Wednesday, 24 May 2017

लड़ाई (इस्लामी हुक़ूमत) के लिए लड़ी जा रही है ?

लम्बे समय से चले आ रहे कश्मीर के जिस संघर्ष को लोग कश्मीर की आजादी से जोड़कर दुष्प्रचार कर रहे थे हिज्बुल मुजाहिदीन कमांडर जाकिर मूसा की ऑडियो क्लिप शायद उन लोगों को मुंह छिपाने को मजबूर कर दिया होगा. हाल ही में हिज्बुल कमांडर ने जिस तरह अपने पांच मिनट के ऑडियो क्लिप में हुर्रियत के नेताओं को धमकी देते चेताया है कि अगर हुर्रियत नेताओं ने चरमपंथियों की इस्लाम के ख़ातिर लड़ी जा रही लड़ाई में रोड़े अटकाने की कोशिश की तो उनके सिर लाल चौक में कलम कर दिए जांए. यह लड़ाई हम इस्लाम के लिए लड़ रहे हैं. अगर हुर्रियत नेताओं को ऐसा नहीं लग रहा है, तो हम बचपन से क्यों सुनते आए हैं- कि आजादी का मतलब क्या, ला इलाहा इल्लल्लाह

जाकिर मूसा के बयान के बाद इसे बिलकुल ऐसी ही लड़ाई कह सकते है जैसे लादेन लड़ रहा था, या बगदादी, या अनेकों इस्लामिक चरमपंथी संगठन लड़ रहे है. बस फर्क इतना है उनका स्तर बहुत बड़ा है और इनका अभी कुछ छोटा बाकि मानसिकता समान कही जा सकती है. जिस तरह इस ऑडियो में जाकिर मूसा ने कहा है कि अगर कश्मीर की लड़ाई धार्मिक नहीं है तो फिर इतने समय से हुर्रियत नेता मस्जिदों को कश्मीर की लड़ाई के लिए इस्तेमाल क्यों करते रहे हैं. फिर चरमपंथियों के जनाजों में वह क्यों जाते हैं. ये लड़ाई (इस्लामी हुक़ूमत) के लिए लड़ी जा रही है.

शायद अब वामपंथी नेता कविता क्रष्णनन और वह मानवाधिकार आयोग के विश्लेषक जो अभी पिछले दिनों  कश्मीर में इन्टरनेट बंद होने के कारण संयुक्त राष्ट्र में आंसू बहाकर इन्टरनेट को बंद करना भी मानवाधिकार पर हमला बता रहा थे वह इस ऑडियो को कई बार सुने और जवाब दे कि मात्र कुछ लोगों के मजहबी जूनून के कारण भारत अपने लोकतंत्र को मजहबी मानसिकता की आग की भट्टी में क्यों झोंक दे? आखिर भारत अपने लोकतंत्र की रक्षा अपने हितों रखरखाव क्यों न करें? दूसरी बात आज कश्मीरी कौनसी आजादी की बात कर रहे है? वो कट्टर मजहबी आजादी जिसने सीरिया, यमन, अफगानिस्तान, इराक आदि देश तबाह कर डाले? मूसा ने अलगावादी नेताओं के मुंह पर सही तमाचा लगाया कि यह धर्मनिपेक्ष लड़ाई नहीं है.

सब जानते है कि यह सिर्फ मजहबी उन्माद है वरना वहां सिख, जैन बोद्ध हिन्दू ईसाई आदि समुदाय से तो कोई आजादी की आवाज नहीं आती क्यों? बुरहान वानी की मौत के बाद अचानक उपजी हिंसा के बाद जब पत्थरबाजी का दौर चला उसकी बखिया उधेड़ते हुए तब भारत के एक प्रसिद्ध न्यूज चैनल ने वहां की हिंसा मुख्य कारण यही बताया था जो आज जाकिर मूसा बता रहा है. किस तरह वहां कदम-कदम पर खड़ी की गयी मस्जिदों और मदरसों को संचालित करने वाले लोग इस हिंसा में अपनी भूमिका निभा रहे है. लेखक विचारक तुफैल अहमद इस पर बड़ी बेबाकी से अपनी राय रखते हुए कहते है कि कुरान में ऐसी बहुत सी आयतें हैं जिनका अर्थ अलग-अलग समझाया जाता रहा है जैसे आयत 9:14 कहती है: उनके खिलाफ लड़ो. तुम्हारे हाथों से अल्लाह उन्हें तबाह कर देगा और लज्जित करेगा, उनके खिलाफ तुम्हारी मदद करेगा, और मुसलमानों की छातियों पर मरहम लगाएगा. कुछ लेखक आयत 2:256 का भी हवाला देते हैं जो कहती है: धर्म में कोई मजबूरी नहीं है. तुफैल आगे लिखते है कि जिहादी तर्क देते हैं कि यह आयत गैर मुसलमानों पर लागू होती है जिन्हें शरिया शासन के तहत रहना चाहिए. पाकिस्तान में रहने वाले एक बर्मी चरमपंथी मुफ्ती अबुजार अजाम का स्पष्टीकरण है कि इस आयत के अनुसार, किसी भी ईसाई, यहूदी या गैर मुसमलान को इस्लाम कबूल करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, लेकिन उसकी दलील है कि जब मुसलमान जंग के लिए आगे बढ़ें तो उन्हें सबसे पहले दावा  करना (यानी गैर मुसलमानों को इस्लाम में आने का न्यौता देना) चाहिए, अगर वे इसे कबूल नहीं करते हैं तो फिर लडाई शुरू होनी चाहिए. हालांकि सब कश्मीरी इन लोगों के इस बहकावे में नहीं आते इनके बाद वहां बड़ा हिस्सा भारत को अपना देश मानता है और आजादी को मात्र एक राजनीतिक ढकोसला. इसका सबसे बड़ा उदहारण यह है कि अगर वहां आजादी के नाम पर बुरहान वानी जैसे आतंकी जन्म लेते है तो हमें गर्व है कि वहां उमर फय्याज जैसे राष्ट्रभक्त भी जन्म लेते है.

असल में कश्मीर में कोई समस्या नहीं है वहां समस्या इस्लाम के नाम पर पैदा की जाती रही है. चाहें इसमें 90 के दशक का पंडित भगाओ का आन्दोलन रहा हो या आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद उपजा पत्थरबाजी का दौर. मुख्य रूप से इसके हमेशा से तीन कारक उत्तरदायी हैं. कश्मीर के बारे में पाकिस्तान का जुनून, जम्मू कश्मीर सरकार का बहुत ज्यादा राजनीतिक कुप्रबंधन और राज्य में कट्टरपंथी इस्लामिक विचारधारा का उदय. शायद यह तीनों समस्या कहीं ना कहीं एक साथ मूसा के बयान से जुडी नजर भी आती है.

पाकिस्तान कश्मीर भूभाग पर इस्लाम की आड़ लेकर भारत के अधिकार को लगातार चुनौती देता आया है. भारत को बांटने और कश्मीर पर कब्जा करने के उसके रणनीतिक मकसद ने भारत के खिलाफ आतंकवाद को समर्थन देने की उसकी नीति को जन्म दिया है. अत: इस बात को नाकारा नहीं जा सकता कि कश्मीर मामले की जड़े कट्टरपंथी इस्लाम में भी हैं आज कश्मीरी नौजवानों के बीच आजादीका नारा लोकप्रिय होकर उन्हें बड़ी संख्या में संगठित कर रहा है. आतंकवादियों और अलगाववादियों द्वारा सोशल मीडिया के दुरूपयोग ने लोगों को ज्यादा उग्र बनाया है, जिससे भारत के समक्ष बड़ी चुनौतियां उत्पन्न हुई हैं. लेकिन इस सब के बावजूद में इसे अच्छी खबर मानता हूँ कि जिस लड़ाई को वर्षो से राजनेता और मीडिया आजादी की लड़ाई बता रही थी जाकिर मूसा ने एक पल में चरमपंथ का एजेंडा सामने रखकर सबके दावे खोखले कर दिए. 
राजीव चौधरी 

गारंटी दो, फिर बेटी बचाएंगे!!

हरियाणा के रेवाड़ी में स्कूली छात्राओं के कई दिनों के अनशन के बाद समाचार पत्रों की खबर बनी कि रेवाड़ी की छोरियों ने सरकार को झुका दिया. राज्य के शिक्षा विभाग ने स्कूल के अपग्रेडशन का नोटिस जारी कर दिया है जिसकी एक प्रति अनशन पर बैठीं छात्राओं को भी दी गई है. भले ही लोग इस घटना को छेड़छाड़ से पीड़ित छात्राओं की जीत के तौर पर देख रहे हो लेकिन सच यह कि इस पुरे घटनाक्रम में वो अराजक तत्व, जीत गये जो हर रोज छेड़छाड़ की घटना को अंजाम देते थे और प्रशासन उनके आगे हार गया. गौरतलब है कि 10 मई को राज्य के रेवाड़ी के गोठड़ा टप्पा डहेना गांव की तकरीबन 80 स्कूली छात्राएं भूख हड़ताल पर बैठ गई थीं. उनकी मांग थी कि उनके गांव के सरकारी स्कूल को 10 वीं कक्षा से बढ़ाकर 12वीं तक किया जाए. दरअसल गांव में स्कूल न होने के चलते इन लड़कियों को 3 किलोमीटर दूर दूसरे गांव के स्कूल जाना पड़ता है, जहां रास्ते में आते-जाते अक्सर उन्हें छेड़छाड़ का सामना करना पड़ता है. इस वजह से वे गांव के स्कूल को 12वीं तक करने की मांग कर रही थीं. हरियाणा सरकार ने गांव के स्कूल को 12वीं तक करने की उनकी मांग मान ली जिसके बाद इन छात्राओं ने भूख हड़ताल वापस ले ली.

अभी पिछले दिनों हरियाणा प्रशासन ने लड़कियों और महिलाओं के साथ होने वाली छेड़छाड़ रोकने के लिए ऑपरेशन दुर्गा चलाया था. इसके बाद भी सोनीपत से एक युवती का अपहरण करके उसे रोहतक ले जाया गया और फिर उसके साथ सामूहिक बलात्कार, हत्या के बाद शव को बुरी तरह क्षत-विक्षत कर दिया गया था. दिल्ली के निर्भया कांड को दोहराती इस घटना अपराधियों के बढे होसले दर्शाकर साथ ही देश में बेटियों की सुरक्षा के सवाल पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. जबकि हरियाणा ही वह राज्य है जहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेटी बचाओ-बेटी पढाओं अभियान की शुरुआत की थी.

यह कोई पहली घटना नहीं है साल 2015 में बरेली से 45 किलोमीटर दूर एक दर्जन गांवों के लोग छेड़छाड़ की वजह से अपनी बेटियों को स्कूल भेजने से रोक लिया था. स्कूल जाने के लिए करीब 200 लड़कियों को नदी पार कर अपने स्कूल शेरगढ़ जाना पड़ता था. लेकिन नदी के उस पार पहुंचते ही गुंडे उनसे छेड़छाड़ करते थे. विरोध करने पर उनके साथ मारपीट की जाती थी. ठीक उसी तरह की घटना अब हरियाणा में हुई. धरने पर बैठी लड़कियां बताती है कि लड़के कभी चुन्नी खींच लेते हैं, कभी कुछ और. ये दुबकती हुई जाती हैं. वो बताती है श्लड़के पीछे से बाइक पर नकाब पहनकर आते हैं, चुन्नी खींचते हैं. रास्ते में प्याऊ के मटके रखे होते हैं, हमें देखकर उन्हें फोड़ते हैं और हमारे ऊपर पानी गिराते हैं. दीवारों पर मोबाइल नंबर लिखकर चले जाते हैं. हम मीडिया के आगे हर चीज तो बता नहीं सकते. लिमिट होती है.


हालांकि शिक्षा मंत्री ने गांव के स्कूल को बारहवीं तक अपग्रेड करवाने का वादा कर दिया है. लेकिन प्रदर्शनकारी इस पर लिखित में आश्वासन चाहते थे. वो कहती है श्वादे हर साल होते हैं, एक भी पूरा नहीं हुआ. फिर भी लगा रखा है- बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ. क्या मतलब है इस नारे का. बंद कर देना चाहिए. क्यों यह मुहिम छेड़ रखी है? या फिर सुरक्षा की पूर्ण गारंटी दो इसके बाद लोग बेटी बचा भी लेंगे और पढ़ा भी लेंगे.

ऐसा नहीं है यह कोई दुर्लभ घटना है और साल दो साल में एक आध बार घट गयी, नहीं यह हर रोज की कहानी है. बस स्टैंड हो या निजी व सरकारी बसों तक में भी बेटियों की हिफाजत के लिए कड़े कदम उठाने की जरूरत है. यह भी कड़वा सच है कि पुलिस को ऐसे मामलों में लिखित में शिकायत देने से बच्च्यिां कतराती हैं और शायद कानूनी पचड़ों से बचने के लिए आम नागरिक भी कुछ नहीं करते लेकिन ऐसे मामलों में लड़कियों को सुरक्षित माहौल देने के लिए पुलिस के स्तर पर कड़ी कार्रवाई की जरूरत जरूर महसूस की जा रही. लेकिन बावजूद इस तरह के अराजक तत्वों पर पुलिस कार्रवाई के बजाय बाहर ही समझौता करा दिया जाता है. इस वजह से भी पीडिता कमजोर पड़ जाती है वरना देश की बच्चियां कभी भी पूरी तरह से कमजोर नहीं रहीं और अब तो वो अपने लिए और सुरक्षित जगह ढूंढ रही हैं.

सवाल और भी है कि आखिर यह बीमारी भारत में दिन पर दिन क्यों बढ़ रही है. आप हिंदी फिल्म देखिये अमूमन हर एक फिल्म में नायक स्कूल जाती, ऑफिस जाती नायिका का रास्ता रोककर प्रेम निवेदन करता है उसके कपडें, उसकी चाल, उसकी नजर पर कमेन्ट करता है. तब सिनेमा घर में उपस्थित लोग तालियाँ बजा रहे होते है, सीटियाँ बजाते आसानी से देखे जा सकते है. जिनमे कुछ लोग इसे जायज कृत्य समझकर निजी जीवन में इसका प्रयोग करने से नहीं चुकते है. हरियाणा की ताजा घटना इसका सबसे बड़ा उदहारण है.

इस घटना के बाद सोशल मीडिया पर एक महिला की पोस्ट ने समाज की आंख खोलते हुए लिखा कि हरियाणा में छेड़छाड़ से तंग आकर लडकियों ने धरना प्रदर्शन किया और अपने ही गांव में स्कूल खुलवा लिया. धरना देने वाली लड़कियां दसवीं की छात्रा थीं. मतलब लगभग 16-17 आयु वर्ग की? इस उम्र में पलायन वादी सोच? गम्भीर बात है. अराजक तत्वों का डटकर मुकाबला करना चाहिए. कल अगर इस स्कूल में कोई परेशानी हुई, तो क्या पढाई छोड़ देगी या स्कूल घर में खुलवा लेगी? घर में शोषण हुआ फिर? पलायनवादी सोच को त्याग कर संघर्षशील प्रवृत्ति को अपना होगा. सरकार भी चंद आपराधिक प्रवृति के लोगों के सामने कैसे झुक गयी? गौरतलब है कि 2016 में रेवाड़ी जिले में ही स्कूल जाते समय एक छात्रा के साथ बलात्कार होने के बाद दो गांवों की लड़कियों ने डर के कारण स्कूल जाना छोड़ दिया था. मुद्दे की एक बात ये भी है कि महिलाओं के कपड़े, मोबाइल फोन और चाउमिन को रेप आदि के लिए जिम्मेदार बताने वाले नेता अगर समाज की मानसिकता को दोषी मान ले तो शायद स्थिति ओर बेहतर हो सके वरना दीवारों पर लिखे नारे बेटी बचाओं सिर्फ हास्य का प्रतीक बनकर रह जायेंगे.
विनय आर्य 


संत रविदास और इस्लाम

सहारनपुर में दलितों और ठाकुर राजपूतों का विवाद का समाचार मिल रहा है। कभी दलित कहते है कि हम इस्लाम स्वीकार कर लेंगे, कभी ठाकुर कहते है कि हम इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। इस्लाम स्वीकार करने से जातिवाद की समस्या समाप्त हो जाती तब तो दुनिया के सभी इस्लामिक देश जन्नत के समान होते। मगर सत्य भिन्न है। शिया-सुन्नी, अहमदी-देवबंदी, अशरफ-अजलफ, वहाबी-सूफी , सैयद-क़ुरैश और न जाने क्या क्या के नाम पर मुस्लिम समाज न केवल विभाजित है अपितु एक दूसरे के खून के प्यासे भी बने हुए हैं। भारत में जातिवाद की सामाजिक समस्या का राजनीतिकरण हो गया है। यह कटु सत्य है कि भारत में राजनीती ने जातिवाद की खाई को अधिक गहरा और चौड़ा ही किया हैं। जय भीम का नारा लगाने वाले दलित भाइयों को आज के कुछ राजनेता कठपुतली के समान प्रयोग कर रहे है। यह मानसिक गुलामी का लक्षण है। दलित-मुस्लिम गठजोड़ के रूप में बहकाना भी इसी कड़ी का भाग हैं। दलित समाज में संत रविदास का नाम प्रमुख समाज सुधारकों के रूप में स्मरण किया जाता हैं। आप जाटव या चमार कुल से सम्बंधित माने जाते थे। चमार शब्द चंवर का अपभ्रंश है।

चर्ममारी राजवंश का उल्लेख महाभारत जैसे प्राचीन भारतीय वांग्मय में मिलता है। प्रसिद्ध विद्वान डॉ विजय सोनकर शास्त्राी ने इस विषय पर गहन शोध कर चर्ममारी राजवंश के इतिहास पर पुस्तक लिखा है। इसी तरह चमार शब्द से मिलते-जुलते शब्द चंवर वंश के क्षत्रियों के बारे में कर्नल टाड ने अपनी पुस्तक राजस्थान का इतिहासमें लिखा है। चंवर राजवंश का शासन पश्चिमी भारत पर रहा है। इसकी शाखाएं मेवाड़ के प्रतापी सम्राट महाराज बाप्पा रावल के वंश से मिलती हैं। संत रविदास जी महाराज लम्बे समय तक चित्तौड़ के दुर्ग में महाराणा सांगा के गुरू के रूप में रहे हैं। संत रविदास जी महाराज के महान, प्रभावी व्यक्तित्व के कारण बड़ी संख्या में लोग इनके शिष्य बने। आज भी इस क्षेत्रा में बड़ी संख्या में रविदासी पाये जाते हैं।

उस काल का मुस्लिम सुल्तान सिकंदर लोधी अन्य किसी भी सामान्य मुस्लिम शासक की तरह भारत के हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की उधेड़बुन में लगा रहता था। इन सभी आक्रमणकारियों की दृष्टि ग़ाज़ी उपाधि पर रहती थी। सुल्तान सिकंदर लोधी ने संत रविदास जी महाराज मुसलमान बनाने की जुगत में अपने मुल्लाओं को लगाया। जनश्रुति है कि वो मुल्ला संत रविदास जी महाराज से प्रभावित हो कर स्वयं उनके शिष्य बन गए और एक तो रामदास नाम रख कर हिन्दू हो गया। सिकंदर लोदी अपने षड्यंत्रा की यह दुर्गति होने पर चिढ़ गया और उसने संत रविदास जी को बंदी बना लिया और उनके अनुयायियों को हिन्दुओं में सदैव से निषिद्ध खाल उतारने, चमड़ा कमाने, जूते बनाने के काम में लगाया। इसी दुष्ट ने चंवर वंश के क्षत्रियों को अपमानित करने के लिये नाम बिगाड़ कर चमार सम्बोधित किया। चमार शब्द का पहला प्रयोग यहीं से शुरू हुआ। संत रविदास जी महाराज की ये पंक्तियाँ सिकंदर लोधी के अत्याचार का वर्णन करती हैं।

वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान
फिर मैं क्यों छोड़ूँ इसे पढ़ लूँ झूट क़ुरान
वेद धर्म छोड़ूँ नहीं कोसिस करो हजार
तिल-तिल काटो चाही गोदो अंग कटार

चंवर वंश के क्षत्रिय संत रविदास जी के बंदी बनाने का समाचार मिलने पर दिल्ली पर चढ़ दौड़े और दिल्लीं की नाकाबंदी कर ली। विवश हो कर सुल्तान सिकंदर लोदी को संत रविदास जी को छोड़ना पड़ा । इस झपट का ज़िक्र इतिहास की पुस्तकों में नहीं है मगर संत रविदास जी के ग्रन्थ रविदास रामायण की यह पंक्तियाँ सत्य उद्घाटित करती हैं

बादशाह ने वचन उचारा । मत प्यादरा इसलाम हमारा ।।
खंडन करै उसे रविदासा । उसे करौ प्राण कौ नाशा ।।
जब तक राम नाम रट लावे । दाना पानी यह नहीं पावे ।।
जब इसलाम धर्म स्वीरकारे । मुख से कलमा आप उचारै ।।
पढे नमाज जभी चितलाई । दाना पानी तब यह पाई ।।

जैसे उस काल में इस्लामिक शासक हिंदुओं को मुसलमान बनाने के लिए हर संभव प्रयास करते रहते थे वैसे ही आज भी कर रहे हैं। उस काल में दलितों के प्रेरणास्रोत्र संत रविदास सरीखे महान चिंतक थे। जिन्हें अपने प्रान न्योछावर करना स्वीकार था मगर वेदों को त्याग कर क़ुरान पढ़ना स्वीकार नहीं था।
मगर इसे ठीक विपरीत आज के दलित राजनेता अपने तुच्छ लाभ के लिए अपने पूर्वजों की संस्कृति और तपस्या की अनदेखी कर रहे हैं।

दलित समाज के कुछ राजनेता जिनका काम ही समाज के छोटे-छोटे खंड बाँट कर अपनी दुकान चलाना है अपने हित के लिए हिन्दू समाज के टुकड़े-टुकड़े करने का प्रयास कर रहे हैं।

आईये डॉ अम्बेडकर की सुने जिन्होंने अनेक प्रलोभन के बाद भी इस्लाम और ईसाइयत को स्वीकार करना स्वीकार नहीं किया।

(हर हिन्दू राष्ट्रवादी इस लेख को शेयर अवश्य करे जिससे हिन्दू समाज को तोड़ने वालों का षड़यंत्र विफल हो जाये)

डॉ विवेक आर्य

Wednesday, 17 May 2017

और वह पीड़ा लक्ष्य में बदल गयी!

कभी-कभी कुछ घटना हमें तोड़ देती है तो कुछ घटना हमें जोड़ देती है लेकिन कभी कुछ घटना जीवन में ऐसी भी होती है तो हमें कुछ करने को प्रेरित करती है. यह घटना ज्यादा पुरानी नहीं है लगभग एक वर्ष होने को है. उस दिन आर्य समाज के कार्यों को गति देने के उद्देश्य से हम मध्यप्रदेश के बमानियाँ में थे जिसे आदिवासी इलाका भी कहा जाता है. मेरे साथ प्रेमकुमार अरोड़ा, जोगिन्द्र खट्टर समेत दो व्यक्ति और थे. हमारी गाड़ी बमानियाँ से थानल मार्ग पर दौड़ रही थी. सुबह 9 बजे के बाद से ही गर्म हवा ने तपिश बढ़ा दी थी. आसमान से तीखी धूप मानो आग के गोले बरसा रही हो. जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया तापमान में भी बढ़ोत्तरी होती गई. दोपहर से पहले ही सड़कों पर सन्नाटा छा गया था. सडक से दूर-दूर इक्का दुक्का झोपडी नुमा कच्चे मकान के अलावा हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था.

हमारी चर्चा राजनीति तो कभी समाज में गिरते नैतिक मूल्य पर चल रही थी, हालाँकि हमारा किसी राजनैतिक दल से कभी कोई ताल्लुक नहीं रहा, लेकिन हम लोकतंत्र में मिले अपने अधिकारों के दायरे में रहकर राजनीति पर भी चर्चा कर रहे थे. अचानक गाड़ी के हल्के ब्रेक लेने के कारण हमारी इस चर्चा पर भी ब्रेक लग गया, जब हमने देखा कि सड़क के किनारे 25 से 30 बच्चें उस जलते रेत में नंगे पांव चले आ रहे थे. एक दो ने तो प्लास्टिक की बोतल को चपटा कर पैरों के नीचे कपडे से बाँधा हुआ था ताकि पैर न जले. किसी की कमीज फटी थी तो किसी का पायजामा. शायद किसी स्कूल से आ रहे थे. एक झटके में हमारा आत्मविश्वास और  सरकार के बदलते भारत के गीत,  उस मासूम बचपन के नन्हें पैरों के नीचे दब कर रह गये, हम सब कुछ पल को मूक दर्षक हो गये थे.

प्रेम कुमार जी ने गाड़ी को रुकवाया हम सब गाड़ी से उतरकर उन बच्चों के पास पहुंचे, हमने बच्चों से पूछा इस जलती रेत में जूते-चप्पल क्यों नहीं पहने? उनमे से कुछ बच्चे तो घबरा से गये लेकिन एक दो सूखे कंठ से थूक गटकते हुए जवाब दिया कि हमारे पास नहीं है स्कूल से साल भर में एक जोड़ी चप्पल मिलती है जो इतनी सस्ती होती है कि ज्यादा दिन नहीं चल पाती इसके बाद हम फिर अपने इसी हाल में आ जाते है, हमने उनकी किताबे देखी तो कुछ के पास किताबे ही नहीं थी वो सिर्फ स्कूल के ब्लेकबोर्ड के भरोसे ही शिक्षा प्राप्त करने को मजबूर थे. मन में यह प्रश्न उमड़ने-घुमड़ने लगता है कि स्वतंत्र देश की लोकतांत्रिक यात्रा ने देश के इन बच्चों को क्या दिया है? जिस उम्र में उत्साहित बच्चें तितलियों और बादलों को पकड़ने के लिए दौड़ते है उस उम्र में यह बच्चें नारकीय रहन-सहन को आज भी मजबूर है. लेकिन इसके बाद भी उस मासूम बचपन के भीतर अपने देश और समाज के लिए कुछ करने जज्बा देखकर हमारा अन्तस् छलक आया.


वो बच्चे अपनी परेशानी या गरीबी को खुद को सहज रूप में अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे थे. लेकिन उनकी यह पहाड़ सी मुसीबत उनके हाल से साफ़ हो चुकी थी. हालाँकि बमानियाँ में आर्य समाज और महाशय धर्मपाल जी ने एक बड़ा स्कूल वहां के गरीब आदिवासी समुदाय को समर्पित किया है लेकिन इसके बावजूद भी यह सब देखकर मन में सवाल उभरा क्या सिर्फ यह काफी है? हम सब दिल्ली लौट चुके थे लेकिन मेरा मन अभी भी उन बच्चों की इस व्यथा के चारों और घूम रहा रहा था. बार-बार चेतना मनुष्य होने का बोद्ध करा रही थी, इसके कई दिन बाद यह पूरा प्रसंग महाशय धर्मपाल जी के सामने रखा. महाशय जी पूरा प्रकरण सुनने के बाद कहा इसमें दुखी होने के बजाय कुछ करके दिखाया जाये, इस पीड़ा को अब लक्ष्य बनाये तो बेहतर होगा, महाशय जी की इस प्रेरणा से हमारा विश्वास कुंदन की भांति दमक उठा, हम सब ने मिलकर आर्य समाज की पहल से सहयोग नामक एक योजना का गठन किया जिसमें यह तय किया गया कि हम सब मिलकर अपने मित्रो रिश्तेदारों व अन्य लोगों की मदद से उन बच्चों के चेहरों पर मुस्कान लाने की कोशिश करेंगे. लोगों से आग्रह करेंगे कि वो अपने व अपने बच्चों के दैनिक प्रयोग से बाहर हुए कपडे, बच्चों की पुरानी किताबें, पुराने खिलोने आदि जो भी सामान प्रयोग से बाहर हो चूका है उससे इन बच्चों की दैनिक जरूरते पूरी करने भागीदार जरुर बने.

सहयोग की इस सेवा भावना के कार्य में सिर्फ लोगों से कपडे व जरूरी सामान ही नहीं अपितु इस सहयोग की भी आशा करेंगे कि यदि मूलभूत सुविधाओं से जूझते बच्चें उन्हें मिले तो सहयोग को जरुर अवगत कराएँ. हालाँकि सारी दुनिया से गरीबी का मिटना तो एक सपने जैसे है लेकिन फिर भी एक इंसान मदद के लिए कहाँ जाएयही सोचकर सहयोग ने शिक्षा, और जरूरी सामान इन बच्चों तक पहुचाने का लक्ष्य बना लिया, सहयोग सिर्फ कपड़ों या सामान तक नहीं है बल्कि सहयोग इन बच्चों का भावनात्मक रूप से साथी बनेगा, समाज के लिए मन वचन से कार्य को प्राथमिकता देने का कार्य करेगा. मुझे आज लिखते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि सहयोग के इस कार्य में जिस तरह लोग अपने कपडे व अन्य सामान से सहयोग को उन बच्चों के लिए दे रहे है उससे सहयोग कई कदम आगे बढ़कर उस मासूम बचपन के नाजुक पैरो और नंगे बदन को सर्दी गर्मी से बचाने के लिए उनके हाथों में किताबें और मुस्कराहट देने के कार्य में पूर्ण निष्ठां के साथ आगे बढ़ रहा है.
विनय आर्य


इस्लामिक साम्राज्यवाद एवं उसका विस्तार : एक विश्लेषण

डॉ विवेक आर्य
रिपब्लिक टीवी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जब से ज़ाकिर नाइक मलेशिया गया है तब से वहां के मुसलमान गैर मुसलमानों की धार्मिक मान्यताओं का विरोध करने लगे हैं।  पहले सभी भाई चारे से रहते थे और आपस में उनके सम्बन्ध सौहार्द थे। मैं अर्नब गोस्वामी के इस वक्तव्य को सत्य तो मानता हूँ परन्तु अपूर्ण भी मानता हूँ। क्यूंकि ज़ाकिर नाइक तो इस्लामिक साम्राज्यवाद का केवल एक पात्र है। एशिया क्या पूरे विश्व में यह साम्राज्यवाद का विस्तार पूरे 1200 वर्षों से निरंतर चल रहा है। भारतीय महाद्वीप को ही लीजिये। हिन्दू बहुल भारत में कहने को मुसलमान अल्पसंख्यक है। मगर भारत के अतिरिक्त पाकिस्तान और बंगलादेश के मुसलमानों की आबादी को भी जोड़ लिया जाये तो हर दो हिन्दू के बदले एक मुसलमान का आंकड़ा बनता है।

इस्लामिक साम्राज्यवाद के विस्तार को समझने के लिए हमें कुछ तथ्यों को जानना आवश्यक है।
2005 में समाजशास्त्री डा. पीटर हैमंड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक हैस्लेवरी, टैररिज्म एंड इस्लाम-द हिस्टोरिकल रूट्स एंड कंटेम्पररी थ्रैट इसके साथ ही द हजके लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकल करआए हैं, वे न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।
उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बन कर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमरीका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, आस्ट्रेलिया में 1.5, कनाडा में 1.9, चीन में 1.8, इटली में 1.5 और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का प्रथम चरण कह सकते है।
जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुंच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलंबियों में अपना धर्मप्रचार शुरू कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन और थाईलैंड में जहां क्रमश: 2, 3.7, 2.7, 4 और 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का द्वितीय चरण कह सकते है

जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलंबियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिए वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर हलालका मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि हलालका मांस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यताएं प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्कीट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहां हलालका मांस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं।

इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहां से मजबूत होना शुरू हो जाता है, जिन देशों में ऐसा हो चुका है, वे फ्रांस, फिलीपींस, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाए। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का तृतीय चरण कह सकते है।
जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिए परेशानी पैदा करना शुरू कर देते हैं, शिकायतें करना शुरू कर देते हैं, उनकी आॢथक परिस्थितिका रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़-फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों डेनमार्क का कार्टून विवाद हो या फिर एम्सटर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवादको समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 प्रतिशत), इसराईल (16 प्रतिशत), केन्या (11 प्रतिशत), रूस (15 प्रतिशत) में हो चुका है। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का चतुर्थ चरण कह सकते है।
जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न सैनिक शाखाएंजेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरू हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 प्रतिशत) और भारत (मुसलमान 22 प्रतिशत) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुंच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याएं, आतंकवादी कार्रवाइयां आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 प्रतिशत), चाड (मुसलमान 54.2 प्रतिशत) और लेबनान (मुसलमान 59 प्रतिशत) में देखा गया है। शोधकत्र्ता और लेखक डा. पीटर हैमंड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का जातीय सफायाशुरू किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोडऩा, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 प्रतिशत), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 प्रतिशत) में देखा गया है। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का पांचवा चरण कह सकते है।
किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 प्रतिशत हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बंगलादेश (मुसलमान 83 प्रतिशत), मिस्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 प्रतिशत), ईरान (98 प्रतिशत), ईराक (97 प्रतिशत), जोर्डन (93 प्रतिशत), मोरक्को (98 प्रतिशत), पाकिस्तान (97 प्रतिशत), सीरिया (90 प्रतिशत) व संयुक्त अरब अमीरात (96 प्रतिशत) में देखा जा रहा है। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का छठा चरण कह सकते है।
यूरोप के अनेक देशों में प्रजनन दर संसार के सभी देशों में सबसे कम हैं। ऐसे में भारी संख्या में मुस्लिम शरणार्थी उन देशों के पर धर्म के आधार जनसंख्या के समीकरण को किस प्रकार से प्रभावित करेंगे इसका अनुमान लगाना सरल हैं। किसी भी मुस्लिम देश ने जिनकी सीमा तक सीरिया से लगती थी एक भी शरणार्थी को अपने यहाँ पर शरण क्यों नहीं दी? क्या इसे इस्लामिक साम्राज्यवाद का फैलाव करने की सोची समझी साजिश नहीं कहा जायेगा?
मलेशिया में गैर मुसलमानों का जो उत्पीड़न आरम्भ हुआ है।  वह इसी इस्लामिक साम्राज्यवाद के फैलाव का अगला चरण ही है। जो जो देश इस्लामिक साम्राजयवाद के आरम्भिक चरणों में है।  उन्हें यह सोचना होगा कि भविष्य को लेकर उनकी रणनीति क्या होगी।
इसलिए भारत में इस्लामिक साम्राज्यवाद के विस्तार को अगर रोकना है तो हमारे देश के राजनेता सेक्युलरवाद और अल्पसंख्यकवाद की जहरीली सोच से  ऊपर उठकर सोचना होगा। यह तभी संभव है जब हमारे देश के के हिन्दू जात-पात, बाहुबल, दबंगई आदि से ऊपर उठकर वोट देना आरम्भ करेंगे।
अंत में समझदार को ईशारा ही बहुत होता है।


क्या यूरोप अंत के निकट है ?

संस्कृति और सभ्यता के चिन्तक, विचारक कहते है कि सभ्यतायें बचती नहीं हमेशा बचाई जाती है,  इनका रखरखाव बच्चे के लालन पालन की तरह होता है जो इनसे मुंह मोड़ता उसे इसके दुखद परिणाम भुगतने पड़ते है. ऐसा नहीं कि यह सिर्फ अनुमान है वरन इसके उदहारण भी हमारे समक्ष प्रस्तुत है. रोमन साम्राज्य हो, या मिस्र की सभ्यता या फिर भारतीय उप-महाद्वीप में सिंधु घाटी की सभ्यता. ये इंसान की तरक्क़ी की बड़ी मिसालें थीं. मगर इन सबका पतन हो गया. महान मुगल साम्राज्य जो कभी मध्य एशिया से लेकर दक्षिण भारत तक पर राज करता था वो ख़त्म हो गया. वो ब्रिटिश साम्राज्य जहां कभी सूरज अस्त नहीं होता था, वो भी एक वक़्त ऐसा आया कि मिट गया. आज अमरीका की अगुवाई वाले पश्चिमी देश जिस तरह की चुनौतियां झेल रहे हैं, उस वजह से अब पश्चिमी सभ्यता के क़िले के ढहने की आशंका जताई जा रही है. यहाँ आकर सवाल उपजता है कि यूरोप की सभ्यता सिमट गयी तो किस सभ्यता का राज होगा? अमेरिकी विचारक मार्क स्टेयन ने इससे आगे बढ़कर भी कहा है पश्चिमी विश्व 21वीं शताब्दी तक बच नहीं पायेग और हमारे समय में यदि पूरा यूरोप नहीं तो यूरोप के कुछ देश अवश्य अदृश्य हो जायेंगे.


इस विषय में संक्षेप में चर्चा के साथ पहला तर्क यह दर्शाता है कि मुसलमानों की सक्रियता और यूरोप की निष्क्रियता के कारण यूरोप का इस्लामीकरण होगा और अपने धार्मिक स्तर के साथ वह इस्लाम में धर्मान्तरित हो जायेगा, उच्च और निम्न धार्मिकता, उच्च और निम्न जन्म दर तथा उच्च और निम्न सास्कृतिक आत्मविश्वास के कारण यह सम्भव होगा. कहने का अर्थ है कि आज यूरोप एक खुला द्वार है जिसमें मुसलमान टहल रहे हैं. आज यूरोप की सेक्यूलरिज्म के प्रति गहरी आसक्ति के कारण ही चर्च खाली रहते हैं और एक शोधकर्ता के अनुसार लन्दन में शुक्रवार को मस्जिदों में मुसलमानों की संख्या रविवार को चर्च में आने वालों से अधिक होती है.जबकि लन्दन में ईसाइयों की संख्या मुसलमानों से 7 गुना अधिक है.


हम यह चर्चा किसी को भय दिखाने या किसी की हिम्मत बढ़ाने के लिए नहीं कर रहे बल्कि समय के साथ सचेत करने के लिए कर रहे है कारण मध्य एशिया का हिंसक वर्तमान आज किसी से छिपा नहीं है. जो अब धीरे-धीरे यूरोप की तरफ बढ़ रही है. कोई भी सभ्यता चाहे कितनी ही महान क्यों ना रही हो, वो, वक़्त आया तो ख़ुद को तबाही से नहीं बचा पाई. आगे चलकर क्या होगा, ये पक्के तौर पर तो कहना मुमकिन नहीं. मगर ऐतिहासिक अनुभव से हम कुछ अंदाजे तो लगा सकते हैं. भविष्य के सुधार के लिए कई बार इतिहास की घटनाओं से भी सबक़ लिया जा सकता है. पश्चिमी देश, रोमन साम्राज्य से सबक़ ले सकते हैं. यदि आज पश्चिमी देश आर्थिक घमंड में जी रहे है तो उन्हें यह भी सोचना होगा कि संसाधनों पर बढ़ते बोझ के कारण कब तक इसे सम्हाल पाएंगे दूसरा क़ुदरती संसाधनों पर उस सभ्यता का दबाव और तीसरा सभ्यता को चलाने का बढ़ता आर्थिक बोझ और चौथा बढ़ता मुस्लिम शरणार्थी संकट कब तक सहन करेंगे?
यूरोप और इस्लामी दुनिया की समझ रखने वाले लेखक विचारक डेनियल पाइप्स इस पर अपनी राय बड़ी संजीदगी से रखते हुए कहते है कि मुसलमानों की उत्साही आस्था जिहादी सक्षमता और इस्लामी सर्वोच्चता की भावना से यूरोप की क्षरित ईसाइयत से अधिक भिन्न है. इसी अन्तर के चलते मुसलमान यूरोप को धर्मान्तरण और नियन्त्रण के परिपक्व महाद्वीप मानते हैं. डेनियल कुछेक मुस्लिम धर्म गुरुओं के अहंकारी सर्वोच्च भाव से युक्त दावों के उदाहरण सामने रखते है जैसे उमर बकरी मोहम्मद ने कहा मैं ब्रिटेन को एक इस्लामी राज्य के रूप में देखना चाहता हूँ. मैं इस्लामी ध्वज को 10 डाउनिंग स्ट्रीट में फहराते देखना चाहता हूँ. या फिर बेल्जियम मूल के एक इमाम की भविष्यवाणी जैसे ही हम इस देश पर नियन्त्रण स्थापित कर लेंगे जो हमारी आलोचना करते हैं हमसे क्षमा याचना करेंगे. उन्हें हमारी सेवा करनी होगी. तैयारी करो समय निकट है. डेनियल इससे भी आगे बढ़कर एक ऐसी स्थिति का चित्र भी खींचते हैं जहाँ अमेरिका की नौसेना के जहाज यूरोप से यूरोपियन मूल के लोगों के सुरक्षित निकास के लिये दूर-दूर तक तैनात होंगे.
यूरोप में तेजी से बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या के साथ इस महाद्वीप के साथ इनके लम्बे धार्मिक संबधों पर रौशनी डालते हुए डेनियल कहते है कि इस अवस्था में तीन रास्ते ही बचते हैं- सद्भावनापूर्वक आत्मसातीकरण, मुसलमानों को निकाला जाना या फिर यूरोप पर इनका नियन्त्रण हो जाना. इन परिस्थितियों के सर्वाधिक निकट स्थिति कौन सी है यह यूरोपवासियों को सोचना होगा.

प्रोफेसर थॉमस होमर-डिक्सन कहते हैं कि इस्लामिक शरणार्थी यूरोप के लिए चुनौती बड़ी है. क्योंकि ये मध्य-पूर्व और अफ्रीका के अस्थिर इलाकों के क़रीब है. यहां की उठा-पटक और आबादी की भगदड़ का सीधा असर पहले यूरोप पर पड़ेगा. हम आतंकी हमलों की शक्ल में ऐसा होता देख भी रहे हैं. अमरीका, बाक़ी दुनिया से समंदर की वजह से दूर है. इसलिए वहां इस उठा-पटक का असर देर से होगा.जब अलग-अलग धर्मों, समुदायों, जातियों और नस्लों के लोग एक देश में एक-दूसरे के आमने-सामने होंगे, तो झगड़े बढ़ेंगे. पश्चिमी देशों में शरणार्थियों की बाढ़ आने के बाद यही होता दिख रहा है. वहीं कुछ जानकारों का ये भी कहना है कि हो सकता है पश्चिमी सभ्यताएं ख़त्म ना हों लेकिन उनका रंग-रूप जरूर बदलेगा. लोकतंत्र, उदार समाज जैसे फलसफे मिट्टी में मिल जाएंगे. चीन जैसे अलोकतांत्रिक देश, इस मौक़े का फायदा उठाएंगे. ऐसा होना भी एक तरह से सभ्यता का पतन ही कहलाएगा. किसी भी सभ्यता की पहचान वहां के जीवन मूल्य और सिद्धांत होते हैं. अगर वही नहीं रहेंगे, तो सभ्यता को जिंदा कैसे कहा जा सकता है? यह आज यूरोपियन लोगों के लिए सबसे बड़ा सवाल है. राजीव चौधरी