Monday 16 October 2017

दीपावली पर कानून का पटाखा


धर्म, आस्था और भावना का ही एक मौलिक रूप है, जिसमें परम्पराएँ, पूजा, उपासना निहित होती हैं जोकि उत्सव, त्यौहार आदि के मनाने के तरीकों से लेकर पारम्परिक विधि ही धर्म का आंतरिक और बाहरी स्वरूप सामने रखती है। हमेशा से पूजा उपासना करने की विधि और उत्सवों से जुड़ी परम्परा ही धर्मों को विभाजित करती है, वरना कौन नहीं जानता कि ईश्वर एक है। जन्म से मृत्यु तक हर किसी के अपने जीवन जीने के तौर-तरीके और कर्म-कांड होते हैं। जिन तौर तरीकों को अधिकांश लोग एकमत होकर बिना विरोध के स्वीकार कर लें उसे पारम्परिक परम्परा का नाम दे दिया जाता है। हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली-एनसीआर में  दिवाली के अवसर पर पटाखों के कारण होने वाले प्रदूषण को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1 नवंबर तक के लिए दिल्ली सहित पूरे एनसीआर में पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दी है। मतलब पिछले वर्ष 11 नवंबर 2016 का बिक्री पर रोक का आदेश फिर से बरकरार रहेगा। 
 
समाज हित में लिये जाने वाले फैसले अक्सर कई बार विवादित बन जाते हैं क्योंकि लोग उन्हें अपनी आस्था और परम्पराओं पर चोट के रूप में देखते हैं। कई फैसले अन्य मत-मतान्तरों में तुलना की दृष्टि से विवादित भी माने जाते रहे हैं। पिछले दिनों दक्षिण भारत के एक पारम्परिक त्यौहार जलीकट्टू पर विरोध के सिलसिले में दक्षिण भारत उबल पड़ा था। उस समय भी सवालों से सुप्रीम के फैसले को दो-चार होना पड़ा था। हमने पहले भी लिखा था कि अक्सर हमारे देश में बहुतेरे फैसले जनभावनाओं को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं। लेकिन पिछले कुछ समय में सबने देखा कि ज्यादतर फैसलों में सुप्रीम कोर्ट को विरोध का सामना ही करना पड़ा है। चाहे उसमें जन्माष्ठमी की दही हांड़ी प्रतियोगिता हो या महाराष्ट्र, कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, केरल व गुजरात में परंपरागत बैलगाड़ी दौड़ प्रतियोगिता। 
दरअसल देश में बहुसंख्यक समुदाय के पारम्परिक उत्सवों, त्यौहारों पर उनके मनाने के ढंग पर रोक लगाना/हटाना वोट की राजनीति का हिस्सा सा बन गया है। राजनेता इसे बखूबी अंजाम भी देते हैं। अब लोग सवाल खड़े कर पूछ रहे हैं क्या नववर्ष पर पटाखा जलाने से प्रदूषण नहीं होता? दीपावली पर पटाखा बिक्री पर लगी रोक से किसी को शायद ही दुःख हो स्वास्थ के लिहाज से इसे सब अच्छा कदम बता रहे लेकिन सवाल सबका यह कि क्या यह अन्य मतां के धार्मिक उत्सवों और परम्पराओं के तौर तरीकों पर भी कानून रोक लगा सकता है? 
पेटा जैसी संस्था का जलीकट्टू पर पशुओं के प्रति दया दिखाना लेकिन बकरीद पर लाखों पशुओं की कुर्बानी और क्रिसमस पर टर्की नामक पक्षी को भूनकर खाने पर मौन हो जाना, बैलगाड़ी दौड़ प्रतियोगिता पर रोक लगवाना लेकिन रेसकोर्स की घुड़दौड़ की अनदेखी करना, कोर्ट का जन्मअष्टमी पर दही हांड़ी को लेकर किशोरों का दर्द महसूस करना लेकिन मोहरम पर खामोश हो जाना बस यहीं सवाल खड़े हो जाते हैं कि देश एक है तो कानून एक क्यों नहीं है? इसे आप कुछ पल को अपनी धार्मिक भावनाओं की कसौटी पर रखकर सोचिये, क्या ऐसा नहीं लगता कि यह बहुसंख्यक समुदाय की आस्था पर चोट हो रही है? समय से साथ न जाने कितने परिवार पटाखों को लेकर स्वास्थ और सुरक्षा की दृष्टि से नकार चुके हैं। वे बच्चों को जाग्रत करते हैं कि पटाखा इस त्यौहार की परम्परा का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं है तो सरकार को भी आस्था को कानून में बांधने के बजाय जागरूक करने के कार्यक्रम चलाने चाहिए और एक वर्ग ही क्यों, हर किसी पंथ समुदाय से बुरे प्रभाव डालने वाली परम्परा हटाई जानी चाहिये?   
असल में दिवाली पर पटाखा जलाना हमारी कोई प्राचीन संस्कृति का हिस्सा नहीं है दीपावली पर लोग दिन में हवन यज्ञ करने के पश्चात रात्रि में दीपक जलाते थे। लेकिन पिछले वर्षों में यह चलन तेजी बढ़ा और इस उत्सव की परम्परा का हिस्सा सा बन गया। पिछली दिवाली के दौरान भी वायु प्रदूषण में बढ़ोत्तरी हुई थी हालाँकि पटाखों के अलावा अन्य कई कारणों थे जिसमें बड़े पैमाने पर पटाखों का प्रयोग के साथ हरियाणा पंजाब में पुराली जलाना भी शामिल था। इस कारण इस बार सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि दिवाली के बाद इस बात की भी जांच की जाएगी कि पटाखों पर बैन के बाद हवा की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है या नहीं,  दरअसल सर्वोच्च अदालत इस फैसले को एक प्रयोग भांति भी ले रही है क्योंकि अदालत ने कहा कि एक बार हम ये टेस्ट करना चाहते हैं कि पटाखों पर बैन के बाद क्या हालात होंगे?
देश के अन्य बड़े शहरों की तरह ही राजधानी दिल्ली में लोगों की आंखों में जलन और सांस लेने में समस्या की शिकायत व्यापक रूप में अक्सर सामने आ जाती है।  आंकड़े बताते हैं विश्वभर में 30 लाख मौतें, घर और बाहर के वायु प्रदूषण से प्रतिवर्ष होती हैं, इनमें से सबसे ज्यादा भारत में होती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत की राजधानी दिल्ली, विश्व के 10 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से एक है। सर्वेक्षण बताते हैं कि वायु प्रदूषण से देश में, प्रतिवर्ष होने वाली मौतों के औसत से, दिल्ली में 12 प्रतिशत अधिक मृत्यु होती है। दिल्ली ने वायु प्रदूषण के मामले में चीन की राजधानी बीजिंग को काफी पीछे छोड़ दिया है। लेकिन इसके बावजूद  भी सामाजिक दायित्व के निर्वहन के प्रति हमारा समाज पूर्णतः उदासीन ही नहीं बल्कि असंवेदनशील भी है। इसमें हमारी राजनीतिक मंशा भी मददगार होती है। हर रोज की बरती जा रही लापरवाही को लेकर हम कब सजग होंगे यह भी हमारे ऊपर ही निर्भर करता है या फिर हर काम में कानून ही दखल देगा?
विनय आर्य 

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