Wednesday 28 November 2018

काश: एक ऐसे तीर पहले चल गये होते


बचपन में मैंने पढ़ा था कि अति सर्वत्र वर्जयेत्अर्थात् अति का सभी जगह निषेध है। लेकिन इसका सही अर्थ अब समझ आया जब अंडमान निकोबार के द्वीप समूह के उत्तरी सेंटिनल द्वीप पर सेंटिनल जनजाति समुदाय के लोगों ने अपने क्षेत्र में घुस रहे एक अमेरिकी ईसाई धर्म प्रचारक को तीर से मार डाला। असल में सेंटिनल जनजाति के लोग अपने द्वीप पर किसी बाहरी को आने नहीं देते और अगर कोई बाहरी व्यक्ति अपनी वाँछित मर्यादा का उल्लंघन कर यहां आ भी जाए तो इस जनजाति के लोग उसे तीर की सहायता से मार देते हैं। इनके यहाँ कोई भाषाई जवाब नहीं है, न इनके यहाँ धर्मनिरपेक्षता के खोखले सिद्धांत। यह एक जनजाति है जिसकी अपनी परम्परा और संस्कृति है जिसकी रक्षा ये लोग तीर की सहायता से करते आये हैं।

अध्ययनकर्ता बता रहे हैं कि इस जनजाति का बीते 60 हजार सालों में कोई विकास नहीं हुआ है। आज भी ये लोग आदिम जीवन ही जी रहे हैं। यह लोग मछली और नारियल पर निर्भर रहते हैं। इनकी भाषा भी बाकी जनजातियों के मुकाबले समझ से बाहर है। यह जिस द्वीप पर रहते हैं वह पोर्ट ब्लेयर से 50 किमी पश्चिम में स्थित है। इनकी संख्या भी कोई ज्यादा बड़ी नहीं है यही कोई सौ डेढ़ सौ के आस-पास मानी जाती है। साल 1960 के बाद से इस जनजाति तक पहुंचने के कई प्रयास किए गए लेकिन सब असफल रहे। यह लोग आक्रमण करते हुए उग्रता के साथ अपने इरादे साफ बता चुके हैं। जिन्हें विश्वास नहीं होता वह अमेरिकी धर्मप्रचारक की हत्या की खबर को पुनः पढ़ सकते हैं।

कहा जाता है संस्कृतियों को संस्कृतियाँ ही खाती है, सभ्यताओं को सभ्यता और धर्म को अधर्म गटक जाता तो परम्पराओं को परम्पराएं उधेड़ देती हैं इस कारण हमेशा इनकी रक्षा करनी होती हैं। वह रक्षा किस तरह की जाये मुझे नहीं लगता सेंटिनल जनजाति से बढ़िया उदाहरण किसी भी युग या अतीत से लिया जा सकता हैं। मैं इस प्रसंग में नहीं जाना चाहता कि सेंटिनल जनजाति ने ये अच्छा किया या बुरा ये लोग अन्य लोगों से जुड़ना नहीं चाहते! बल्कि प्रसंग ये होना चाहिए कि सैंकड़ों की संख्या में रह रही जनजाति अपनी संस्कृति और परम्पराओं का बचाव किस तरह कर रही हैं।
काश हम भी इस तरह अपने धर्म और संस्कृति का बचाव कर पाते! कौन नहीं जानता भारत में पादरियों का धर्म-प्रचार किस तरह बढ़ा चला आ रहा है। लालच, सेवा, प्रलोभन भय न जाने किस-किस आधार पर ये लोग हमारे धर्म को मिटाने का एक खुला षडयंत्र रच रहे हैं जोकि एक लम्बे अरसे से चला आ रहा है, जब 1506 ईसवीं में फ्रांसिस जेवियर नाम का ईसाई पादरी गोवा के तट पर उतरा था। जिसने पुर्तगालियों की सहायता से भारतीयों का जबरन धर्म परिवर्तन कराना शुरू कर दिया और गोवा का धार्मिक संतुलन बदलकर रख दिया, काश एक ऐसा ही तीर जब चल गया होता तो गोवा में ईसाइयत और पुर्तगालियों का कब्जा न हुआ होता।

सब जानते हैं धार्मिक सहिष्णुता एक महान गुण है जो हमें अपने वैदिक ग्रंथो से विरासत में मिला हैं जिसका हमने प्राचीन काल से पालन भी किया और करते रहेंगे। किन्तु अधर्म को सहना कायरता और अवगुण हैं। इसकी हानि समय-समय पर हमारे देश-काल और संस्कृति को उठानी पड़ी है। कहा जाता है किसी दूसरे के धार्मिक विचारों तथा कार्यों में हस्तक्षेप न करना स्वयं ही एक धार्मिकता है। इस गुण का जितना व्यापक परिचय हमने दिया है, उसका हजारवाँ भाग भी संसार की कोई अन्य जाति न दें सकी लेकिन इससे हमें क्या मिला धर्म का हास और अपना उपहास?

नतीजा यूरोप की ईसाइयत से भरे जहाजी बेड़े हिंदुस्तान के किनारों पर उतरते गये तो जिसकी बदौलत वेटिकन के पॉप की तो तन्हाई खत्म हो गई, लेकिन हमारी जो बेचैनी बढ़ी जो आजतक खत्म नहीं हुई। इससे हमारी संस्कृति कितनी और किस तरह प्रभावित हुई इसका अंदाज सहज लगाया जा सकता है? पर इस सबके बावजूद भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश बना रहा और भारत-सरकार धर्मनिरपेक्षिता की संरक्षिका। आज भी ईसाई पादरी इस धर्मनिरपेक्षता की आड़ में हमारी प्राचीन संस्कृति को मिटाकर अपने ईसाई धर्म का विस्तार करने में बुरी तरह जुटे हुए हैं। स्वयं देखिये चीन में जन्मा जॉन चाऊ अमेरिका में जाकर ईसाइयत के विचार को ग्रहण करता है और फिर ईसाइयत के प्रचार के लिए भारत के छोटे-छोटे द्वीपों में पहुँचता है। बताया जा रहा है कि दुनिया के कई हिस्सों में घूम चुका जॉन इस द्वीप पर पहुंचकर आदिवासी जनजाति के लोगों को ईसाई धर्म से जोड़ना चाहता था। इसी मकसद से वो अक्टूबर के दूसरे पखवाड़े में पोर्ट ब्लेयर पहुंचा था। सेंटिनल जनजति ने कोई गलत कार्य नहीं किया क्योंकि जिस समय जॉन को तीर मारा गया था उस समय उसने हाथ में जो बाइबल पकड़ा हुआ था, ठीक उसके ऊपर तीर लगा। यदि वह उसे तीर नहीं मारते तो कुछ समय बाद इस जनजाति की अपनी संस्कृति और परम्परा मारी जाती।

दक्षिण भारत में भी ऐसा ही हुआ था जब लगभग सन् 1606 में रोबर्ट दी नोबिली को दक्षिण भारत में पहुंचकर हिन्दुओं को धर्मांतरण कराना लगभग असंभव कार्य लगा तो उसने धूर्तता से धोती पहन कर एक ब्राह्मण का वेश धारण किया और पूरे दक्षिण भारत में यह खबर फैला दी गयी वह रोम से आया एक ब्राह्मण है। घीरे-धीरे उसने सत्संग सभाओं में ईसाई प्रार्थनाओं को शामिल करना शुरू कर दिया। आज इसके नतीजे आप स्वयं देख सकते हैं किसी धार्मिक आंकड़ों के शायद ही आप मोहताज होंगे। मैं फिर इतना कह सकता हूँ कि काश ऐसा ही एक तीर तब चल गया होता और दक्षिण भारत वेटिकन के विचारों से बच गया होता। सिर्फ तभी नहीं यदि एक ऐसा तीर भारत भूमि में घुसते हुए मुस्लिम प्रचारक अलबरूनी को लग जाता तो शायद महमूद गजनवी भारतीय संस्कृति को रोंदने की हिम्मत न करता, न ही भारत की प्राचीन महान संस्कृति पददलित होती. हाँ जिनके पास वाणी के तीर होते है वो वाणी से बचाव करते है आदिवासी जनजाति के लोगों के पास तो धनुष के तीर है वो तो उन्हीं से अपना बचाव करते है. राजीव चौधरी


Friday 23 November 2018

साल 1984: नहीं धुले अभी दंगों के दाग

भारतीय न्याय व्यवस्था पर कितना गर्व करें और कितनी शर्म ये तो सभी लोगों का अपना-अपना नजरिया है। लेकिन कुछ मामले ऐसे होते हैं जो संवेदना के साथ-साथ समय रहते न्याय मांगते हैं। यदि समय रहते ये चीजें नहीं मिल पाती तो बाद में मिल भी जाएँ फिर इनका कोई औचित्य नहीं रहता। हाल ही में साल 1984 में हुए सिख विरोधी दंगा केस में 34 साल बाद बड़ा फैसला आया है। दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने दो दोषियों में यशपाल सिंह को फांसी, जबकि दूसरे नरेश सहरावत को उम्रकैद की सजा सुनाई है। दोनों आरोपियों को दक्षिणी दिल्ली के महिपालपुर इलाके में दो लोगों (हरदेव सिंह और अवतार सिंह) की हत्या के मामले में सजा सुनाई गई। बेशक आज हरदेव सिंह और अवतार सिंह के परिजन इस सजा से खुश हो  लेकिन दुःख ये है कि आखिर इन हत्यारों को इनके किये की सजा सुनाने में इतना वक्त क्यों लग गया।

84 के दंगे का जिक्र आते ही प्रत्येक भारतीय आसानी से बता देता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में हिंसा भड़की थी। लगभग तीन दिन तक चले इस नरसंहार में हजारों की संख्या में सिख समुदाय से जुड़ें लोगों की हत्या की गयी थी। हालाँकि व्यापक पैमाने पर हुए इस नरसंहार का कारण यदि टटोला जाये तो ये है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा के आदेश पर सेना द्वारा आतंकियों को पकड़ने के लिए अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में कारवाही की गयी थी। जिसमें दोनों ओर गोलाबारी हुई थी। इसमें काफी बड़ी संख्या में देश के सैनिक भी हताहत हुए थे। इस कार्यवाही में सशस्त्र सिख अलगाववादी समूह जो अलग खालिस्तान देश की मांग कर रहे थे उनके साथ उनके अलगाववादी विचारों को भी छिन्न-भिन्न कर दिया गया था।

किन्तु इसमें जो असल मामला सामने आया था वो ये था कि सेना द्वारा की गयी कारवाही में पवित्र स्थल स्वर्ण मंदिर के हिस्सों को बड़ा भारी नुकसान हुआ था जिस कारण बड़ी संख्या में सिख समुदाय की भावनाएं आहत हुई थीं। ये भयानक कारवाही थी जिसमें दोनों तरफ से आधुनिक हथियारों का प्रयोग किया गया था। देश और पंजाब को बचाने में आस्था जरूर घायल हुई थी इससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि तत्कालीन सरकार या सेना का उद्देश्य मंदिर को नुकसान पहुँचाने का रहा हो?

पर इस घायल आस्था का खामियाजा देश ने भुगता, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई दोनों हत्यारे उनके अंगरक्षक सिख थे, जिसके बाद देश में लोग सिखों के खिलाफ भड़क गए थे। इस घटना के बाद देश की राजनीति में एक बड़े नेता जब बयान आया था कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है। लेकिन, धरती पल दो पल नहीं बल्कि लगातार तीन दिनों तक हिलती रही थी और लोग मारे जा रहे थे। सिख समुदाय के लोगों को जहां भी पाया जा रहा था वहीं पर मार दिया जा रहा था। भीड़ खूनी उन्माद में थी। जब उन्माद शांत हुआ तब तक करीब पांच हजार मासूम लोगों की मौत हो चुकी थी। बताया जाता है अकेले दिल्ली में ही करीब दो हजार से ज्यादा लोग मारे गये थे।

देश की राजधानी में एक तरह का नरसंहार चल रहा था और सरकार उसे रोक नहीं पाई। राजनितिक और असामाजिक तत्वों ने भरसक फायदा उठाया। भारत की आजादी के बाद इस तरह का कत्लेआम जिस तरह हुआ, उसे सुनकर आज भी रूह कांप जाती है। प्रेम और सद्भावना से एक साथ एक ही मोहल्ले में वर्षों से साथ रह लोगों में द्वेष की एक ऐसी भावना का संचार किया गया कि एक भाई कातिल तो एक की लाश जमीन पर पड़ी थी। मात्र दो लोगों की गलती की सजा ने देश की समरसता को रोंद दिया था।

बहुत लोग मारे गये थे लेकिन आज तक सजा के नाम पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिससे सड़कों पर बहे खून और हत्याओं का हिसाब हो सके। हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिए जाने के बावजूद भी जजों के हथोड़े सरकारों और जाँच आयोगों से पूछ रहे है कि इस दंगे के अपराधी कौन है? आखिर क्या कारण रहा कि आज तक ठोस इंसाफ नहीं हो पाया। दोनों हत्यारे फांसी पर लटका दिए गए लेकिन नरसंहार करने वाले कभी राजनीति का सहारा तो कभी सरकारों द्वारा गठित विभिन्न जाँच आयोगों की धीमी चाल का फायदा लेकर बचते रहे। इससे पीड़ितों के साथ न्याय को लेकर सवाल तो उठता ही है, कि अगर कुछ लोग संवेदनाएं भड़काकर हिंसा या दंगा करवा दें तो उनका कुछ नहीं होता। बस जाँच के नाम पर कागजों के पुलिंदे जमा कर बहस चलती रहती है।


कितने लोग जानते और आज उस दर्द को महसूस करते होंगे, मुझे नहीं पता। न्याय की आस में बैठे कितने लोग अब दुनिया छोड़कर चले गये। अपने मुकदमों की फाइल अगली पीढ़ी को पकड़ा गये कोई जानकारी नहीं। तीन दिनों तक चले इस भीषण दंगे में क्या हुआ था शायद हम जैसी आज की पीढ़ी के लोग केवल उपलब्ध जानकारियों के आधार पर अपनी राय रख सकते हैं। समय-समय पर चुनाव आते रहते है नेता सत्ता की चादरों पर बयानों के भाषण झाड़ते हैं और वोटो की झोली भरकर चले जाते है। लेकिन पीड़ित तो न्याय की आस में बैठे रहते हैं। जबकि मानवता का कत्ल करने वाले लोगों को उकसाने वाले चाहे वो अलगाववाद के नाम पर या हिंसा और उन्माद के नाम पर उन्हें तुरंत कड़ी सजा देनी चाहिए ताकि वह अपनी किसी भी महत्वाकांक्षा में जन भावनाओं का दोहन न कर सके। आज भले दो लोगों को सजा सुनाई गयी हो इससे एक पल को मृतक के परिजन भी न्याय पाकर खुश हो लेकिन इस दंगे से न्याय व्यवस्था पर लगा दाग पूर्ण रूप से अभी धुला नहीं है।…..राजीव चौधरी

Wednesday 21 November 2018

अयंत इध्म आत्मा एवं उद्बुध्यस्वाग्ने- यज्ञ का आध्यात्मिक पक्ष


यज्ञ एक बहुत विशाल एवं विस्तृत अर्थ वाला शब्द हैं मुझे जब कभी भी किसी आर्य समाज, संस्था या सभा में आमंत्रित किया जाता है तो प्रायः यह अपेक्षा की जाती है कि मैं यज्ञ पर ही कुछ चर्चा करूं, अधिकतर मैं अग्निहोत्र के वैज्ञानिक पक्ष पर चर्चा करता हूं। किन्तु आज की चर्चा में यज्ञ के विशाल, वृहदअर्थ पर होगी। उस यज्ञ की जिसे स्वामी दयानंद ने स्वयं आरम्भ किया था और जिसमें आर्य समाज के अनेक दीवानों ने, विद्वानों ने, तपस्वियों ने, यतियों ने, युवकों ने युवतियों ने, और अनेक साधारण से लगने वाले किन्तु महान तपस्वी आर्य समाज के सदस्यों ने अपने जीवन की, यौवन की, अपनी सुख-सुविधाओं की, अपने सर्वस्व की आहूति देकर इस यज्ञ की अग्नि को प्रज्ज्वलित किया है व इसे बढ़ाया है। अपनी आत्मा को, अपने शरीर को इस आर्य समाज रूपी यज्ञ में आहुति के रूप में अथवा समिधा के रूप में समर्पित कर दिया है। आज उनकी दी हुई आहुति हमें झंझोर रही है ओर कह रही है कि ए दयानन्द के अनुयायी उठ, उठकर यज्ञ की प्रदीप्त अग्नि को देख, क्या सन्देश दे रही है यह अग्नि की लौ? यह समिधा स्वयं को जला कर भी जगती को, प्राणिमात्र को, अंधेरे में भटके हुए पथभ्रष्टों को मार्ग दिखाती है। अपनी लौ से अनेक अग्नियां प्रज्ज्वलित करती है। इस लौ का सन्देश है ए मानव यदि तू अमर होना चाहता है तो स्वयं को जला कर जगती के लिए कुछ कर जा।

दयानन्द जी ने स्वयं अपने जीवन की आहुति इस यज्ञ में दे दी। दयानन्द जी के कितने ही अनुयायियों ने इसी प्रकार अपने जीवन को समिधा की तरह जलाकर अयंत इध्म आत्माको सार्थक किया, कितनो ने ही उदबुध्यस्वाग्ने’ : हे अग्नि तू प्रगट हो, प्रज्ज्वलि हो- कह कर इस यज्ञ की अग्नि को बढ़ाया।
आइये आज अपने इस स्वर्णिम इतिहास के कुछ पन्नों का अवलोकन करे कि किस-किस ने अपने आपको समिधा अथवा आहुति के रूप में प्रस्तुत करके इस यज्ञ की अग्नि को प्रज्ज्वलित किया है।
1. गुरुकुल कुरुक्षेत्र का उत्सव चल रहा था। बहुत बड़ा प्रांगण था। एक नहीं अनेक विद्वान उस उत्सव पर उपस्थित थे, एक दिन पंडित शांति प्रकाश जी शास्त्रार्थ महारथी प्रातः उठ कर सैर को जाने के लिए तैयार हुएतो देखा बाहर आंगन में एक वृद्ध व्यक्ति टूटी हुई खाट पर सोया हुआ है। एक चारपाई जिसमें बाण भी पूरा नहीं था, ढीली पड़ी हुई थी। पास आकर देखा तो वह व्यक्ति उस समय के प्रकांड विद्वान् पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय थे। वह सार्वदेशिक सभा क उप प्रधान थे। रात देर से पहुंचे थे। सोचा क्यों किसी अधिकारी को रात को तंग करूं। बाहर जो टूटी हुई चारपाई पड़ी थी उसी पर सो गए। यह वह गंगाप्रसाद जी उपाध्याय थे जिन्होंने पूरी दुनिया में आर्य समाज की ज्योति जलाई। सत्यार्थ का इंग्लिश में अनुवाद किया। जिनके सुपुत्र डॉ. स्वामी सत्य प्रकाश हुए, जो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में केमिस्ट्री के प्रोफेसर थे और जिन्हों ने ‘‘केमिस्ट्री ऑफ अग्निहोत्र’’ नाम की पुस्तक लगभग 1837 में लिखी थी। यह प्रथम पुस्तक थी जिसमें अग्निहोत्र की वैज्ञानिकता पर आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से विचार किया गया था। मेरी अपनी पुस्तक ‘‘द साइंस ऑफ़ अग्निहोत्र’’ का आधर भी यही पुस्तक थी। यह था उस समय के विद्वानों का त्याग। सुख सुविधा की इच्छा तक नहीं थी। केवल एक ही लक्ष्य था, दयानन्द के मिशन को आगे बढ़ाना। इसे कहते हैं अयंत इध्म आत्मा’ ‘‘यज्ञ में अपनी आहुति देनी। दयानन्द द्वारा आरम्भ किये हुए यज्ञ में अपनी आहुति देनी।’’ यह यज्ञ का क्रियात्मक उदाहरण है। अपने जीवन के उदाहरणों से पाठ पढ़ना। टीचिंग बाई सेल्फ मगंउचसम। इसकी तुलना करें- आज के कुछ उपदेशकों, वक्ताओं, नेताओं से जो आने से पहले ही तय कर लेते हैं कहां ठहराओगे कौन से क्लास का एयर टिकेट आदि।
2. एक अन्य उदाहरण आर्य उपदेशकों के तपस्वी जीवन का।
आर्य समाज नयाबांस दिल्ली की आधारशिला भाई परमानन्द ने रखी थी। यह वह भाई परमानन्द थे जिन्हें अंग्रेजों ने आर्य समाज के माध्यम से जन-जन को देश प्रेम का पाठ पढ़ाने के कारण काले पानी की सजा दी थी। आर्य समाज नयाबांस के सदस्य भाई जी के लिए बहुत श्रद्धा का भाव रखते थे, एक बार इसी आर्य समाज के कार्यक्रम पर भाई परमानन्द जी आये। रेलवे स्टेशन पर श्री पन्ना लाल जी उन्हें लेने गए। पन्ना लाल जी, भाई जी के लिए तांगा ले आये। स्टेशन से आय्र समाज तक किराया एक आना लगता था। आर्य समाज की स्थिति आर्थिक रूप से अच्छी नहीं थी। यह बात भाई जी को मालूम थी। भाई जी ने कहा पन्ना लाल व्यर्थ तांगा क्यों ले आये। आर्य समाजों को कितने समाज सेवा के कार्य करने हैं। कितने पथभ्रष्टों को राह दिखानी है। यह पैसा उन कार्यों पर लगाया करो। हम तो पैदल ही चलेंगे। इससे पहले कि पन्ना लाल जी कुछ कहते, भाई जी अपना सामान स्वयं उठाकर चलने लग पडत्रे। बंधुओं इसे कहते हैं अयंत इध्म आत्मा, यज्ञ में स्वयं की आहुति। आर्य समाज के कार्य के लिए अपने सुख सुविधा का त्याग। सेवा कार्यों के लिए इकट्ठा किया गया दान मेरे तांगा के किराये पर खर्च हो? यह एक सच्चे याज्ञिक को कैसे स्वीकार हो सकता था?
3. एक अन्य उदाहरण : आर्य समाज के एक धुरंधर शास्त्रार्थ महारथी स्वामी रूद्रानंद जी हुए हैं। वह एक बार एक शास्त्रार्थ हेतु ‘‘टोबा टिबे सिंह’’ (पश्चिम पंजाब में एक नगर का नाम) गए। अपने साथ पुस्तकों का बड़ा गट्ठर लेकर स्टेशन पर उतरें आवाज़ लगाईः कुली....कुली... छोटा स्टेशन था। कोई कुली नहीं था, हताश से खड़े थे। इतने में एक साधारण से कपड़े पहन हुए व्यक्ति उनके पास आया और बोला कहां जाना है आपको। मैं ले चलता हूं आपका गट्ठर। स्वामी जी बोले मुझे आर्य समाज मंदिर तक जाना है। यह गठरी ले चलो। उस व्यक्ति ने गठरी उठाई ओर उनके साथ चल दिया। आय्र समाज पहुंचे तो वहां के अधिकारी जहां स्वामी जी को आदर सत्कार से नमस्ते कहने लगे, उस साधारण व्यक्ति को भी नमस्ते महात्मा जी-नमस्ते महात्मा जी कहने लगे। उनका भी स्वागत करने लगे। स्वामी जी चकित थे। कौन है यह महात्मा?
जानते हैं बंधुओ कौन था वह कुली महात्मा? वह थे आर्य जगत का प्रसिद्ध साधक व विद्वान महात्मा प्रभु आश्रित जी। रोहतक के महात्मा प्रभु आश्रित जी के आश्रम से हम सब परिचित हैं। ऐसे त्यागी तपस्वी थे हमारे विद्वान, हमारे प्रचारक, हमारे उपदेशक, यह था उनका यज्ञ यह थी उनकी आहुति आर्य समाज रूपी यज्ञ में। ‘‘अयंत इध्म आत्मा’’ एवं ‘‘उद्बुध्यस्वाग्ने’’
4. एक और उदाहरण लीजयें एक आर्य सम्मेलन में एक आर्य विद्वान कुर्सी पर बैठे थे। एक छोआ सा बालक उनके पास आया और बोला पंडित जी नमस्ते। उस समय नमस्ते आर्यत्व की पहचान थी। उस विद्वान ने सोचा यह छोटा सा बालक है और मुझे नमस्ते कर रहा है। कितना संस्कारयुक्त है, इतनी छोटी सी आयु में। उन्हांने उसे एक पैसा इनाम में दे दिया। बालक छोटा था। प्रसन्न होकर चला गया। कुछ ही समय में वह वापस आया और पैसा पंडित जी को वापस कर गया। पंडित जी ने पूछा, क्या बात है? मैंने इतने छोटे से बालक के मुख से नमस्ते शब्द सुनकर प्रसन्न होकर इस बालक को एक पैसा इनाम में दिया और यह उसे वापस कर गया। वहां उपस्थित लोगों ने कहा पंडित जी यह बहाल सिंह का बालक है। पैसा नहीं लेगा। बहाल सिंह का नाम इस प्रकार लिया गया कि पंडित जी समझ गए कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। पंडित जी ने पूछा, भाई यह बहाल सिंह कौन हैं? उन्हें बताया गया कि कोई बड़ा धनवान अथवा शिक्षित विद्वान नहीं हैं अपितु पुलिस विभाग में एक चौकीदार है किन्तु पुलिस में रह कर भी अपनी इमानदारी और कर्त्तव्य निष्ठा के लिए विख्यात है। ऐसे ह संस्कार उसने अपनी संतान को भी दिए हैं।
जानते हैं आप यह बहाल सिंह कौन था? इसने पुलिस विभाग मे केवल चौकीदार के पद पर काम करते हुए बिजनौर क्षेत्र में पांच आर्य समाज स्थापित किये थे। इसी बहाल सिंह के बारे में कहा जाता है कि रात को पहरा देते हुए कहता था ‘‘पांच हजार साल से सोने वालो जागो। ये थे उस समय के आर्य, जिन्होंने अपने जीवन की आहुति दी थी इस आर्य समाज रूपी यज्ञ में।
5. हम आजकल के आर्य समाज के सदस्यों में कितने होंगे ऐसे-ऐसे अधिकारी या सरकारी कर्मचारी जो पूरी इमानदारी से सरकारी सेवा करते हों जिनको रिश्वत लेने का मौका नहीं मिलता। उनकी बात छोड़ दें, तो जो ऐसे पदों पर रहे हैं जहां रिश्वत् का ही बोलबाला रहता है। उनमें से कितने अपने को इस वित्तेष्णा से बचा पाते हैं। बहुत कठिन काय्र है। कड़ी तपस्या है पूरी इमानदारी से काम करना। मैं ऐसा नहीं कहना चाहता कि सभी उच्च पदों पर बैठे आर्य परिवारों के अधिकारी रिश्वतखोर हैं। किन्तु है यह अत्यंत कठिन तपस्या। जो ऐसे हैं उन्हें अपनी इमानदारी की कीमत भी चुकानी पड़ती है। मैं व्यक्तिगत तौर पर एक एसे आर्य तपस्वी को जानता हूं जिन्हें इमानदारी के कारण अपनी जान की आहुति देनी पड़ी थी। एक डत्क् के इंजीनियर थे। अपने आपको रिश्वत् की समस्या से दूर रखने के लिए उन्होंने सदा अपनी पोस्टिंग ऐसे स्थान पर करवाई जहां ठेकेदारों आदि से वास्ता नहीं पड़ता था। किन्तु सदा ऐसा चल नहीं सकता। आखिर एक बार असम के किसी इंजीनियरिंग स्टेशन पर पोस्टिंग हो गई। जहां ठेकेदारों के झूठे बिल प्रस्तुत होते थे। उस व्यक्ति ने अपनी आत्मा की आवाज सुनी और ऐसा करने से इन्कार कर दिया। अनेक प्रलोभन व धमकियां दी गईं। किन्तु दयानन्द का वह सिपाही टस से मस नहीं हुआ। अंत में ठेकेदारों और ऊपर के अधिकारियों की मिलीभगत से उसे 1988 के जून मास के अंतिम दिन अपने कार्यालय की छत के पंखे से लटका पाया गया। मैं इसका प्रत्यक्ष दर्शी हूं। जानते हैं कौन थे वह? और कोई नहीं दिल्ली सभा के वर्तमान महामंत्री श्री विनय आर्य जी के पिता श्री जय प्रकाश जी सिंहल (अभी हाल ही में 30 जन को उनकी पुण्यतिथि थी)। ऐसे तपस्वी पिता की संतान है विनय जी। उस पवित्र वातावरण में पालन पोषण का ही परिणाम है कि आज ऐसा युवक घर गृहस्थी के होते हुए भी दिन रात आर्य समाज के कार्यों में लगा रहता है।
6. दिल्ली सभा के महामंत्री की बात आयी है तो एक अन्य उदाहरण सभा के अधिकारियों का। महात्मा नारायण स्वामी जी सार्वदेशिक सभा के प्रधान थे। यह वही महात्मा नारायण स्वामी थे, जिन्होंने हरिद्वार ज्वालापुर में वानप्रस्थ आश्रम की स्थापना की थी। तब की सभाओं के प्रधान व सभी अन्तरंग सदस्य विद्वान, तपस्वी, त्यागी एवं सच्चे ऋषि भक्त होते थे। सार्वदेशिक सभा की एक बैठक में अपने समय के उच्च कोटि के विद्वान पंडित चमूपति जी भी उपस्थित थे। चर्चा के दौरान पंडित चमूपति जी कुछ कहने को उठे, महात्मा नारायण स्वामी जी ने आवेश में आकर कह दिया बैठ जाओ तुम्हें कुछ नहीं पता है। पंडित चमूपति बैठ गए।
बैठक समाप्त हुई। महात्मा नारायण स्वामी जी एक उच्च कोटि के साधक थे। उन्हें मन में विचार आया यह मैंने क्या कह दिया। आचार्य चमूपति जी जैसे विद्वान को कह दिया तुम्हें कुछ नहीं पता है। महात्मा जी स्वयं उठकर पंडित चमूपति जी के पास गए और बड़ी विनम्रता से बोले पंडित जी मुझ से बड़ी भूल हो गई। आप जैसे विद्वान को मैंने कह दिया तुम्हें कुछ नहीं पता है। मैं आवेश में था। सभा संचालन में कभी-कभी ऐसा हो जाता है। आप मुझे क्षमा करें।
पंडित चमूपति जी भी कम विनम्र नहीं थे। बोले ऐसी कोई बात नहीं। आप ज्ञान, आयु, तप और त्याग में मुझ से कहीं बड़े हैं। आप सभा के प्रधान भी है। सभा का ठीक संचालन करना आपका कर्त्तव्य एवं अधिकार भी है। आप क्यों मुझ से क्षमा मांग रहे हैं।
पाठक वृन्द! आप देखिये कैसी थी दोनों विद्वानों की विनम्रता व बड़प्पन, अपने अहंकार की आहुति दे दी थी दोनों आचार्यों ने इस आर्य समाज रूपी यज्ञ में, इसे कहते हैं अयंत इध्म आत्मा’, इसे कहते हैं उद्बुध्यसवाग्ने। यह है यज्ञ का वास्तविक स्वरूप। हमारे उस समय के विद्वानों ने व सभा के अधिकारिओं ने अपने जीवन से एवं अपने आचरण से हमें शिक्षा दी है। शिक्षा वही है जो अपने आचरण से दी जाये, शेष तो केवल कोरी पढ़ाई है

आज की सभाओं की जो अवस्था है, सभाओं की ही क्यों, अधिकांश छोटी बड़ी आर्य समाजों के अधिकारियों के आपस के कैसे सम्बन्ध हैं हम से छिपे नहीं हैं। इन सभाओं में क्या हम यज्ञ कर रहे हैं या अपने पूर्वजों के रचाए हुए या की अग्नि को बुझाने का कार्य कर रहे हैं। आज आवश्यकता है आत्म मंथन की, आत्मचिंतन की। हम यज्ञ की बात तो करते हैं किन्तु यज्ञ मय जीवन से कोसों दूर हैं। जीवन हमारा याज्ञिक न होकर यज्ञ विध्वंसक सा है।
यज्ञ की रक्षा में अनेक आर्यों ने अपने सर्वस्व की आहुति दी, अपने अहम की, अहंकार की, अपने शारीरिक सुख की, इच्छाओं की आहुति दी। यह यज्ञ का आध्यात्मिक रूप है।
यज्ञ पर चर्चा बड़ी लम्बी है, विस्तृत है। यज्ञ शब्द ही बड़ा विशाल अर्थ वाला है। आइये आज हम एक अन्य यज्ञ करं आज आत्म मंथन का यज्ञ करें। संकल्प लें कि दयानन्द द्वारा आरम्भ किये हुए इस आर्य समाज रूपी यज्ञ में अपनी भी कुछ आहुति दें। अयंत इध्म आत्मा एवं उद्बुध्यस्वाग्ने को साकार करें।
डॉ इश नारंग 
(आभार : इस लेख को लिखने में प्रोफेसर राजेन्द्र जिज्ञासु जी की पुस्तक तडव वाले-तड़पाती जिनकी कहानी से कुछ उद्धरण लिए गए हैं।)


बीसवीं शताब्दी का प्रथम शहीद ‘खुदीराम बोस’


-मा. शंकर शास्त्री
‘‘एक बार विदाय दे मां धुरे आसि-हांसि-हांसि पोरबो फांसी देखिबे भारतवासी।’’
भारतवासी खुदीराम बोस के बलिदान पर गाये जानो वाले इस गीत की पंक्तियां आज भी बंगाल के घर-घर में माताएं गाती हैं। गुनगुनाती हैं। बंगाल के बीहड़, तराई वाले इलाकों में प्रवेश करने पर आज भी सुना जाता है किसानों के कंठों से यह अमर गीत बलिदान के 110 वर्षों के बाद भी खुदीराम जीव के कदम-कदम पर प्रेम ऋद्धा और बलिदान के फूल खिला रहे है। और खिलाते रहेंगे।
11 अगस्त 1908 को प्रातः छः बजे मुजफ्फर जेल में फांसी के तख्ते परर खुदी राम आ चढ़े। फांसी के समय उपस्थित एक संवाददाता उपेन्द्र नाथ सेन उस क्षण का वर्णन करते हुए लिखते हैं ‘‘खुदीराम तेजी से चलकर मानों सिपाहियों को खीचे आ रहे हों, हम लोगों को देखकर वे मुस्कुराये, फिर एकबार और हम लोगों को देखा। इसके बाद दृढ कदमों से बढ़ते हुए फांसी के तख्ते की ओर बढ़ गये।’’

20वीं सदी में सर्वप्रथम खुदीराम बोस ने ही हंसते हुए फांसी के तख्ते पर प्राण न्योछावर सम्पूर्ण राष्ट्र को मृत्यु से मुक्त होने का संकेत दिया था। खुदीराम खुदी का बुलंद, संकल्प का दृढ, बुद्धि से विवेकपूर्ण, उम्र से आवेशपूर्ण, भक्ति से मातृभूमि को समर्पित, इरा का सच्चा और धुन का पक्का, अग्नि की चिन्गारी के रूप में विद्रोही बनकर भारत मां की भूमि में जन्म लिया और उसी क्रांति की अग्नि ज्वाला में जल गया। फांसी पर झूल गया। खुद को खुदा के हवाले कर दिया। गीता ही जिसका मार्ग दर्शिका थी, आजादी ही जिसकी अराध्या थी, जो न गोली से डरता था, न बम के बिना चलता था, जो मातृभूमि की आजादी का सपना लिये कदम-कदम, तेज कदम बढ़ाता जा रहा था। गुलाम बनाने वालों को गुलाम बनाने का सपना लिए, सर काटने वालों का सर काटने का सपना लिए उसी जलते हुए शोले को हम खुदीराम के नाम से जानते हैं।
आग का गोला था खुदीराम, धधकता हुआ शोला था खुदीराम एक उबलता हुआ ज्वालामुखी, एक उफनता हुआ जोश का दरिया, एक उबलता हुआ क्रांति का तूफान और मातृभूमि की शान के लिए मर मिटने वाला कोई आल्हा, होई ऊदल, कोई शिवा कोई राणा कोई तात्या, कोई कुंवर सिंह था, खुदीराम। जिसके पीछे कोई कातिल नहीं चलता था जो स्वयं कातिल का पीछा करता था और उस कातिल का नाम था किंग्सफोर्ड। जो किग्सफोर्ड कलकत्ते का चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट था और जिसने 260 देश प्रेमियों को देश द्रोही करार देकर फांसी की सजा दी थी। 1908 में किंग्सफोर्ड ने बिहार की धरती पर कदम रखा तथा मुजफ्फरपुर के जिला एंव सत्र न्यायाधीश की कुर्सी पर आसीन हुआ।
किंग्सफोर्ड ने राष्ट्रभक्तों के दमन के साथ-साथ राष्ट्रीयता जगाने वाले अखबारों के दमन में भी प्रभूत बदनामी अर्जित की थी। युगान्तर के सम्पादक के रूप में स्वामी विवेकानन्द के अनुज भूपेन्द्र नाथ दत्त को डेढ़ वर्ष की सजा दी थी। वन्देमातरम्के सम्पादक के रूप में विपिन चन्द्र पाल को छः मास की सश्रम कारावास की सजा दी थी किंग्सफोर्ड ने। हालांकि बन्देमातरम् के सम्पादक थे अरविन्द घोष लेकिन यह साबित नहीं हो सका था। संध्याके सम्पादक ब्रह्मवान्धवको जेल में इतनी यातना दी गई कि वे जेल में ही मर गये। किंग्सफोर्ड ने एक 16 वर्षीय छात्र सुशील कुमार को आन्दोलन मे ंभाग लेने का दोषी करार देकर 15 बेतों की सजा दी थी। किंग्सफोर्ड ने अपने सामने ही जल्लाद के द्वारा कपड़े उतरवाकर टिकठी से बंधवाकर 15 बेंट लगवाये थे। जल्लद ने उछल-उछल कर इतने जोरों से महार किया था कि उस छात्र के पीठ तथा नितम्बों की खाल उधड़कर मांस निकल आया था और वह अचेत हो गया था।
किंग्सफोर्ड के अन्याय की पराकाष्ठा को देखते हुए क्रांतिकारियों के सिरमौर अरविन्दघोष और चारूदत्त ने निर्देश दिये कि किंग्सफोर्ड को खत्म कर देना चाहिए। क्रांतिकारियों के भय से अग्रेज पदाधिकारियों ने किंग्सफोर्ड का तबादला मुजफ्फरपुर शेसनजज के रूप में कर दिया। किंग्सफोर्ड को समाप्त करने के लिए खुदीराम बोस और प्रफुल्लचन्द्र चाकी को चुना गया। दोनों को एक-एक डायनामाइट बम जिसमें लकडत्री का हत्था था तथा जो टिन के डिब्बे में बन्द था और वो रिवॉल्वर सौपे गये। ताकि जरूरत पड़ने पर उसका उपयोग किया जा सके।
मार्च 1908 के अंत में खुदीराम बोस अपने क्रांतिकारी साथी प्रफुल्ल चन्द्र चाकी के साथ मुजफ्फरपुर आये ओर एक धर्मशाला में छद्म नाम से ठहर गये। फिर दोनों ने वह स्थान देखी जहां किंग्सफोर्ड रहता था। दोनों ने दिन-दिन भर घूमकर नगर के रास्तों की पहचान कर ली। किंग्सफोर्ड पर उन दोनों की निगाहें रहती थीं। किंग्सफोर्ड की कोठी के निकट गोरों का एक क्लब चलता था। किंग्सफोर्ड भी प्रतिदिन सांयकाल वहां पहुंचता था और देर रात में वापस लौटता था। किंग्सफोर्ड घोड़े वाली फिटन से क्लब जाया करता था। ठीक उसी रंग की फिटन शहर में एक अमरीकी वकील पी. कैनेडी के पास भी थी। वे भी प्रतिदिन अपने फिटन से क्लब आते थे।
30 अप्रैल सन् 1908 अमावस्या की रात। गहरा अंधेरा सब ओर घनीभूत था। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चन्द्र चाकी बम रिवाल्वरों से लैस वहीं किंग्सफोर्ड के बंगले के निकट इंतजार में खड़े थे एक पेड़ के ओट में। तभी 8 बजे एक फिटन क्लब की ओर लौटी। खुदीराम ने उसे किंग्सफोर्ड का फिटन मानकर उसपर बम फेंक दिया। भयंकर विस्फोट गूंजा, फिटन का एक भाग ध्वस्त हो गया। दो अमेरिकी महिलाएं घायल होकर गिर गई। वे पी. कैनेडी की पत्नी और बेटी थीं। कोचवान जख्मी होकर बच गया लेकिन दोनों महिलायें मर गयी। दोनों पेड़ की ओट में आगे बढ़े। वहां तैनात दो सिपाही तहसीलदार खां और फैजुद्दीन ने उन्हें देख लिया था परन्तु भयवश पीछा नहीं किया और दोनों निकल भागे। सिपाहियों ने थाने में रिपोर्ट दी। हर जगह नाकेबंदी कर दी गई। क्रांतिकारियों की खोज होने लगी। चारों ओर सनसनी फैल गई। दोनों वर रेलपटरी के किनारे-किनारे भागे और रात भर भागते-भागते 25 मील चलकर बैनी गांवआये। प्रफुल्ल एक आम के बाग में बैठ गया। भोर हो चुका था और दोनों के हुलिए ीी हर जगह जा चुके थे। उसी मोदी की दुकान पर दो सिपाही खड़े थे शिव प्रसाद और फतेहसिंह। दोनों को खुदीराम पर शक हो गया और दोनों मिलकर खुदीराम को दबोच लिया। गोली चलाने का मौका भी न पा सका यह तरुणवीर पुलिस इसे रेल में बिठाकर मुजफ्फरपुर रवाना हो गये। खुदीराम को पकड़ाया हुआ देख प्रफुल्ल वहां से समस्तीपुर की ओर भागा। 32 मील चलकर समस्तीपुर पहुंचा। कॉलोनी के एक देशभक्त व्यक्ति ने प्रफुल्ल को रोककर भोजन कराया विश्राम के लिए स्थान दिया और नये कपडत्रे और जूते खरीदकर दिये। कलकत्ता तक का टिकट कटाकर उसे इंटरक्लास में बिठा दियां उसी कोठरी में एक नंदलाल बनर्जी नामक दरोगा भी सफर कर रहा था। उसकी नजर में चाकी चढ गया। उसे मुजफ्फरपुर बम काण्ड की खबर थी तथा क्रांतिकारियों के हुलिये का भी पता था। बनर्जी दरोगा ने स्टेशन मास्टर को तार द्वारा सूचना मौकाया भेज दिया। मौकाया स्टेशन पर गाड़ी रुकत ही आर्म स्ट्रांग दरोगा ने चाकी को घेर लिया। अन्य सिपाहियों के साथ दरोगा चाकी को पकड़ने बढ़ा ही था कि चाकी ने दरोगा पर गोली चला दी। दरोगा सिर झुकाकर निशाना बचा गया। चाकी ने देखा अब पकड़ा जाना निश्चित है तो उसने बिना एक क्षण की देर किये एक गोली अपने माथे पर दागी। खून से लथपथ हो प्लेटफार्म पर गिर गया और तत्कार शहीद हो गया। चाकी का सिर काटकर मुजफ्फरपुर लाया गया, खुदीराम बोस को दिखाकर पहचान कराने के लिए।
मुजफ्फरपुर पहुंचकर खुदीराम उदास नहीं हुआ। लोगों ने उसे हमेशा प्रसन्नचित पाया। भारी भीड़ उमड़ पडत्री खुदीराम के दर्शन हेतु। आधी धोती घुटनो पर चढ़ी, आधी कंधे पर, उलझे से घुंघराले बाल साधारण सा कुरता, चेहरे पर भय का कोई चिह्न नहीं। खुदीराम पर मुकदमा चला लेकिन खुदीराम ने मुकदमें में कोई रुचि न ली। न बचाव की ही कोशिश की। दस दिनों तक मुकदमा चला। जिला जज कर्नडफ की अदालत से खुदीराम को फांसी की सजा दी गई। फांसी की सजा सुनकर खुदीराम मुस्कुरा उठा। जज ने पूछा-‘‘ क्या तुम्हें फांसी की सजा सुनकर कोई गम नहीं।’’ खुदीराम ने मुस्कुराते हुए जज को जबाव दियाः- ‘‘मुझे दो बातों का दुःख है, जज साहब एक जो यह कि मिस्टर किंग्सफोर्ड बच गया और व्यर्थ ही दो महिलायें मरीं। दूसरी बात यह है कि जब मेरी अपरूपा दीदी को पता चलेगा कि खुदीराम अब इस संसार में नहीं है तो उन्हें बड़ा दुःख होगा क्योंकि मैं ही अकेला उनका एक भाई था।’’
अंग्रेज जज यह सुनकर दांतों तले कलम दबाकर रह गया और अबाक् निहारता रहा उस मुस्कुराते हुए बालक को कि किस धातु का बना है यह लड़का?
11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में खुदीराम बोस हाथ में गीता लिये हंसता हुआ फांसी पर चढ़ गया। उसके अंतिम बोले थे वंदे मातरम्। कालिदास बोस(वकील) ने उसका अंतिम संस्कार किया श्मशान में। उस समय ऐसी भीड़ थी कि उस शहीद की चिता-भस्म की एक चुटकी राख के लिये छीना-झपटी मच गई।
‘‘खुदी ने खुद को खुदा को क्यों सौंपा?’’
यह ज्वलन्त प्रश्न समस्त मानव समुदाय को उद्वेजक बनाने के लिए पर्याप्त है। जिस बालक ने अभी जीवन के मार्ग पर कदम भी न रखा था। जिसे अभी मूंछ की रेखा तक न आई थी। उस 18 वर्षीय तरुण को बम फेंकने तथा फांसी पर झूलने की क्या जरूरत थी?
ढूढ़िये इस ज्वलन्त प्रश्न का उत्तर! शायद आपको राष्ट्रहित में बलिदानी परम्परा की एक चमक दिखाई पड़ेगी। उस मासूम खुदीराम के हृदय की भावनाओं को चिन्तन की लहरों में प्रवाहित कर जरा विचार करिये, भावुक हृदय में तूफान खड़ा कर देगा खुदीराम की प्रचण्ड देशभक्ति का भाव। खुदीराम खुद को मिठाया, खुद को लुटाया, खुद को जलाया, खुद को खुदा को सौंप अमरत्व को प्राप्त कर राष्ट्र को एक संदेश दे गया कि अन्याय और अधर्म की पंक में डूबा हुआ जालिम प्रशासक को समाप्त कर देने में ही राष्ट्र का उद्धार होगा। भारत माता चैन की सांस ले सकेगी।
मेरे देश के नैनिहालों! तरुणों! वीरो! राष्ट्र भक्तों! आज तुम्हें अपेन अन्दर खुदीराम को जन्म देना होगा। खुदीरम बनकर हाथ में तीव्रतम धमाका वाला बम लेकर किंग्सफोर्ड जैसे जालिम और अत्याचारी, अन्यायकारी अधिकारियों के चीथड़े उड़ाकर भारत माता की तड़पती आत्मा को शान्ति प्रदान कराना होगा। यदि आज भारत का एक-एक तरुण खुदीराम जैसे, देश में वर्तमान किंग्सफोर्ड पर धावा बोल दे तो मां भारती कितना खुश होगी? लेकिन हां, जोश में आकर होश न खोना कि किंग्सफोर्ड की जगह मिस कैनेडी और कुमारी कैनेडी के चिथड़े उड़ जायं। आज भारत के प्रत्येक तरुण को खुदीराम बनना होगा, प्रफुल्ल चन्द्र बनना होगा, तभी राष्ट्र का कल्याण संभव है। भारत के प्रत्येक घरों में पुनः यह गीत गुंजायमान करना होगा-
‘‘एक बार विदाय दे मां धुरे आसि-हांसि-हांसी पोरबो फांसी देखिवे भारतबासी’’
-प्राचार्य महर्षि दयानन्द सरस्वती बाल मंदिर तेघड़ा, बेगूसराय, बिहार- 851133