Sunday 30 December 2018

हमें कैसे धर्म की जरूरत हैं


पिछले लगभग तीन हजार वर्षों में मनुष्य ने मनुष्य के लिए न जाने कितनी जातियां बनाई, कितने पंथ मजहब सम्प्रदाय बनाए।  नये-नये भगवानों के अविष्कार हुए, उपासना के ढंग और उसके केंद्र बनाए गये। स्वर्ग-नरक से लेकर पाप-पुण्य की हर किसी ने अपने-अपने तरीकों से परिभाषाएं गढ़ी। मनुष्य को मुक्ति, मोक्ष और शांति के मार्ग सुझाये पर अंत में सवाल यह उठता क्या मनुष्य को इन सबसे शांति मिली? शायद हर कोई यही कहेगा नहीं! क्योंकि जितने पंथ और मजहब बढे उतनी ही ज्यादा हिंसा हुई नवीन पंथ और धर्मों ने अपनी श्रेष्ठता को लेकर उतना ही रक्तपात मचाया।

असल में पिछले तीन हजार वर्षों में नये-नये धर्म स्थापित करने वाले लोगों ने मनुष्य को धर्म और शांति को समझने ही नहीं दिया। विचार धाराएँ खड़ी की गयी, अपने इच्छित लक्ष्य के लिए लोगों को धर्म के नाम पर नफरत की भट्टी में झोक दिया। कितने लोग बता सकते है कि धर्म का मूल आधार क्या है, दया, करुणा सेवा है या नफरत और हिंसा?
धर्म का तत्व क्या है? धर्म का अंतिम बिंदु क्या है? हमें करना क्या है? मार्ग कहाँ है? असल में दो चीजें जब मिलती है तब धर्म का परिचय होता एक है एक संस्कृति, जिसका संबंध बाहर से है दूसरा है अध्यात्म,  जिसका संबंध आत्मा से है। धर्म के तत्व का अंकुर आत्मा के अंदर है, धर्म का एक अर्थ है स्वभाव जैसा स्वभाव होगा उसका वैसा ही धर्म होगा। इसलिए जब संस्कृति और स्वभाव यानि आंतरिक तत्व और बाहरी दोनों का जोड़ होता है, दोनों सामान होते है तब धर्म का परिचय होता हैं।
किन्तु संसार में सभी नवीन कथित धर्मों ने जिस तरह से कार्य किया उन्होंने धर्म का पूरा गुणधर्म, उसकी पूरी संरचना और व्याख्या ही बदल डाली। दुनिया के इन सारे कथित धर्मों की वजह से इन्सान धर्म शब्द का अर्थ तक भूल गया है। उनसे धर्म छीन लिया गया उन्हें बदले परम्पराएँ थमा दी गयी, उनके परिधान बदले उन्हें अपने स्वनिर्मित उपासना के तरीके सीखा दिए गये और कहा ये ही धर्म इसका फैलाव करो यही धर्म इसको चलाओ।
धर्म के फैलाव के तरीके बताये गये, उन्हें जबरन हिंसा द्वारा, रक्तपात द्वारा, झूठ मक्कारी बेईमानी से फैलाने सिखाया गया और इसे धर्म का चलाना कहा गया। क्या कोई बता सकता है कि धर्म बनाए या चलाये जा सकते है? धर्म का गठन नहीं हो सकता, धर्म कोई गाड़ी नही है कि उसे बनाकर चलाया जाये। धर्म विज्ञान है आत्मा का जहाँ प्रकाशमान हो जहाँ उसे मनुष्यता के प्रति बोध हो, जहाँ प्रकृति से लेकर समस्त प्राणी मात्र की चिंता हो, जो समस्त जीव जंतु के प्रति अपनत्व का भाव प्रकट हो जो समस्त वसुंधरा को अपना परिवार समझे वहां धर्म होगा वही धर्म का दर्शन होगा।
अब मूल प्रश्न की ओर लौटते है कि क्या हमे धर्म की आवश्यकता है और क्यों है?
तो इसका आसान जवाब यही है कि मानव मन की सबसे बड़ी जरूरतों में से एक जरूरत है-दूसरों के लिए स्वयं के जरूरी होने का अहसास। स्वयं का आत्मनिरिक्षण, एक दूसरे के प्रति व्यवहार और जिम्मेदारियों का अहसास इसलिए यजुर्वेद में कहा गया है कि  मनुष्य कभी किसी प्राणी से वैर भाव न रखे और एक- दूसरे के साथ प्रेमभाव से रहेमनुष्य सभी प्राणियों को अपना मित्र समझे और प्रत्येक की सुख़-समृद्धि के लिए कार्य करे ऐसे सन्देश मनुष्य को विखंडित होने से बचाते है। ऋगवेद कहता है तुम्हारा सत्य और असत्य का विवेचन पक्षपात रहित हो, किसी एक ही समुदाय के लिए न हो. तुम संगठित होकर स्वास्थ्य, विद्या और समृद्धि को बढ़ाने में सभी की मदद करो। तुम्हारे मन विरोध रहित हों और सभी की प्रसन्नता और उन्नति में तुम अपनी स्वयं की प्रसन्नता और उन्नति समझो। सच्चे सुख़ की बढती के लिए तुम पुरुषार्थ करो। तुम सब मिलकर सत्य की खोज करो और असत्य को मिटाओ।
धर्म व्यक्तिवाद से परे हैं मनुष्य संगठन खड़ें कर सकता है पर धर्म नहीं। क्योंकि धर्म आत्मा के संचालन का विषय है, संगठन से व्यक्ति हांके जा सकते है लेकिन धर्म साथ लेकर आगे बढ़ता है. इसलिए मैं बिना पूर्वाग्रह के कह सकता है जो सिर्फ मानवता के कल्याण की बात करें वही धर्म हो सकता है। और मानवता का संदेश वैदिक धर्म के अलावा दूसरे अन्य धर्म से कभी नहीं मिला क्योंकि सभी मत सम्प्रदाय किसी न किसी व्यक्ति विशेष द्वारा चलाये गए। धर्म चलाते समय उन्होने अपने को ईश्वर का दूत व ईश्वर पुत्र बताया, ताकि लोग उनका अनुसरण करें।
धर्म अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है धर्म मन की समस्याओं से जूझने का रास्ता बनाता है, धर्म आजादी देता है, धर्म बंधन नहीं है यदि बंधन है तो वहां धर्म नहीं है। किन्तु इसके उलट अपने-अपने धर्म चलाते समय इन सभी लोगों ने अपने समाज को कल्पनाएं दी हैं, ताकि यह लोग कोरी कल्पनाओं में उलझे रहे, ऐसी सुविधा और ढांचे खड़ें किये भय और हिंसा के ऐसे तत्व लोगों के जेहन में खड़ें किये कि उन्हें अपने सम्प्रदाय के खूंटे से बांध लिया। उन्हें पशु बना दिया गया। पैदा होते ही नकेल डाल दी गयी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली गयी कहा जो हमें कहे वही सच है यदि तर्क किया या प्रश्न तो उसका उत्तर सिर्फ तलवार देगी। आप स्वयं सोच सकते है क्या ऐसे माहौल में धर्म बचता है या फिर क्या हमें ऐसे धर्म की जरूरत हैं?…राजीव चौधरी


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