजूरी दे दी है। नेशनल असेंबली की कानून एवं न्याय संबंधी स्थायी समिति ने सोमवार को हिंदू विवाह विधेयक, 2015 के अंतिम मसौदे को सर्वसम्मति से मंजूरी दे दी। इस पर विचार के लिए खास तौर पर पांच हिंदू सांसदों को पैनल ने आमंत्रित किया था। मतलब अब पाकिस्तान का हिन्दू अपनी पत्नी को सरकारी और गैरसरकारी मंचो पर अपनी पत्नी कह सकेगा| हिंदू समुदाय के लिए परिवार कानून तैयार करने में लंबे समय से रणनीतिक रूप से की गई देरी पर खेद जताते हुए संसदीय समिति के अध्यक्ष चैधरी महमूद बशीर विर्क ने कहा, देर करना हम मुसलमानों और खासकर नेताओं के लिए मुनासिब नहीं था। हमें कानून को बनाने की जरूरत थी न कि इसमें रुकावट डालने की। अगर 99 फीसदी मुस्लिम आबादी एक फीसदी हिन्दू आबादी से डर जाती है, तो हमें अपने अंदर गहरे तक झांकने की जरूरत है, कि हम खुद को क्या होने का दावा करते हैं और हम क्या हैं। इस कानून के मंजूर हो जाने के बाद, जो कोई हिंदू विवाहिता का अपहरण करेगा, वह दंड का अधिकारी होगा क्योंकि पीड़िता का परिवार शादी का सबूत दिखा सकेगा|
पाकिस्तान में करीब 21 लाख से ज्यादा हिंदू रहते हैं। अर्थात पिछले 69 साल से अपनी शादियों को कानूनी मान्यता और उनके पंजीकरण के लिए विशेष कानून बनवाने के लिए हिंदू संघर्ष कर रहे हैं। 13 अगस्त 1947 तक उपमहाद्वीप के बंटवारे के बाद, पश्चिमी पाकिस्तान या मौजूदा पाकिस्तान में, 15 प्रतिशत हिंदू बचे थे उससे पहले उन्हें वो सब अधिकार प्राप्त थे जो भारत में मुस्लिमो को है| पर मजहब का जहर पीने वालों ने 14 अगस्त 1947 से उनकी जिन्दगी को नरक से भी बदतर बना दिया| मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि पाकिस्तान से पलायन या जबरन धर्मांतरण कर गई हिंदुओं की नब्बे प्रतिशत आबादी का कारण बढ़ती असहिष्णुता और सरकार की उदासीनता है| वर्ष 2012 में अमेरिका के कई प्रभावशाली सांसदों ने पाक के सिंध प्रांत में अल्पसंख्यक हिंदुओं की दुर्दशा पर गहरी चिंता जताई थी । उनका कहना था कि पाकिस्तान के इस प्रांत में हिंदुओं को कोई मौलिक अधिकार नहीं मिला है। पाक मानवाधिकार की स्थिति बदतर है। अमेरिकी संसद में सिंध में मानवाधिकार पर ब्रीफिंग के दौरान एक सांसद ने आरोप लगाए, सिंध का हिंदू समुदाय अपनी औरतों के जबरन इस्लाम में धर्मांतरित करने के लगातार आशंका में जीता है।
पाकिस्तान में हिन्दू लड़कियों का अपहरण करके उनकी शादी उनकी इच्छा के विरुद्ध मुस्लिम पुरुषों के साथ कराए जाना आम बात है| सिंध प्रांत में अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय की महिलाओं और लड़कियों का अपहरण और बलात धर्मान्तरण करा कर जबरदस्ती विवाह कराना एक आम बात हो चुकी है आजादी के बाद के कुछ सालों से यह कुत्सित खेल बड़े पैमाने पर चल रहा है। ऐसी ही कुछ घटनाएँ हैं जो यह सोचने पर मजबूर करती है कि जो भारतीय मीडिया अखलाख, बुरहान वानी के परिवारों को लेकर रोता रहता है उनके कानों में पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओं की चीखें क्यों नहीं पहुँचती? एक मुस्लिम परिवार को हिन्दू द्वारा किराये पर मकान न देने की बात हो तो तीन दिनों तक वो मुद्दा भारतीय मीडिया में छाया रहता है, जिसे लेकर धर्म को दोष एवं धार्मिक परतें खोली जाती है| किन्तु जब किसी मुस्लिम देश में अल्पसंख्यक हिन्दू पर अत्याचार होता है उसकी पत्नी या बेटी धर्म के बहाने अपह्रत कर ली जाती है तो मीडिया मूक-बाधिर हो जाती है|वर्ष 2012 में हिन्दू लड़की रिंकल कुमारी का मामला अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गूंजा था लेकिन उसके बाद भी उसका धर्म परिवर्तन कराकर उसे मुसलमान बनाया गया इसके बाद नावीद शाह नाम के एक मुस्लिम युवक से उसकी शादी करा दी गई थी। उस समय रिंकल के वकील अमरलाल ने पत्रकारों के सामने दुखी मन से कहा था ,"कि कभी अनिता को बेचा जाता है, कभी ज़ैकबाबाद से कविता को उठा कर ताक़त के ज़ोर पर मुसलमान किया जाता है, कभी जैकबाबाद से सपना को उठाते हैं तो कभी पनो आकिल से पिंकी को ले जाते हैं|"

रिंकल अविवाहित थी लेकिन इसके बाद तो धारकी कस्बे से एक हिन्दू विवाहित महिला का अपहरण करके उसका जबरन धर्म परिवर्तन किया गया। बाद में उसे एक स्थानीय अदालत में पेश कर उससे जबरन बयान दिलवाया गया कि उसने मुस्लिम लड़के से निकाह कर लिया है। बाद में उस इस हिन्दू महिला ने किसी तरह अपने माता-पिता से सम्पर्क करके बताया कि किस तरह उसका अपहरण किया गया और क्या-क्या जुल्म ढाये गए। इसके बाद जब उसका परिवार व अन्य हिन्दू इस संबंध में आगे आये तो उच्चाधिकारियों ने उसे बुरे परिणाम भुगतने की धमकी दी गयी। यह कोई एक या दो घटना नहीं है बल्कि ऐसी घटनाएँ पाकिस्तान में रह रहे हर तीसरे हिन्दू परिवार के साथ हो रही है। रबीना पाकिस्तान के सकूर में रहती थी और डॉक्टर बनना चाहती थी। इन्टरमीडिएट की परीक्षा में अच्छे अंक लेकर वह शहर के मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए गई। उसे सिर्फ इस वजह से प्रवेश नहीं दिया कि वह हिन्दू है और एड्मिसन के लिए उसे धर्म परिवर्तन की सलाह दी गयी|
अक्सर हमारे देश से गाजा पट्टी, के लिए प्रदर्शन होते है, इस्लाम पर कोई विवादित टिप्पणी वो चाहे यूरोप के अन्दर हो या अमेरिकी प्रायदीप में उस समय तथाकथित सेकुलर दल और मौलाना भीड़ के साथ सड़कों पर उतरते दिखाई देते है| पर इस तरह के अपराधों पर इनकी मानवीय सवेंदना और धार्मिक चेतना मरी नजर आती है| एक गैर सरकारी संस्था मूवमेंट फॉर पीस एंड सॉलिडेरिटी इन पाकिस्तान के अनुसार हर वर्ष करीब 5 सौ से हजार ईसाई और  हिंदू लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन कराया जाता है।  इतना ही नहीं उनकी इच्छा के विरुद्ध उनकी शादियां मुसलमानों से कराई जाती है वो बताते है कि 12 से 25 साल उम्र की लड़कियों का पहले अपहरण कर लिया जाता है, फिर उन्हें इस्लाम कबूल करने को कहा जाता है. उसके बाद उसका किसी से निकाह करवा दिया जाता है। इसमें यह भी दिखाया जाता है की उन्होंने अपनी इच्छा से इस्लाम धर्म कबूल किया है। मगर ऐसा होता नहीं। इससे अगर होता है तो सिर्फ यही की उसके अपहरणकर्ताओं के खिलाफ मामला खत्म हो जाता है। इसके बाद उनके  साथ पाशविक  व्यवहार किया जाता है।  बलात्कार होता है और कई बार तो उन्हें वेश्यालय में धकेल दिया जाता है। पाकिस्तान का संविधान कहता है कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सरकार को हिफाजत करनी पड़ेगी और उन्हें नौकरियाँ देनी होंगी, लेकिन हकीक़त में ये कागजों पर ही सीमित है। क्योंकि पाकिस्तान के संविधान पर मजहब और मुल्ला हमेशा भारी रहे है| इस सब के बावजूद अब सिर्फ आशा ही कि जा सकती है कि इस विधेयक के पास हो जाने के बाद पाकिस्तानी प्रशासन और सरकार मानवीय बिंदु को ध्यान रखते हुए मजहब से ऊपर उठकर इसे वहां सख्ती के लागू करे! चित्र साभार गूगल लेख राजीव चौधरी 



Monday 15 August 2016

सविधान पर भारी है, भूत-प्रेत!

धर्म की आड़ में पाखंडियों द्वारा नारी का शोषण अभी भी जारी है, परन्तु पता नही किस लालसा में सत्ता और सरकारी तंत्र मौन है| पर दुखद अभी भी परम्पराओं के नाम पर तो कभी चमत्कारों की आशा में भोले-भाले लोग अंधविश्वास की चपेट में आते रहते है| आर्य समाज आवाज अपनी आवाज मुखर करें तो ये पाखंडी एक सुर में आरोप लगाते है कि आर्य समाज भगवान को नहीं मानता| किन्तु इससे भी बड़ा आश्चर्य तो तब होता है जब खुद को पढ़ा लिखा समझने वाले लोग परंपराओं के नाम पर अंधमान्यताओं को लेकर खासे गंभीर दिखाई देते हैं। आज ही दैनिक भास्कर समाचार पत्र की यह खबर पढ़कर बड़ा दुःख हुआ कि आधुनिकता के इस परिवेश में भी लोग अभी भी आदिम रूढ़ियों के साये में जी रहे हैं। राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के आसिंद के नजदीक बंक्याराणी माता मंदिर यहां हर शनिवार और रविवार को हजारों भक्तों के हुजूम के बीच 200-300 महिलाओं को ऐसी यातनाओं से गुजरना पड़ता है, जिसे देखकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पीठ और सिर के बल रेंगकर ये महिलाएं 200 सीढ़ियों से इसलिए नीचे उतरती हैं, ताकि इन्हें कथित भूत से मुक्ति मिल जाए।
इतना ही नहीं सफेद संगमरमर की सीढ़ियां गर्मी में भट्‌टी की तरह गर्म हो जाती हैं। कपड़े तार-तार हो जाते हैं। शरीर जख्मी हो जाता है। सिर और कोहनियों से खून तक बहने लगता है। किस्सा यहीं खत्म नहीं होता। इसके बाद महिलाओं को चमड़े के जूतों से मारा जाता है। मुंह में गंदा जूता पकड़कर दो किमी चलना पड़ता है। उसी गंदे जूते से गंदा पानी तक पिलाया जाता है जबकि कुंड का पानी इतना गंदा होता है कि हाथ भी नहीं धो सकते है। वो भी एक-दो बार नहीं, बल्कि पूरे सात बार पिलाया जाता है। झाड़फूंक करने ओझा यह ध्यान रखता है कि महिला पानी पी रही है या नहीं। यदि नहीं पीती है तो जबरदस्ती की जाती है। पूरे वक्त ज्यादातर महिलाएं चीख-चीखकर ये कहती हैं कि उन पर भूत-प्रेत का साया नहीं, वो बीमार हैं, लेकिन किसी पर कोई असर नहीं होता। छह-सात घंटे तक महिलाओं को यातनाएं सहनी पड़ती हैं।
यह एक जगह की कहानी नहीं है| ना एक हादसा| बल्कि देश के अनेक राज्यों में सालों से ऐसी परंपराएं चली आ रही हैं, जिनका पालन करने में लोग खासी गंभीरता दिखाते हैं। जहां भारत में आधुनिकतावादी एवं पश्चिमी संस्कृति हावी होती जा रही है, वहीं आज के कम्प्यूटराइज्ड युग में भी ग्रामीण समाज अंधविश्वास एवं दकियानूसी के जाल से मुक्त नहीं हो पाया है। देश के कई हिस्सों में जादू-टोना, काला जादू, डायन जैसे शब्दों का महत्व अभी भी बना हुआ है।
आज के आधुनिक माहौल में भी देश के पूर्वोतर राज्यों में महिलाओं को पीट-पीट कर मार डालने जैसी ह्रदय व्यथित कर देने वाली घटनाएं जारी हैं। इन महिलाओं में अधिकांश विधवा या अकेली रहने वाली महिलाएं शामिल होती हैं। हालांकि इन महिलाओं का लक्ष्य किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं होता है, पर किसी कारण यदि ओझाओं द्वारा किसी महिला को डायन करार दे दिया तो इसके बाद उसके शारीरिक शोषण का सिलसिला शुरू हो जाता है। ओझा इन महिलाओं को लोहे के गर्म सरिए से दागते हैं, उनकी पिटाई करते हैं, उन्हें गंजा करते हैं और फिर इन्हें नंगा कर गांव में घुमाया जाता है। यहां तक कि इस कथित डायन महिला को मल खाने के लिए भी विवश किया जाता है।
इन राज्यों में बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल आदि प्रमुख रूप से शामिल हैं विश्लेषकों का मानना है कि आदिवासी-बहुल राज्यों में साक्षरता दर का कम होना भी अंधविश्वास का एक प्रमुख कारण है। यहां महिलाओं की शिक्षा पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। हालाँकि ये ओझा महिलाओं को भूत-प्रेत का शिकार बताकर अच्छी रकम ऐंठते हैं। ओझा पुरुष एवं औरत दोनों हो सकते हैं। ग्रामीण समुदाय के लोग किसी बीमारी से छुटकारा पाने के लिए डॉक्टर पर कम, इन ओझाओं पर अधिक विश्वास करते हैं। ये ओझा इन लोगों की बीमारी का जादू-टोने के माध्यम से इलाज का दावा करते हैं। कुछ समय पहले ही पुरी जिले में एक युवक ने अंधविश्वास से प्रेरित होकर रोग से छुटकारा पाने के लिए अपनी जीभ काटकर भगवान शिव को चढा दी। उडीसा के एक आदिवासी गांव की आरती की कहानी तो और भी दर्दनाक है। कई वर्ष पहले एक ओझा द्वारा आरती की हत्या का मामला सुर्खियों में आया था। जादू-टोने के सिलसिले में आरती का इस ओझा के यहां आना-जाना था। एक दिन ओझा ने जब आरती के साथ शारीरिक संबंध बनाने की इच्छा जाहिर की तो आरती ने इसका विरोध किया। उसके इनकार के बाद इस ओझा ने आरती के साथ बलात्कार किया और बाद में उसकी हत्या कर दी थी।
इसमें अकेला अशिक्षा का भी दोष नहीं है दरअसल जिस देश के नेतागण ही अंधविश्वास में जी रहे हो उस देश का क्या किया जा सकता है? कई रोज पहले की ही घटना ले लीजिये कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की गाड़ी पर एक कौआ बैठ गया जिसके बाद उस कौवे को शनि का प्रतीक मानते हुए मुख्यमंत्री के लिए नई गाड़ी खरीदने का आदेश जारी कर दिया गया| यहीं नही यदि बात पढ़े लिखे वर्ग की करे तो सोशल मीडिया पर कोबरा सांप की, साईं बाबा या बन्दर आदि की फोटो, डालकर उस पर लिखा होता है जल्दी लाइक करने से बिगड़े काम बनेगे और देश का दुर्भाग्य उसपर हजारों लाइक मिलते है ये लाइक करने वाले कोई विदेशी नहीं वरन अपने ही देश के पढ़े लिखे लोग होते है| अंधविश्वास को वैज्ञानिकों ने निराधार साबित कर दिया है| आर्य समाज ने धार्मिक पाखंडों की अंधेरी गलियों से ठोस व तार्किक आधार द्वारा बाहर निकालने के लिए रास्ते बता दिए| लेकिन इसके बाद भी पोंगापंथी धर्मगुरुओं ने अपने धार्मिक अंधविश्वासों की रक्षा के लिए सचाई को ही सूली पर चढ़ा दिया| हमें यह कहने को मजबूर होना पड़ रहा है कि परीक्षा में पेपर खराब हो जाने का डर हो या व्यापार में घाटे का या फिर परिवार के किसी सदस्य की गंभीर बीमारी का डर, कमजोर इंसान आज भी भगवान, मंदिर या फिर किसी धर्मगुरु की शरण में पहुंच जाता है और शायद इसलिए तथाकथित बाबा, ओझा, ढोंगी धर्मगुरु लोगों को बेवकूफ बना कर उन से करोड़ों रुपए बटोरने में कामयाब हो जाते हैं| जो इनके चक्कर में एक बार आ जाता है वह एक बार लुट जाने पर बार-बार जुआरी की तरह लुटने की आदत सी बन जाती है| सरकारों को इस तरह कृत्य को धार्मिक अपराध के शोषण शारीरिक की श्रेणी में लाया जाना चाहिए| महिलाओं के अधिकार पर बड़ी-बड़ी बातें करने वाली महिला आयोग ऐसे गंभीर मामलों पर चुप क्यों पाई जाती है? सविंधान कहता है यदि किसी महिला को लगातार 20 या 30 सेकंड से ज्यादा देखा जाता है तो वो छेड़छाड के दायरे में आता है किन्तु भीलवाडा में जूतों से पानी पिलाने, पिटाई करने के और ढोंगी बाबाओं के महिला उत्पीडन के कृत्य को चुपचाप देखने की सविंधान और राज्य सरकारों की क्या मजबूरी है? लेख राजीव चौधरी