Monday, 23 April 2018

राजनितिक षड्यंत्र का शिकार भगवा रंग


कोशिश तो एक ऐसी अवधारणा बनाने की थी कि यदि कोई साधू या सन्यासी भगवा वस्त्रों में खड़ा दिखे तो अन्य लोग उसके हमलवार होने के संभावना व्यक्त करें और यह समझे कि पास में खड़ा यह आदमी कहीं अचानक उन पर हमला न कर बैठे। लेकिन हैदराबाद की एक निचली अदालत ने इन सब मनसूबों पर पानी फेरते हुए 11 साल पहले हुए मक्का मस्जिद धमाके के आरोपी स्वामी असीमानंद समेत सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया है। शुरुआत में इस धमाके को लेकर चरमपंथी संगठन हरकत उल जमात-ए-इस्लामी यानी हूजी पर शक की उंगलियां उठी थीं। लेकिन तीन सालों के बाद यानी 2010 में पुलिस ने ‘‘अभिनव भारत’’ नाम के संगठन से जुड़े स्वामी असीमानंद समेत लोकेश शर्मा, देवेंद्र गुप्ता और आर एस एस की साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को धमाके का अभियुक्त बनाया गया था।


बहरहाल, कोर्ट ने सबूतों के अभाव में इन सभी को बरी तो जरूर कर दिया है, लेकिन वो दाग बरी कब होंगे जो इन हमलों के बाद देश की आत्मा हिन्दू संस्कृति पर लगाये गये थे।  इन हमलों के 6 वर्ष बाद यानि साल 2013 देश की संसद का बजट सत्र शुरू होने से ठीक एक दिन पहले कांग्रेस पार्टी के अधिवेशन में देश के तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने आतंकवाद का रंग और धर्म तलाश करते हुए ‘‘भगवा आतंकवाद’’ जैसे शब्द को घड़ा था और इन हमलों को आधार बनाकर कुछ हिन्दू संगठनों का नाम लेते हुए उन्हें भगवा आतंकी तक कह डाला था।

गिरफ्तारी के बाद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के साथ अमानवीय व्यवहार किया गया उन्हें एक खंभे से बांधकर पीटा गया। उनके शिष्यों के हाथों उन्हें चमड़े के बेल्ट से पिटवाया गया। उनके भगवा वस्त्रों को उतारकर उन्हें जबरदस्ती दूसरे कपड़े पहनाए गए। अश्लील फिल्में दिखाने के साथ-साथ साध्वी के साथ अमानवीयता की वे सारी हदें तत्कालीन सरकार ने अपने राजनितिक फायदे के लांघी जिसे एक इन्सान होने के नाते कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता।

यदि एक पल को मान भी लिया जाये कि साध्वी दोषी थी तो क्या उनके साथ जांच के दौरान हुई इस निर्ममता की पार हुई हदों को भारतीय संविधान इज़ाजत देता है? यदि नहीं तो एक महिला और साध्वी के साथ यह पाप क्यों किया गया। इन सवालों के जवाब मन को द्रवित करते हैं। जबरन धर्म पर दाग लगाया, संस्कृति को तार-तार किया और भारतीय धराधाम पर अतीत में हुई वो सब बर्बरता और पाप जो मध्यकाल के मुगल शासकों ने यहाँ किये थे। साध्वी के साथ हुई घटना ने क्या पुनः उस दुःख को ताजा नहीं किया

क्या किसी एक झूठी घटना से प्रत्येक हिन्दू आतंकी हो जायेगा या भगवा रंग को आतंकी कह देने से वह भय का प्रतीक बन जायेगा? क्या इसे देखकर सहज ही महसूस नहीं हो जाता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की आड़ में सिर्फ बहुसंख्यक वर्ग की आत्मा को छला गया? ऐसा नहीं है कि यह सवाल सिर्फ हम कर रहे हैं बल्कि इन सवालों के जवाब तो खुद पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अपनी पुस्तक ‘‘कोअलिशन इयर्स’’ में मांगते दिखाई दिए। प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब में लिखा है- मैंने वर्ष 2004 में कांची पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती की दीपावली के दिन गिरफ्तारी पर सवाल उठाए थे। एक कैबिनेट बैठक के दौरान मैंने गिरफ्तारी के समय को लेकर काफी नाराजगी जताई थी। मैंने पूछा था कि क्या देश में धर्मनिरपेक्षता का पैमाना केवल हिन्दू संतों महात्माओं तक ही सीमित है? क्या किसी राज्य की पुलिस किसी मुस्लिम मौलवी को ईद के मौके पर गिरफ्तार करने का साहस दिखा सकती है

वे लिखते हैं कि हिन्दू बाहुल्य देश में, हिन्दू समाज के सबसे बड़े संत को, हिंदुओं के सबसे बड़े त्योहारों में से एक दीपावली के दिन गिरफ्तार करने की बात क्या 2004 से पहले सपने में भी सोची जा सकती थी? परन्तु, यह दुर्भाग्यपूर्ण दिन हिंदुस्तान को देखना पड़ा। 11 नवम्बर, 2004 को हत्या के आरोप में कांची पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती को आंध्रप्रदेश की पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। उस समय डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री और प्रणब मुखर्जी रक्षा मंत्री थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो कुछ नहीं बोले, परंतु प्रणब मुखर्जी ने इस प्रकरण में अपनी नाराजगी प्रकट की। ;जैसा कि उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा हैद्ध परन्तु कांग्रेस सरकार पर उनकी नाराजगी का कोई असर नहीं हुआ। उनके इस प्रश्न का उत्तर भी किसी ने नहीं दिया कि क्या ईद के दिन इसी प्रकार किसी मौलवी को गिरफ्तार करने का साहस दिखाया जा सकता है? कांग्रेस ने इस गिरफ्तारी पर तमिलनाडु सरकार से कोई सवाल नहीं पूछा और न ही किसी प्रकार का विरोध ही किया। उस समय आम समाज ने यह मान लिया था कि हिन्दू धर्मगुरु की गिरफ्तारी के मामले में जयललिता की सरकार को केंद्र की संप्रग सरकार का मौन समर्थन प्राप्त है। परन्तु, हिंदू प्रतिष्ठान को बदनाम करने का यह षड्यंत्र असफल साबित हुआ न्यायालय ने शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती एवं अन्य पर लगे सभी आरोप खारिज कर दिए। उस तरह आज असीमानन्द और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर पर लगे आरोप खारिज हुए हैं।

भगवा रंग एक बार फिर बेदाग दिखाई दिया क्योंकि अध्यात्म, त्याग तपस्या बलिदान वीरता, का ‘‘रंग भगवा’’ हमारे मूल चेतन आत्म रंग और ऋषियों-मुनियों की थाती रहा है। आध्यात्म परहित बलिदान परंपरा, भगवा रंग से अभिव्यक्त हुआ। वीर सिक्खों के पताके हो या भारतीय धर्म ध्वज पताका इस रंग को हमेशा से भारतीय जन समुदाय आत्मसात करता आया है। किन्तु पिछले कुछ सालों में भगवा आतंक, हिन्दू आतंक जैसे कुछ शब्दों की माला गूथकर देश के राजनेताओं ने अरबो वर्ष पुरानी संस्कृति और एक अरब हिन्दुओं के गले में लटका दी लेकिन अब असीमानंद की रिहाई के बाद एक बार फिर राजनीतिक दलों को विचार करना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वह जिस प्रकार का व्यवहार बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं, धर्म और संस्कृति के साथ कर रहे हैं क्या वह धर्म और देशहित में है?
-राजीव चौधरी


कठुआ रेप काण्ड : सच और झूठ के बीच झूलता देश


पिछले दिनों की दो घटनाएँ देश और दुनिया में प्रमुख चर्चा का विषय बनी। एक घटना में कठुआ में दुष्कर्म  की शिकार बच्ची थी तो दूसरी घटना उन्नाव में एक विधायक द्वारा नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म का मामला। आखिर दोनों घटनाएँ इतनी चर्चा का विषय क्यों बनी? कहीं ऐसा तो नहीं उन्नाव की घटना राजनीति से जुड़ी थी और कठुआ में हुए दुष्कर्म को धार्मिक रंग दिया गया? क्योंकि कठुआ कांड और उन्नाव जैसे न जाने कितने ही शर्मनाक मामले आए दिन भारत में होते हैं। लेकिन नेता और मीडिया संज्ञान तब लेते हैं, जब उसमें कुछ वोट या एजेंडा या फिर हाई प्रोफाइल हो। इस कांड में भी उसकी दिलचस्पी इसी कारण जागी। एक घटना में आरोपी हिन्दू थे, बच्ची मुस्लिम और मंदिर से जुड़ा मामला था. दूसरी में वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक. इसके बाद बड़ी न्यूज बनी, लाइव शो हुए, ऐसा नहीं था कि बीच में कोई और रेप की खबर नहीं आई! कभी बिहार के सासाराम से, कभी आसाम, कभी गुजरात से लेकिन किसी की दिलचस्पी नहीं थी। दोनों ही घटनाओं में पहली बार आरोपी नार्को टेस्ट और सीबीआई जाँच की मांग लगातार कर रहे है


फिलहाल कठुआ में हुए दुष्कर्म के मामले की सुनवाई जम्मू-कश्मीर के बाहर चंडीगढ़ में कराने और वकीलों को सुरक्षा देने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी कर दिया है। आरोपी पक्ष द्वारा इस मामले की सीबीआई जांच की मांग लगातार हो रही है। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन के साथ मामले की सुनवाई 90 दिन में खत्म करने की मांग की है। पर सवाल यह है कि पुलिस द्वारा चार्जशीट दायर करने के बाद अदालत में ट्रायल शुरू हो गया है, तो फिर इस मामले की सीबीआई जांच कैसे हो सकती है?

लोगों द्वारा सख्त कानून बनाने की मांग हो रही है। दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष अनशन पर है उनकी मांग की है आरोपी को 6 माह के अन्दर फांसी होनी चाहिए।

परन्तु कानून क्या करेगा जब पूरी कानूनी प्रक्रिया ही संदेह के दायरे में आ रही है। कुछ लोगों में गुस्सा है तो कुछ के पास सवाल भी कि एक कमरे के मंदिर में लगातार 7 दिनों तक एक बच्ची के साथ सामूहिक रेप हो सकता है? वे भी उस जगह जहाँ आस-पास के तीन गाँवां के लोग नित्य पूजा-अर्चना को आते हो। 17 जनवरी को उस मासूम बच्ची की लाश बरामद होती है। घटना के शुरू में यानि 18 जनवरी को बकरवाल समुदाय के स्थानीय नेता वकार भट्टी की अगुवाई में सभी धर्म पन्थों के लोग न्याय मांगते नजर आते है। इसके बाद भी कुछ समाचार पत्र पोस्टमार्टम की रिपोर्ट को लेकर इस बात का भी दावा कर रहे हैं कि रिपोर्ट में दुष्कर्म हुआ ही नहीं। कुछ भी हो अब नए सवालों के बीच पुराने जवाब उलझते जा रहे हैं। 

मीडिया के अनुसार घटना के तीन महीने बाद हुर्रियत नेता तालिब हुसैन, जेएनयू की पूर्व उपाध्यक्ष शेहला रशीद समेत पूरी वामपंथ की सेना उग्र होती है रातों-रात बच्ची के नाम पर ऑनलाइन लाखों रुपये का चंदा जमा किया जाता है और अचानक लोगों में आक्रोश पैदा होकर रेप और दुष्कर्म जैसे घिनौने अपराधों के प्रति देश की सामूहिक चेतना जागती है। पीड़ित बच्ची की वकील दीपिका राजावत दिल्ली के जन्तर-मंतर पर खड़ी होकर ये कहती है कि मुझे आज हिन्दू होने पर शर्म महसूस हो रही है। अर्थात पूरा मामला धर्म से जोड़ा जा रहा है ये नहीं पता दोषी धर्म है या अपराधी।

हाँ यदि बात धर्म की ही हो रही है तो मुझे याद है बुलंदशहर में 35 वर्षीय हिन्दू महिला व उसकी नाबालिग बेटी के साथ हुए रेप के मुख्य आरोपी सलीम बावरिया, जुबैर और साजिद के नाम सामने आये थे। मुझे याद है इससे पहले मुंबई में एक हिन्दू महिला पत्रकार के साथ कासिम बंगाली, सलीम अंसारी, चांद शेख, सिराज रहमान ने बारी- लगातार बारी से महिला से रेप किया था। हाल ही बिहार के सासाराम में मेराज आलम ने एक नाबालिग हिन्दू बच्ची को अपनी हवस का शिकार बनाया। मुझे 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली के बसंत विहार में हुआ वह भयावह मंजर भी याद है जिसमें निर्भया के साथ जिस शख्स ने सबसे ज्यादा बर्बरता की थी. शायद उसके मजहब से भी सभी परिचित होंगे बल्कि उसे उसके मजहब के हिसाब से बाहर आने पर पुरुस्कृत करने वाले नेता भी याद होंगे। 

लेकिन मुझे याद नहीं हैं इससे पहले किसी रेप और हत्या के केस में समूचा धर्म, पंथ या समुदाय इस तरह निशाने पर लिए गये हो? शायद ही इससे पहले किसी अभिनेता या अभिनेत्री को हिन्दुस्तानी होने पर शर्म महसूस हुई हो। 2012 याद ही होगा सबको उस वक्त भी जनता सड़कों पर आई थी। विरोध और प्रदर्शन भी हुए थे बिना किसी नेता या राजनितिक दल के, बिना किसी के कहे। हर एक संवेदनशील शख्स इस करतूत के विरोध में खड़ा मिला था। वो प्रतिरोध की आवाज थी। लेकिन इस बार सड़कों पर आई जनता का मकसद अलग है। यहां अपराधी की सजा के बजाय मकसद है धर्म और धार्मिक स्थान को बदनाम किया जाये।

सवाल इस या उस दुष्कर्म का नहीं है। सवाल इस या उस धर्म-मजहब का भी नहीं है। सवाल इस या उस समुदाय से जुड़े लोगों भी का नहीं, सवाल है हिंसा और इस तरह के घिनौने दुष्कर्म का है। दुर्भाग्य से यह सब तेजी से बढ़ रहे हैं। आज लोगों को जागरूकता की जगह सस्पेंस चाहिए और मीडिया को नई खबर। यह सब अचानक नहीं है इसके बीच मीडिया और राजनीति की सनसनी दोनों एक हो गए हैं। पीड़ित लड़की के परिजनों को न्याय मिलना चाहिए बल्कि  ऐसे गुनाहों की सजा जल्द से जल्द मिलना सुनिश्चित होनी चाहिए। ऐसे सभी अपराध एक सभ्य समाज के माथे पर बदनुमा दाग है इनकी जितनी निंदा की जाए कम है पर सजा किसी निर्दोष को नहीं होनी चाहिए।
राजीव चौधरी

आर्यों! वैदिक धर्म का पालन करो


जिस समय महर्षि दयानन्द सरस्वती संसार में आए थे उस समय संसार की भारी दुर्दशा थी। नर-नारी धर्म-कर्म, वेद पठन-पाठन, संध्या-हवन, पुण्य-दान, जप-तप भूल चुके थे। यज्ञों में नर बलि, पशु बलि, पक्षी बलि दी जाती थी। स्त्रियों और शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था। बाल विवाह, अनमेल विवाह होते थे और कहीं सदाचार, ब्रह्मचर्य की शिक्षा नहीं दी जाती थी। उस समय लाखों बाल विधवाएं रोती थीं जिनमें से हजारों विधर्मी, ईसाई, मुसलमानों के घरों को बसा रही थीं। अर्थात् सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ था।

नर-नारी कर्म प्रधानता का वैदिक सिद्धांत त्याग कर जन्म-जाति को बढ़ावा दे रहे थे। वेदों के स्थान पर पुराणों की कथा होती थी। सेवा करने वाले गरीब कमजोर व्यक्तियों को नीच समझकर ठुकराया जाता था। इसी का परिणाम था रोजाना राम, कृष्ण के वंशज हजारों की संख्या में ईसाई, मुसलमान बन रहे थे। उस समय विदेश यात्रा करना महापाप समझा जाता था। विधर्मी लोग हमें असभ्य-जंगली, महामूर्ख बताते थे। ईसाई पादरी वेदों को गडरियों के गीत बताते थे। भारतीयों में पाखण्डी लोगों ने यह धारणा बिठा दी थी कि वेदों को शंखासुर नाम का राक्षस पाताल लेकर चला गया है। अर्थात् वेद इस संसार में नहीं हैं।

उस समय धर्म की हालत आटे के दीपक की तरह थी जिसे घर के अन्दर रख दें तो चूहे खा जाए और यदि बाहर रख दें तो कौए लेकर उड़ जाएं। उस समय भंगी-चमार के छूने पर, तेली के आगे आ जाने पर धर्म नष्ट होना माना जाता था। भारत के राजा लोग अज्ञानता वश आपस में लड़ते रहते थे। विदेशी अंग्रेज शासक हमारी इस फूट का भरपूर लाभ उठा रहे थे। उस समय वैदिक सभ्यता, संस्कृति, गौ-ब्राह्मणों का कोई रक्षक नहीं था अपितु सभी भक्षक बने हुए थे। ऐसे भयानक समय में महर्षि देव दयानन्द का इस देव भूमिमें प्रादुर्भाव हुआ था। स्वामी जी ने संसार के भले के लिए अपने भरे पूरे परिवार को छोड़ा और जीवन के सभी सुखों को त्याग कर मानवता की सेवा करने का बीड़ा उठाया। महर्षि दयानन्द ने स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास की दीक्षा ली और योग सीखा। मथुरा में वेदों के प्रकाण्ड पंडित स्वामी विरजानन्द सरस्ती के पास जाकर उनकी सेवा की और वैदिक ज्ञान प्राप्त किया। शिक्षा पूर्ण होने पर दक्षिणा के रूप में गुरुदेव को संसार में वेद ज्ञान का प्रचार करने का वचन दिया, जिसे जीवन भर निभाया।

स्वामी जी ने भारत में घूम-घूमकर वेद प्रचार किया और नर-नारियों को कर्म प्रधानता का महत्त्व समझाया। उन्होंने ईश्वर को निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, अजन्मा, अनादि, अजर, अमर, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता बताया। मूर्ति पूजा को अज्ञानता का मूल बताकर मूर्ति पूजा से होने वाली हानियों का बोध कराया। उन्होंने नारी जाति और गऊ माता को पूज्य बताया तथा स्त्रियों व शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार दिलाया। स्वामी जी ने सबसे पहले स्वराज्य का मंत्र भारतवासियों को दिया और विदेशी राज्य महादुखदायी बताया। उन्होंने भारत के सभी राजाओं को मिलकर चलने और अपना एक नेता बनाने के लिए प्रेरित किया। सन् 1857 ई. का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम महर्षि दयानन्द महाराज के प्रयासों का ही सुफल था। स्वामी जी ने राव युधिष्ठिर से मिलकर सर्व प्रथम रेवाड़ी ;हरियाणाद्ध में गौशाला की स्थापना कराई। स्वामी जी यह अच्छी तरह जानते थे कि गौ जैसा उपकारी पशु संसार में कोई नहीं है इसलिए उन्होंने गोकरुणानिधि शास्त्र की रचना करके गौ सेवा को परमधर्म बताया।

स्वामी जी ने भारत के सभी मतों को मानने वाले विद्वानों को समझाया कि अगर तुम संसार का भला चाहते हो तो एक ईश्वर, एक धर्म, एक ग्रंथ, एक अभिवादन मानकर वेद ज्ञान का प्रचार करो। बड़े दुःख के साथ लिखना पड़ता है। उन स्वार्थी, दम्भी लोगों ने स्वामी जी की सलाह नहीं मानी। स्वार्थी पाखण्डी लोगों ने उन पर गोबर फेंका, पत्थर बरसाए और उन्हें सत्रह बार विष पान कराया। किन्तु वे अपने धर्म पथ से विचलित नहीं हुए। अगर स्वामी दयानन्द जी इस धरती पर नहीं आते तो आज कोई भी वेद शास्त्रों की चर्चा करने वाला, राम, कृष्ण आदि महापुरुषों और ऋषियों मुनियों का नाम लेने वाला दुनिया में नजर नहीं आता। वास्तव में उन जैसा त्यागी-तपस्वी, वीर, साहसी, ईश्वर विश्वासी, वेदों का विद्वान् महाभारत काल के बाद कोई दूसरा व्यक्ति इस संसार में नहीं हुआ। वे वस्तुतः सच्चे युगनायक संन्यासी थे। उनका ऋण हम कभी नहीं चुका सकते। 

आर्यों! बड़े खेद के साथ लिखना पड़ रहा है कि महर्षि दयानन्द जी ने हमारे भले के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया था। किन्तु हम उनकी शिक्षाओं पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रहे हैं। महर्षि ने प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन पंच यज्ञ करने की शिक्षा दी थी। किन्तु हम पंच यज्ञों का करना-कराना भूल चुके हैं। अब तो यह स्थिति आ गई है कि आर्य समाज के भवनों में संन्यासी, विद्वानों, उपदेशकों को भी नहीं ठहरने दिया जाता। शहरों में आर्य समाज के भवनों में बरात घर बना दिए गए हैं और बनाए जा रहे हैं। बारात घरों में आए दिन बारातियों द्वारा हुड़दंग मचाने एवं शराबबाजी करने की खबरें समाचार पत्रों में छपती रहती हैं। महर्षि दयानन्द ने कर्णवास के राजा राव कर्मसिंह को रासलीला के नाम पर महापुरुषों का स्वांग भरने पर फटकार लगाई थी किन्तु आज आर्य समाज के उत्सवों में बाल-बालिकाओं को महापुरुषों के स्वांग भरने की खुली छूट दी जाने लगी है जो शर्म की बात है। स्वामी जी ने सह शिक्षा को घातक बताया था किन्तु अब आर्य समाज के विद्यालयों में सहशिक्षा दी जाती है। आर्य समाजों के पदाधिकारी कई स्थानों पर शराबी, मांसाहारी, बेईमान व्यक्ति बने हुए हैं जिन्हें वैदिक सिद्दांत का कोई ज्ञान नहीं है। आर्य समाजों और सभाओं में पदों और सम्पत्तियों के ऊपर मुकदमेंबाजी हो रही है जिससे आर्य समाज की प्रतिष्ठा मिट रही है। यह हमारे लिए शर्म की बात है। 

इस समय संसार में हजारों व्यक्ति वेद के विरु( मत-मतांतर चलाकर, ईश्वर की पूजा छुड़वाकर गुरुडम एवं पाखण्ड फैला रहे हैं। जिनमें से सैकड़ों पाखण्डी जेलों में बन्द हैं। इस समय चरित्रहीनता, भ्रष्टाचार बढ़ रहे हैं। जिससे सारा संसार दुखी है। अगर महर्षि दयानन्द को यह ज्ञात होता कि हम इतने स्वार्थी प्रमादी लोभी बन जायेंगे तो वे कदापि विषपान नहीं करते। पं. लेखराम ने कहा था-लेखनी का कार्य और शास्त्रार्थ बंद नहीं होने चाहिएं। स्वामी श्रद्धानन्द ने कहा था शुद्धि का कार्य कभी भी बंद नहीं होना चाहिए। आप ठण्डे दिल से विचार करें कि क्या हम उनकी बात मान रहे हैं? जो अपने आगे किसी को भी कुछ नहीं समझते। याद रखो यह धन यहीं पड़ा रह जाएगा। इस संसार में जो व्यक्ति निःस्वार्थ भावना से परोपकार एवं संसार की भलाई के काम करते हैं यह संसार उन्हीं की महिमा के गीत गाता है। अगर आप भी महान् बनना चाहते हैं और महर्षि दयानन्द महाराज के सच्चे शिष्य बनने का दम भरते हैं तो वेद प्रचार के लिए अच्छी तरह कमर कसकर कर्म क्षेत्र में कूद पड़ो।
अन्त में :-
‘‘आर्य कुमारो! अब तो जागो, आगे कदम बढ़ाओ तुम।
कहने का अब समय नहीं है, करके काम दिखाओ तुम।।
देश, धर्म के काम जो आए, उसे जवानी कहते हैं।
सारा जग खुश होकर गाए, उसे कहानी कहते हैं।।
जगत् गुरु ऋषि दयानन्द के, सपनों को साकार करो।
करो परस्पर प्रेम सज्जनों, वेदों का प्रचार करो।।
स्वामी श्रद्धानन्द बनो तुम, जग में नाम कमाओ तुम।।
लेखराम, गुरुदत्त बनो तुम, वैदिक नाद बजाओ तुम।
अगर नहीं जागोगे मित्रो, भारी दुःख उठाओगे।
हंसी उड़ाएगी फिर दुनियां, अज्ञानी कहलाओगे।।’’
-पं. नन्दलाल निर्भय, सिद्धांताचार्य