Wednesday 27 March 2019

मुसलमान अब खुद ही सोचे


न्यूजीलैंड में क्राइस्टचर्च हमले के एक सप्ताह पूरे होने बाद ब्रिटेन के सबसे बड़े शहरों में से एक बर्मिंघम में पांच मस्जिदों पर अचानक हिंसक हमले हुए हालाँकि अभी तक इन हमलों का असल मकसद पता नहीं चल सका है पर इन हमलों से यह जरुर कहा जा रहा है कि मुसलमानों द्वारा पिछली अनेकों घटनाओं ने दुनिया में जो एहसास ताजा किया था कि इस्लाम का डर बाकी शेष दुनिया में बढ़ चुका है, यह हमले उसी का परिणाम है बहुत पहले वेटिकन के सर्वोच्च न्यायालय के सचिव वेलासिवो डि पाओलिस ने मुसलमानों के सन्दर्भ में कहा था, “दूसरा गाल आगे करना अब बहुत हो गया स्वयं की रक्षा करना हमारा दायित्व हैजीसस की दूसरा गाल आगे करने की शिक्षा का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है पाओलिस का सन्देश समस्त ईसाइयों के लिए था

क्राइस्टचर्च हमले के बाद कई तरह सवाल उठे थे कि क्या यह सिर्फ एक महज घटना है जिसे एक सिरफिरे ने अंजाम दिया या फिर जिस तरह से यह हमला हुआ क्या इतिहास की क्रुसेड जंग फिर से आरम्भ होने वाली है? क्योंकि वर्षों से इस्लाम के नाम पर एक क्रूर और अमानवीय युद्ध नीति जिहाद जो धार्मिक उद्देश्यों के लक्ष्य की पूर्ति करने के लिए जानबूझकर पीडा पहुँचाने के लिए जो चली आ रही है, क्या क्राइस्टचर्च हमला तथा ब्रिटेन में मस्जिदों पर हिंसक हमले जिहाद को उल्टा जवाब है?

अमेरिका में 9/11 होना, भारत में 26/11, कुछ समय पहले फ्रांस के नीस शहर में 84 लोगों को जिहाद के नाम पर ट्रक से कुचल देना डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में कैफे और यहूदी प्रार्थना स्थल पर आतंकवादी हमला होना 2017 ब्रिटेन के मैनचेस्टर शहर में धमाके में 22 लोगो का मारे जाने के अलावा एक के बाद एक जिहाद के नाम पर हुए हमलों से यह तो तय है कि समस्त विश्व में एक राजनीतिक नाटक बने जिहाद का लोगों के जेहन से अब पर्दा भी उठ रहा है

आखिर कुछ तो कारण रहे होंगे कि पूरे विश्व में अहिंसा का सिद्धांत मानने वाले बौद्ध भिक्षु बर्मा में मुसलमानों के खिलाफ हिंसक भीड़ में शामिल हो गये? कुछ साल पहले श्रीलंका में मुस्लिमों के खिलाफ बौद्ध भिक्षुओं के नेतृत्व में रैलियां निकाली गईं, मुसलमानों के ख़िलाफ सीधी कार्रवाई का आह्वान किया गया था और उनके व्यापारिक प्रतिष्ठानों के बहिष्कार की अपील भी की गई थी भारत में कथित गौहत्या के नाम पर कई हत्याओं को बदले के तौर पर देखे जाना इसके बाद जिस तरह ढाका हमले में कुरान की आयते न सुनाने पर आतंकियों द्वारा अन्य धर्मों के लोगों की हत्या की गयी थी उससे यही प्रश्न खड़ा हुआ था कि क्या जीवन बचाने के लिए लोग अपनी धार्मिक परंपरा और अपने ग्रंथो को छोड़ दें या क्राइस्टचर्च हमले के हत्यारे ब्रेंटन की तरह प्रतिकार करें?

पिछले कई दशकों से इस्लाम के नाम पर हुए आतंकी हमलों को मात्र कुछ लोगों का कारनामा भले ही कह ले लेकिन इन हमलों पर राजनितिक निंदा के अतिरिक्त कभी भी आत्मविश्लेषण नहीं किया गया, न नरमपंथी मुस्लिमों द्वारा सड़कों पर उतरकर कट्टरपंथ और जिहाद के विरोध नारे लगे तो इसके परिणाम आज विश्व के अलग-अलग कोनों से देखने सुनने को मिल रहे है फ्रांस ने पिछले दशकों में इस्लाम के नाम पर अपनी सड़कों पर हिंसा का खूब तमाशा देखा है इस कारण यूरोप के इस्लामीकरण के ख़िलाफ यूरोप के गैर इस्लामी लोग अपने ईसाई धर्म की संस्कृति और परंपराओं को ख़तरा मानने लगे है फ्रांस और जर्मनी ही नहीं, ब्रिटेन में भी बाहरी देशों से आकर बसने वाले मुसलमानों को शक की नजरों से देखा जा रहा है तीनों जगह मुख्य राजनीतिक दलों को मुस्लिम शरणार्थियों की बढ़ती संख्या के मसले पर लोगों के गुस्से और असंतोष का सामना करना पड़ रहा है इसके अलावा कुछ समय पहले ऑस्‍ट्रेलिया की सिनेटर पाउलिन हैंसन बुर्के पर प्रतिबंध की मांग को लेकर अपनी मुहिम के तौर पर संसद में बुर्का पहनकर आई थी

यह इसका एक पहलु है लेकिन इसका दूसरा पहलु भी है जो पहले से ज्यादा भयभीत करता है सन् 622 में मदीना में हुई तैयार हुई एक इस्लामिक फौज ने जंग का सफर तय किया खैबर, बदर और ‍फिर मक्का को फतह कर लिया गया सन 632 ईसवी आते-आते इस्लाम ने यहूदियों को अरब से बाहर खदेड़ दिया वह इसराइल और मिस्र में सिमट कर रह गए इसके बाद क्रुसेड काल का दौर आया कभी हार तो कभी जीत चलती रही, इसे धार्मिक युद्ध भी कहा गया इसके बाद 10 वीं शताब्दी के अंत में इस्लाम ने अपनी ताकत भारतीय उपमहाद्वीप में झोक दी अफगानिस्तान से बौद्ध मिटाए, भारत में भी लगातार दमन किया इस जंग में कई संस्कृतियों और दूसरे धर्म का अस्तित्व मिटा दिया गया

पिछले तीन से चार दशकों में जबसे इस्लामवाद एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा है और आतंक ने विश्व भर में तांडव मचाया एक बार फिर अनेकों लोग अतीत के दोहराव से वरन डरे हुए बल्कि ऐसा लग रहा है जैसे इस बार पहले हमला कर सुरक्षा चाह रहे है क्योंकि आतंक से ज्यादातर गैर-मुसलमान के जीवन पर खतरा होता है और सिर्फ मरने वालों की मौत का कारण इतना होता है कि उनकी प्रार्थना का ढंग इस्लाम के अनुरूप नहीं है? क्या वो सिर्फ इस कारण मारे जाते है कि उनका पहनावा और खान-पान इस्लामिक रीतियों से अलग है?

इस बात से तो कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि जिहाद एक युद्धक और हिंसक नीति हैं जिसमें मासूम लोग मारे जाते है, लेकिन बहुत लोग अभी भी इसे इस्लामिक आस्था से जोड़कर देख रहे है मसलन जब एक जेहादी हत्या जैसे कार्यों को अंजाम देता है तब यह बताने की कोशिश होती है कि वह हत्यारा नहीं बल्कि एक आस्थावान मुस्लिम था यदि यह परिभाषा आगे नहीं बदली गयी तो एक नई परिभाषा का जन्म होगा और उस परिभाषा में हत्यारे एक आस्थावान अन्य धर्मो के लोग होंगे मैं इसकी भविष्यवाणी करना नहीं चाहता पर समयनुसार लोग स्वयं देख लेंगे
राजीव चौधरी 


क्या मोबाइल फोन कर रहे है बच्चों की दिशा तय?


कुछ समय पहले यानि दिसम्बर 2017 में दिल्ली से सटे गौतमबुद्धनगर के ग्रेटर नोएडा में एक 15 वर्ष के बच्चे ने एक ही रात में दो कत्ल किए थे। एक कत्ल अपनी सगी माँ का और दूसरा अपनी सगी बहन का। ये दोनों कत्ल बच्चे ने क्रिकेट बैट पीट-पीट कर किये थे। कत्ल करने की वजह क्राइम फाइटर गेम को बताया गया था। क्योंकि बहन ने शिकायत कर दी थी कि भाई दिन भर मोबाइल फोन पर गेम खेलता रहता है और इसलिए माँ ने बेटे की पिटाई की, उसे डाँटा और उसका मोबाइल फोन छीन लिया था।

यह घटना भी दुनिया भर में तबाही मचाने वाले ब्लू व्हेल गेम के कारण की गयी सैंकड़ो आत्महत्याओं से अलग नहीं थी पर यह मामला ज्यादा खतरनाक इसलिए बना क्योंकि इस मामले में आत्महत्या के बजाय दोहरा हत्याकांड हुआ था। इन सभी घटनाओं के बाद यह सवाल उठने लाजिमी थे कि आखिर बच्चों को किस उम्र में मोबाइल फोन दिए जाये?
असल में लाड-प्यार या जरुरत के चलते परिवारों में बच्चों को मोबाइल देना अब कोई बड़ी बात नहीं है। दूसरा अक्सर बच्चे भी यह भी कहकर मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल करते है कि उसे पढाई के लिए इसकी जरुरत है। पर इसमें सबसे बड़ा नुकसान तो यह होता है कि बच्चे पूरी तरह मोबाइल पर निर्भर हो जाते हैं। कारण जब बच्चा मोबाइल का इस्तेमाल अपनी पढ़ाई के लिए भी कर रहा होता है तब यह नुकसान होता है कि जिस उत्तर को खोजने के लिए उसे पुस्तक का पाठ पढ़ना चाहिए वह काम उसका झट से गूगल पर हो जाता है इसलिए बच्चे पुस्तको को पढ़ना कम कर देते है। बच्चे उस उत्तर को याद भी नहीं रखते क्योंकि उन्हें लगने लगता है कि जब उसे इस उत्तर की जरूरत महसूस होगी वो दुबारा गूगल को क्लिक कर लेंगे।

हालाँकि आजकल अनेकों आधुनिक स्कूलों में शिक्षक क्लासरूम में आधुनिक तकनीक को अपना रहे हैं, लेकिन कई अध्ययनों से पता चला है कि पारंपरिक तरीका ही माध्यमिक शिक्षा में अधिक कामयाब हो सकता हैं। बावजूद इसके धीरे-धीरे एक नई आधुनिक शिक्षा विधि का निर्माण किया जा रहा हैं और इस कारण आज व्याख्यान के जरिए पढ़ाना एक अवशेष की तरह होता जा रहा है। शायद अगले कुछ वर्षो में यह तरीका डायनासोर की तरह विलुप्त हो जाएगा।
उदहारण हेतु लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के 2015 के एक अध्ययन ने दिखाया था कि जब ब्रिटेन के कई स्कूलों ने क्लासरूम में फोन पर पाबंदी लगा दी तो बच्चो में अनोखा बोद्धिक सुधार हो गया था। इसे भारतीय तरीके से कुछ यूँ समझे कि अब से पहले जोड़-घटा, गुणा या भाग बच्चों को उँगलियों पर सिखाया जाता था इससे उनकी स्मरण शक्ति मजबूत होती थी। किन्तु आज बच्चे फटाफट मोबाइल में केल्कुलेटर का इस्तेमाल कर रहे है उन्हें अपना दिमाग लगाने की जरूरत नहीं पड़ती इससे भी उनकी स्मरण शक्ति का हास हो रहा है।

वैसे देखा जाये तो जैसे-जैसे आज सूचना सर्वव्यापी हो रही है, वैसे-वैसे आज बच्चों की सफलता मोबाइल पर निर्भर हो रही हैं। इससे उनकी रचनात्मकता के साथ सोचने की क्षमता को हानि तो हो ही रही है साथ ही वे लगातार एक विचलित करने वाली दुनिया में प्रवेश कर रहे है। पहले बच्चा खेलता था। माँ बीस दफा उसे कह देती थी आराम से खेलना चोट मत खा लेना। किन्तु आज वह जब मोबाइल पर गेम खेलता है मोबाइल में उन्हें कोई रोकने वाला, डांटने वाला नहीं है एक किस्म से वह इसमें स्वतंत्रता महसूस कर रहा है।

अक्सर जब बच्चें मोबाइल पर गेम खेलते है हम यह सोचकर खुश होते है कि चलो कुछ देर उसे खेलने भी दिया जाना चाहिए। लेकिन वह खेल नहीं रहा है, ध्यान से देखिये वह सिर्फ बैठा है और उसके दिमाग से कोई और खेल रहा है, उसका चेहरा देखिये कई बार वह हिंसक होगा कई बार अवसाद में जायेगा। कई बार जब उसके पास मोबाइल नहीं होगा वह परिवार के बीच रहते हुए भी खुद को अकेला महसूस करेगा। वह एक अनोखे संसार में जीने लगता है। माता-पिता से ज्यादा गेम के पात्र उसके हीरो हो जाते है। जब किसी कारण परिवार के लोग उसे इससे दूर करते है वह हिंसक हो जाता है। घर का जरुरी सामान तोड़ने-फोड़ने के अलावा कई बार खुद के साथ अन्य के साथ हिंसा भी कर बैठता है।

बात सिर्फ बच्चों के बोद्धिक विकास और हिंसा तक सीमित नहीं है यदि इससे आगे देखें तो आज इंटरनेट पर हर तरह की सामग्री उपलब्ध है। जो बात या थ्योरी उसे अपनी उम्र के पड़ाव के बाद मिलनी चाहिए थी वह उसे बेहद कम उम्र में मिल रही है। कौन भूला होगा नवम्बर 2017 की उस खबर को जो समाचार पत्रों के मुख्यपृष्ठो पर छपी थी कि दिल्ली  में साढ़े चार साल के बच्चे पर साथ पढ़ने वाली बच्ची के रेप का आरोपआखिर एक बच्चे के पास यह जानकारी या कामुकता कहाँ से आ रही है? हो सकता है मोबाइल फोन पर कोई क्लिप आदि देख कर वह लड़का प्रेरित हुआ होगा!
असल में आज हमे ही सोचना होगा और बदलाव भी स्वयं के घर से शुरू करना होगा। बच्चों के सामने कम से कम मोबाइल का इस्तेमाल करें, उनके साथ पढाई की बात करें। बच्चों का घर के दैनिक कार्यों कुछ में कुछ ना कुछ योगदान जरुर लें ताकि वह जिम्मेदारी महसूस कर सकें। इससे उन्हें कई चीजों के महत्व का पता चलेगा। उनके साथ खेलें, इससे उनका शारीरिक विकास होगा और थकान के साथ अच्छी नींद भी आएगी। क्योंकि जब उसका ध्यान मोबाइल फोन में ज्यादा रहता है तो वह अनिंद्रा का शिकार भी हो जाता है। मौलिक रूप से बच्चो को शिक्षा से लेकर सभी स्तरों पर यदि कामयाब करना है तो उसे लगातार विचलित करने वाली इस मोबाइल फोन की दुनिया से उम्र की एक अवधि तक दूर रखना होगा। वरना भले ही बच्चा आपका हो किन्तु उसकी दिशा कोई और अपने ढंग से तय कर रहा होगा आपके ढंग से नहीं।
विनय आर्य 


सत्यानन्द स्टोक्स गाथा एक अमेरिकी आर्य सन्यासी की


यह कहानी किसी कागज के टुकड़ों की नहीं बल्कि यह कहानी लकड़ी और पत्थर पर लिखी मानों एक पूरी किताब हो ये कहानी जिन्दा दस्तावेज है आर्य समाज के उस महान कार्य का जिसनें हिमाचल प्रदेश को ईसायत के जाल में जाने से बचाया था यह जिन्दा मिसाल हिमाचल प्रदेश के कोटगढ़ में थानाधर से छह किलोमीटर की दूरी पर 1843 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गये एक चर्च से शुरू होती है और अंत में एक आर्य समाज मंदिर रूकती है यह एक ऐसे शख्स की कहानी है, जिसने विश्व को भारत के साथ वेद और वैदिक धर्म का परिचय कराया परन्तु इसके लिए हमें 119 वर्ष पहले जाना होगा जब अमेरिका के एक अमीर पिता की संतान 21 साल के सैमुअल इवान स्टोक्स सन 1900 में ईसाई मिशनरी बनकर हिन्दुओं के धर्मांतरण के लिए भारत आते है जो आते तो है भारतीयों को ईसा मसीह का सन्देश देने किन्तु आर्य समाज के सम्पर्क में आकर वेद का सन्देश देने लग जाते है

असल में अमेरिका के शहर फिलाडेल्फिया से सन 1900 में एक शख्स सैमुअल इवान स्टोक्स वेटिकन के आदेश पर भारत आये थे उस समय मिस्टर एंड मिसेज कार्लटन नाम एक डॉक्टर दंपती थे जो भारत में कुष्ठ रोग मिशन की रोकथाम के लिए काम कर रहे थे इवान स्टोक्स भी इन्ही के साथ मिलकर सेवा-भावना की आड़ में अपने धर्मांतरण के कार्य को आगे बढ़ाने लगे शुरूआती दिनों में मुम्बई समेत देश के कई मैदानी इलाकों में रहे लेकिन गर्मी के कारण बाद में हिमाचल के पहाड़ों में चले गये

धीरे-धीरे समय गुजरा और 12 सितंबर, सन 1912 में इवान स्टोक्स ने एक भारतीय ईसाई महिला एग्नेस से ईसाई रीति-रिवाज से शादी कर ली हालाँकि उन्हें अपने परिवार से बहुत विरोध का सामना करना पड़ा क्योंकि वे अपने परिवार के समृद्ध व्यवसाय के उत्तराधिकारी थे जब इवान स्टोक्स भारत में जीवन बिताने को दृढ हो गये तो उनका परिवार उनकी इस जिद के सामने झुक गया उनकी माँ ने उन्हें शिमला के बारोबाग में 30,000 रुपये की कीमत का करीब 200 एकड़ में फैला एक चाय का बागान उपहार के रूप में खरीदकर दे दिया जिसे बाद में इवान स्टोक्स ने सेब के बगीचे में बदल दिया बाहर से अच्छी प्रजाति के सेब के पौधे मंगाए और हिमाचल में एक सेब की क्रांति को शुरू कर दिया

इसके बाद अब असल कहानी यहाँ से शुरू होती है उन दिनों देश में प्लेग के बीमारी फैली थी और प्लेग फैलने पर गांव के स्वस्थ लोग अपने रोगियों को ईश्वर के भरोसे छोड़ कर सुरक्षित स्थानों पर चले जाते थे किन्तु आर्य समाज के लोग मानव सेवा के कार्यों में दिन-रात लगे हुए थे एक ऐसे ही वैदिक धर्म के अनुयायी, ऋषिभक्त, महात्मा पंडित रुलियाराम जी थे जिनके अन्दर लोक-सेवा की एक ऐसी प्यास थी जो कभी बुझती ही न थी पण्डित जी में समाज के लिए त्याग था, उत्साह था और निष्काम सेवा-भाव था जब उनका यह भाव सैमुअल इवान स्टोक्स ने देखा तो उनके मन के सत्य के किवाड़ खुल गये तब उनके मन में आया यही सच्ची मानव सेवा हैं यही सत्य और धर्म वह जो धर्मांतरण का कार्य मिशनरी आदेश पर कार्य कर रहे है उसमें स्वार्थ है और मनुष्यता के साथ धोखाधड़ी है

इसके कुछ समय बाद इवान स्टोक्स लाला लाजपत राय जी से मिले उनके अन्दर देश की स्वतंत्रता की तड़फ देखी, समाज के प्रति उनके सेवा भावना के कार्यों से प्रेरित हुए, आर्य समाज वैदिक धर्म और ऋषि दयानन्द के विचारों को समझा और सत्यार्थ प्रकाश का अध्यन किया तत्पश्चात सैमुअल स्टोक्स भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले एकमात्र अमेरिकी बन गये ब्रिटिश शाशन के विरोध में आर्य समाज की विचारधारा से प्रभावित एक ऐसे क्रन्तिकारी बन गये जिसे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ राजद्रोह और घृणा को बढ़ावा देने के लिए जेल 6 माह तक में डाल दिया गया
वर्ष 1932 आते-आते एक अदभुत घटना घटी और इवान स्टोक्स का ह्रदय परिवर्तन हो गया, स्वयं को वेटिकन और ईसायत के जाल से मुक्त कर, वैदिक धर्म अपनाकर अपना नाम सैमुअल इवान से सत्यानंद स्टोक्स कर लिया और सच्चे ईश्वर की खोज में निकल पड़े अंग्रेजी में भगवत गीता का अध्ययन किया और फिर इसे समझने के प्रयास में  संस्कृत सीखी और वेद, उपनिषद का अध्ययन किया बारोबाग में ही घर के एक हिस्से में आर्य समाज मंदिर की स्थापना की उसमें लकड़ी के खंभों पर उपनिषदों और भगवद्गीता के शिलालेखों को उकेरा यानि अब सत्यानंद स्टोक्स अब एक वैदिक आर्य सन्यासी बन गये पत्नी एग्नेस ने अपना नाम बदलकर प्रियदेवी तथा बच्चों के नाम प्रीतम स्टोक्स, लाल चंद स्टोक्स, प्रेम स्टोक्स, सत्यवती स्टोक्स, तारा स्टोक्स और सावित्री स्टोक्स कर दिए

वर्ष 1937 में थानाधर में आर्य समाज मंदिर का निर्माण इतिहास की इबारत लिख चुका था उनकी आर्थिक सहायता के लिए उस समय भारतीय उद्योग जगत के एक दिग्गज जुगल किशोर बिड़ला ने उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए 25,000 रुपये का योगदान दिया। आज उनके द्वारा बनाए गये इस मंदिर को परमज्योति मंदिर या अनन्त प्रकाश का मंदिर कहा जाता है 14 मई, 1946 को सत्यानंद स्टोक्स के प्राण तो अपनी महायात्रा पर निकल गये पर आज तक मंदिर की दीवारों पर लिखे वेदों और उपनिषदों के मन्त्र आर्य समाज की इस धर्म रक्षा का गुणगान गाते सुने जा सकते है
राजीव चौधरी 

शादी के बाद आत्महत्या के बढ़ते मामले


बांदा जिले की बबेरू कोतवाली के पतवन गांव में  22 फरवरी शुक्रवार की रात 28 साल के विकास ने आत्महत्या कर ली. विकास की शादी 21 फरवरी गुरुवार को हुई थी. शनिवार सुबह परिजनों की सूचना पर पहुंची पुलिस ने शव फंदे से नीचे उतार कर पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया.

विकास का शव तो पोस्टमॉर्टम के लिए चला गया लेकिन सवाल घर और समाज में जरुर चीख रहे है कि आखिर ऐसा क्या कारण हुआ जो पहले दिन शादी के सात फेरों पर सात जन्मों के बंधन और रिश्ते को निभाने की शपथ लेकर उठे विकास ने अगली ही रात खुद को मिटा डाला.

वैसे देखें तो हर रोज अखबारों और न्यूज चैनलों में ऐसी खबरें आम होती हैं कि शादी का प्रस्ताव ठुकराए जाने से आहत एक प्रेमी ने खुदकुशी कर ली, शादी के बाद महिला ने आग लगाकर आत्महत्या कर ली या शादी के बाद युवक ने जहर खाकर जान दी और प्रेम प्रसंग के चलते नवविवाहिता ने पंखे से लटककर जान दी आदि-आदि

क्या ये सिर्फ महज संयोग है या मौजूदा दौर का चलन यदि आत्महत्या से जुड़े आंकड़ों पर नजर डालें तो वह हैरान करने वाले हैं कि मानो आज युवा जीने की चाहत भूलकर सिर्फ मौत के बहानों का इंतजार कर रहा हो..

कितना आसान भी है न आत्महत्या करना. घर में रखा कोई कीटनाशक पी लो, या फिर पंखे में रस्सी डालकर लटक जाओ, इतना नहीं हो सकता तो फिर किसी ऊंची जगह से कूद जाओ, ट्रेन की पटरी पर लेट जाओ, ब्लेड से नस काट लो... और भी न जाने कितने तरीके हैं इस जीवनलीला ख़त्म करने के. अब तो इंटरनेट भी ऐसी सुविधाएं देने लगा है जिससे लोगों को नए-नए तरीके मिल रहे है जीवन को समाप्त करने के.

पिछले वर्ष जारी इस रिपोर्ट दावा किया गया है कि भारत में आत्महत्या करने वालों में किसान नहीं बल्कि सबसे ज्यादा युवा हैं. आत्महत्याओं के मामलों को ठीक से जान लेने का यह बिलकुल सही समय है. हमारे देश में हर साल करीब एक लाख लोग आत्महत्या करते हैं. 1994 में जहां 89195 आत्महत्याओं के मामले रिकार्ड किए गए, वो 2004 में 113697 हो गए और 10 साल बाद यानि 2014 में कुल 131666 मामले सामने आए. नेशनल हेल्थ प्रोफाइल की इस रिपोर्ट के अनुसार आत्महत्या की घटनाओं में 15 साल में 23 प्रतिशत का इजाफा हुआ. साल 2015 में एक लाख 33 हजार से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या की जबकि 2000 में ये आंकड़ा एक लाख आठ हजार के करीब था.
आत्महत्या करने वालों में 33 प्रतिशत की उम्र 30 से 45 साल के बीच थी, जबकि आत्महत्या करने वाले क़रीब 32 प्रतिशत लोगों की उम्र 18 साल से 30 साल के बीच थी.

अब सवाल ये उठता है कि आखिर क्या कारण कि जीवन से इतनी बड़ी संख्या में लोग भाग क्यों रहे है. परिस्थितियों से जूझने का जज्बा समाप्त हो गया या रिश्तों की जिम्मेदारी से भाग रहे है. या फिर अपरिपक्वता के कारण आज का युवा आत्महत्या को ही एक बेहतर विकल्प समझने लगा है.

फिल्मी जीवन से प्रेरित है या फिर गलत आदतों का शिकार आखिर क्यों असंतोष, निराशा एवं कुण्ठा जीवन पर अधिकार कर बैठी है प्रश्न यह भी है कि जिस जिन्दगी से हम इतना प्यार करते हैं, यह अचानक हमें बोझ क्यों लगने लगती हैं? आखिर रिश्तों के भूमि इतनी बंजर क्यों हो गयी कि अचानक उसमें एहसास, भावनाएं और अपनेपन के अंकुर फूटने बंद हो गये.

ध्यान रखिए हमारे आस पास भी एक दुनिया है उसे देखिए एहसास हर रिश्तें को खास बनता है. क्योंकि एहसास ही है जो रिश्तों  को एक  दूसरे से जोड़े रखता है. रिश्तों से भागिए मत रिश्ते ही  है जो जिन्दगी से हार चुके व्यक्ति को फिर से  जीने की  नई  राह  दिखाते है, जो हर दुःख को झेलने की ताकत देते है
हमें ये ध्यान रखना चाहिए कि आत्महत्या, मृत्यु का सबसे बेकार कारण है. यानी इसे रोका जा सकता है. आत्महत्या को रोकने की जिम्मेदारी हम सब पर है क्योंकि आत्महत्या करने वाले हर व्यक्ति की मौत का असर उसके परिवार, माता-पिता बच्चों से लेकर पूरे समाज पर पड़ता है.
 विनय आर्य