Wednesday 30 August 2017

एक और सामाजिक कुप्रथा का अंत

राजनीति और  कुप्रथा, को मजहब की चाभी से खोलने वालों को सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला जरुर निराश कर देने वाला होगा किन्तु वहीं देश की करीब 9 करोड़ मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक जैसी कुप्रथा से आजाद कराने का फैसला 22 अगस्त जरुर 15 अगस्त से कम नहीं होगा. क्योंकि देश की राजनेतिक आजादी के 70 वर्षो के बाद आज उन्हें एक धार्मिक कुप्रथा से मुक्ति जो मिली है.

22 अगस्त की सुबह देश के इतिहास की एक बहुत बड़ी तारीख बन गयी. एक साथ तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया है. भारत के सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच ने अपने एक फैसले में मुसलमानों में शादी ख़त्म करने की एक साथ तीन तलाक़ की प्रथा को 3-2 से असंवैधानिक करार दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक़ पर फिलहाल छह महीने के लिए रोक लगा दी है और केंद्र सरकार से इस पर संसद में क़ानून लाने के लिए कहा है. दरअसल तीन तलाक़ का ये मामला शायरा बानो की एक अर्जी के बाद सुर्खियों में आया था. शायरा ने अपनी अर्जी में तर्क दिया था कि तीन तलाक़ न इस्लाम का हिस्सा है और न ही आस्था का. इस पर जस्टिस कुरियन ने कहा कि तीन तलाक़ इस्लाम का हिस्सा नहीं है. यह अन्यायपूर्ण है, यह संविधान के ख़िलाफ है इसलिए इस पर रोक लगाई जानी चाहिए.

निसंदेह निकाह की पवित्र रस्म के बाद एक मुस्लिम महिला के मन में जो सबसे बड़ा खोफ होता है वो था तीन तलाक. एक सवेंधानिक भारत पिछले काफी अरसे से इस कुप्रथा को मजहब की आस्था के नाम पर ढो रहा था. सिर्फ ढोना ही नहीं इसमें एक रोना भी था कि मेरे खुद के गाँव की कई वर्ष पुरानी घटना है, गाँव के शमसुद्दीन शेख की दो बेटियों का उसके साले के लड़के यानि के अपने ममेरे भाइयों के साथ निकाहनामा हुआ था. शादी के कई वर्षो के बाद शम्सु की एक बेटी को उसके शौहर ने तीन तलाक दे दिया. इस वाकये से गुस्साये शम्सु ने अपनी बीबी यानि की दामाद बुआ को तलाक दे दिया. जब तक मुझे हलाला जैसी अमानवीय कुप्रथा का पता नहीं था.

निश्चित ही आज सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मुस्लिम महिलाओं के हक में अच्छा फैसला, लैंगिक समानता और न्याय की दिशा में एक और कदम कहा जाना चाहिए. इस निर्णय के बाद मुस्लिम महिलाओं के लिए स्वभिमान पूर्ण एवं समानता के एक नए युग की शुरुआत होगी. में अभी बीबीसी की एक रिपोर्ट पढ़ रहा था जिसमें दिया है कि भले ही इस्लामी क़ानून में तलाक़ शौहर का विशेषाधिकार होता है. मुगल कालीन भारत में मुसलमानों में तलाक़ के बहुत कम वाक़ये हुआ करते थे. लेकिन उस दौर के जाने माने इतिहासकार और अकबर के आलोचक और उनके समकालीन अब्दुल क़ादिर बदायूनी 1595 में कहते हैं- कि तमाम स्वीकृत रिवाजों में तलाक़ ही सबसे बुरा चलन है, इसलिए इसका इस्तेमाल करना इंसानियत के ख़िलाफ है. भारत में मुसलमान लोगों के बीच सबसे अच्छी परम्परा ये है कि वो इस चलन से नफरत करते हैं और इसे सबसे बुरा मानते हैं. यहां तक कि कुछ लोग तो मरने मारने को उतारू हो जाएंगे अगर कोई उन्हें तलाक़शुदा कह दे.
यह बात एक नजरिये से देखी जाये तो सही भी है क्योंकि भारतीय समुदाय में यदि शादी के बाद किसी की बेटी तलाक होकर घर आ जाये तो उस लड़की अपशकुन समझा जाता रहा है. कारण उसका आत्मनिर्भर न होना, दूसरा, लड़की को सम्मान और इज्जत के द्रष्टिकौण से देखा जाना, उसकी अस्मिता के चर्चे इतने बड़े पैमाने पर होते आये है कि यदि वो अपने घर तलाक होकर आ जाये तो वो दर्द जो महिला सहती है उसका अनुमान कोई मौलाना, कोई धर्मगुरु या धर्म-मजहब नहीं समझ सकता. इस वजह से ग्रामीण कहावत भी है कि जिसकी बेटी ससुराल में सुखी उसके माँ-बाप का जन्म सुखी. लेकिन कई बार कुछ धार्मिक कुप्रथाएं एक महिला का सब कुछ छीन लेती है. चाहें इसमें शाहबानो गुजारा भत्ता मामला हो या रूपकुंवर का सती होना.

कानून कोई भी हो मजहब या धर्म की बुनियाद पर हो या संविधान की उसे प्रत्येक नागरिक के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए लेखिका नासिरा शर्मा अपनी पुस्तक औरत के लिए औरत में लिखती है कि शरियत कानून जो अक्सर मुस्लिम महिला से उसका घर परिवार उसका ठिकाना छीन लेता है, चूँकि उस कानून की आड़ में दूसरी तीसरी यहाँ तक की चौथी शादी तक कर लेता है और औरत के पास आंसू बहाने, कोसने, दुआ-तावीज़ में पैसा फूंकने और मेहनत मजदूरी करके बच्चों के पेट पालने के अलावा कुछ नहीं रह जाता, उसका यह दुःख कहाँ से शुरू होता है बस यही से कि वो मर्द पर विश्वास करती है और अपनी अशिक्षा और अज्ञानता के चलते गुस्से, तनाव या किसी अन्य लालसा में कहे तीन तलाक को खुदा का हुक्म या अपना भाग्य समझ लेती है?


आमतौर पर गरीबों में शौहर द्वारा शादी के दौरान सबके सामने किए गए जुबानी वादे ही आम तौर कानून माने जाते है इसका कोई लिखित प्रमाण नहीं रखा जाता, इस कारण भी अनेक गरीब महिलाएं सिर्फ खाली हाथ ससुराल से निकाल दी जाती रही है. लेकिन अब यह कानून निश्चित ही एक क्रांतिकारी कदम होगा. इससे न केवल एक महिला में आत्मविश्वास जगेगा बल्कि इससे औरत के सामाजिक स्तर पर भी स्थिरता आएगी.अभी तक जो वह परिवार में दोयम दर्जे का जीवन जीती थी अब वह एक सम्पूर्ण इकाई महसूस करेगी.   
 राजीव चौधरी 





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