Saturday 8 July 2017

हमारी महान राजनीतिक परंपरा की जातिवादी जड़ें

निसंदेह देश के सर्वोच्च पद के लिए रामनाथ कोविंद एक अच्छे, योग्य विनम्र और मृदुभाषी उम्मीदवार है कोई भी उनकी ईमानदारी और निष्ठां पर सवाल नहीं उठा सकता. वो किसी विवाद में नहीं फंसे, उनके राजनीतिक जीवन में कोई दाग नहीं लगा. लेकिन विवाद यह है कि क्या सत्तर बरस बिताकर सीखी लोकतंत्र ने बातमहामहिम में गुण मत ढूंढो, पूछो केवल जात?” राजनीति से लेकर आम जिंदगी तक में जातिवादी मानसिकता कितने गहरे पैठी है आप इससे अंदाजा लगा सकते है कि जैसे ही रामनाथ कोविंद का नाम राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के बतौर घोषित हुआ. सबसे पहले लोगों ने गूगल पर उनकी जाति सर्च की. ठीक उसी तरह जैसे ओलम्पिक पदक जीतने वाली भारत की तीन बेटियों की जाति लोगों ने गूगल पर खोजी थी.

शायद राजनीति के अखाड़ों से लेकर मीडिया हॉउस तक किसी ने यह जानने कि कोशिश की हो कि रामनाथ कोविंद कौन हैं. उन्होंने अपनी जिंदगी में किस बूते क्या-क्या हासिल किया. किन संघर्षों से गुजरकर उन्होंने कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ी. जानना चाहा तो बस इतना है कि वो किस जाति से आते हैं. ये कोई इत्तेफाक की बात नहीं है कि लोग सबसे ज्यादा उनकी जाति के बारे में जानना चाहते हैं. हमारी महान राजनीतिक परंपरा ने जातिवादी मानसिकता की जड़ें इतनी गहरे जमा दी हैं कि हम इसके आगे कुछ सोच ही नहीं पाते.

राष्ट्रपति का पद देश का सर्वोच पद होता है. इसके लिए रामनाथ कोविंद जैसे इन्सान का चुना जाना एक गौरव की बात है. पर दुखद बात यह है महामहिम राष्ट्रपति देश का प्रथम नागरिक होता है और प्रथम नागरिक ही अपनी योग्यता के बजाय अपनी जाति से जाना जाये तो हम किस मुहं से जातिवाद मुक्त भारत की बात कर सकते है. अपनी सिमित योग्यता के चलते में बता दूँ कि सविधान कहता है राष्ट्रपति चुनाव में राजनैतिक दलों की भूमिका का कोई उल्लेख नहीं है. देश का राष्ट्रपति बनने के लिए किसी जाति धर्म का भी कोई मानक स्थापित नहीं है. देश का कोई भी नागरिक जिसकी आयु 35 वर्ष से अधिक हो, लोकसभा का सदस्य बनने की योग्यता प्राप्त हो और केंद्र और राज्य की किसी स्थानीय प्राधिकरण में किसी लाभ के पद पर ना बैठा हो. वो ही देश का राष्ट्रपति बन सकता किन्तु यहाँ प्रथम नागरिक के चुनाव में ही सविंधान को एक किस्म से ठेंगा सा दिखाया जा रहा है.

अक्सर जब राष्ट्रपति चुनाव नजदीक आते है तो हमेशा सुनने को मिलता है कि राष्ट्रपति किस दल का होगा, उसकी जाति-धर्म क्षेत्र आदि पर सवाल खड़े होना शुरू हो जाते है. क्या देश का राष्ट्रपति किसी दल से जुडा होना जरूरी हो क्यों नहीं एक ऐसा मार्ग खोजा जाये कि देश का प्रथम नागरिक किसी दल जाति पंथ के बजाय इस देश की आत्मा से जुडा हो. दूसरा जो राजनीति पहले प्रतीकात्मक तरीके से जातीय बंधनों को तोड़ने की बातें करती है, वो उसी के सहारे जातिवादी पहचान पुख्ता करने की तमाम कोशिशें भी करती हैं. उसी का नतीजा है कि दलितों के उत्थान के नाम पर इसकी जातीय राजनीति सिर्फ एकाध चेहरों को आगे बढ़ाकर दलितों को भ्रमित करने की राजनीति करती है और इसमें सारी पार्टियां भागीदार है.
संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप कहते है कि जरूरी नहीं है कि राष्ट्रपति पद के लिए कोई राजनीतिक व्यक्ति ही चुना जाये बल्कि अच्छा तब हो जब देश के सर्वोच्च पद के लिए किसी राजनैतिक दल से जुडा व्यक्ति न हो जैसे पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम किसी राजनैतिक दल से कोई सम्बन्ध न होने के बावजूद भी देश में राष्ट्रपति के रूप में अपना कार्यकाल अच्छे से निर्वहन किया. इस कारण राष्ट्रपति और उपराष्ट्रप्ति इन दोनों पदों के लिए राजनीति से बाहर का व्यक्ति हो तो ज्यादा बेहतर रहे. इन सबके बीच असल सवाल प्रतिनिधित्व का है. मूल बात ये है कि अगर किसी जाति विशेष के हितों की बात की जाती है तो उन्हें किस स्तर और कितनी मात्रा में सत्ता की हिस्सेदारी मिलती है. जातीय गणित बिठाने की कोशिशों के बीच सरकार यह तक भूल जाती है कि देश के संवेधानिक पदों की गरिमा को बचाए रखने के लिए योग्यता का मानक शीर्ष पर रखना चाहिए न जातिगत गणित. जब राजनीति समानता, योग्यता के आधार चुनाव करेगी निसंदेह तभी सामाजिक समरसता से भरा समाज खड़ा होगा.

सवाल किसी के पक्ष या विरोध का नहीं है बल्कि सवाल उपजा है 70 वर्ष की राजनीति, देश की शिक्षा और सामाजिक सोच की संकुचित विचारधारा पर, सत्तारूढ़ दल ने जैसे ही रामनाथ कोविंद का नाम आगे किया तो विपक्ष ने भी मीरा कुमार का नाम आगे कर ये दिखाने का प्रयास किया हम भी दलितवादी है सत्तारूढ़ के दलित चेहरे के सामने हम अपना दलित चेहरा आगे लायेंगे. कुल मिलाकर सवाल यह उपजते है कि क्या देश के महामहिम के पद के लिए क्या जाति ही असल मसला है.? दलित जाति के हैं इसलिए राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं.? दलित जाति के हैं इसलिए विपक्ष का धडा विरोध तक नहीं कर पा रहा.? दलित जाति के हैं इसलिए उनके मुकाबले में विपक्ष भी दलित उम्मीदवार लेकर आया.? यदि ऐसा है तो क्या एक दलित को पद देने से देश के समस्त दलित समुदाय का भला होगा.? क्या कोई भी सरकार कुछ ऐसा नहीं कर सकती कि यह दलितवाद का शोर थामकर इसमें राजनैतिक रोटी ना सेककर इस समुदाय की शिक्षा, रोजगार, सामाजिक समानता पर जोर देकर इन्हें इस दलितवाद से मुक्ति दिला सके.? महाकवि दिनकर की कविता की एक पंक्ति है कि मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का धनुष छोड़कर और गोत्र क्या होता है रणधीरों का ? पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर, जाति-जाति का शोर मचाते केवल कायर, क्रूर!
राजीव चौधरी 


No comments:

Post a Comment