Friday 27 October 2017

फिल्म हिरोइन ने अपने बेटे को गुरुकुल ही पढने क्यों भेजा

सोनाली बेंद्रे की किताब मॉडर्न गुरुकुलका एक अंश.
वैदिक पद्धति को अच्छी तरह से पढ़ लेने के कारण मेरे लिए चीजें बहुत स्पष्ट थीं सही शिक्षा ही संतुलित व विचारशील व्यक्ति के निर्माण की कुंजी है. इससे मेरे लिए हर तरह के विरोध का सामना करना आसान हो गया. मेरे परिवार व मित्रों में से लगभग सभी ने यही कहा कि मैं रणवीर की स्कूली पढ़ाई में कुछ अधिक ही खर्च कर रही हूं. उनका विचार था कि यदि मैं इस राशि को बैंक में जमा कर देती तो इससे मिला ब्याज मुझे कहीं अधिक अमीर बना देता. जबकि मेरे विचार से यह मेरा सबसे बेहतरीन निवेश था, क्योंकि अयोग्य व्यक्तित्व की भरपाई कितनी भी बड़ी राशि से नहीं हो सकती.
कहा जाता है कि सच्ची शिक्षा वही है, जो आपको बंधनों से मुक्त करे.मुझे जब भी अपने मार्ग पर संदेह होता तो मैं स्वयं से पूछती कि ऐसा करना उसे स्वतंत्र करेगा या बंधन में बांध देगा?’ और कहीं गहरे में मुझे इसका उत्तर मिल जाता है. हर बच्चे की स्वतंत्रता व सीमाबद्धता का अपना दायरा होता है. मुझे अपने बच्चे के व्यक्तित्व के इन दोनों पहलुओं का सम्मान करते हुए उसी के मुताबिक उसके कौशल को धार देनी होगी. हर प्रणाली के अपने फायदे व नुकसान हैं. मुझे किसी एक की दूसरे से तुलना करने का कोई हक नहींऔर मैं यहां ऐसा करने भी नहीं वाली.

जब मैं बताया करती कि मेरा बेटा किस स्कूल में जाता है तो कुछ महिलाएं खीसें निपोरने लगतीं. उनके अनुसार, यह बहुत अभिजात-वर्गीय था. बतौर मां आप अपने मन की आवाज सुनें तथा वही चुनें, जिसे आप अपने बच्चे के लिए ठीक समझती हों. कुछ ऐसे भी माता-पिता हैं, जो यह मानते हैं कि इतना अधिक पैसा देने के बाद उनके बच्चे की शिक्षा से जुड़ी प्रत्येक जिम्मेदारी स्कूल की है. आखिर वे स्कूल को इतनी बड़ी राशि जो दे रहे हैं. लेकिन इसके उलट, इस स्कूल में अभिभावकों की महती भूमिका है. आपको यह बात हमेशा याद रखनी होगी कि शिक्षक कभी भी माता-पिता की जगह नहीं ले सकते.
हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है. यदि स्कूल एक कक्षा में बच्चों की संख्या 20 तक सीमित रखेगा और हर कक्षा में दो शिक्षक होंगे तो इस उच्च स्तर को बनाए रखने में खर्च भी अधिक होगा. वे वहां परोपकार के लिए नहीं हैं. लेकिन मैंने रणवीर को वहां कुछ भिन्न कारणों से भर्ती करवाया था. वैदिक काल में योग, शरीर क्रिया विज्ञान, ज्योमेट्री, अंक गणित, बीज गणित, ज्योतिष, खगोल-शास्त्र, संगीत तथा कला जैसे विषय पढ़ाए जाते थे. यानी उस समय पूरा ध्यान केवल विज्ञान पर ही केंद्रित नहीं था. बच्चों को सभी विषय पढ़ने चाहिए, जिससे वे बड़े होकर अपनी मर्जी के मुताबिक जो चाहे, बन सकें. आई.बी. में इसी सिद्धांत का पालन किया जाता था, इसलिए यही वह प्रमुख कारण था, जिसके चलते मैंने उन्हें चुना था.

अगर रणवीर विज्ञान व गणित में अच्छा होता तो उसके लिए संभवतः कोई भी स्कूल चल जाता. लेकिन वह रचनात्मक रुझान वाला है, इसलिए मुझे लगा कि उसे किसी अन्य स्कूल में दाखिल करवाने पर वह भी उतना ही असहज रहेगा, जितने मैं व गोल्डी अपने स्कूली दिनों में रहे थे. मैं भाषा व सामाजिक विज्ञान में अच्छी, जबकि गणित व विज्ञान में औसत थी. और इसके चलते मुझे हमेशा असफल महसूस कराया जाता. यदि मुझे भाषा की पढ़ाई करने का मौका मिलता, विशेष रूप से उसमें, जिसमें मैं सर्वोत्तम थी तथा मुझे अच्छे प्रदर्शन के लिए प्रेरित किया जाता तो मैं निस्संदेह कुछ अलग तरह की छात्रा होती. मैं अपने बच्चे के लिए ऐसा मानकीकरण नहीं चाहती थी. आई.बी. स्कूल में रणवीर के पास चयन का विकल्प होगा. उसे वहां गणित भी पढ़ना होगा, लेकिन बुनियादी स्तर का. मान लीजिए, यदि आगे जाकर वह अंग्रेजी साहित्य में बेहतर होने के कारण उसी क्षेत्र में जाने का विकल्प चुने तो उसके लिए केवल उसी विषय के पाठ्यक्रम को कठिन बनाया जाएगा. यह ऐसी अनुकूल परिस्थिति होगी, जिससे उसका जीवन और अधिक बेहतर हो सकेगा.

मैं यह नहीं कह रही कि मेरे बच्चे का स्कूल या शिक्षा-प्रणाली सबसे बेहतरीन है. ऐसा बिल्कुल नहीं है! निस्संदेह, इसमें कुछ खामियां भी हैं. मेरा कहने का केवल यह अर्थ है कि आपके पास अपने बच्चे को किसी भी स्कूल में भेजने के सही कारण अवश्य होने चाहिए. संभव है कि आपके लिए मुझे काम पर जाना होता है और यह स्कूल सबसे पास में है, इसलिए मेरे बच्चे के लिए सबसे अच्छा स्कूल हैभी एक कारण हो. साथ ही, यदि कुछ ऐसा हो, जो आप अपने बच्चे को सिखाना चाहती हैं, लेकिन स्कूल वो नहीं सिखाता तो उसे इसकी शिक्षा आप स्वयं दें. स्कूल का हिस्सा बनें. शिक्षकों से बात करें. अपने बच्चे की शक्तियों व उन बातों की पहचान करें, जिन्हें वह समझ नहीं पा रहा.
बतौर अभिभावक हमें अपने बच्चे के विकास के प्रत्येक पहलू की संपूर्ण जिम्मेदारी लेनी होगी. हम उसकी शिक्षा का दायित्व किसी और को नहीं सौंप सकते. ऐसी सोच रहने पर हमें अपने बच्चे को सर्वोत्तम या सबसे महंगे स्कूल में भेजने की आवश्यकता महसूस नहीं होगी. अंत में, महत्त्व उन्हीं मूल्यों का होगा, जो हमने अपने बच्चे को उसके पालन-पोषण के दौरान दिए हैं.

अपने बच्चे की आंखों से देखना
रणवीर को लेकर गोल्डी के संशय मुझसे बिल्कुल अलग थे. डिस्लेक्सिक व रंगांध होने के कारण उनके विभ्रम भिन्न प्रकृति के थे. जब भी रणवीर किसी चीज को समझने या कुछ सीखने में अधिक समय लगाता तो गोल्डी की चिंता बढ़ जाती. क्या उसे भी डिस्लेक्सिया है? क्या उसमें यह रोग मुझसे आया है? क्या वह रंगों को सही ढंग से पहचानने में अक्षम है? उनको शांत करने और सबकुछ ठीक होने पर पुनः आश्वस्त करने की जिम्मेदारी मुझ पर थी. कुछ समय बाद मैं समझ गई कि भले ही गोल्डी जाहिर नहीं करते, लेकिन उनके लिए स्कूल अवश्य ही कष्टदायक रहा होगा, इसलिए वो हर छोटी बात पर आवेश में आ जाते हैं. जाहिर है कि इस दुःखद अनुभव का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिससे उनका मूल स्वभाव परिवर्तित हो गया. इसी कारण वे ऐसा व्यवहार करते हैं.

अब मैं अपने पति को भिन्न नजरिए से देखने लगी हूं. मुझे यह बेहद आश्चर्यजनक लगा कि अपने पति से जुड़ी इतनी महत्त्वपूर्ण बात की जानकारी मुझे अपने बच्चे की परवरिश के दौरान हुई. वर्षों से इस बात की जानकारी होने के बावजूद मुझे परिस्थिति की गंभीरता का अंदाजा अब जाकर हुआ है. माता-पिता बनने के बाद हमारा इस भांति कई स्तरों पर विकास हुआ. हमने एक-दूसरे से जुड़ी बहुत सी बातों को समझा और उनके अनुकूल हो गए, जिससे हमारा रिश्ता और भी मजबूत हो गया. यदि हमारे बच्चे का जन्म नहीं हुआ होता तो मैं गोल्डी के भय की गहराई को कभी नहीं माप पाती.
जिस समय गोल्डी स्कूल में थे, उस समय पढ़ाई से जुड़ी समस्याओं और उनके निदान की जानकारी बहुत कम लोगों को थी. उन्होंने अपने बुद्धिमान न होने की झूठी बात पर विश्वास कर बहुत कष्टप्रद समय गुजारा. निस्संदेह वे बुद्धिमान हैं. बस, वे चीजों को अलग दृष्टि से देखते हैं और उनका यह तरीका बहुत शानदार है! लेकिन उन दिनों बच्चों को नीचा दिखाना और उन पर सख्ती बरतना ही परवरिश का एकमात्र प्रचलित तरीका था. बच्चों को वर्षों तक अपने अकेलेपन, वैराग्य भाव, क्रोध, निराशा व ग्लानि से जूझना पड़ता. इस बोझ को उठाना सरल नहीं था और इनमें से कुछ के घाव जीवन भर बने रहते हैं.

रणवीर की पीढ़ी में अब लोगों को विभिन्न तरह की शारीरिक समस्याओं की जानकारी तो है, लेकिन पढ़ाई से जुड़ी समस्याओं व विकारों के बारे में अधिकांश लोगों को कुछ नहीं पता. भले ही यह कोई बहुत बड़ा विकार नहीं है, लेकिन यह ऐसी समस्या अवश्य है, जिसे पूरी संवेदनशीलता से संभालने की आवश्यकता है. बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि भले ही बहुत अधिक जानकारी मौजूद है, लेकिन इस ज्ञान के समुद्र के बीच भी हम सामान्य मुद्दों पर हार मान लेते हैं.
स्कूल का चयन करते समय मैंने इन सब बातों का ध्यान रखा. मैं नहीं जानती कि भविष्य में क्या होने वाला है, इसलिए आज मैं उसे जितना हो सके उतना बेहतर देना चाहती हूं. कौन जाने, एक दिन मैं उसे दुनिया के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालय में भेज सकूं. मुझे एक बार में एक ही कदम उठाना होगा.
आज मैं रणवीर की वर्तमान शिक्षा से पूरी तरह संतुष्ट हूं. लेकिन आरंभ में ऐसा नहीं था. शुरुआती वर्षों में उन्हें पढ़ने के लिए कोई पुस्तक नहीं दी गई, जो सरासर गैर-पारंपरिक बात थी. कुछ माह बीतने पर मुझे अपने निर्णय पर संदेह होने लगा. कई महीनों तक उसे सही स्कूल में दाखिल करवाने पर मेरा संशय कायम रहा. लेकिन अब ऐसा नहीं है.
मैं गुरु हूं
परवरिश एक निजी यात्रा है. आप अपने बच्चे का पालन-पोषण किस तरह करना चाहते हैं, यह जानने के लिए आत्म-विश्लेषण करना बहुत आवश्यक है. इस प्रक्रिया और इससे मिले परिणाम विपरीत हो सकते हैं, लेकिन आपके विचार स्थिर होने चाहिए.
रणवीर के लालन-पालन का दायित्व पूरी तरह से मुझ पर है. इस कार्य की कुछ जिम्मेदारियां मैंने उसके शिक्षकों, परिवार के बड़ों, परिजनों व घरेलू सहायकों को भी सौंपी हैं. शिक्षक रणवीर को वैसे ही पढ़ा रहे हैं जैसा हम चाहते हैं, लेकिन अपने बच्चे को शिक्षित करना मेरा भी काम है. बतौर अभिभावक बच्चों की देखभाल मुख्य रूप से हमारा दायित्व है. इसका और कोई विकल्प नहीं हो सकता.
बहुत से माता-पिता अक्सर शिकायत करते हैं कि स्कूल पर्याप्त रूप से कार्य नहीं कर रहा. मुझे यह नहीं समझ आता कि स्कूल यह क्यों करेगा? माता-पिता होने के कारण हमें अपने बच्चे के जीवन में और अधिक रुचि लेनी होगी. साथ ही हमें खुद भी अनुशासित जीवन जीना होगा. आज हम शिक्षकों का उतना सम्मान क्यों नहीं करते, जितना पहले किया करते थे? गुरुकुल प्रणाली के दौरान नैतिक अधिकार शिक्षकों के हाथ था.अपने शिक्षा-काल में छात्र उनके साथ ही रहते तथा अपना प्रत्येक कार्य उनके मार्गदर्शन में करते थे. वहीं शिक्षक जो कुछ भी पढ़ाते, उसका स्वयं भी पालन करते हुए छात्रों के लिए मानदंड स्थापित कर देते. इस तरह छात्र अपने शिक्षकों का आदर करते हुए उन्हें अपने आदर्श के रूप में देखते थे. लेकिन आज हालात बदल गए हैं. अब अधिकांश शिक्षक शिक्षण को केवल आजीविका कमाने का साधन मानते हुए छात्रों के जीवन में अधिक रुचि नहीं लेते. इसी कारण मुझे लगता है कि माता-पिता को स्वयं ही अपने बच्चे का गुरु बनना होगा. उन्हें अपने बच्चों के लालन-पालन में रुचि लेते हुए उनके सामने उदाहरण पेश करना चाहिए...
चित्र साभार गूगल 


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