Thursday 25 April 2019

बंगाल लेनिन जीतेंगे या श्रीराम ?


अगर पिछले कई दशक का बंगाल की राजनीति की इतिहास उठाकर देखे तो यहाँ राजनीति स्याही के बजाय खून से लिखी जाती है। लेकिन इसे ठीक से ऐसे समझिये कि वामदलों के साढ़े तीन दशक चले शासन में राजनीतिक हिंसा की खूनी इबारतें निरंतर लिखी जाती रही ममता बनर्जी जब सत्ता पर काबिज हुई थीं, तब यह उम्मीद जगी थी कि बंगाल में लाल रंग का दिखना अब समाप्त हो जाएगा लेकिन धीरे-धीरे तृणमूल कांग्रेस भी वही खुनी वस्त्र धारण कर खड़ी हो गयी जो उसने कभी वामपंथियों के शरीर से उतारे थे।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का पहला सैनिक विद्रोह इसी बंगाल के कलकत्ता एवं बैरकपुर में हुआ था, जो मंगल पाण्डे की शहादात के बाद 1947 में भारत की आजादी का कारण बना। बंगाल में जब मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, तब सामाजिक व आर्थिक विषमताओं के विद्रोह स्वरूप नक्सलवाड़ी आंदोलन उपजा। हजारों दोषियों के दमन के साथ कुछ निर्दोष भी मारे गए, इसके बाद कांग्रेस से सत्ता हथियाने के लिए भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के नेतृत्व में वाममोर्चा आगे आया। इस लड़ाई में भी विकट खूनी संघर्ष सामने आया और आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में वामदलों ने कांग्रेस के हाथ से सत्ता छीन ली। लगातार 34 साल तक बंगाल में मार्क्सवादियों का शासन रहा। तृणमूल सरकार द्वारा जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1977 से 2007 के कालखंड में 28 हजार राजनेताओं की हत्याएं हुईं।

इस किस्से को कुछ यूँ भी समझ सकते है कि वर्ष 1977 में भारी बहुमत के साथ सत्ता में आए लेफ्ट फ्रंट ने भी कांग्रेस की राह ही अपनाई। दरअसल, लेफ्ट ने सत्ता पाने के बाद हत्या को संगठित तरीके से राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू किया। वैसे, सीपीएम काडरों ने वर्ष 1969 में ही बर्दवान जिले के सेन भाइयों की हत्या कर अपने राजनीतिक नजरिए का परिचय दे दिया था। वह हत्याएं बंगाल के राजनीतिक इतिहास में सेनबाड़ी हत्या के तौर पर दर्ज है। वर्ष 1977 से 2011 के 34 वर्षों के वामपंथी शासन के दौरान जितने नरसंहार हुए उतने शायद देश के किसी दूसरे राज्य में नहीं हुए। वर्ष 1979 में तत्कालीन ज्योति बसु सरकार की पुलिस व सीपीएम काडरों ने बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के ऊपर जिस निर्ममता से गोलियां बरसाईं उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। जान बचाने के लिए दर्जनों लोग समुद्र में कूद गए थे। अब तक इस बात का कहीं कोई ठोस आंकड़ा नहीं मिलता कि उस मरीचझांपी नरसंहार में कुल कितने लोगों की मौत हुई थी। उसके बाद अप्रैल, 1982 में सीपीएम काडरों ने महानगर में 17 आनंदमार्गियों को जिंदा जला दिया था।

इसी तरह जुलाई, 2000 में बीरभूम जिले के नानूर में पुलिस ने राजनीतिक आकाओं की शह पर जबरन अधिग्रहण का विरोध करने वाले कांग्रेस समर्थक 11 अल्पसंख्यक लोगों की हत्या कर दी थी। उसके बाद 14 मार्च, 2007 को नंदीग्राम में अधिग्रहण का विरोध कर रहे 14 बेकसूर गांव वाले भी मारे गए।

हालाँकि 1990 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था को खोले जाने के बाद वामपंथियों का खेल खत्म होने की शुरुआत हो गई थी आर्थिक उदारीकरण के विरोधी रहे वामपंथियों की नीतियों ने, खास कर ग्रामीण इलाकों में, रोजगार का भीषण संकट पैदा कर दिया। लोगों के पास करने को कुछ नहीं था, यही वो समय था जब पुराने नेता हाशिये पर चले गए और वामपंथी काडर में गुंडों और बाहुबलियों की भरमार हो गई और खास कर ग्रामीण बंगाल में, हिंसा रोजमर्रा की बात हो गई।

साल 2007 से 2011 तक का समय सर्वाधिक हिंसक वर्षों में से था। सिंगूर में टाटा नैनो कार परियोजना और नंदी ग्राम में औद्योगिकरण के लिए किसानों की जमीन के अधिग्रहण पर ममता ने आन्दोलन कर किसान समर्थक और उद्योग विरोधी हथियार का फॉर्मूला अपना कर वाम मोर्चा की सरकार को झुका दिया। जिस लखटकिया कर के निर्माण का सपना संजोये टाटा ने बंगाल के सिंगूर का चयन किया था उन्हें अपना बोरिया बिस्तर समेट वहां से भागना पड़ा और तो और नंदी ग्राम परियोजना का भी वही हाल हुआ। सिंगूर और नंदीग्राम ने ममता को गांव-गांव तक पहुंचा दिया जिसका असर 2009 के लोकसभा चुनाव में दिखा जब ममता को जबरदस्त कामयाबी हासिल हुई। 2011 के विस चुनाव में ममता ने मां,माटी और मानुष का नारा दिया और 34 सालों से चली आ रही वामपंथ सरकार को उखाड़ फेका।

जैसे ही वामपंथियों की सरकार का अंत हुआ उनके पाले हुए राजनितिक गुंडे बेरोजगार हो गये। ममता इस बात को समझ चुकी थी कि अगर बंगाल पर लम्बा शासन करना है तो यहाँ विकास नहीं राजनितिक गुंडे अपने पक्ष में करने होंगे। हालाँकि तृणमूल ने नंदीग्राम और सिंगूर में किसानों के हिंसक आंदोलनों के सहारे सत्ता में कदम रखा था  सत्ता हासिल करने के बाद भी तृणमूल ने अपना पुराना रवैया जारी रखा. गुंडे अपने पक्ष में किये जनता को डराने के लिए हिंसा का सहारा लिया और सत्ता में बने रहने के लिए जाति और पहचान की राजनीति को चार कदम आगे बढाया। पिछले पंचायत चुनाव इस बात के ज्वलंत उदाहरण हैं कि कैसे चुनाव को अपने पक्ष में करने के लिए तृणमूल ने हिंसा का इस्तेमाल किया था।

अब राज्य के लोग भी इसके आदी हो चुके हैं। मोटे अनुमान के मुताबिक, बीते छह दशकों में राज्य में लगभग 28 हजार लोग राजनीतिक हिंसा की बलि चढ़ चुके हैं। इस दौरान यह राज्य इस मामले में देश के शीर्ष तीन राज्यों में शुमार रहा है। सत्तर-अस्सी के दशक की हिंदी फिल्मों की कहानियों की तरह खून का बदला खून की तर्ज पर यहां खूनी राजनीति का जो दौर शुरू हुआ था उसकी जड़ें अब काफी मजबूत हो चुकी हैं। ये भी कह सकते है कि साउथ की मूवी की तरह यहाँ एक हीरो को खत्म करने 100 गुंडे खड़े हो जाते है।

अब 2019 का लोकसभा चुनाव आया है , बंगाल में कहावत मशहूर है करबो लरबो जितबो, इस कहावत को सौ टका सच बनाने में प्रधानमंत्री मोदी और भी जुटे और ममता बनर्जी भी, वैसे तो कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है, लेकिन बीजेपी ने दिल्ली पहुंचने के लिए उत्तर प्रदेश के साथ कोलकाता के रास्ते को भी नापना शुरू कर दिया। लेफ्ट के साथ लंबे संघर्ष के बाद ममता बनर्जी ने बंगाल की सत्ता हासिल की थी तो अब बीजेपी बंगाल की राजनीति में अपने पैर जमा चुकी है, इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा और अमित शाह की तूफानी रणनीति बंगाल की जमीन पर रंग दिखा रही है

लेकिन इस सबके बीच एक चीज भी यहाँ है और वो बंगाल में करीब 30 फीसदी मुस्लिम मतदाता 2010 के बाद से बंगाल में मुस्लिम मतदाता टीएमसी का कोर वोट बैंक माना जाता है, जहाँ अब बीजेपी बंगाल में एनआरसी का मुद्दा लेकर आगे बढ़ रही है वही चुनावों में अपना वोट बैंक बढ़ाकर स्थिति मजबूत करने के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बड़ा दाव खेलते हुए प्रदेश की 119 बांग्लादेशी शरणार्थियों की कॉलोनियों को नियमित कर दिया है। लेकिन इस बार लोगों की आस्था में वाम के बजाय श्रीराम है।

 राजीव चौधरी 

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