Tuesday 11 September 2018

समलैंगिकता और ईश्वरीय आदेश


वेद में बताया गया है कि "द्यौरहं पृथिवी त्वं तावेव विवहावहै सह रेतो दधावहै प्रजां प्रजनयावहै पुत्रान् विन्दावहे बहून्।" अर्थात् हे वधू ! मैं द्युलोक के समान वर्षा आदि का कारण हूँ और तुम पृथिवी के समान गृहाश्रम में गर्भधारण आदि व्यवहारों को सिद्ध करनेवाली हो । हम दोनों परस्पर प्रसन्नतापूर्वक विवाह करें । साथ मिलकर उत्तम प्रजा को उत्पन्न करें और बहुत पुत्रों को प्राप्त होवें ।

इससे ज्ञात होता है कि विवाहपूर्वक गृहाश्रम में प्रवेश करने का एक मुख्य प्रयोजन होता है धर्म पूर्वक उत्तम सन्तान की उत्पत्ति करना न कि अधर्मपूर्वक केवल इन्द्रियों का दास होकर, ईश्वर प्रदत्त इन शरीर, इन्द्रिय आदि साधनों का दुरुपयोग करके भोग-विलास में डूबे रहना ।
इस प्रकार वेदों में न जाने कितने ही सारे निर्देश हैं कि केवल सुसन्तान की प्राप्ति के लिए ही विवाह आदि प् प्रावधान है । जैसे कि - "गृभ्णामि ते सौभागत्वाय हस्तं मया पत्या " अर्थात् हे वरानने ! मैं ऐश्वर्य और सुसन्तान आदि सौभाग्य की वृद्धि के लिए तेरे हाथ को ग्रहण करता हूँ । मुझ पति के साथ वृद्धावस्था पर्यन्त सुख पूर्वक सम्पूर्ण जीवन को व्यतीत करो ।
इससे भी पता चलता है कि हमारे वेद तथा वैदिक संस्कृति में यह एक आदर्श परम्परा रही है कि विवाह केवल सन्तान प्राप्ति के लिए ही किया जाता था । यदि हम वर्त्तमान के सुप्रीमकोर्ट के निर्णय को ध्यान में रखते हुए विचार करें तो यह समलैंगिक विवाह को स्वीकृति मिलना एक अत्यन्त ही घृणित, पाप-जनक, अप्राकृतिक, और एक अवैदिक कृत्य है, जो कि कभी भी धर्मयुक्त या उन्नतिकारक नहीं हो सकता बल्कि समाज के लिए यह एक निन्दनीय, अपमान जनक और महाविनाश और सामाजिक पतन का कारण है । इस प्रकार की घटना न किसी धर्म शास्त्र में समाज शास्त्र में उल्लिखित है और न ही हमारे किसी इतिहास में ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई है । यह तो आजकल के लोगों की मूर्खता की पराकाष्ठा ही है ।
शास्त्रों में कहा गया है "यथा राजा तथा प्रजा" । जब राजा ही मुर्ख हो, जब देश के न्यायाधीश ही मूर्खता का परिचय दे रहे हैं तो सामान्य जनता भला क्या कर सकती है । प्रजा तो अज्ञानता में घूम ही रही है, ये जनता तो इतनी भोली-भाली है कि इनको तो कोई भी बहका दे कोई भी गलत रास्ता दिखा दे उसी पर चल पड़ते हैं । अब वैसे भी समाज में बहुत कुछ अनैतिक, असामाजिक, अवैदिक, कार्य होते रहते हैं, यह भी उस सामाजिक दुरावस्था और पतन के कारणों में और एक कड़ी बनकर सामने उपस्थित हो गया है । यह हम सबके लिए एक दुखद विषय है ।
आजकल जो न्यायाधीश के कुर्सी पर बैठे हैं, वे सोच रहे होंगे कि हम कुछ भी निर्णय सुना सकते हैं और कोई बोलनेवाला नहीं है । परन्तु उनको यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि आप सबके ऊपर भी सबसे बड़ा एक न्यायाधीश ईश्वर बैठा हुआ है जो कि इन मनुष्य न्यायाधीशों को भी इन लोगों की मूर्खता पर यथोचित दण्ड देने में सामर्थ्य रखता है । इस निर्णय से आगे जाकर समाज का जो भी दुरावस्था होगी, जितना भी पतन होगा, जितना भी पाप और अराजकता बढ़ेगी उन सबका कारण यही न्यायाधीश ही होंगे और यही इन सब परिणामों का उत्तरदायी होंगे । सावधान हो जाओ मनुष्यो ! जितना जितना वेद के विरुद्ध ईश्वर आज्ञा के विरुद्ध आचरण करते जाओगे उतना ही दुष्परिणाम भोगतना पड़ेगा । ईश्वरीय दण्ड व्यवस्था से कोई न आजतक बचा है और न ही कोई बाख पायेगा । ईश्वर हम सबका कल्याण करे ।
लेख - आचार्य नवीन केवली


आर्य कौन थे? जवाब यहाँ मिलेगा


आर्य कौन थे पहली बात तो यह कोई प्रश्न ही नहीं है. किन्तु सन 1920 के बाद से इसे प्रश्न बनाकर सबसे पहले अंग्रेज इतिहासकारों और उनके बाद कुछ भारतीय इतिहासकारों द्वारा इतना उलझाया गया कि आधुनिक पीढ़ी के सामने आर्य कौन थे, कहाँ से आये थे? वह भारतीय थे या बाहरी थे?  वह किस संस्कृति के पुजारी थे, उनका मूल धर्म क्या था? आदि-आदि सवाल पर सवाल खड़े किये गये. धीरे-धीरे काल बदल रहा है, देश में सरकारे बदल रही है, इतिहासकार बदले, सोच बदली यदि कुछ नहीं बदला सिर्फ एक सवाल कि आर्य कौन थे.? 

हाल ही में हरियाणा के राखीगढ़ी से मिले 4,500 साल पुराने कंकाल के पेट्रस बोन के अवशेषों के अध्ययन का पूरा परिणाम सामने आने जा रहा है एक बार फिर रटे-रटाये सिद्दांत को सिद्ध करने की तैयारी चल रही कि क्या हड़प्पा सभ्यता के लोग संस्कृत भाषा और वैदिक हिंदू धर्म की संस्कृति का मूल स्रोत थे? असल में पुरातत्ववेत्ता तथा पुणे के डेक्कन कॉलेज के कुलपति डॉ. वसंत शिंदे की अगुआई वाली एक टीम द्वारा 2015 में की गई खुदाई के बहुप्रतीक्षित और लंबे समय से रोककर रखे गए परिणामों में ऐसे अब खुलासे होने वाले हैं. एक कंकाल को आधार बनाकर एक बार फिर यही साबित करने का प्रयास किया जायेगा कि आर्य बाहरी और हमलावर थे.
क्योंकि जब 1920 के दशक में सिंधु घाटी सभ्यता पहली बार खोजी गई थी, तब अंग्रेज पुरातत्वविदों ने इसे तत्काल पूर्व-वैदिक काल की सभ्यता-संस्कृति के सबूत के रूप में स्वीकार लिया और उन्होंने आर्य आक्रमणकारियों का एक नया सिद्धांत दिया और कहा कि उत्तर-पश्चिम से आए आर्यों ने हड़प्पा सभ्यता को पूरी तरह नष्ट करके हिंदू भारत की नींव रखी.
हालाँकि वसंत शिंदे यह मत रखते हैं कि जिस तरह से राखीगढ़ी में समाधियां बनाई गई हैं वह प्रारंभिक वैदिक काल सरीखी है. साथ ही वह ये भी जोड़ते हैं कि राखीगढ़ी में जिस तरह से समाधि देने की परंपरा रही है वह आज तक चली आ रही है और स्थानीय लोग इसका पालन करते हैं. लेकिन इसके साथ ही वह जोड़ते है कि यह वही काल है जिसमें आर्यों का भारत में प्रवेश माना जाता है, जैसा कि आर्य आक्रमण सिद्धांत मानने वाले निष्कर्ष निकालते हैं.
चलो एक पल के लिए हम स्वीकार भी लें कि पश्चिमी विद्वान वास्तव में सही हैं और 1800 ईसा पूर्व के बाद आर्यों ने भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश किया और यहाँ के मूलनिवासियों पर हमला कर विशाल भूभाग पर कब्ज़ा कर लिया. किन्तु ध्यान देने योग्य है कि राखीगढ़ी या हड़प्पा में किसी तरह की हिंसा, आक्रमण, युद्ध का संकेत नहीं मिलता है. किसी तरह के विनाश का संकेत नहीं है और कंकालों पर किसी तरह की चोट का निशान नहीं है.
दूसरा आर्य बाहरी और वेद को मानने वाले लोग थे यदि यह एक पल को यह स्वीकार कर लिया जाये तो आर्य कहाँ से आये और जहाँ से वह आये थे आज वहां वैदिक सभ्यता के लोग क्यों रहते है? क्या वहां एक भी वैदिक सभ्यता नागरिक नहीं बचा था?
आज मात्र एक कंकाल के डीएनए से यह साबित किया जा रहा है कि उसका डीएनए दक्षिण भारतीय लोगों से काफी मिलता है पर क्या ऐसा नहीं हो सकता कि यह कंकाल किसी व्यापारी, भ्रमण पर निकले किसी जिज्ञाशु अथवा किसी राहगीर का नहीं होगा? यदि कल दक्षिण भारत में मिले किसी कंकाल का डीएनए उत्तर-भारत के लोगों से मिलता दिख जाये तब क्या यह सिद्धांत खड़ा कर दिया जायेगा कि आर्य मूल निवासी थे और द्रविड़ हमलावर उन्होंने समुद्र के रास्ते हमला किया और इस भूभाग पर कब्ज़ा कर लिया?
यह एक काल्पनिक मान्यता है कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया, उन्होंने निश्चित रूप से भारत पर आक्रमण नहीं किया क्योंकि उस समय भारत था ही नहीं वास्तव में  भारत को एक सभ्यता के केन्द्र के रुप में आर्यों ने ही विकसित किया था. पश्चिमी पुरातत्ववेत्ता एक तरफ तो आर्यों के भारत के बाहर से आने की सिद्धांत का समर्थन करते हैं, दूसरी ओर उनके अनुसार द्रविड़ भाषा बोलने वाले सिंध के रास्ते भारत में प्रवेश कर रहे थे तो आखिर भारत के मूल निवासी थे कौन?
तीसरा आर्य बाहरी थे, उनकी भाषा संस्कृत थी. तो आज यह भाषा भारत के अलावा कहीं ओर क्यों नहीं दिखाई देती? क्यों उत्तर और भारत दक्षिण भारतीयों के धार्मिक ग्रन्थ, धार्मिक परम्परा एक हो गयी? अरबो, तुर्कों अफगानियों ने भारत पर हमला किया अनेक लोग यहाँ बस भी गये तो क्या उनकी भाषा, उनका मत उनके देशों से समाप्त हो गया?
आज सामाजिक और धार्मिक स्तर पर वियतनाम, थाईलेंड, कम्बोडिया, इण्डोनेशिया, सुमात्रा, म्यन्मार आदि देशों में भारतीय वैदिक परम्परा के चिन्ह मिलते है क्या इन देशों में भी आर्यों ने आक्रमण किया? हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि आर्य, चाहे वे मूल रूप से मंगल के निवासी हों या फिर भारत के, भारतीय सभ्यता के निर्माता वही थे. इस उल्लेखनीय सभ्यता और सांस्कृतिक एकता को भारतीय सभ्यता के रूप में जाना जाता है, इसकी जड़ें वैदिक संस्कृति में थीं जिसकी खनक पुरे देश में सुनाई देती है.
आखिरकार, यदि वैदिक लोग भारत के लिए विदेशी हैं क्योंकि वे 1800 ईसा पूर्व में कथित रूप से भारत में प्रवेश कर चुके थे, तो फारसियों ने भी 1000 ईसा पूर्व के बाद फारस में प्रवेश किया था तो क्या वह भी फारस के लिए विदेशी हैं? 2000 ईसा पूर्व के बाद ग्रीस में प्रवेश करने वाले ग्रीक, वहां के लिए विदेशी हैं. फ्रांसीसी फ्रांस के लिए विदेशी हैं क्योंकि उन्हें भी पहली शताब्दी ई.पू. में रोमन विजय के दौरान लैटिन उपनिवेशवादियों द्वारा लाया गया था. यदि सब विदेशी है तो क्या आज समस्त संसार में कोई भी मूलनिवासी नहीं है. इससे पता चलता है कि यह सब हम भारतीय हिंदूओं को अपराधबोध से ग्रसित करने के लिए, आपस में बाँटने के लिए काल्पनिक इतिहास घड दिया गया है.
वैदिक लोग भारतीय सभ्यता के निर्माता हैं. इस तथ्य को कोई भी नहीं बदल सकता है कि यही वह वैदिक संस्कृति थी जिसने भारतीय सभ्यता के जन्म को जन्म दिया वैदिक धर्म भारत की मूल संस्कृति है और कुछ भी इस तथ्य को बदल नहीं सकता है. बाकि कुछ महीनों में साफ हो जाएगा मगर अभी तक जो कुछ भी राखीगढ़ी और यूपी के सिनोली में मिला है, उससे एक बात तो साफ है कि इतिहास में कुछ तो जरूर बदलेगा?..राजीव चौधरी 

भूत-प्रेत कितना सच, कितनी बीमारी!


वैसे देखा जाये तो भूत-प्रेत नाम कारोबार काफी पुराना है किसी से भूत प्रेत भगाने का टोटका पूछों तो वो आपको हजार टोटके बता देगा. इसके बाद देश में भूत-प्रेत डायन पिचाश पकड़ने छोड़ने वाले लाखों बाबा है. हर किसी के पास अपने टोटके और अपने भूत-प्रेत है.
भूत होता है या नहीं, इसके पक्ष-विपक्ष में तमाम दावे हैं. लेकिन भूत-प्रेत के भूत ने देश में करोड़ों रुपये का कारोबार खड़ा कर दिया है. भूत-प्र्रेत अब आदमी तक सीमित नहीं रहा. भूत भगाने वाले और भूतों से सीधे संवाद करने वाले तांत्रिक  बाबाओं की लंबी जमात देशभर में खड़ी हो गई. अखबार, टीवी चैनल और सार्वजनिक स्थलों पर किस्म-किस्म के एक्सपर्ट बाबा भूत भगाने के पोस्टर लगाए बैठे हैं. मजेदार बात यह है कि इस भूत-प्रेत में सौतन, सास, प्रेमी-प्रेमिका और कारोबार सब शामिल हो गए हैं. बाबा दावा करते हैं कि वे सबकुछ सही कर देंगे. प्रेमी को प्रेमिका दिला देंगे. सौतन से मुक्ति मिल जाएगी. कारोबार दिन और रात बढ़ेगा.

शहर के हर गली-मोहल्ले में लोगों को ठगने के लिए तांत्रिकों की बड़ी फौज मौजूद है. दुनिया में शायद ही कोई ऐसा काम हो जिसे पूरा करने के ये दावे न करते हों. किसी की नौकरी नहीं लग रही या फिर किसी से उसकी प्रेमिका रूठ गई है. ये धोखेबाज तांत्रिक सिर्फ किसी का फोटो देखकर ही आपकी शादी उससे कराने तक की सौ फीसदी गारंटी लेने से भी बाज नहीं रहे हैं. ऑफिसों के भीतर बनाए केबिनों में पसरे अंधेरे के बीच ये धोखेबाज ठगी का ऐसा खेल खेलते हैं कि अच्छे से अच्छा व्यक्ति इनके जाल में फंसकर बर्बाद हो जाता है। पैसा तो जात ही है काम और भी बिगड़ जाता है. ये लोग अंधविश्वास की अजीब दुनिया में ले जाते हैं. इनके धोखे में ज्यादातर युवा फंसते हैं. इनकी बातों को सच मानकर बड़ी मुसीबत खड़ी कर लेते हैं.
यही नहीं पिछले दिनों जब ये सुना तो बड़ा अजीब लगा कि बिहार और झारखंड में कुछ ऐसे जगहें भी हैं, जहां भूतों-प्रेतों का मेला लगता है. भले ही आज के वैज्ञानिक युग में इन बातों को कई लोग नकार रहे हों, लेकिन झारखंड के पलामू जिले के हैदरनगर में, बिहार के कैमूर जिले के हरसुब्रह्म स्थान पर और औरंगाबद के महुआधाम स्थान पर भूतों के मेले में सैकड़ों लोग नवरात्र के मौके पर भूत-प्रेत की बाधा से मुक्ति के लिए पहुंचते हैं. यही कारण है कि लोगों ने इन स्थानों पर चैत्र और शारदीय नवरात्र को लगने वाले मेले को भूत मेला नाम दे दिया है.
नवरात्र के मौके पर अंधविश्वास संग आस्था का बाजार सज जाता है और भूत भगाने का खेल चलता रहता है. ऐसे तो साल भर इन स्थानों पर श्रद्धालु आते हैं, लेकिन नवरात्र के मौके पर प्रेतबाधा से मुक्ति की आस लिए प्रतिदन यहां उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के लोग पहुंचते रहते हैं.
हैदरनगर स्थित देवी मां के मंदिर में करीब 2 किलोमीटर की परिधि में लगने वाले इस मेले में भूत-प्रेत की बाधा से मुक्ति दिलाने में लगे ओझाओं की मानें तो प्रेत बाधा से पीड़ित व्यक्तियों के शरीर से भूत उतार दिया जाता है और मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित एक पीपल के पेड़ से कील के सहारे उसे बांध दिया जाता है.
बताया जाता है यहां के ओझा प्रेतात्मा से पीड़ित लोगों को प्रेत बाधा से मुक्ति दे पाते हैं. खाली मैदान में महिलाएं गाती हैं तो कई महिलाओं को ओझा बाल पकड़ कर उनके शरीर से प्रेत बाधा की मुक्ति का प्रयास करते रहते हैं. कई महिलाएं झूम रही होती हैं तो कई भाग रही होती हैं, जिन्हें ओझा पकड़कर बिठाए हुए होते हैं. इस दौरान कई पीड़ित लोग तरह-तरह की बातें भी स्वीकार करते हैं. कोई खुद को किसी गांव का भूत बताता है तो कोई स्वयं को किसी अन्य गांव का प्रेत बताता है.
असल में मनोचिकत्सक और मेडिकल साइंस के अनुसार अनुसार मानव शरीर में 23 गुणसूत्र होते हैं. ये सभी डीएनए से बने होते हैं. डीएनए आनुवांशिक लक्षणों को पीढ़ी-दर पीढ़ी आगे ले जाते हैं. इन गुणसूत्रों पर 64 कोडोन्स होते हैं. यह सभी कोडोन्स 13.4 ट्रिलियन कोशिकाओं को नियंत्रित करते हैं. प्रत्येक कोड का एक निश्चित क्रम होता है. ऐसे में यदि एक कोड बदल जाए तो व्यक्ति अपनी पहचान खोने लगता है. कोड बदलते ही उसकी खास पहचान बिगड़ती है. आदमी खुद का अस्तित्व खो देता है. वह अजीब बातें करता है. उसे अपने अस्तित्व की छाया दिखने लगती है. इसे ही लोग भूत-प्रेत या ऊपरी हवा समझने लगते हैं. इसी प्रक्रिया में हार्मोन्स के स्राव के भी बदलाव होता है. इससे व्यक्ति का व्यक्तित्व भी परिवर्तित होना शुरू हो जाता है.
ये तो थी साइंस अब यदि साइक्लोजी मनोविज्ञान की बात करें तो कोई न कोई इन्सान किसी न किसी प्रभावित जरुर होता है. तब वह उसके जैसा बनना चाहता है. कोई फिल्म देखकर नायक से प्रभावित होता है तो कोई विलेन से प्रभावित हो जाता है. किसी की बचपन से कथित चमत्कारी शक्तियों में कल्पना होती है. कई बार इन्सान इतना काल्पनिक हो जाता है कि वह यथार्थ को भूलकर कल्पना की गहराई में डूब जाता है. वह खुद कोई दूसरा समझने लगता है. उसे यथार्थ की दुनिया बेकार लगने लगती है और अपनी काल्पनिक दुनिया सच्ची, तब वह ऐसी हरकते शुरू कर देता है. अपना नाम, अपना स्थान सब कुछ वही बताने लगता है जैसी कल्पनाओं में वह डूबा होता है. जिन लोगों की इच्छा शक्ति कमजोर होती है, उन पर ही भयभीत करने वाली बातें हावी होती हैं. उनके सामने उसी तरह की संरचनाएं बनने लगती हैं. फिर वे इसी तरह के मायाजाल में फंसने लगते हैं. कुछ स्वार्थी लोग ऐसे मामलों का फायदा उठाकर भूत-प्रेत और जादू-टोना के नाम पर धन ऐंठते हैं जिसे भूत-प्रेत चुड़ैल आदि का नाम देकर खूब धन बटोरते है..

इस माँ की भी पुकार सुने


एक माँ वह होती है जो हमें जन्म देती है. हमारा पालन-पोषण करती है. दूसरी मांवह है जिसे दुनिया धरती माता के नाम से जानती है. यह हमें साँस, खाना-पीना देती है, रहने के लिए स्थान देती है. इसे यूँ कहें कि पैदा होने के बाद दुनिया में जितनी चीजें दिखती हैं, सब कुछ इसी धरती माता की देन है. जब हमारी जन्म देने वाली मां यदि बीमार पड़ जाती हैं, तो हम परेशान हो उठते है हम उसके इलाज के लिए दिन-रात एक कर देते हैं, जबकि इस मां ने दो-चार ही बेटे-बेटियां जन्मे हैं. लेकिन धरती माता जिसके कई करोड़ बेटे-बेटीहैं. वह बीमार है और आज पुकार रही है लेकिन कोई संभालने वाला नहीं है.

आखिर क्यों आज हम इस मांके दुश्मन बन गए हैं? हरे-भरे वृक्ष काट रहे हैं. इसके गर्भ में रोज खतरनाक परीक्षण कर रहे हैं. इतना जल दोहन किया कि कई हिस्से जलविहीन हो गए हैं. पूरी दुनिया में इस वक्त जितना पानी बचा है उसमें से 97.5 फीसदी समुद्री पानी है जो की खारा है. बाकी 1.5 फीसदी बर्फ के रुप में है. सिर्फ 1 फीसद पानी ही हमारे पास बचा है जो कि पीने योग्य है. साल 2025 तक भारत की आधी आबादी और दुनिया की 1.8 फीसदी आबादी के पास पीने का पानी नहीं होगा और 2030 तक वैश्विक स्तर पर पानी की मांग आपूर्ति के मुकाबले 40 फीसदी ज्यादा हो जाएगी.
इसके बाद यदि आगे बढे तो दिन पर दिन प्राकृतिक संसाधनो जैसे खनिज पदार्थों का उपयोग जैसे कोयला, अभ्रक समेत अन्य खनिज पदार्थों के लिए इस धरा का दोहन जारी है यदि विकसित देशों की खपत के आकडों की माने तो 2050 तक इनका दोहन 140 अरब टन प्रति वर्ष हो जाएगा. यानि धरा बिलकुल खोखली हो जाएगी. सोचिये जब इस धरा के अन्दर जल नहीं होगा ऊपर पेड़ नहीं होंगे तब क्या होगा.? वही होगा जो हम हमेशा सुनते आये है तब प्रकृति में प्रचंड उथल-पुथल होगी. भूकम्प के कारण पूरे देश के देश पृथ्वी के गर्भ में समा जायेंगे. जहाँ-जहाँ उत्पन्न सभ्यताएँ होगी, वे देश महासागर में परिणत हो जायेंगे.
सब जानते है प्रकृति के रुप में भगवान ने मनुष्यों को एक बेहद ही खूबसूरत उपहार दिया है. लेकिन हम इसी उपहार को संजोय रखने के लिए नाकामयाब साबित हो रहे है, हमारी इस फितरत का खामियाजा धरती को भुगतना पड़ रहा है. हमारा पास खुबसूरत प्रकृति के अलावा कई अन्य चीजें जैसे अन्न, पानी, वृक्ष, उर्जा, खनिज पदार्थ आदि है किन्तु अगर हम समय रहते नहीं चेते तो हमारे पास ये पदार्थ भी नहीं रहेंगे. तब हम क्या करेंगे?
कहा जाता आवश्यकता अविष्कार की जननी है. किन्तु यदि हम समय रहते आवश्यकताओं के अविष्कारों को अपना ले तो हम पृथ्वी को या अपनी आने वाली पीढ़ी को काफी हद तक बचा सकते है. आज विधुत उत्पादन में उपयोग होने वाला सबसे बड़ा ईंधन कोयला है जोकि धरती के गर्भ को चीरकर निकाला जा रहा है. लेकिन कब तक? अगले कुछ  सालों में ही कोयला पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा. हम इस तथ्य से भी इनकार नहीं कर सकते हैं कि देश की आबादी में तेजी से वृद्धि हो रही है. देश में अधिकांश बिजली (लगभग 53 प्रतिशत) का उत्पादन कोयले से होता है और जिसके चलते यह भविष्यवाणी की गई है कि वर्ष 2040-50 के बाद देश में कोयले के भंडार समाप्त हो जाएंगे. इसके बाद दुनिया विधुत के लिए क्या इजाद करेगी?
अधिकांश का जवाब होगा पानी! किन्तु ग्लोबल वार्मिंग जलवायु परिवर्तन के कारण नदियों पर जो संकट मंडरा रहा है उसे देखकर तो लगता नहीं! आप स्वयं अपने इर्दगिर्द देखिये आपके देखते-देखते कितनी छोटी-छोटी नहरे और नदियाँ आज या सूख गयी या फिर गंदे नालों में तब्दील हो गयी. इसे देखकर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारी नदियों का जीवन भी अब लम्बा नहीं बचा. अब अंत में उत्तर हो सकता है कि सौर ऊर्जा शायद भविष्य में यही सबसे उपयुक्त विकल्प हमारे हाथ में होगा.
सौर ऊर्जा का एक अतुलनीय स्रोत होने के साथ-साथ भारत की अन्य गैर-परंपरागत ऊर्जाओं में सबसे बेहतरीन विकल्पों में से एक है. इससे प्रकृति को कोई नुकसान नहीं है इस कारण आज सौर ऊर्जा, भारत में ऊर्जा की आवश्यकताओं की बढ़ती माँग को पूरा करने का सबसे अच्छा तरीका है. इस दिशा में देश की सबसे प्राचीन सामाजिक संस्था आर्य समाज ने एक अच्छी पहल का शुभारम्भ करने जा रही है जिसमें प्रत्येक आर्य समाज मंदिर और आर्य संस्थान अगले कुछ समय में सौर ऊर्जा का इस्तेमाल कर प्रकृति को बचाने में अपना सहयोग प्रदान करेंगे या ये कहें कि धरती माँ को बचाने बेटे की भूमिका निभाएगा.
आंकड़े बताते है कि भारत के लगभग सभी प्रति वर्ग मीटर के हिस्से में, प्रति घंटे 4 से 7 किलोवाट की औसत से सूर्य का प्रकाश प्राप्त होता है. भारत में प्रति वर्ष लगभग 2,300 से 3,200 घंटे धूप निकलती है. इस कारण हम बड़ी मात्रा में सौर ऊर्जा से विधुत उत्पादन कर सकते है. साथ ही हम लोगों से पोलीथीन का प्रयोग समाप्त कर पर्यावरण बचाने में जागरूकता के कार्यों के साथ भूगर्भीय जल का स्तर बढ़ाने के लिए मकानों भवनों में वर्षा जल संग्रह की जागरूकता का भी कार्य करेंगे. वृक्षों के बचाव तथा जल के प्रयोग में भी लोगों को सावधानी बरतने के लिए आग्रह करेंगे. सब जानते है कि लाख कोशिशों के बाद भी दुनिया भर के वैज्ञानिक दूसरी पृथ्वीको नहीं ढूंढ सकें. अत: धरती माता के बचाव के लिए सबको आगे आना चाहिए. वरना हमारे पास पछताने के अलावा कुछ नहीं बचेगा..

Friday 7 September 2018

समलैंगिकता के खिलाफ आर्य समाज द्वारा कानून की मांग..आखिर समलेंगिक जोड़े क्या पैदा करेंगे..?


पता नहीं इस विषय पर लिखना जरुरी था भी या नहीं किन्तु ये पता है जब धर्म और समाज की हानि करने के लिए कुछ लोग एकजुट हो जाये तो तब कृष्ण भी अर्जुन से कहते है कि उठो पार्थ अब धनुष साधो. हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के 5 सदस्य संविधान पीठ ने एकमत से भारतीय दंड संहिता की 158 साल पुरानी धारा 377 के उस हिस्से को निरस्त कर दिया जिसके तहत परस्पर सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना अपराध था अदालत ने कहा यह प्रावधान संविधान में प्रदत्त समता के अधिकार का उल्लंघन करता है. सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के साथ ही भारत 26 वां वह देश बन गया जहाँ अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध स्वीकार किये जायेंगे.
फोटो साभार 

असल में समलैंगिकता को अगर साफ शब्दों में कहा जाए तो पुरूष का पुरूष के साथ संबंध बनाना व महिला का महिला के साथ संबंध बनाना समलैंगिकता है. भारत में इसके खिलाफ वर्ष 1861 में अंग्रेजों द्वारा धारा 377 बनाई गयी थी जिसके तहत समलैंगिक अर्थात अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध को अपराध के रूप में देखा जाता था. किन्तु अब इसे न्यायिक स्वीकृति मिल गयी, धीरे-धीरे सामाजिक स्वीकृति भी मिल ही जाएगी.

यह हम सभी जानते हैं कि प्रकृति ने महिला और पुरुष को एक-दूसरे के पूरक के तौर पर बनाया है. दोनों के बीच उत्पन्न हुए शारीरिक संबंध एक नए जीवन, अगली पीढ़ी को जन्म देते हैं. अब समलेंगिक लोग किस चीज को जन्म देंगे आप बखूबी समझ सकते है, देखा जाये तो समलेंगिक संबंधो की मांग करने वाले अधिकांश लोग आज युवा है. अपने मानसिक आनंद की तृप्ति के लिए यह लोग लड़ रहे है. किन्तु कल जब यह लोग बुजुर्ग होंगे तब कहाँ होंगे? कहाँ जायेंगे, कौन इन्हें सम्हालेगा, कौन इनकी देखभाल करेगा समाज पर बोझ बढेगा या सरकार पर?  या फिर इनकी इन अप्राकृतिक आदतों का दंश आने वाले सभ्य समाज के बच्चें झेलेंगे.? तब क्या यह अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा, क्या तब यह अपराध नहीं माना जायेगा? आखिर इन सवालों के उत्तर कौन देगा क्या समलेंगिक समुदाय का कोई मौखिक प्रवक्ता खड़ा दिखाई दे रहा है?

कुछ लोग सोच रहे होंगे कि इससे समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है, हर एक इन्सान अपनी मनोवृति लेकर पैदा होता है. जो लोग ऐसा सोच रहे है उन्हें पता ही नहीं कि यह पूरा घटनाक्रम कोई आधुनिक भारत का न्यायिक किस्सा नहीं है, बल्कि भारतीय संस्कृति पर हमले की एक सोची समझी नीति का हिस्सा है. वर्ष 1957 में चेन्नई में जन्मी अंजली गोपालन जो अमेरिका में पली बढ़ी ने 1995 में नाज फाउंडेशन नाम की संस्था की नींव रखी थी. शुरुआत में संस्था का कार्य एचआईवी से ग्रस्त लोगों की देखभाल और उन्हें सहयोग देना था किन्तु अपनी स्थापना के 6 सालों बाद ही नाज फाउंडेशन ने अपना असली रंग दिखाना शुरू किया और समलैंगिक यौन संबंधों का मुद्दा पहली बार 2001 में दिल्ली हाईकोर्ट में उठाया और आखिर आज उसे अपने मूल उदेश्य में सफलता मिल ही गयी.

संस्था और इससे जुड़े आधुनिक बुद्धिजीवी तर्क दे रहे है कि आदिम युग में जब समाज, सभ्यता जैसी कोई चीज मौजूद नहीं थी तब समलैंगिक संबंध बड़े ही सामान्य समझे जाते थे. आज भी विश्व की बहुत सी आदिवासी जनजातियों में समलिंगीय संबंध बिना किसी रोकटोक के अपनाए जाते हैं. यदि यह तर्क है तो हमें शर्म आनी चाहिए कि क्या हम आज 21 वीं सदी में है या आदिम सभ्यता में, जो इस तरह की चीजें स्वीकार कर रहे है? आखिर हमने कौनसा बोद्धिक विकास किया, क्या ऐसा नहीं है की कुछ लोगों के व्यक्तिगत मानसिक, शारीरिक आनंद ने हमें आज उल्टा आधुनिक से आदिम युग में पहुंचा दिया? आखिर क्यों प्राचीन अशिक्षित सभ्यता की तुलना आज की शिक्षित सभ्यता से की जा रही है.? ये जरुरी है या इनकी मज़बूरी है इस प्रश्न का जवाब कौन बुद्धिजीवी देगा?

आज कुछ लोग भारतीय इतिहास और पौराणिक ग्रंथो के कुछ किस्से लेकर यह समझाने का प्रयास कर रहे है कि यह भारतीय संस्कृति का हिस्सा है जैसे कुछ बुद्धिजीवियों ने महादेव शिव का अर्धनारीश्वर वाला रूप समलेंगिकता से जोड़ा दिया तो किसी ने पौराणिक आख्यान विष्णु का मोहिनी रूप धारण कर शिव को रिझाना अप्राकृतिक संबंधों से जोड़ दिया. कुछ कल्पित किस्से उठाकर यह साबित किया जा रहा कि जैसे भारतीय सभ्यता आदि काल से अप्राकृतिक संबंधो के आस-पास ही जमा रही हो.? यदि ऐसा था तो क्यों ऋषि वात्सायन ने कामसूत्र में यह सब पूरी तरह निषेध माना और स्वास्थ्य के लिए संकट के तौर पर दर्शाया लेकिन वैदिक काल के उदहारण इन पश्चिमी सभ्यता के दत्तक पुत्रों को कडवे लगते है.

जबकि असल मायनों में एक शोध की माने तो करीब 75 प्रतिशत समलैंगिक व्यक्तियों को डिप्रेशन और उदासी का शिकार पाया गया. इन के अलावा आत्महत्या, मादक द्रव्यों के सेवन और रिश्ते की समस्याओं की आशंका भी इनमें बनी होती है, यह एक रोग जिसके लिए उपचार के केंद्र खड़े करने थे वहां इस बीमारी को समाज का हिस्सा बनाया जा रहा है. स्त्री पुरुष के बीच का नैतिक संबंध है विवाह,  जिसे समाज द्वारा जोड़ा जाता है और उसे प्रकृति के नियमों के साथ आगे चलाया जाता है. समाज में शादी का उदेश्य शारीरिक संबंध बनाकर मानव श्रृखंला को चलाना है. यहीं प्रकृति का नियम है. जो सदियों से चलता आ रहा है. लेकिन समलैंगिक शादियां या यौन सम्बन्ध ईश्वर द्वारा बनाये गये इस मानव श्रृंखला के नियम को बाधित करती है. प्राकृतिक शादियों में महिलाएं बच्चे को जन्म देती है. जबकि एक ही लिंग की शादियों में दंपत्ति बच्चा पैदा करने में प्रकृतिक तौर पर असमर्थ होता है.

क्या यह साफ तौर पर मानसिक बीमारी नहीं है, इसे उदाहरण के तौर पर देखें कि अभी हाल ही में हरियाणा के मेवात में कई लोगों ने मिलकर एक बकरी के साथ यौन पिपासा शांत की थी. जिसे सभ्य समाज और कानून ने बर्दास्त से बाहर बताया था. यदि ऐसे लगातार 10 से 20 मामले सामने आये और कोई संस्था इसके पक्ष में खड़ी होकर यह मांग करें की ये तो मनुष्य का अधिकार है यह उसके जीने का ढंग है अत: इसे कानूनी रूप से मान्यता दी जाये. तब क्या होगा.? क्या आधुनिकता के नाम पर समाज और कानून इसे भी स्वीकार कर लेगा? यदि हाँ तो फिर जो धर्म, कानून और समाज जो मनुष्य को मनुष्य बनाने में सहायता करता है उसका क्या कार्य रह जायेगा? अपवाद और अपराध हर समय और काल में होते रहे है पर जरुरी नहीं कि उन्हें अधिकार की श्रेणी में लाया जाये..विनय आर्य (महामंत्री) आर्य समाज 

Thursday 6 September 2018

असहमति और राष्ट्रविरोध में अन्तर



पिछले दिनों पुणे पुलिस ने पांच वामपंथी विचारकों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को देश के अलग-अलग हिस्सों से गिरफ्तार किया है। इन वामपंथी विचारकों में कवि वरवर राव, वकील सुधा भारद्वाज, मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण फरेरा, गौतम नवलखा और वरनॉन गोंजाल्विस शामिल है। इन सभी की गिरफ्तारियां देश के अलग-अलग शहरों से हुई हैं। पुलिस का कहना है कि जाति आधारित हिंसा की एक घटना और माओवादियों से संबंधों के चलते इन्हें गिरफ्तार किया गया है।

धर्म को अफीम और सत्ता की कुर्सी, बन्दूक की गोली से लेने का नारे लगाने वाले इन सभी कार्लमार्क्स के दत्तकपुत्रों की गिरफ्तारी से देश में अजीब सा शोर मचा है। हालाँकि शोर मचाने वाले वही लोग हैं जो दादरी में अखलाक की हत्या के विरोध में भारत सरकार को अपने पुरस्कार लौटाकर देश में असहिष्णुता फैलने का खतरा जता रहे थे। लेकिन इस बार इन गिरफ्तारी को सरकार की तानाशाही, अभिव्यक्ति का हनन और कलम पर हमला बताया जा रहा है, जबकि मीडिया के अनेक सूत्र इसे शहरी नक्सलवादियों की गिरफ्तारी से जोड़कर देख रहे हैं।
असल में लोगों को भ्रम है कि वामपंथ की खदान से स्टालिन, माओ जैसे खूंखार दरिन्दों का निकलना बंद हो गया है। किन्तु नक्सली जब किसी घटना को अंजाम देते हैं तो यह साबित हो जाता है कि जब तक यह वीभत्स विचारधारा जीवित है, तब तक इसके गर्भ से हिंसा के दानव पैदा होते रहेंगे। अनेक लोग सोचते हैं कि देश के कई हिस्सों में जंगलों में अनपढ़, आदिवासी नक्सली रहते हैं जो घात लगाकर हमारी सेना पर हमला करते हैं। लेकिन कितने लोग ऐसे होंगे जो यह सोचते है कि आखिर उन्हें ऐसे हमलों के लिए कौन लोग प्रेरित करते हैं? बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि नक्सली सिर्फ जंगलों में नहीं रहते। कुछ नक्सली जंगलों में रहते हैं और बाकी उनकी मदद के लिए शहरों में फैले हुए हैं ये शहरी नक्सली आमतौर मानवाधिकार या सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार या फिर कॉलेज प्रोफेसर के भेष में रहते हैं। ये जंगल में रह रहे अपने साथियों को आर्थिक मदद से लेकर हथियार तक पहुंचाने में मदद करते हैं। 
दरअसल, मार्क्सवाद-लेनिनवाद वैचारिक शराब की वह बोतल है जिसे पीकर अच्छे-अच्छे लोग झूम जाते हैं। भारत में इस विचारधारा के सबसे बड़े अनुयायी शहरी वामपंथी और जंगल में रहने वाले उनके शिष्य नक्सली हैं, जो यह सोचते हैं कि वामपंथ की विचारधारा ही मनुष्य सभ्यता की सबसे बड़ी क्रांति है। इसमें कई राजनीतिक दल हैं। इनके अलावा देश में कई लोग ऐसे हैं जो इस वैचारिक नशे में झूमते रहते हैं। जिन्हें सामाजिक परम्परा त्यौहार और उत्सव बकवास और फालतू की चीजें दिखाई देती हैं। 
वैचारिक रूप से कंगाल यह लोग कभी संप्रदायिकता से लड़ने वाले योद्धा बन जाते हैं तो कभी लोकतंत्र बचाने और नागरिक अधिकारों के लिए आंदोलन में शामिल हो जाते हैं, सामाजिक न्याय के नाम पर मुखर होने वाले इन लोगों को कश्मीर के पत्थरबाज मासूम दिखाई देते हैं, मानवाधिकार के नाम पर यह लोग याकूब मेनन की फांसी के विरोध में आधी रात को सुप्रीम कोर्ट तक खुलवा लेते हैं। कश्मीर के आतंकी इन लोगों को भटके हुए मुसलमान दिखाई देते हैं तो कथित गौरक्षक इन्हें हिन्दू तालिबानी और आतंकी दिखाई देते हैं, यह लोग कभी पर्यावरण प्रेमी बन जाते हैं तो कभी जानवरों की रक्षा के नाम पर इन्हें गाय का घी मासांहार नजर आने लगता है, लेकिन यह लोग कभी बकरीद पर अपनी जुबान नहीं खोलते बस इनका एजेंडा समझने के लिए यही उदाहरण सबसे उपयुक्त है। खुद को मानव अधिकारों के रक्षक बताने वाले मार्क्स के वंशजों के पीछे कई बार देश के युवा खड़े हो जाते हैं लेकिन इनकी असली करतूत से कितने लोग वाकिफ हैं, 20वीं सदी में मार्क्सवाद-लेनिनवाद की विचारधारा पर चलने वाले इस समाजवाद ने जितना जनसंहार किया है उतने लोग तो किसी विश्वयुद्ध और प्रलय में भी नहीं मारे गए।
यही विचारधारा थी जिसकी वजह से चीन में करीब 65 लाख लोग मारे गये, उत्तर कोरिया में दो लाख और रूस में तकरीबन 20 लाख लोग इसी विचारधारा के पालन-पोषण में मारे गये। क्यूबा और लैटिन अमेरिका में करीब डेढ़ लाख लोगों का वामपंथी-सरकारों ने जनसंहार किया। भारत में इन्हें भले ही कभी पूर्ण रूप सत्ता नहीं मिली लेकिन जिन-जिन राज्यों में यह लोग सत्तासीन रहे वहां के हालात कम हिंसा ग्रस्त नहीं रहे। 
पश्चिम बंगाल व त्रिपुरा जैसे गढ़ों के ढहने के बाद अब एक बार फिर यह लोग प्रखर हो चले हैं। इसलिए यह लोग देश में अलग-अलग भय के माहौल खड़े किये जा रहे हैं, भारत माता की जय, वन्देमातरम, राष्ट्रगान इनके लिए कोई मायने नहीं रखता इसके बावजूद कभी संविधान खतरे को बताया जाता है तो कभी, देश के लोकतांत्रिक संस्थान इनके काम करने का तरीका देखिये अभी पिछले दिनों देशद्रोह के आरोपी उमर खालिद पर दिल्ली के कांस्टिट्यूशन क्लब के पास हमलेकी खबर आई, थी जिस तरह अचानक इस खबर का तमाशा बनाया गया यह समझना मुश्किल था कि हमला पहले हुआ या हमले की खबर पहले आई। कश्मीर में आतंकवाद हो या बस्तर जैसी जगहों पर माओवाद, सब कुछ बाहर से नियंत्रित होता है। एनजीओ के नाम पर बाहर से फंड लेकर उनके अनुसार काम किया जाता है। नक्सलवाद जिस विचारधारा पर काम करता है, उसके लिए राष्ट्र का कोई अर्थ नहीं होता है। सीधे-साधे भोले लोगों को बरगलाकर उनके हाथों में हथियार देकर समाज में विद्वेष फैलाने का काम ये अर्बन नक्सली करते हैं, जो देश के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक हैं। जो लोग इन गिरफ्तारी के विरोध में कह रहे हैं कि भारत में किसी को भी असहमति जताने का हक है और ऐसे मामलों का लंबा इतिहास रहा है, जहां लोगों ने असहमति जताई तो आप भी जताइए लेकिन राष्ट्र का विरोध कहाँ जायज है?
-राजीव चौधरी