Wednesday 30 August 2017

तसलीमा तुम डर से डर गयी या भीड़ से?

 लेख- राजीव चौधरी 

सच कहना, आलोचना करना या किसी विषय पर अपनी अलग हटके राय रखना ऐसे हो गया जैसे आपने भूखे भेडियों के झुण्ड में कंकर फेंक दी हो.
कुछ दिन पहले औरंगाबाद  हवाई अड्डे के बाहर कुछ मुसलमान तसलीमा गो बैक के नारे लगा रहे थे. पुलिस ने किसी भी हिंसा की आशंका को देखते हुए तसलीमा को हवाई अड्डे से बाहर निकलने की इजाजत नहीं दी और उन्हें वहीं से मुंबई वापस भेज दिया.
मैंने कहीं पढ़ा था कि जब भीड़ सड़कों पर सामूहिक हिंसा के जरिए आम इंसानों को डराने लगे और देश की संस्थाएं तमाशाई बनी बैठी रहें तो फिर ये लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले लोगों के लिए चिंता का विषय है.

पर तसलीमा तुम डरना मत ये लोग डरा कर ही जीना जानते है. तुम मुझसे उम्र और ज्ञान में बड़ी हो, तुमने  बुद्ध का सन्देश जरुर होगा कि जब तुम किसी की सदियों पुरानी धारणाओं को तोड़ते हो तो लोग तुम्हे आसानी से स्वीकार नहीं करते. पहले तुम्हारा उपहास उड़ायेंगे, फिर हिंसक होंगे, और तुम्हारी उपेक्षा करेंगे. इसके बाद तुम्हे स्वीकार करेंगे. तुम अभी इन लोगों की धारणाओं को खंडित कर रही हो, लेकिन यकीन मानना एक दिन यह लोग तुम्हें जरुर स्वीकार करेंगे.
ये विरोध सिर्फ तुमने ही नहीं बल्कि एक उस आदमी ने झेला जिनके पास नई बात थी, तसलीमा तुमने भी पढ़ा होगा, यही लोग थे जिन्होंने कभी हजरत मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) साहब पर कूड़ा फेंका था, उनका उपहास उड़ाया था. लेकिन बाद एक दिन हाथ से पत्थर गिरते गये और सजदे में सर झुकते चले गये.

तसलीमा तुम्हें क्या बताना यही लोग थे जिन्होंने सुकरात को जहर का कटोरा थमा दिया थाजीसस को सूली पर चढ़ा दिया था. ज्यादा दूर ना जाओ यही लोग थे जिन्होंने नारी शिक्षा की आवाज़ बने और धार्मिक आडम्बरों से मुक्त करने वाले स्वामी दयानन्द जैसे समाज सुधारक को जहर तक दिया था. बुद्ध के ऊपर थूकने की घटना और उन महात्मा बुद्ध का मुस्कुराना भी हमने इसी इतिहास में पढ़ा है.

तसलीमा तुम्हें क्या बताना कि धर्म और नेकी अंदर होती है और नफरत और हिंसा बाहर से सिखाई जाती है. जो आज इन विरोध करने को सिखाई गयी है. तुम्हारे सवालों को लेकर बवाल मचाने वालों और इस बवाल का पोछा बना कर आपनी राजनीति का फर्श चमकाने वालों से घबराना नहीं, क्योंकि हर नए पैगाम, हर नई बात, हर नए नजरिए का ऐसे ही विरोध होता है. बड़ी सच्चाई विरोध के पन्ने पर ही तो लिखी जाती है.
मुझे दुःख है जो फैसले लोकतंत्र और सविंधान लेता था आज उसे नफरत की विचारधारा लिए भीड़ और आवारातंत्र ले रहा है. मुझे इस कृत्य पर लज्जा आई पर तसलीमा जो लोग तुम्हारी पुस्तक लज्जा से लज्जित नहीं हुए भला उन्हें कौन शर्म, हया का पाठ पढ़ा सकता है?

जो लोग मजहब और धर्म का शांति पाठ और लोकतंत्र में आजादी  पढ़ा रहे है क्या उनके लिए ये बात शर्म से डूब मरने की नहीं कि है कि 21वीं सदी में किसी इंसान को अपनी धार्मिक या सामाजिक विचारधारा के कारण हिंसक भीड़ के डर से अपनी जिंदगी छुपकर और गुमनामी में गुजारनी पड़े?

तसलीमा तुमने वो कहानी तो जरुर सुनी होगी कि कभी प्राचीन येरुशलम में लोग इबादत और प्रार्थना के जोखिम से बचने के लिए हर कोई अपने अपने पापों की एक-एक छोटी गठरी बकरी के सिंगों से बांधकर और बकरी को ये सोचकर शहर से निकाल दिया जाता था कि हमारे पाप तो बकरी ले गई, अब हम फिर से पवित्र हो गए.
आज भी वही हर जगह लोग बसे है बस आज बकरी उसे बना देते जो सच कह देता है इसमें चाहे पाकिस्तान में तारिक फतेह हो, शायद उसमे बांग्लादेश के कथित ठेकेदारों ने देश से बाहर कर तुम्हें भी वही बकरी बना दिया. ख़ास कर धार्मिक कट्टरपंथी लोगों ने.

एम.एफ हुसैन को धर्मांध लोगों के कारण भागते रहना पड़ा. मगर हुसैन को किनके कारण भारत छोड़ना पड़ा? हुसैन को सताने वाले लोग सलमान रुश्दी की मौत का फतवा जारी करने वालों से किस तरह अलग हैं?  हुसैन को तलने वाले तुम्हें दरबदर करने वालों से किस तरह भिन्न हैं? ये धर्म की आड़ में लोगों का उत्पीड़न करने की कोशिश करते हैं. ये लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में यकीन नहीं रखते हैं.
पर देखना तसलीमा एक दिन यह लोग तुम्हे भी उसी तरह स्वीकार करेंगे जिस तरह तीस वर्ष तक फ्रायड की किताबों को आग में झोकने वाले आज उसका गुणगान करते नहीं थकते है. हर जगह जब ख़ुद पर वश नहीं चले तो सच लिखने, बोलने वालों को सब बुराईयों की जड़ बताकर अपनी जान छुड़ाना कितना आसान सा हो गया है ना तसलीमा?



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