Thursday 25 April 2019

कन्हैया कुमार वामपंथ की अंतिम उम्मीद है..?


जावेद अख्तर ने भाजपा के उम्मीदवार गिरिराज सिंह हो हराने के लिए मुसलमानों से कन्हैया कुमार के एकजुट होकर वोट करने को कहा हैं देखा जाये तो एक समय हिंदी भाषी राज्यों में अपनी मजबूत पकड़ और संसदीय उपलब्धियां रखने वाले वामपंथी दल और उनकी विचारधारा आज सिमट कर सिर्फ बिहार की बेगुसराय सीट तक सीमित हो चुकी है अगर बेगूसराय से कन्हैया कुमार किसी कारण जीत जाते है तो वामपंथ की राजनीति को कुछ समय के लिए जीवन मिल सकता है, हालाँकि संभावना कम है इसी कारण कई पत्रकारों से लेकर तमाम छोटे बड़े वामपंथी नेता और सेकुलरवाद की आड़ में इस्लामवाद परोसने वाले कई अभिनेता आज इस चुनाव में अपने युवा सितारे के कंधे पर सवार होकर अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ते हुए बेगूसराय की गलियों में वोट मांगते दिख जायेंगे

पिछले दिनों जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने देशद्रोह के केस में जेल से जमानत पर रिहा होने के बाद कहा था कि मुझे जेल में दो कटोरे मिले एक का रंग नीला था और दूसरे का रंग लाल था मैं उस कटोरे को देखकर बार-बार ये सोच रहा था कि इस देश में कुछ अच्छा होने वाला है कि एक साथ लाल और नीला कटोरा है वो नीला कटोरा मुझे आंबेडकर मूवमेंट लग रहा था और वो लाल कटोरा मुझे वामपंथी मूवमेंट लग रहा था लेकिन कन्हैया कुमार इसमें वह एक तीसरे कटोरे का जिक्र करना भूल गये जो हरा कटोरा बेगुसराय सीट से चुनाव लड़ रहे वामपंथी दलों के साझा उम्मीदवार कन्हैया कुमार के पक्ष में प्रचार करने पहुंचे जावेद अख्तर के जाने के बाद दिखा

ये सच है कन्हैया कुमार की बेगुसराय सीट से हार माओवाद, लेनिन और मार्क्सवाद की भारत में अंतिम कब्रगाह साबित होगी क्योंकि पिछले अनेकों वर्षों से धर्म को अफीम बता-बताकर मार्क्सवाद का धतूरा गरीब जनता को खिलाकर जिस तरह देश माओवादी, नक्सली खड़े कर देश में अनेकों नरसंहार किये है यह हार उनकी इस विचारधारा के ताबूत की अंतिम कील साबित होगी

देश के कई राज्यों में अनेकों वर्षों तक नक्सलवाद के नाम पर हिंसा मार्क्सवाद के नाम पर सत्ता सुख भोगने वाले वामपंथी नेताओं को आज अपनी विचारधारा के लिए राष्ट्रीय राजनीति ने कोई जगह दिखाई नहीं दे रही है शायद यही वजह रही होगी कि कन्हैया कुमार ने जेल से निकलने के बाद बिहार तक पहुंचते हुए अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षा का इजहार कर दिया था कन्हैया कुमार ने आजादी, जय भीम और प्रसिद्ध लाल सलामके नारे के साथ वामपंथी राजनीति को नए दौर में नए सिरे से गढ़ने की कोशिश की थी

जो लोग आज इसे सिर्फ राजनितिक नारा समझ रहे है उन्हें यह सब नारे से आगे समझना होगा कि आज आजादी किसका नारा है और लाल सलाम किसका? क्योंकि जिस तरह दलितों को हिन्दू समाज में बाँटने का काम हो रहा है और जावेद अख्तर सरीखे चेहरे बेगुसराय पहुँचकर कन्हैया कुमार के मुस्लिमों के वोट मांग रहे है कहीं ये देश पर शुरूआती वैचारिक आक्रमण तो नहीं है?

आज लोगों को एक बार वामपंथ का इतिहास भी देख लेना चाहिए इसके बाद उनका निष्कर्ष उन्हें जरुर एक क्रूर सच की तरफ ले जायेगा बताया जाता है वामपंथ की विचाधारा को लेकर आधुनिक चीन की नींव रखने वाले माओ त्से तुंग यानि माओ की सनक ने 4.5 करोड़ अपने लोगों का रक्त बहाया था रूस में स्टालिन के 31 साल के शासन में लगभग 2 करोड़ से अधिक लोग मारे गए यही नहीं बताया जाता है कि इथियोपिया के कम्युनिस्ट वामपंथी तानाशाह से अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ लाल सलाम अभियान छेड़ा 1977 से 1978 के बीच ही उसने करीब 5,00,000 लाख लोगों की हत्या करवाई एक किस्म से देखा जाये तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्टालिन से लेकर माओ या फिर अभी तक मार्क्सवाद के नाम पर अपराध और लूट हत्या हिंसा की इन लोगों द्वारा ऐसी भीषण परियोजनाएं चलाई कि जिनका जिक्र किसी आम इन्सान को शर्मिदा कर सकता हैं

आज वामपंथियों को समझना होगा कि विश्व के लगभग सभी देशों से मार्क्सवाद की विचारधारा का अंत हो चुका है?  कहा जाता है सोवियत रूस का पहला वाला अस्तित्व आज नहीं बचा जहाँ मार्क्सवाद का पहला प्रयोग किया था इसी विचारधारा के कारण वह ढह चूका है पूर्वी यूरोप के कई देश धूल में मिल गए कुछ तो गायब हो गए जहां वामपंथी शासन व्यवस्था थी. पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया जैसे देश नक्शे में नहीं मिलते हंगरी-पोलैंड से भी यह विचारधारा आई गई हो चुकी हैएशिया में चीन का मार्क्सवाद अब बाजारवाद से गले मिलता दिख रहा है भारत में मार्क्सवाद बंगाल और त्रिपुरा नकार चुके है और केरल में वामपंथी आज संघर्ष सिमटता दिखाई दे रहा है

छतीसगढ़ झारखण्ड और बंगाल को तीसरे दिन दहलाने वाले नक्सलवादी एक-एक कर आत्मसमर्पण कर मुख्यधारा के जीवन की ओर लौट रहे है अब जो यह ताजा बिहार का बेगूसराय चुनावी मैदान है यह वामपंथियों की अवसरवादी राजनीति की सवारी है किसी तरह संसद में छलांग लगा कर विचारधारा को जीवित करने की चेष्ठा है इसमें मनुवाद को गाली देते हुए मेकअप में सजे कथित बुद्धिजीवियों की कतार है. सेकुलरवाद का ढोंग है आंबेडकर जी के नाम पर दलितों को सुनहरा सपना बेचने का प्रयास है जो लोग इसे समाजवाद से जोड़कर देख रहे है या भय भूख की आजादी नाम पर भविष्य के सपने संजोये है, उन्हें बाद में वही मिलेगा जो 35 साल बंगाल में सत्ता में रहने पर बंगाल के लोगों को मिला है
राजीव चौधरी 

धर्मनिरपेक्षता एक जीता जागता षड्यन्त्र हैं


हाल ही में योगेंद्र यादव ने इंडिया टुडे टीवी पर भाजपा प्रवक्ता अमित मालवीय के साथ साध्वी प्रज्ञा सिंह की उम्मीदवारी पर एक बहस में अपनी पारिवारिक कहानी साझा की. योगेंद्र यादव ने अपने दादा की हत्या एक दुखद किस्सा बताते हुए कहा कि उनके दादा हत्या उनके पिता की उपस्थिति में एक मुस्लिम भीड़ ने कर दी थी इसके बाद उनके पिताजी ने बच्चों को मुस्लिम नाम दिए यानि बच्चों के अरबी भाषा में रखे. वो योगेन्द्र को सलीम और योगेन्द्र यादव की बहन नीलम को 'नजमा' कहकर पुकारते थे.

योगेन्द्र यादव देश के एक समाज शास्त्री और चुनाव विश्लेषक के साथ आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में एक रहे है और आम आदमी पार्टी से निकाले जाने के बाद योगेंद्र यादव और जाने माने वकील प्रशांत भूषण ने नई पार्टी 'स्वराज इंडिया पार्टी' इंडिया बनाई थी. देखा जाये तो योगेन्द्र यादव जो अपनी धर्मनिरपेक्षता का किस्सा सुना रहे थे वह कोई वोट की राजनीति का हिस्सा नहीं बल्कि आधुनिक धर्मनिरपेक्षता की एक बीमारी है और इस बीमारी का जन्म 90 के दसक में हुआ था.

कहा जा रहा है कि योगेन्द्र यादव जी ने इस किस्से को देश की धर्मनिरपेक्षता से जोड़ते हुए भाजपा प्रवक्ता अमित मालवीय जी पर साम्प्रदायिकता का आरोप जड़ते हुए उन्हें चुप करा दिया. एक कहावत है अगर मुझे डर लग रहा है तो मैं चैकन्ना और पडोसी को डर लगे तो वह डरपोक असल में योगेन्द्र यादव जी अपनी जिस पारिवारिक धर्मनिरपेक्षता का किस्सा सुना रहे थे उसमें मुझे कहीं भी धर्मनिरपेक्षता दिखाई नहीं दी हाँ मन में सवाल जरुर खड़े हो रहे है कि आखिर योगेन्द्र यादव जी असल कहना क्या चाह रहे थे.

यही कि उस मुस्लिम भीड़ द्वारा उनके दादा की हत्या करना कोई गुनाह नहीं बल्कि एक बहुत बड़ा महान और पुन्य कार्य था कि हत्या से उनके पिताजी इतने प्रेरित और आत्मप्रसन्न हुए कि उन्होंने सोचा क्यों ना बच्चों को भी ऐसा ही बनाया जाये और उनके नाम मुस्लिम शब्द कोष से उठाकर रख दिए थे.

क्योंकि दुनिया में अगर नाम बच्चों के नाम रखने के लिहाज से देखें तो अक्सर लोग अपने बच्चों के नाम प्रेरणा लेकर रखते है और वो ही नाम रखना पसंद करते है जिसका कुछ अर्थ हमारे धर्म संस्कृति, सभ्यता वीरता से जुड़ा हो या फिर वो जो विशाल व्यक्तिव्य महान आत्मा या महापुरुष रहे हो. जैसे आज सरदार भगतसिंह जी के नाम पर बहुत सारे नाम भगत सिंह मिल जायेंगे या फिर कुछ लोगों के नाम के आगे राम होता तो कुछ नाम में राम शब्द बाद में आता है जैसे दयाराम रामकुमार, राम किशोर ऐसा ही श्रीकृष्ण जी के नाम में देख सकते हैं. कृष्णपाल कृष्णवीर आदि

दूसरा सवाल अच्छा जब योगेन्द्र यादव जी का नाम सलीम और उनकी बहन यानि नीलम जी का नाम नजमा रख ही दिया था फिर योगेन्द्र यादव वो कारण भी बताते जिसके बाद फिर उनका नाम सलीम से योगेन्द्र हुआ. और नजमा का नीलम? क्या योगेन्द्र यादव जी बता सकते है कि मार्च 2016 में दिल्ली के विकासपुरी में एक डेंटिस्ट डॉक्टर पंकज नारंग की कुछ मुस्लिम लोगों द्वारा पीट-पीट कर हत्या कर दी थी क्या एक बेकसूर, बेवजह जान गंवा देने वाले डॉक्टर की पत्नी भी अपने बच्चों के नाम मुस्लिम रख लें?

 गुरमेहर कौर  का नाम भी आपने सुना होगा करगिल युद्ध में शहीद हुए कैप्टन मनदीप सिंह की बेटी हैं. जो हाथ में एक तख्ती पर लिखकर सामने आई थी कि पाकिस्तान ने मेरे पिता को नहीं मारा, उन्हें जंग ने मारा है. असल में दोस्तों धर्मनिरपेक्षता कोई बुरी चीज नहीं है इसका अर्थ होता है मैं अपने धर्म में विश्वास के साथ अन्य सभी धर्म मजहब पंथ को सम्मान देता हूँ पर मेरी अपनी आस्था अपने महापुरुषों अपने धर्म में अडिग है. किन्तु भारत में वामपंथियों के द्वारा इसकी परिभाषा को बदल दिया गया और नई परिभाषा यह खड़ी कर दी कि अपने धर्म को अपशब्द और दूसरे को सही कहना ही जैसे सच्ची धर्मनिरपेक्षता हो?

यह सिर्फ वोट की राजनीति का हिस्सा नहीं बल्कि आधुनिक धर्मनिरपेक्षता की एक बीमारी है और इस बीमारी का जन्म 90 के दशक में हुआ था. आज आपको योगेन्द्र यादव जैसे अनेकों पत्रकार, नेता और अभिनेता  धर्मनिरपेक्षता की इस बीमारी से ग्रसित दिखाई देंगे.

साल 2007 में प्रमुख वामपंथी सी गुवेरा के पुत्र कैमिलो ने भी घोषणा थी कि केवल मार्क्सवादियों और इस्लामवादियों का गठबन्धन ही संयुक्त राज्य अमेरिका को नष्ट कर दुनिया पर राज कर सकता हैं. कुछ वामपंथी तो और आगे बढ़ गये और इस्लाम में धर्मांतरित तक हो गये. जर्मनी के गीतकार कार्लेंज स्टाकहावसन ने 11 सितम्बर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की घटना जिसमें करीब 3000 अमेरिकी लोगों की मौत हुई थी इस घटना को ‘समस्त विश्व के लिये महानतम कार्य’ की संज्ञा दी थी.

दरअसल वामपंथियों की पूंजीवाद में संकट की प्रतीक्षा बेकार गयी, पतन का कम्युनिष्ट आन्दोलन झुककर मोलवियों के खेमे में चला गया. क्योंकि इस्लाम में एक बड़ा वर्ग मौलिक सुविधाओं से दूर, गरीबी, भूख की जिन्दगी बसर कर रहा था. जिन लोगों को वामपंथी कभी समाजवाद के लिए इक्कठा नहीं कर पाए उन लोगों को मौलवी द्वारा इस्लामवाद के नाम पर खड़ा कर लिया गया.

इसी का नतीजा है कि प्रसिद्ध वामपंथी और सीपीआई नेता कविता कृष्णन ने कश्मीर में पत्थरबाजों को क्लीन चिट देते हुए कहा था कि कश्मीर में अलगाववादी और आतंकी पाकिस्तान पैदा नहीं करता बल्कि भारतीय सेना पैदा करती है. यही नहीं इससे कई कदम आगे बढ़ते हुए अरुंधती राय ने तो यहाँ तक कहा था कि कश्मीर में भारतीय सेना का आक्रमण शर्मनाक है.

इस तरह के बयान यही दर्शाते है कि वामपंथी विचारधारा विश्व के सभी कोनो में धर्मनिरपेक्षता की आड़ में इस्लामवाद को प्रोत्साहित कर रही है हिंसात्मक विचारों और कार्यों को संवेदना मासूमियत और धर्मनिरपेक्षता का आवरण दे रही है. जिससे यह गठबंधन अपनी उर्जा लेकर पल्लवित पोषित हो रहा है.

ऐसे में आम आदमी पार्टी की राष्‍ट्रीय कार्यकरणी के सदस्‍य रहे हैं राजनीतिक विश्‍लेषक कहे जाने वाले व स्वराज इंडिया पार्टी के संस्‍थापक योगेन्द्र यादव की दुखद कहानी भले ही वामपंथियों के लिए संवेदना और मीडिया के लिए खबर हो पर योगेन्द्र यादव जी को इन सवालों के जवाब जरुर देने चाहिए कि आखिर उस भीड़ ने ऐसा कौनसा महान कार्य किया था जिससे उनके पिताजी ने प्रसन्न होकर बच्चों के नाम मुस्लिम रख दिए थे..?
 विनय आर्य 


आरक्षण बाद में पहले महिलाओं को सम्मान देना सीखें राजनेता


राजनेता जब आप इस शब्द को आप सुनते हैं तो आपके मन में कैसी फीलिंग आती है?  कैसी भी आती होगी पर मुझे नहीं लगता है समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान के लिए सही फिलिंग आती हो कई रोज पहले उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के दौरान उत्तर प्रदेश की रामपुर सीट पर भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रही अभिनेत्री जया प्रदा के अंगवस्त्रों को लेकर बेहूदा टिप्पणी की थी.

अनेकों नेता और देश के लोग इनके इस बयान से गुस्सा भी हुए और पलटवार भी किया किन्तु मेरी आजम खान से सभ्यता और संस्कार की अपेक्षा बहुत पहले तब खत्म हो गयी थी जब इन्होने अपने राष्ट्र अपनी भारत माता को डायन तक कह डाला था हालाँकि देखा जाये तो अभिनेत्री से नेता बनी जयाप्रदा आजम खान की कलाई पर राखी बांधती रही है लेकिन इसके बावजूद भी एक बहन के प्रति उनके ये शब्द भारतीय समाज हमारे संस्कार हमारी संस्कृति के विरुद्ध ही नहीं बल्कि रिश्ते नातों की गरिमा पर भी चोट करती है

उनका यह बयान उनकी भूल और बड़बोलेपन से बिलकुल तौलकर न देखा जाये क्योंकि इससे पहले भी जयाप्रदा को आजम ने नचनियासे लेकर घुँघरू वालीतक कहा था पूरे शहर में उनकी फिल्मों के अंतरंग दृश्यों के पोस्टर तक लगाए गए लेकिन जयाप्रदा घूम घूम कर वोटरों के बीच आजम खान को भैया कहती रहीं लेकिन एक भाई क्या होता है बहन के प्रति उसका स्नेह, राजनीति और रिश्तों की गरिमा आजम खान को कौन समझाए?

शायद में नाहक ही दुखी हो रहा हूँ क्योंकि मैं अपने संस्कृति और सभ्यता के आईने से इस अश्लील बयान को देख रहा हूँ पर जिसने यह बयान दिया उनकी संस्कृति और सभ्यता में शायद भाई बहन का रिश्ता पवित्र न समझा जाता हो और यह बयान गंगा जमुना तहजीब भूलकर अपनी मजहबी संस्कृति के अनुरूप दिया हो? क्योंकि यह कोई नई मानसिकता नहीं है, जायसी के अनुसार अलाउद्दीन पद्मिनी को अपने विजयी अभियान के पहले खुद देखने आता है, तो वह अपने साथ एक शीशा लेकर आता है और उसमें पद्मिनी को देखता है वो रतन सिंह से कहता है कि वो पद्मिनी को अपनी बहन की तरह मानता है लेकिन देखकर फिर उसी बहन पर गन्दी निगाह रख लेता है बस यही है इनकी वो मजहबी मानसिकता जो शुरू से चली आ रही है तो इसमें ज्यादा दुखी होने की बात नहीं हैं

हाँ यह जरुर है कि यदि महिला सम्मान की बात हो तो यह कोई अकेला नेता नहीं है अगर देश की राजनीति में देखें तो रिश्तों से अलग भी महिला राजनेता पुरुष नेताओं के हाथों अश्लील, अभद्र और अपमान जनक टिप्पणओं की शिकार होती रही हैं 2017 में शरद यादव ने वोट मांगते हुए कहा था कि वोट की इज्जत आपकी बेटी की इज्जत से ज्यादा बड़ी होती है अगर बेटी की इज्जत गई तो सिर्फ गांव और मोहल्ले की इज्जत जाएगी लेकिन अगर वोट एक बार बिक गया तो देश और सूबे की इज्जत चली जाएगी इनके इस बयान के बावजूद भी हमारे देश की संसद ने इन्हें सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरुस्कार दिया यह हमारे लिए शायद जरुर शर्म का विषय है

वैसे देखा जाएँ चुनावी रैलियों में अकसर राजनीतिक बयानबाजी में महिलाओं को निशाना बनाया जाता रहा है लेकिन अन्य कई मौको और मुद्दों पर भी कई राजनेता अपनी मानसिकता का दिखावा करने से बाज नहीं आते साल 2012 में दिल्ली में निर्भया गैंगरेप के बाद जब छात्राओं ने बड़ी संख्या में विरोध प्रदर्शन किया था तब कांग्रेस सांसद अभिजीत मुखर्जी ने हाथ में मोमबत्ती जला कर सड़कों पर आने वाली ये सजी संवरी महिलाएं पहले डिस्कोथेक में गईं और फिर इस गैंगरेप के ख़िलाफ विरोध दिखाने इंडिया गेट पर पहुंची ऐसा ही एक बयान कांग्रेस के वरिष्ट नेता दिग्विजय सिंह ने अपनी पार्टी की महिला नेता मीनाक्षी नटराजन के बारे में कहा था कि मीनाक्षी जी का काम देख कर मैं यह कह सकता हूँ कि वह 100 टका टंच माल हैं

कुछ समय पहले समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने बलात्कार जैसे घिनोने कृत्य पर कहा था कि लडकें है और लड़कों से गलती हो जाती हैं साल 2012 में गुजरात चुनावों के नतीजों पर चल रही एक टीवी बहस के दौरान काँग्रेस सांसद संजय निरुपम ने स्मृति ईरानी को कहा था, कल तक आप पैसे के लिए ठुमके लगा रही थीं और आज आप राजनीति सिखा रही हैं

कहा जाता है ऐसे बयानों के बावजूद अकसर ये राजनेता हल्की फुल्की फटकार के बाद बच निकलते हैं यानि नेता किसी भी पार्टी या दल से जुड़ें हो महिलाओं के बारे में आपत्तिजनक बयान देना सामान्य बात हो गयी है जबकि सितम्बर 2017 में ठाणे की एक अदालत ने कहा था कि छम्मकछल्लो शब्द का इस्तेमाल करना एक महिला का अपमान करने के बराबर है भारतीय समाज में इस शब्द का अर्थ इसके इस्तेमाल से समझा जाता है आम तौर पर इसका इस्तेमाल किसी महिला का अपमान करने के लिए किया जाता है और इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 509 के तहत अपराध किया है किन्तु ऐसे अपराध चुनाव आयोग और संविधान की नजर में देश के नेताओं पर लागू क्यों नहीं होते? ऐसे में मेरा तमाम राजनितिक दलों से अनुरोध है महिला आरक्षण की बात बाद में कर लेना पहले महिलाओं को सम्मान देना सीख लें
विनय आर्य 

बदसूरत होते पारिवारिक रिश्ते


बिलकुल नया जमाना है लोग पत्र-पत्रिकाओं और किताबों की दुनिया से निकलकर इंटरनेट की रहस्यमयी दुनिया में प्रवेश कर चुके है ऐसे में एक से ज्यादा साथी रखने का रुझान अब सीमित दायरे में नहीं रहा है बल्कि लोग आज ऐसे रिश्तों को आजमा कर देख रहे हैं जिनको अब तक सामाजिक रूप से गलत समझा जाता था देखा जाये तो इंटरनेट की अत्याधुनिक दुनिया में आजकल कई लोगों के साथ शारीरिक संबंध बनाने वाले लोगों को भी आधुनिकता से जोड़ा जा रहा हैं, किन्तु इन आधुनिक रिश्तों के जो परिणाम सामने आ रहे है वो वाकई में सोचने वाले है कि आखिर हमारा समाज जा कहाँ रहा है!

अभी कई रोज पहले महाराष्ट्र के बल्लारपुर में कॉलेज में पढ़ाने वाले ऋषिकांत नाम के एक शख्स ने अपनी दो नाबालिग बेटियों को फांसी पर लटकाकर जान से मार डाला इसकी तस्वीर अपनी पत्नी प्रगति को व्हाट्सएप करने के बाद उसने खुद भी आत्महत्या कर ली पुलिस के अनुसार ऋषिकांत अपनी पत्नी प्रगति की बेवफाई से परेशान था दूसरा मामला बिहार के कंकड़बाग थाना क्षेत्र का है यहाँ एक बाप अपनी मासूम बच्ची को इसलिए शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना देता था, क्योंकि उसकी पत्नी उसे छोड़कर किसी दूसरे के साथ चली गई थी
एक और मामला महाराष्ट्र के ठाणे जिले का कुछ समय पहले का है यहाँ एक शख्स ने अपनी पत्नी को चाकू से बेरहमी से मार डाला था घटना के वक्त उसकी पत्नी अपने ऑफिस में काम कर रही थी, पति चाकू लेकर उसके ऑफिस में पहुंचा और पत्नी पर एक बाद एक 26 वार कर डाले कारण यह शख्स अपनी पत्नी पर शक करता था पिछले साल मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में एक खोफनाक घटना ने तब सबके रौंगटे खड़े कर दिए थे जब एक पति ने अपनी पत्नी के चरित्र पर शक के चलते पत्नी की गर्दन काट कर थाने ले गया था
सभी जगह सिर्फ महिलाएं ही इन अवैध सम्बन्धों या शक का शिकार है नहीं हैं पिछले वर्ष फरवरी माह में ओडिशा के नबरंगपुर जिले में अवैध संबंध के शक में एक महिला ने अपने पति का प्राइवेट पार्ट काट दिया था यहाँ महिला को अपने पति पर शक था कि उसके किसी अन्य महिला के साथ अवैध संबंध हैं यहीं नहीं पिछले एक साल में इस तरह की दर्जनों शिकायतें महिला थानों पहुंची है जिनमें कहा गया है कि मेरे पति मेरी जासूसी कराते हैं घर में मेरा मोबाइल चेक होता हैं मैं फेसबुक और व्हाट्स एप पर किससे क्या चैटिंग कर रही हूं इसकी पूरी डिटेल पति रखते हैं, साथ ही घर आने के बाद ऑफिस से आने वाले फोन पर मेरे पति शक की नजर से देखते हैं
असल में एक से ज्यादा साथी की चाह और फेसबुक, व्हाट्सएप्प पर चैटिंग का शौक आए दिन पति-पत्‍‌नी के रिश्तों में दरार डाल रहा है चैटिंग के चलते आए दिन पति और पत्‍‌नी के बीच शक गहरा रहा है शक के बाद कई जगह रिश्ते टूट रहे है तो कई जगह हत्या हिंसा तक भी पहुँच रहे है यानि अभी तक पति और पत्नी के बीच भावनाओं और विश्वास का जो मजबूत सेतु हुआ करता था आज अविश्वास और बेपरवाह होते रिश्तों ने उस सेतु को कमजोर कर दिया है
कुछ सालों पहले तक ऐसी घटनाएँ पश्चिमी देशों में देखने को मिलती थी एक से ज्यादा साथी रखने का प्रचलन उनकी सामाजिक दुनिया हिस्सा था जबकि हमारे यहाँ पति-पत्नी को एक दूसरे के भरोसे प्रेम और एक दूसरे की आपसी स्वीकार्यता को बढ़ावा देने वाला रहा हैं किन्तु जैसे-जैसे टेक्नोलोजी का विस्तार हो रहा है ऐसे-ऐसे हमारे यहाँ भी सात फेरे और सात वचन से बंधे पवित्र रिश्तों में आज बिखराव, पतन, अपराध, हत्या, आत्महत्या आदि बड़ी तेजी से पांव पसार रही हैं या कहो कि सामाजिक सीमाएं और मर्यादाएं खोखली होकर बिखरती नजर आ रही हैं देखा जाये आपसी संवाद स्थापित करने का साधन स्मार्टफोन भी पति-पत्‍‌नी के रिश्ते में दूरियां लाने में कम जिम्मेदार नहीं हैं आज परिवारों में दिन की शुरुआत फेसबुक या व्हाट्सएप्प से होती है और देर रात तक आने वाले नोटिफिकेशन जगाए रखते हैं और इस लत की कीमत रिश्तों को चुकानी पड़ रही है
शादी के बाद अक्सर भावनाओं को न समझने के बहाने से लेकर जब दोनों अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए किसी तीसरे की तरफ आकर्षित होने लगते हैं यानि तीसरा इन्सान उनके बीच में आता है तब वैवाहिक रिश्ते का अंत शक से शुरू हो होता है और एकल परिवार में उन्हें समझाने वालों की कमी के चलते भी हालात मारपीट, हमले और हत्या तक पहुंच जाते हैं
शादी के बाद जहां वैवाहिक रिश्ते को बनाए रखने में पति और पत्नी दोनों की जिम्मेदारी होती है वहीं  इसके खत्म करने में भी दोनों का हाथ होता है एक दूसरे के प्रति विश्वास, समर्पण और आत्मीयता का भाव रिश्तों को मजबूत बनाता है अगर आप आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते है तब आप उस तकनीक का सदुपयोग आपसी रिश्तों में नजदीकी लाने में करें न कि उसे रिश्तों में दूरियां बनाने का कारण बनायें साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा बाहरी सम्बन्ध दोनों के बीच शक का आधार बनते हैं और ऐसे सम्बन्धों को न हमारा समाज स्वीकार करता न धर्म और न ही हमारा संविधान ऐसे में पति पत्नी दोनों को एक दूसरे पर विश्वास रखना होगा और सामने वाले को उस विश्वास को मजबूत करना होगा और यह आप पर निर्भर करता है कि आपको एक हँसता खेलता खुबसूरत रिश्तों परिवार चाहिए या दुःख क्लेश और हिंसा के अंधकार में जाता एक बदसूरत रिश्तों का परिवार यह सब सिर्फ आपको ही सोचना है क्योंकि परिवार आपका है

विनय आर्य 

बंगाल लेनिन जीतेंगे या श्रीराम ?


अगर पिछले कई दशक का बंगाल की राजनीति की इतिहास उठाकर देखे तो यहाँ राजनीति स्याही के बजाय खून से लिखी जाती है। लेकिन इसे ठीक से ऐसे समझिये कि वामदलों के साढ़े तीन दशक चले शासन में राजनीतिक हिंसा की खूनी इबारतें निरंतर लिखी जाती रही ममता बनर्जी जब सत्ता पर काबिज हुई थीं, तब यह उम्मीद जगी थी कि बंगाल में लाल रंग का दिखना अब समाप्त हो जाएगा लेकिन धीरे-धीरे तृणमूल कांग्रेस भी वही खुनी वस्त्र धारण कर खड़ी हो गयी जो उसने कभी वामपंथियों के शरीर से उतारे थे।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का पहला सैनिक विद्रोह इसी बंगाल के कलकत्ता एवं बैरकपुर में हुआ था, जो मंगल पाण्डे की शहादात के बाद 1947 में भारत की आजादी का कारण बना। बंगाल में जब मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, तब सामाजिक व आर्थिक विषमताओं के विद्रोह स्वरूप नक्सलवाड़ी आंदोलन उपजा। हजारों दोषियों के दमन के साथ कुछ निर्दोष भी मारे गए, इसके बाद कांग्रेस से सत्ता हथियाने के लिए भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा आगे आया। इस लड़ाई में भी विकट खूनी संघर्ष सामने आया और आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में वामदलों ने कांग्रेस के हाथ से सत्ता छीन ली। लगातार 34 साल तक बंगाल में मार्क्सवादियों का शासन रहा। तृणमूल सरकार द्वारा जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1977 से 2007 के कालखंड में 28 हजार राजनेताओं की हत्याएं हुईं।

इस किस्से को कुछ यूँ भी समझ सकते है कि वर्ष 1977 में भारी बहुमत के साथ सत्ता में आए लेफ्ट फ्रंट ने भी कांग्रेस की राह ही अपनाई। दरअसल, लेफ्ट ने सत्ता पाने के बाद हत्या को संगठित तरीके से राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू किया। वैसे, सीपीएम काडरों ने वर्ष 1969 में ही बर्दवान जिले के सेन भाइयों की हत्या कर अपने राजनीतिक नजरिए का परिचय दे दिया था। वह हत्याएं बंगाल के राजनीतिक इतिहास में सेनबाड़ी हत्या के तौर पर दर्ज है। वर्ष 1977 से 2011 के 34 वर्षों के वामपंथी शासन के दौरान जितने नरसंहार हुए उतने शायद देश के किसी दूसरे राज्य में नहीं हुए। वर्ष 1979 में तत्कालीन ज्योति बसु सरकार की पुलिस व सीपीएम काडरों ने बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के ऊपर जिस निर्ममता से गोलियां बरसाईं उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। जान बचाने के लिए दर्जनों लोग समुद्र में कूद गए थे। अब तक इस बात का कहीं कोई ठोस आंकड़ा नहीं मिलता कि उस मरीचझांपी नरसंहार में कुल कितने लोगों की मौत हुई थी। उसके बाद अप्रैल, 1982 में सीपीएम काडरों ने महानगर में 17 आनंदमार्गियों को जिंदा जला दिया था।

इसी तरह जुलाई, 2000 में बीरभूम जिले के नानूर में पुलिस ने राजनीतिक आकाओं की शह पर जबरन अधिग्रहण का विरोध करने वाले कांग्रेस समर्थक 11 अल्पसंख्यक लोगों की हत्या कर दी थी। उसके बाद 14 मार्च, 2007 को नंदीग्राम में अधिग्रहण का विरोध कर रहे 14 बेकसूर गांव वाले भी मारे गए।

हालाँकि 1990 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था को खोले जाने के बाद वामपंथियों का खेल खत्म होने की शुरुआत हो गई थी आर्थिक उदारीकरण के विरोधी रहे वामपंथियों की नीतियों ने, खास कर ग्रामीण इलाकों में, रोजगार का भीषण संकट पैदा कर दिया। लोगों के पास करने को कुछ नहीं था, यही वो समय था जब पुराने नेता हाशिये पर चले गए और वामपंथी काडर में गुंडों और बाहुबलियों की भरमार हो गई और खास कर ग्रामीण बंगाल में, हिंसा रोजमर्रा की बात हो गई।

साल 2007 से 2011 तक का समय सर्वाधिक हिंसक वर्षों में से था। सिंगूर में टाटा नैनो कार परियोजना और नंदी ग्राम में औद्योगिकरण के लिए किसानों की जमीन के अधिग्रहण पर ममता ने आन्दोलन कर किसान समर्थक और उद्योग विरोधी हथियार का फॉर्मूला अपना कर वाम मोर्चा की सरकार को झुका दिया। जिस लखटकिया कर के निर्माण का सपना संजोये टाटा ने बंगाल के सिंगूर का चयन किया था उन्हें अपना बोरिया बिस्तर समेट वहां से भागना पड़ा और तो और नंदी ग्राम परियोजना का भी वही हाल हुआ। सिंगूर और नंदीग्राम ने ममता को गांव-गांव तक पहुंचा दिया जिसका असर 2009 के लोकसभा चुनाव में दिखा जब ममता को जबरदस्त कामयाबी हासिल हुई। 2011 के विस चुनाव में ममता ने मां,माटी और मानुष का नारा दिया और 34 सालों से चली आ रही वामपंथ सरकार को उखाड़ फेका।

जैसे ही वामपंथियों की सरकार का अंत हुआ उनके पाले हुए राजनितिक गुंडे बेरोजगार हो गये। ममता इस बात को समझ चुकी थी कि अगर बंगाल पर लम्बा शासन करना है तो यहाँ विकास नहीं राजनितिक गुंडे अपने पक्ष में करने होंगे। हालाँकि तृणमूल ने नंदीग्राम और सिंगूर में किसानों के हिंसक आंदोलनों के सहारे सत्ता में कदम रखा था  सत्ता हासिल करने के बाद भी तृणमूल ने अपना पुराना रवैया जारी रखा. गुंडे अपने पक्ष में किये जनता को डराने के लिए हिंसा का सहारा लिया और सत्ता में बने रहने के लिए जाति और पहचान की राजनीति को चार कदम आगे बढाया। पिछले पंचायत चुनाव इस बात के ज्वलंत उदाहरण हैं कि कैसे चुनाव को अपने पक्ष में करने के लिए तृणमूल ने हिंसा का इस्तेमाल किया था।

अब राज्य के लोग भी इसके आदी हो चुके हैं। मोटे अनुमान के मुताबिक, बीते छह दशकों में राज्य में लगभग 28 हजार लोग राजनीतिक हिंसा की बलि चढ़ चुके हैं। इस दौरान यह राज्य इस मामले में देश के शीर्ष तीन राज्यों में शुमार रहा है। सत्तर-अस्सी के दशक की हिंदी फिल्मों की कहानियों की तरह खून का बदला खून की तर्ज पर यहां खूनी राजनीति का जो दौर शुरू हुआ था उसकी जड़ें अब काफी मजबूत हो चुकी हैं। ये भी कह सकते है कि साउथ की मूवी की तरह यहाँ एक हीरो को खत्म करने 100 गुंडे खड़े हो जाते है।

अब 2019 का लोकसभा चुनाव आया है , बंगाल में कहावत मशहूर है करबो लरबो जितबो, इस कहावत को सौ टका सच बनाने में प्रधानमंत्री मोदी और भी जुटे और ममता बनर्जी भी, वैसे तो कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है, लेकिन बीजेपी ने दिल्ली पहुंचने के लिए उत्तर प्रदेश के साथ कोलकाता के रास्ते को भी नापना शुरू कर दिया। लेफ्ट के साथ लंबे संघर्ष के बाद ममता बनर्जी ने बंगाल की सत्ता हासिल की थी तो अब बीजेपी बंगाल की राजनीति में अपने पैर जमा चुकी है, इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा और अमित शाह की तूफानी रणनीति बंगाल की जमीन पर रंग दिखा रही है

लेकिन इस सबके बीच एक चीज भी यहाँ है और वो बंगाल में करीब 30 फीसदी मुस्लिम मतदाता 2010 के बाद से बंगाल में मुस्लिम मतदाता टीएमसी का कोर वोट बैंक माना जाता है, जहाँ अब बीजेपी बंगाल में एनआरसी का मुद्दा लेकर आगे बढ़ रही है वही चुनावों में अपना वोट बैंक बढ़ाकर स्थिति मजबूत करने के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बड़ा दाव खेलते हुए प्रदेश की 119 बांग्लादेशी शरणार्थियों की कॉलोनियों को नियमित कर दिया है। लेकिन इस बार लोगों की आस्था में वाम के बजाय श्रीराम है।

 राजीव चौधरी