Wednesday, 11 January 2017

ईसाई धर्मान्तरण का एक कुत्सित तरीका- प्रार्थना से चंगाई

डॉ विवेक आर्य
विश्व इतिहास इस बात का प्रबल प्रमाण हैं की हिन्दू समाज सदा से शांतिप्रिय समाज रहा हैं। एक ओर मुस्लिम समाज ने पहले तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुस्लमान बनाने की कोशिश करी थी, अब सूफियो की कब्रों पर हिन्दूओं के सर झुकवाकर, लव जिहाद या ज्यादा बच्चे बनाकर भारत की सम्पन्नता और अखंडता को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं  दूसरी ओर ईसाई समाज हिन्दुओ को ईसा मसीह की भेड़ बनाने के लिए रुपये, नौकरी, शिक्षा अथवा प्रार्थना से चंगाई के पाखंड का तरीका अपना रहे हैं।

आज के समाचार पत्र में छपी खबर की चर्च द्वारा दिवंगत पोप जॉन पॉल द्वितीय को संत घोषित किया गया है ने सेमेटिक मतों की धर्मांतरण की उसी कुटिल मानसिकता की ओर हमारा ध्यान दिलाया है। पहले तो हम यह जाने की यह संत बनाने की प्रक्रिया क्या है?
सबसे पहले ईसाई समाज अपने किसी व्यक्ति को संत घोषित करके उसमे चमत्कार की शक्ति होने का दावा करते है। विदेशो में ईसाई चर्च बंद होकर बिकने लगे हैं और भोगवाद की लहर में ईसाई मत मृतप्राय हो गया है। इसलिए अपनी संख्या और प्रभाव को बनाये रखने के लिए एशिया में वो भी विशेष रूप से भारत के हिन्दुओं से ईसाई धर्म की रक्षा का एक सुनहरा सपना वेटिकन के संचालकों द्वारा देखा गया है।  इसी श्रृंखला में सोची समझी रणनीति के अंतर्गत पहले भारत से दो हस्तियों को नन से संत का दर्जा दिया गया था  ।पहले मदर टेरेसा और बाद में सिस्टर अलफोंसो को संत बनाया गया था और अब जॉन पॉल को घोषित किया गया है।
यह संत बनाने की प्रक्रिय अत्यंत सुनियोजीत होती है। पहले किसी गरीब व्यक्ति का चयन किया जाता है। जिसके पास इलाज करवाने के लिए पैसे नहीं होते, जो बेसहारा होता है, फिर यह प्रचलित कर दिया जाता है कि बिना किसी ईलाज के केवल मात्र प्रार्थना से उसकी बीमारी ठीक हो गई और यह कृपा एक संत के चमत्कार से हुई। गरीब और बीमारी से पीड़ित जनता को यह सन्देश दिया जाता है कि सभी को ईसा मसीह को धन्यवाद देना चाहिए और ईसाइयत को स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि पगान पूजा अर्थात हिन्दुओं के देवता जैसे श्रीराम और श्रीकृष्ण में चंगाई अर्थात बीमारी को ठीक करने की शक्ति नहीं हैं। अन्यथा उनको मानने वाले कभी के ठीक हो गए होते।
 
अब जरा ईसाई समाज के दावों को परिक्षा की कसौटी पर भी परख लेते है।
मदर टेरेसा जिन्हें दया की मूर्ति, कोलकाता के सभी गरीबो को भोजन देने वाली, अनाथ एवं बेसहारा बच्चो को आश्रय देने वाली, जिसने अपने जन्म देश को छोड़ कर भारत के गटरों से अतिनिर्धनों को सहारा दिया, जो की नोबेल शांति पुरस्कार की विजेता थी, एक नन से संत बना दी गयी की उनकी वास्तविकता से कम ही लोग परिचित है। जब मोरारजी देसाई की सरकार में धर्मांतरण के विरुद्ध बिल पेश हुआ, तो इन्ही मदर टेरेसा ने प्रधान मंत्री को पत्र लिख कर कहाँ था की ईसाई समाज सभी समाज सेवा की गतिविधिया जैसे की शिक्षा, रोजगार, अनाथालय आदि को बंद कर देगा। अगर उन्हें अपने ईसाई मत का प्रचार करने से रोका जायेगा। तब प्रधान मंत्री देसाई ने कहाँ था इसका अर्थ क्या यह समझा जाये की ईसाईयों द्वारा की जा रही समाज सेवा एक दिखावा मात्र हैं और उनका असली प्रयोजन तो ईसाई धर्मान्तरण है।
यही मदर टेरेसा दिल्ली में दलित ईसाईयों के लिए आरक्षण की हिमायत करने के लिए धरने पर बैठी थी। महाराष्ट्र में 1947 में एक चर्च के बंद होने पर उसकी संपत्ति को आर्यसमाज ने खरीद लिया। कुछ दशकों के पश्चात ईसाईयों ने उस संपत्ति को दोबारा से आर्यसमाज से ख़रीदने का दबाव बनाया। आर्यसमाज के अधिकारियों द्वारा मना करने पर मदर टेरेसा द्वारा आर्यसमाज को देख लेने की धमकी दी गई थी।

प्रार्थना से चंगाई में विश्वास रखने वाली मदर टेरेसा खुद विदेश जाकर तीन बार आँखों एवं दिल की शल्य चिकित्सा करवा चुकी थी। यह जानने की सभी को उत्सुकता होगी की हिन्दुओं को प्रार्थना से चंगाई का सन्देश देने वाली मदर टेरेसा को क्या उनको प्रभु ईसा मसीह अथवा अन्य ईसाई संतो की प्रार्थना द्वारा चंगा होने का विश्वास नहीं था जो वे शल्य चिकित्सा करवाने विदेश जाती थी?
अब सिस्टर अलफोंसो का उदहारण लेते हैं। वह केरल की रहने वाली थी। अपनी करीब तीन दशकों के जीवन में वे करीब २० वर्ष तक अनेक रोगों से स्वयं ग्रस्त रही थी। केरल एवं दक्षिण भारत में निर्धन हिन्दुओं को ईसाई बनाने की प्रक्रिया को गति देने के लिए संभवत उन्हें भी संत का दर्जा दे दिया गया और यह प्रचारित कर दिया गया की उनकी प्रार्थना से भी चंगाई हो जाती हैं।
अभी हाल ही में सुर्ख़ियों में आये दिवंगत पोप जॉन पॉल स्वयं पार्किन्सन रोग से पीड़ित थे और चलने फिरने से भी असमर्थ थे। यहाँ तक की उन्होंने अपना पद अपनी बीमारी के चलते छोड़ा था।

पोप जॉन पॉल को संत घोषित करने के पीछे कोस्टा रिका की एक महिला का उदहारण दिया जा रहा हैं जिसके मस्तिष्क की व्याधि का ईलाज करने से चिकित्सकों ने मना कर दिया था। उस महिला द्वारा यह दावा किया गया हैं की उसकी बीमारी पोप जॉन पॉल द्वितीय की प्रार्थना करने से ठीक हो गई है। पोप जॉन पॉल चंगाई करने की शक्ति से संपन्न है एवं इस करिश्मे अर्थात चमत्कार को करने के कारण उन्हें संत का दर्ज दिया जाये।
इस लेख का मुख्य उद्देश्य आपस में वैमनस्य फैलाना नहीं हैं अपितु पाखंड खंडन हैं। ईसाई समाज से जब यह पूछा जाता है कि आप यह बताये की जो व्यक्ति अपनी खुद की बीमारी को ठीक नहीं कर सकता, जो व्यक्ति बीमारी से लाचार होकर अपना पद त्याग देता हैं उस व्यक्ति में चमत्कार की शक्ति होना पाखंड और ढोंग के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अपने आपको चंगा करने से उन्हें कौन रोक रहा था?
यह तो वही बात हो गई की खुद निसंतान मर गए औरो को औलाद बक्शते हैं। ईसाई समाज को जो अपने आपको पढ़ा लिखा समाज समझता है। इस प्रकार के पाखंड में विश्वास रखता है यह बड़ी विडम्बना है। मदर टेरेसा, सिस्टर अल्फोंसो, पोप जॉन पॉल सभी अपने जीवन में गंभीर रूप से बीमार रहे। उन्हें चमत्कारी एवं संत घोषित करना केवल मात्र एक छलावा है, ढोंग है, पाखंड है, निर्धन हिन्दुओं को ईसाई बनाने का एक सुनियोजित षडयन्त्र हैं। अगर प्रार्थना से सभी चंगे हो जाते तब तो किसी भी ईसाई देश में कोई भी अस्पताल नहीं होने चाहिए, कोई भी बीमारी हो जाओ चर्च में जाकर प्रार्थना कर लीजिये। आप चंगे हो जायेगे। खेद हैं की गैर ईसाईयों को ऐसा बताने वाले ईसाई स्वयं अपना ईलाज अस्पतालों में करवाते है।

मेरा सभी हिन्दू भाइयों से अनुरोध है कि ईसाई समाज के इस कुत्सित तरीके की पोल खोल कर हिन्दू समाज की रक्षा करे और सबसे आवश्यक अगर किसी गरीब हिन्दू को ईलाज के लिए मदद की जरुरत हो तो उसकी धन आदि से अवश्य सहयोग करे जिससे वह ईसाईयों के कुचक्र से बचा रहे।

सलंग्न चित्र- पॉल दिनाकरन के नामक ईसाई प्रचारक का चित्र जो वर्षों से रोग से पीड़ित महिला के रोग को चुटकियों में ठीक करने का दावा करता है। पाठकों को जानकार आश्चर्य होगा इनके पिताजी लंबी बीमारी के बाद मरे थे। इसे दाल में काला नहीं अपितु पूरी दाल ही काली कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

Tuesday, 10 January 2017

कुछ दिन बाद इन्हें बंगाली हिन्दू कहा जाया करेगा

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने एक बार कहा था कि भारत को समझना हो तो विदेशी अखबारों को पढ़ें शायद उनका यह कथन सच के काफी करीब है. जहाँ इन दिनों विश्व भर की मीडिया भारत के विमुद्रीकरण और यहाँ की अर्थव्यवस्था को लेकर उतार चढाव का दौर देख रही है वही पिछले दिनों अमेरिकन थिंकरमैगजीन के एक पेज पर यह आलेख भी प्रकाशित हुआ है कि कश्मीर के बाद अब बंगाल का नंबर है. ये दावा है जानी-मानी अमेरिकी पत्रकार जेनेट लेवी का है जो अपने ताजा लेख में इस दावे के पक्ष में कई तथ्य पेश करती है. जेनेट लेवी लिखती है कि बंटवारे के वक्त भारत के हिस्से वाले पश्चिमी बंगाल में मुसलमानों की आबादी 12 फीसदी से कुछ ज्यादा थी, जबकि पाकिस्तान के हिस्से में गए पूर्वी बंगाल में हिंदुओं की आबादी 30 फीसदी थी. आज पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की जनसंख्या बढ़कर 27 फीसदी हो चुकी है. कुछ जिलों में तो ये 63 फीसदी तक हो गई है. दूसरी तरफ बांग्लादेश में हिंदू 30 फीसदी से घटकर 8 फीसदी बाकी बचे हैं. जेनेट ने यह लेख उन पश्चिमी देशों के लिए खतरे की चेतावनी के तौर पर लिखा है, जो अपने दरवाजे शरणार्थी के तौर पर आ रहे मुसलमानों के लिए खोल रहे हैं.

वो भारत की इस दुर्दशा से सीख लेने के लिए आगे लिखती है कि किसी भी समाज में मुसलमानों की 27 फीसदी आबादी काफी है कि वो उस जगह को अलग इस्लामी देश बनाने की मांग शुरू कर दें. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को पिछले चुनाव में लगभग पूरी मुस्लिम आबादी ने वोट दिए थे. जाहिर है ममता बनर्जी पर भी दबाव है कि वो मुसलमानों को खुश करने वाली नीतियां बनाएं. इसी के तहत उन्होंने सऊदी अरब से फंड पाने वाले 10 हजार से ज्यादा मदरसों को मान्यता देकर वहां की डिग्री को सरकारी नौकरी के काबिल बना दिया. इसके अलावा मस्जिदों के इमामों के लिए तरह-तरह के वजीफे घोषित किए हैं. ममता ने एक इस्लामिक शहर बसाने का प्रोजेक्ट भी शुरू किया है. पूरे बंगाल में मुस्लिम मेडिकल, टेक्निकल और नर्सिंग स्कूल खोले जा रहे हैं, जिनमें मुस्लिम छात्रों को सस्ती शिक्षा मिलेगी. इसके अलावा कई ऐसे अस्पताल बन रहे हैं, जिनमें सिर्फ मुसलमानों का इलाज होगा. वो लिखती है कि आखिर बंगाल में बेहद गरीबी में जी रहे लाखों हिंदू परिवारों को ऐसी किसी स्कीम का फायदा क्यों नहीं मिलता?

जेनेट लेवी ने अपने लेख में बंगाल में हुए दंगों का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा है- 2007 में कोलकाता में बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन के खिलाफ दंगे भड़क उठे थे. यह पहली स्पष्ट कोशिश थी जब बंगाल में मुस्लिम संगठनों ने इस्लामी ईशनिंदा (ब्लासफैमी) कानून की मांग शुरू कर दी थी. 1993 में तस्लीमा नसरीन ने बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों और उनको जबरन मुसलमान बनाने के मुद्दे पर किताब लज्जालिखी थी. इस किताब के बाद उन्हें कट्टरपंथियों के डर से बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था. इसके बाद वो कोलकाता में बस गईं. यह हैरत की बात है कि हिंदुओं पर अत्याचार की कहानी लिखने वाली तस्लीमा नसरीन को बांग्लादेश ही नहीं, बल्कि भारत के मुसलमानों ने भी नफरत की नजर से देखा. भारत में उनका गला काटने तक के फतवे जारी किए गए.इस सबके दौरान बंगाल की वामपंथी या तृणमूल की सरकारों ने कभी उनका साथ नहीं दिया. क्योंकि ऐसा करने पर मुसलमानों के नाराज होने का डर था. 2013 में पहली बार बंगाल के कुछ कट्टरपंथी मौलानाओं ने अलग मुगलिस्तानकी मांग शुरू कर दी. इसी साल बंगाल में हुए दंगों में सैकड़ों हिंदुओं के घर और दुकानें लूटे गए. साथ ही कई मंदिरों को तोड़ दिया गया. इन दंगों में पुलिस ने लोगों को बचाने की कोई कोशिश नहीं की. यह सब कश्मीर के शुरुवाती दिनों जैसा है आखिर भारत सरकार कश्मीर की तरह बंगाल में अफसा कानून का इस्तेमाल क्यों नहीं करती?


जेनेट लेवी ने दुनिया भर की ऐसी कई मिसालें दी हैं, जहां मुस्लिम आबादी बढ़ने के साथ ही आतंक, कठमुल्लापन और अपराध के मामले बढ़ने लगे. इन सभी जगहों पर धीरे-धीरे शरीयत कानून की मांग शुरू हो जाती है, जो आखिर में अलग देश की मांग तक पहुंच जाती है. जेनेट इस समस्या की जड़ में 1400 साल पुराने इस्लाम के अंदर छिपी बुराइयों को जिम्मेदार मानती हैं. कुरान में यह संदेश खुलकर दिया गया है कि दुनिया भर में इस्लामी राज्य स्थापित हो. हर जगह इस्लाम जबरन धर्म परिवर्तन या गैर-मुसलमानों की हत्याएं करवाकर फैला है. लेख में बताया गया है कि जिन जिलों में मुसलमानों की संख्या ज्यादा है वहां पर वो हिंदू कारोबारियों का बायकॉट करते हैं. मालदा, मुर्शिदाबाद और उत्तरी दिनाजपुर जिलों में मुसलमान हिंदुओं की दुकानों से सामान तक नहीं खरीदते. इसी कारण बड़ी संख्या में हिंदुओं को घर और कारोबार छोड़कर दूसरी जगहों पर जाना पड़ा. ये वो जिले हैं जहां हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं. जिनपर सरकार अपनी चुप्पियाँ साधे हुए है. जब इन सब कारणों से मणिपुर और जम्मू-कश्मीर जैसे प्रांतों में भारतीय सेना को विशेष अधिकार दिए गए हैं तो बंगाल में क्यों नही? यदि स्थिति यही रही तो जिस तरह आज कश्मीरी विस्थापितों को कश्मीरी पंडित कहा जाता है आगे आने वाले समय में इन्हें विस्थापित बंगाली हिन्दू के नाम से जाना जाया करेगा...चित्र साभार गूगल लेख राजीव चौधरी 

हिन्दू होकर भी दफ़नाने को मजबूर है, क्यों ?

यह खबर उन लोगों को जरुर पढ़ लेनी चाहिए जो सीरिया, फिलिस्तीन और म्यांमार के मुस्लिमों की बात कर दुःख जता रहे है और वो भी पढ़े जो गाजा पट्टी के मुस्लिमों की पीड़ा लेकर दिल्ली में धरने प्रदर्शन कर रहे थे. शायद इससे उन मीडियाकर्मियों की भी संवेदना जागनी चाहिए जो एक सीरियाई बच्चें एलन कुर्दी की लाश को दफनाने तक विलाप करती रही थी. खबर हैं कि पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह और कबायली इलाकों में रहने वाले हिंदू श्मशान घाट की सुविधा न होने के कारण अपने मृतकों को जलाने के बजाय अब उन्हें कब्रिस्तान में दफनाने पर मजबूर हो गए हैं. इन इलाकों में हिंदू समुदाय हजारों की तादाद में पाकिस्तान की स्थापना से पहले से रह रहे हैं. खैबर पख़्तूनख़्वाह में हिंदू समुदाय की आबादी लगभग 50 हजार है. इनमें अधिकतर पेशावर में बसे हुए हैं. इसके अलावा फाटा में भी हिंदुओं की एक अच्छी खासी तादाद है. ये अलग-अलग पेशों में हैं और अपना जीवन गुजर-बसर करते हैं. पिछले कुछ समय से हिंदू समुदाय के लिए ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह और फाटा के विभिन्न स्थानों पर श्मशान घाट की सुविधा न के बराबर ही रह गई है. इस वजह से अब वे अपने मृतकों को धार्मिक अनुष्ठानों के उलट यानी जलाने के बदले दफनाने के लिए मजबूर हो चुके हैं.

चलो एक बार को मान लिया पाकिस्तान जैसे मुस्लिम देशों में जीवित हिन्दुओं या सिख-बौद को कोई अधिकार नहीं है लेकिन क्या मृत शरीर जिसे देखकर इंसानी समाज में धर्म से परे होकर संवेदना के अंकुर फूटते है लेकिन यहाँ तब भी गुस्सा और कट्टरवाद. आखिर कहाँ गये वो मानवाधिकारवादी जो मुम्बई में एक मुसलमान को बिल्डर द्वारा किराये पर फ्लेट नहीं के कारण सड़कों पर लेट गये थे. आज वो पाकिस्तान और बंगलादेश के हिन्दुओं की बात क्यों नहीं करते हैं? जबकि यह लोग तो सिर्फ अंतिम संस्कार के लिए थोड़ी सी भूमि मांग रहे है. पेशावर में ऑल पाकिस्तान हिंदू राइट्स के अध्यक्ष और अल्पसंख्यकों के नेता हारून सर्वदयाल का कहना है कि उनके धार्मिक अनुष्ठानों के अनुसार वे अपने मृतकों को जलाने के बाद अस्थियों को नदी में बहाते हैं, लेकिन यहां श्मशान घाट की सुविधा नहीं है इसलिए वे अपने मृतकों को दफनाने के लिए मजबूर हैं.

उन्होंने कहा कि केवल पेशावर में ही नहीं बल्कि राज्य के ठीक-ठाक हिंदू आबादी वाले जिलों में भी यह सुविधा न के बराबर है. इन जिलों में कई सालों से हिंदू समुदाय अपने मृतकों को दफना रहा है. वह कहते हैं, पाकिस्तान के संविधान की धारा 25 के अनुसार हम सभी पाकिस्तानी बराबर अधिकार रखते हैं और सभी अल्पसंख्यकों के लिए कब्रिस्तान और श्मशान घाट की सुविधा प्रदान करना सरकार की सर्वोच्च जिम्मेदारी है, लेकिन दुर्भाग्य से न केवल हिंदू बल्कि सिखों और ईसाई समुदाय के लिए भी इस बारे में कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है. हारून सर्वदयाल के अनुसार हिंदुओं और सिखों के लिए अटक में एक श्मशान घाट बनाया गया है लेकिन ज्यादातर हिंदू गरीब परिवारों से संबंध रखते हैं जिसकी वजह से वह पेशावर से अटक तक आने-जाने का किराया वहन नहीं कर सकते. उन्होंने कहा कि पेशावर के हिंदू पहले अपने मृतकों को बाड़ा के इलाके में लेकर जाया करते थे क्योंकि वहाँ एक श्मशान घाट था लेकिन शांति की बिगड़ती स्थिति के कारण वह क्षेत्र अब उनके लिए बंद कर दिया गया है.

वो दावा कर कहते है  कि पाकिस्तान भर में पहले अल्पसंख्यकों को हर छोटे बड़े शहर में धार्मिक केंद्र या पूजा स्थल थे लेकिन दुर्भाग्य से उन पर या तो सरकार या भूमि माफिया ने क़ब्जा कर लिया, जिससे अल्पसंख्यकों की मुसीबतें बढ़ी हैं. जिस तरह पाकिस्तान के बनने के समय अल्पसंख्यक अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, उनके हालात में 70 साल बाद भी कोई बदलाव नहीं आया है. वे आज भी अपने अधिकारों से वंचित हैं. पाकिस्तानी हिन्दुओं के अनुसार यदि कोई हिन्दू मर जाता है तो उसके लाश को जलाने भी नहीं दिया जाता है. मुसलमान कहते हैं कि लाश जलाने से बदबू होती है इसलिए लाश को दफना दो. इसलिए वहां के हिन्दू अपने किसी परिजन के मरने पर रो भी नहीं पाते हैं. डर रहता है कि यदि रोए तो पड़ोस के मुस्लिमों को किसी के मरने की जानकारी हो जाएगी और वे आकर कहने लगेंगे कि चलो कब्र खोदो और लाश को दफना दो. ऐसा करने से मना करने पर हिन्दुओं के साथ मार-पीट शुरू कर दी जाती है.


कई जगह तो यहाँ के हिन्दू इन सबसे बचने के लिए हिन्दू रात होने का इन्तजार करते हैं और गहरी रात होने पर अपने मृत परिजन का अन्तिम संस्कार कहीं दूर किसी नदी के किनारे कर आते हैं. लाश को आग के हवाले करने के बाद वे लोग वहां से भाग खड़े होते हैं, क्योंकि यह डर रहता है कि आग की लपटें देखकर मुसलमान आ धमकें और हिन्दुओं पर हमले न कर दें. यही वजह है कि हाल के वर्षों में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी हिन्दू किसी भी तरह भारत आ रहे हैं. ये लोग यहां मानवाधिकारवादियों की हर चैखट पर हाजिरी लगाते हैं, अपनी पीड़ा बताते हैं, लेकिन गाजपट्टी पर आसमान सिर पर उठाने वाले ये मानवाधिकारवादी पाकिस्तान के हिन्दुओं पर अपने मुंह पूरी तरह बन्द रखते हैं. जबकि सब जानते है कोई कितना भी धार्मिक अधार्मिक क्यों न हो पर जन्म, मरण और परण समाज में यह तीन पल ऐसे होते है जिनमे धर्म की ना चाहकर भी जरूरत होती है. फिर भी हम तो एक ऐसे देश से सिर्फ मानवता के नाते यह गुहार लगा रहे है कि धर्म के हिसाब से जीने नहीं देते तो कम से कम मर तो जाने दो!..राजीव चौधरी  

Tuesday, 27 December 2016

नांगेली और उसके आन्दोलन की एक दर्दनाक कहानी

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने 19वीं सदी में दक्षिण भारत में अपने स्तनों को ढकने के हक के लिए लड़ाई लड़ने वाली नांगेली नाम की महिला की कहानी को पाठ्यक्रम से हटाने का फैसला किया है. 2006-2007 में जाति व्यवस्था और वस्त्र परिवर्तन नाम से इस सेक्शन में इस आंदोलन में जोड़ा गया था. उस आंदोलन के बारे में किताबों में बताए जाने पर कई संगठनों ने आपत्ति की थी. कई संगठनों का इस बारे में कहना था कि एक औरत का ब्रेस्ट को ढकने के लिए आंदोलन और उसके ब्रेस्ट को काट लिए जाने की कहानी शर्मनाक है और बच्चों को नहीं पढ़ाई जानी चाहिए. पर प्रश्न यह है कि आखिर क्यों न पढाई जाये जातीय व्यवस्था का यह कुरूप चेहरा? बल्कि इस कहानी के साथ बच्चों को वीर सावरकर की मोपला भी पढाई जानी चाहिए

आखिर क्या नांगेली और उसके आन्दोलन की कहानी जिसे पढ़कर समाज और सरकार आज शर्मसार हो रही है. पर प्रश्न यह है कि यदि यह शर्म 19 वीं सदी के धर्म के ठेकेदारों और शासकों को होती तो क्या हम धार्मिक रूप से इतने बड़े बदलाव केरल के अन्दर होते? नंगेली का नाम केरल के बाहर शायद किसी ने न सुना हो. किसी स्कूल के इतिहास की किताब में उनका जिक्र या कोई तस्वीर भी नहीं मिलेगी. लेकिन उनके साहस की मिसाल ऐसी है कि एक बार जानने पर कभी नहीं भूलेंगे, क्योंकि नंगेली ने स्तन ढकने के अधिकार के लिए अपने ही स्तन काट दिए थे. केरल के इतिहास के पन्नों में छिपी ये लगभग सौ से डेढ़ सौ साल पुरानी कहानी उस समय की है जब केरल के बड़े भाग में त्रावणकोर के राजा का शासन था. उस समय जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी थीं और निचली जातियों की महिलाओं को उनके स्तन न ढकने का आदेश था. उल्लंघन करने पर उन्हें ब्रेस्ट टैक्स यानी स्तन कर देना पड़ता था. नांगेली भी कथित निचली जाति में आने वाली महिला थीं. उन्होनें राजा के इस अमानवीय टैक्स का विरोध किया. नांगेली ने अपने स्तन ढकने के लिए टैक्स नहीं दिया मामला राजा तक पहुंचा तो सजा के तौर पर इस जुर्म के लिए वहां के राजा ने नांगेली के स्तन कटवा दिए. जिससे उसकी मौत हो गई. नांगेली का मौत ने दक्षिण भारत में एक सामाजिक आंदोलन की चिंगारी भड़का दी.

इस कुरूप परंपरा की चर्चा में खास तौर पर निचली जाति नादर की स्त्रियों का जिक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे पहले विरोध जताया. नादर की ही एक उपजाति नादन पर ये बंदिशें उतनी नहीं थीं. उस समय न सिर्फ अवर्ण बल्कि नंबूदिरी ब्राहमण और क्षत्रिय नायर जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने के कई नियम थे. नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था. वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थीं. लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था. नायर औरतों को ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपना वक्ष खुला रखना होता था। सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी. पहनने पर उन्हें सजा भी हो जाती थी.

इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं. 18 वीं सदी के अंत और 19 वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर नादन जाति के लोग, चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए. बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने और यूरपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं. धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया. इस समुदाय को जातीय व्यवस्था के कारण सम्मान तो दूर कपडे भी नहीं मिल रहे थे उस समय इस्लाम ने इन्हें बुर्का दिया ईसाइयत ने सम्मान जिस कारण केरल में बड़ा धार्मिक समीकरण उलट पुलट हुआ!

ब्रेस्ट टैक्स का मकसद जातिवाद के ढांचे को बनाए रखना था.ये एक तरह से एक औरत के निचली जाति से होने की कीमत थी. इस कर को बार-बार अदा कर पाना इन गरीब समुदायों के लिए मुमकिन नहीं था. केरल के हिंदुओं में जाति के ढांचे में नायर जाति को शूद्र माना जाता था जिनसे निचले स्तर पर एड़वा और फिर दलित समुदायों को रखा जाता था. उस दौर में दलित समुदाय के लोग ज्यादातर खेतिहर मजदूर थे और ये कर देना उनके बस के बाहर था. ऐसे में एड़वा और नायर समुदाय की औरतें ही इस कर को देने की थोड़ी क्षमता रखती थीं. जो भी इस नियम की अहेलना करती उसे सरे बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता. अवर्ण औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते. सवर्णों के अलावा राजा खुद भी परंपरा निभाने के पक्ष में था. क्यों न होता! आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहें.
नांगेली का मौत के बाद सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और उनके विरोध की ताकत बढ़ गई. सभी जगह महिलाएं पूरे कपड़ों में बाहर निकलने लगीं. इसी वर्ष मद्रास के कमिश्नर ने त्रावणकोर के राजा को खबर भिजवाई कि महिलाओं को कपड़े न पहनने देने और राज्य में हिंसा और अशांति को न रोक पाने के कारण उसकी बदनामी हो रही है. अंग्रेजों के और नादर आदि अवर्ण जातियों के दबाव में आखिर त्रावणकोर के राजा को घोषणा करनी पड़ी कि सभी महिलाएं शरीर का ऊपरी हिस्सा वस्त्र से ढंक सकती हैं. 26 जुलाई 1859 को राजा के एक आदेश के जरिए महिलाओं के ऊपरी वस्त्र न पहनने के कानून को बदल दिया गया. कई स्तरों पर विरोध के बावजूद आखिर त्रावणकोर की महिलाओं ने अपने वक्ष ढकने जैसा बुनियादी हक छीन कर लिया.

अजीब लग सकता है, पर केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में भी महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज पहनने का हक पाने के लिए 50 साल से ज्यादा सघन संघर्ष करना पड़ा हो तो सोचो इस जाति पर कितने अत्याचार हुए होंगे हिन्दुओं को एक बार जरुर सोचना चाहिए कि आखिर गलती किसकी थी? उम्मीद करते है इस लेख को पढ़कर आप लोग वीर सावरकर की पुस्तक मोपला जरुर पढेंगे ताकि भारत की धार्मिक त्रासदी का सच्चा इतिहास जाना जा सके. आखिर क्या कारण रहे की कभी दुनिया में हमारा वैदिक परचम लहराता था जो आज सिर्फ भारतीय भू-भाग तक सिमट कर रह गया. गलती हमारी थी तो स्वीकारोक्ति भी हमारी होनी चाहिए या फिर सोचना चाहिए क्या हम फिर यही गलती अभी भी तो नहीं दोहरा रहे है?.....राजीव चौधरी 


महाराणा प्रताप भी पैदा होंगे?

अभी हाल ही में मीडिया के माध्यम से पता चला कि एक फिल्म अभिनेता ने अपनी संतान का नाम तेमूर रखा है. जिसे लेकर सोशल मीडिया में काफी शोर मचा है जबकि बच्चें के माता-पिता का तर्क है कि तैमूर का उर्दू में मतलब होता है लोहा, यानी लोहे की तरह मजबूत शख्स, बहादुर. अभी पिछले दिनों एक टीवी डिबेट में पाकिस्तानी मूल के लेखक विचारक तारेक फतेह ने कहा था. मुझे बड़ा अफसोस होता है कि भारतीय मुस्लिम आज भी अपने नाम अरबी भाषा में रखते है जबकि हिंदी भाषा में एक से एक सुन्दर नाम है. आखिर शम्स की जगह सूरज नाम रखने में क्या आपत्ति है? जबकि दोनों का शाब्दिक अर्थ एक ही है. हालाँकि यह तारेक फतेह का तर्क है लेकिन सवाल यह कि तैमूर नाम रखने पर इतना बड़ा बवाल क्यों? आखिर कौन था तैमूर? जबकि इसी इस्लाम और भाषा में दारा शिकोहअशफाक उल्ला खान से लेकर मिसाइल मैन ए पी जे अबुल कलाम तक बहुत ऐसे नाम है जो इस्लाम मे ही पैदा हुए है और जिनका नाम सुनते ही सर श्रद्धा से नमन करता है

इतिहास कहता है कि तैमूर के लिए लूट और क़त्लेआम मामूली बातें थीं. इसी कारण तैमूर हमारे लिए अपनी एक जीवनी छोड़ गया, जिससे पता चलता है कि उन तीन महीनों में क्या हुआ जब तैमूर भारत में था दिल्ली पर चढ़ाई करने से पहले तैमूर के पास कोई एक लाख हिंदू बंदी थे. उसने इन सभी को क़त्ल करने का आदेश दिया. तैमूर ने कहा ये लोग एक गलत धर्म को मानते है इसलिए उनके सारे घर जला डाले गए और जो भी पकड़ में आया उसे मार डाला गया. जिसने दिल्ली की सड़कों पर खून की नदियाँ बहा दी थी.सैकड़ों मंदिरों को अपने पैरों तले कुचल दिया था. हजारों नवयुवतियों का इस आक्रान्ता ने शील भंग किया. इतिहासकारों कहते है कि दिल्ली में वह 15 दिन रहा और उसने पूरे शहर को कसाईखाना बना दिया था. इसके बाद भी तैमूर नाम रखने के पीछे आखिर इस सिने अभिनेता और अभिनेत्री का उद्देश्य क्या है?

एक पल को मान लिया जाये नाम तो नाम ही होता है. उससे इन्सान महत्ता कम नहीं होती पर हमारे समाज में जब किसी बच्चे का नाम रखा जा रहा हो तो तमाम बातें ध्यान रखी जाती हैं. नाम ऐसा न हो कि उसे स्कूल या कॉलेज में चिढ़ाया जाए. हमारे यहां किसी को चिढ़ाना हो तो उसके नाम में से ही कुछ ऐसा निकाला जाता है ताकि वो चिढ़ जाए. शायद यही वजह है कि दुर्योधन, विभीषण, कंस और रावण जैसे नाम किसी के नहीं रखे गए. यदि किसी का नाम कंस हो तो पहली छवि उसके क्रूर होने की बनेगी. जबकि विभीषण लंका जीत में राम की सेना में मुख्य किरदार था. लेकिन फिर भी उसे देशद्रोही माना गया कि जो अपने सगे भाई का नहीं हुआ वो किसी का कैसे हो सकता है! ज्यादा दूर नहीं जाए तो प्राण नाम भी बहुत कम सुनने को मिलता है प्राण निहायत ही शरीफ इंसान थे, लेकिन परदे पर हमेशा बुराई के साथ खड़े रहते थे, इसलिए लोगों ने बच्चों के नाम प्राण नहीं रखे. प्राण की बेटी ने तो एक सर्वेक्षण ही कर डाला था कि फलां सन के बाद कितने लोगों ने बच्चों के नाम प्राण रखे हैं और नतीजा लगभग शून्य ही रहा.

भारत की सहिष्णु और धर्मनिपेक्षता का यही जीवित प्रमाण है कि यहाँ अकबर, बाबर और औरंगजेब जैसे नाम रखने पर कोई कुछ नहीं बोलता इसे सिर्फ एक धर्म का विषय माना जाता रहा है. वरना विश्व के किसी देश में ऐसी मिशाल नहीं मिलेगी शायद ही किसी कि हिम्मत हो कि इजराइल में कोई अपने बच्चें का नाम हिटलर रखे? जर्मनी में कोई अपने बच्चें का नाम स्टालिन रखे? अमेरिका में कोई ओसामा पैदा हो तो? वहां के लोग ही उस व्यक्ति का जीना मुश्किल कर देंगे. लेकिन भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ भारत को लूटने वाले और असंख्य भारतीयों को मौत के घाट उतारने वाले लोगों के नाम पर लोग अपने बच्चों का नामकरण करते हैं. आखिर किस आधार पर उन्हें अपना आदर्श मानते है? तैमूर और बाबर जैसे आक्रान्ताओं के नाम पर अपने बच्चे का नाम रखने वाले किस मानसिकता और विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते है?

एक सवाल यह भी है कि जब यह लड़का आगे समाज में जाएगा. स्कुल में जाएगा. जहाँ बच्चे को इतिहास ये बताया जाएगा की तैमूर लंग एक विदेशी आक्रमणकारी था जिसने लाखों हिन्दुओं का खून बहाया और मदिरों को तोडा तब क्या ये तैमूर सैफ अली खान खुद को स्वीकार पायेगा? शायद नहीं! क्योंकि कोई भी सभ्य समाज अपने बच्चे का नाम इन नकारात्मक छवि वालों लोगों के नाम पर नहीं रखता. कौरव 100 भाई थे. लेकिन कोई भी माँ बाप इन 100 नामों में से एक भी नाम अपने बच्चो का नहीं रखता. पर वहीँ पांचों पांडवों के नाम पर और दशरथ के चारो पुत्रों के नाम पर लोग अपने बच्चों के नाम रखते हैं. क्योंकी हम जानते है कौन सत्य के साथ खड़ा था और कौन असत्य के साथ.
त्रेतायुग युग मर्यादा पुरषोत्तम राम हुए आगे चलकर इस नाम पर भारत की करोड़ों जनता ने अपना नाम रखा. बच्चें का नाम राम नाम रखने का अर्थ था राम के पदचिन्हों पर चलना. हमारे यहाँ नामों की कोई कमी नहीं है वीर अब्दुल हमीद से लेकर वीर शिवाजी तक यहाँ एक से एक वीरों के नाम से इतिहास भरा पड़ा है. पर मुझे कोई बता रहा था कि जब मजहब विशेष मे कोई स्वामी दयानन्द, श्रद्धानन्द, मर्यादा पुरषोंत्तम राम, श्री कृष्ण भगत सिंह आदि पैदा हीं नहीं होते तो फिर कहाँ से ऐसे आदर्श नाम लाये? इनके यहाँ तो तैमूर, औरंगजेब, चंगेज खाँ, गजनी, गोरी, दाऊद, ओसामा आदि हीं जन्म लेते है, तो फिर इन्हीं हत्यारों मे से किसी एक नाम को चुनना इनकी मजबूरी है. बहरहाल नाम में क्या रखा है आज तैमूर पैदा हुआ कल जरुर किसी न किसी माता की कोख से महाराणा प्रताप भी जरुर पैदा होंगे...राजीव चौधरी 


वो हिन्दू है, अब वापिस नहीं आएगी

पाकिस्तान के सिंध की जीवती की उम्र बमुश्किल 14 साल की है लेकिन उसको अब अपने परिवार से दूर जाना है क्योंकि उसकी शादी कर दी गई है. जिस आदमी से उसकी शादी हुई है, उसने जीवती को अपने कर्ज के बदले खरीद लिया है. जीवती की मां अमेरी खासी कोहली वो बताती हैं कि उनके शौहर ने कर्ज लिया था जो बढ़ कर दोगुना हो गया और वो जानती है कि इसे चुकाना उनके बस की बात नहीं है. रकम ना चुका पाने पर अमेरी की बेटी को वो शख्स ले गया, जिससे उन्होंने उधार लिया था. अमेरी को पुलिस से भी इस मामले में कोई उम्मीद नहीं है. आमेरी कहती हैं कि सूदखोर अपने कर्जदार की सबसे खूबसूरत और कमसिन लड़की को चुन लेते हैं. ज्यादातर मामलों में वो लड़की को ईस्लाम में दाखिल करते हैं, फिर उससे शादी करते हैं और फिर कभी आपकी बेटी वापस नहीं आती. औरतों को यहां प्रोपर्टी की तरह ही देखा जाता है. उसे खरीदने वाला उसे बीवी बना सकता है, दूसरी बीवी बना सकता है, खेतों में काम करा सकता है, यहां तक कि वो उसे जिस्मफरोशी के धंधें में भी धकेल सकता है क्योंकि उसने उसकी कीमत चुकाई है और वो उसका मालिक बन गया है. लड़की को ले जाना वाला, उससे कुछ भी करा सकता है लड़की हिन्दू है तो अब वापिस नहीं आएगी.

अमेरी और उनकी बेटी जीवती की ये स्टोरी टाइम्स ऑफ इंडिया ने की है लेकिन पाकिस्तान में इस तरह की ये कोई अकेली घटना नहीं है. ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स 2016 की रिपोर्ट कहती है कि 20 लाख से ज्यादा पाकिस्तानी हिन्दू गुलामों की जिंदगी बसर कर रहे हैं, शायद इन आंकड़ों से उन छद्म पंथनिरपेक्षतावादियों का चेहरा बेनकाब हो जायेगा जो भारत में मानवतावादी बनने का ढोंग करते है. आज पाकिस्तान के झंडे पर अर्धचंद्र और सितारे हैं और सफेद बॉर्डर पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करता है. लेकिन यह वास्तव में दुखद और शर्मनाक है कि छह दशकों के बाद भी पाकिस्तान में हिंदुओं पर जो अत्याचार हो रहे है अब वो अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बन गया है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, पाकिस्तान में हर साल 1000 हिंदू और ईसाई लड़कियों (ज्यादातर नाबालिग) को मुसलमान बनाकर शादी कर ली जाती है. धन बाई पाकिस्तान के उन सैंकड़ों हिंदू माताओं में से हैं जिन की बेटियों को मुसलमान बनाकर उनकी जबरन शादी कर दी गयी है.52 वर्षीय धन बाई जो कराची के लयारी इलाके में एक कमरे के फ्लैट में अपनी दो बेटियों और पति के साथ रहती हैं. तीन साल पहले धन बाई की 21 वर्षीय बेटी बानो घर से अचानक गायब हो गई थी और फिर परिवार को पता चला कि वह मुसलमान बन चुकी है और उसकी शादी हो गई है.बानो हर रोज गरीबों की मदद करने जाती थी, क्या पता कि वह कभी वापस भी नहीं आएगी. कराची हिंदू पंचायत के मुताबिक़ हर महीने 20 से 22 ऐसे मामले सामने आते हैं जिसमें लड़कियों को मुसलमान बनाया जाता है और फिर उनकी जबरन शादी की जाती है. धन बाई पिछले तीन सालों से अपनी बेटी की राह देख रही हैं और अदालतों के चक्कर काट रही हैं लेकिन तीन सालों के भीतर वह अपनी बेटी बानो को एक बार भी नहीं देख सकी हैं.

दक्षिण पाकिस्तान में इस तरह के मामले बहुत सामने आते हैं. मानवाधिकार संगठनों और पुलिस की कोशिशों से अगर कोई लड़की मिल भी जाती है और उसे वापस मां-बाप को देने की बात होती है तो ज्यादातर मौकों पर लड़की अपनी मर्जी से शौहर के साथ जाना कुबूल कर लेती है. ऐसा अमूमन इसलिए भी होता है क्योंकि वो नहीं चाहती कि बाद में उनकी वजह से उनके मां-बाप को किसी परेशानी या जुल्म का सामना करना पड़े. हिंदू अधिकार कार्यकर्ता शंकर मेघवर के मुताबिक दस वर्षीय जीवनी बघरी को 12 फरवरी 2014 को घोटकी से अगवा कर लिया गया था.13 महीने बाद उसे 11 मार्च 2015 को स्थानीय सत्र अदालत के न्यायाधीश ने वापस अपहर्ताओं को सौंप दिया. अदालत ने कहा कि अब वह इस्लाम कबूल कर चुकी है ऐसे में वह अपने माता-पिता के साथ नहीं जाना चाहती. पिछले वर्ष 14 दिसंबर को एक अन्य मामले में चार हथियारबंद लोग भील समुदाय के एक घर में घुसे थे और 13 वर्षीय सिंधी लड़की जागो भील का अपहरण कर लिया था. मेघवर कहते हैं पाकिस्तान का कानून 18 साल से कम आयु की लड़की की शादी को अपराध मानता है. लेकिन हिंदू लड़कियों के मामले में अदालत खामोश रहती हैं क्यों? न्याय के लिए कहां जाएं? किससे गुहार लगाएं?

पाकिस्तान में इस तरह के मामलों के लिए लड़ने वाले एक संगठन से जुड़े गुलाम हैदर कहते हैं कि वो खूबसूरत लड़कियों को चुनते हैं. धर्म से जुड़े इन मामलों में ना मीडिया के कैमरे पहुंचते ना पुलिस स्टेशन में इनकी कोई सुनवाई होती है इन मामलों में अधिकांश इस्लामी धार्मिक गुटों के लोग लिप्त हैं और इस्लामी मदरसों के छात्र भी ऐसा कर रहे हैं. शहर के बड़े मदरसे मुसलमान होने का प्रमाण पत्र जारी कर देते हैं.”दुर्दशा के शिकार पाकिस्तानी हिन्दू भारत को अपनी आखिरी आस मानते हैं. पाकिस्तान के हर छात्र को स्कूल में कुरान पढना जरूरी है. इसकी अवमानना ईशनिंदा की परिधि में आती है. यदा-कदा इस कानून की आड़ में कट्टरपंथी निर्दोष हिन्दुओं और अन्य गैर इस्लामियों के साथ अत्याचार करते हैं. पिछले दिनों बीबीसी में प्रकाशित एक रिपोर्ट से साफ हो गया था कि जबरन शादी ही नहीं बल्कि हिंदुओं को नौकरी भी नहीं दी जाती, अल्पसंख्यकों को पाकिस्तान में जीवन बसर करने के लिए हर रोज तरह-तरह की परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है, ऐसी परेशानियां जिनके बारे में भारत के नागरिक तो कल्पना भी नहीं कर सकते.


संध्या के पिता बिशन दास ने संध्या को एक कान्वेंट स्कूल में पढ़ाया और उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए यूनिवर्सिटी भी भेजा. संध्या ने भी अपने पिता के सपनों को टूटने नहीं दिया और खूब मन लगाकर पढ़ाई की. संध्या यूनिवर्सिटी से (एम.एस.सी) की डिग्री तो हासिल करने में सफल रही लेकिन नौकरी नहीं क्योंकि वो हिन्दू थी उसे बताया गया जब तक वो इस्लाम स्वीकार नहीं करेगी तब तक नौकरी नहीं मिलेगी. कराची हिंदू पंचायत के अध्यक्ष अमरनाथ कहते है कि सबसे बड़ी समस्या यह है कि जब यह मामला सामने आता है तो सब लोग ख़ुश हो जाते हैं, पड़ोसी है तो वह भी ख़ुश हो जाता है कि एक और मुसलमान हो गया. यहाँ हिंदू समुदाय को घरों से निकालना और उन्हें मुसलमान करना एक योजना के तहत हो रहा है. इसमें सबसे दुखद  ये है की हमारे देश के तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता जो किसी भी बात पर चौराहों पर लेट जाते हैं, इन हिन्दुओं  का दर्द उन्हें नहीं दिखता, क्या वो मानव नहीं हैं? क्या उनका कोई मानवाधिकार नहीं है? क्या हिन्दुओं के हित में बोलना साम्प्रदायिकता है? हिन्दू भी तो एक इंसान है, मानव है तो सबसे ऊपर उठकर उसके अधिकारों की रक्षा भी तो होनी चाहिए. परन्तु भारत में मानवाधिकार संगठन हो या कोई भी वो सिर्फ उसी बात पर आवाज उठाते हैं जिससे उनका निजी स्वार्थ हो. हो सकता है इस लेख के बाद कुछ लोग मुझे  भी सांप्रदायिक समझेंगे, परन्तु बहुत विनम्रता के साथ यह बताना चाहते कि हम मानववादी है और जहाँ कहीं भी प्राणी मात्र के साथ अन्याय होता है उसके खिलाफ बोलना अपना फर्ज समझते है यदि ऐसा करना किसी की नजर में सांप्रदायिकता है तो हमें गर्व है कि हम सांप्रदायिक हैं... राजीव चौधरी 

Monday, 19 December 2016

बंगाल! जारी है हिंसा और पलायन

हैदराबाद, दादरी और जेएनयू की तरफ दौड़ने वाले बुद्दिजीवी पत्रकार पिछले कई दिनों से बंगाल के धुलागढ़ का रास्ता पूछ रहे हैं। खबर है कि कोलकाता से मात्र 28 किलोमीटर दूर हावड़ा जिले के धुलागढ़ इलाके के बानिजुपोल गाँव में पिछले मंगलवार को मिलाद-उल-नबी के जुलूस के दौरान जुलूस में शामिल लोगों ने घरों में बम फेंके, तोड़फोड़ की लूटपाट कर लोगों के घरों से नकदी और कीमती सामान चुराकर ले गये। जिस कारण हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग वहां से पलायन कर रहा है। फिलहाल प्रशासन मौन है और वहां की मुख्यमंत्री नोटबंदी में उलझी हैं। अवार्ड लौटने वाले पत्रकार, साहित्कार, लेखक साइबेरियन पक्षियों की तरह वापस अपने घर लौट चुके हैं। एक अखलाक पर  यू.एन.ओ को चिट्ठी लिखने वाले उत्तर प्रदेश के बड़े नेता की इस मामले में शायद कलम की स्याही सूख चुकी है। इस मामले में न तो पिछले हफ्ते से मीडिया की वो मेज सजी दिखी जिन पर बैठकर लोग सहिष्णुता पर लम्बे-लम्बे वक्तव्य दे रहे होते हैं। दादरी जाकर मोटी रकम के चेक थमाने वाले नेता शायद बंगाल के धुलागढ़ का रास्ता भूल गये हों!


साम्प्रदायिक हिंसा के बीच आज धुलागढ़ अकेला है। उजड़े हुए घर और बर्बादी का मंजर है। जिसे लोग वहां आसानी से देख सकते हैं। गाँव में पसरा सन्नाटा इस बात का गवाह है कि हिंसा का मंजर कितना खौफनाक रहा होगा। असहिष्णुता के वो ठेकेदार जो पिछले दिनों जे.एन.यू. से एक नजीबके गायब होने पर मीडिया की मेज पर कब्जा जमाये बैठे थे आज सैकड़ों निर्दोष गाँववासियों के पलायन पर मौन क्यों? ममता के राज में सोनार बांग्ला बर्बाद बांग्लाबन गया है। बंगाल में आज वो हो रहा है जो शायद कभी मुस्लिम आक्रांताओं के समय में भी नहीं हुआ होगा! पिछले दिनों ममता सरकार द्वारा दुर्गा पूजा पर अभूतपूर्व प्रतिबन्ध लगाये गए थे। उच्च न्यायलय के हस्तक्षेप के कारण हिन्दू समाज ने चौन की सांस ली थी। परन्तु, मुस्लिम पर्सनल बोर्ड द्वारा भड़काए गए जेहादियों ने मुस्लिम बाहुल क्षेत्रों में हिंसा का अभूतपूर्व तांडव किया। बंगाल के पचासियों स्थानों पर हिन्दुओं पर अभूतपूर्व अत्याचार किये थे। मालदा जिले के कालिग्राम, खराबा, रिशिपारा, चांचलय मुर्शिदाबाद के तालतली, घोसपारा, जालंगी, हुगली के उर्दि पारा, चंदन नगर, तेलानिपारा, 24 परगना के हाजीनगर, नैहाटीय पश्चिम मिदनापुर गोलाबाजार, खरकपुर, पूर्व मिदनापुर के कालाबेरिया, भगवानपुर, बर्दवान के हथखोला, हावड़ा के सकरैल, अन्दुलन, आरगोरी, मानिकपुर, वीरभूम के कान्करताला तथा नादिया के हाजीनगर आदि पचास से ज्यादा स्थानों पर हिन्दुओं पर अमानवीय अत्याचार किए गए थे। इसी कड़ी में अब धूलागढ़ का नाम भी जुड़ गया है।

राज्य सरकार को स्मरण होगा कि कोलकाता के एक मौलवी ने मांगे पूरी न होने पर उन्हें कैसे धमकाया गया था। थोड़े दिन पहले ही कालिग्राम और चांचल में हिंसा को रोकने वाले पुलिस वालों और जिलाधीश को किस प्रकार पीटा गया और पुलिस स्टेशन को लूट लिया गया था,  शायद यह इनकी मानसिकता का जीता जगाता उदहारण है। जेहादियों पर कार्यवाही करने में अक्षम सरकार पीड़ित हिन्दुओं पर ही झूठे मामले दर्ज कर खानापूर्ति कर रही है। हाल के दिनों में पश्चिम बंगाल से सटे बांग्लादेश से एक रिपोर्ट के अनुसार खबरें आ रही थीं कि जेहादी मानसिकता से ग्रस्त लोगों के द्वारा की जा रही हिंसा से रोजाना 632 हिन्दू बांग्लादेश छोड़ रहे हैं। जोकि भारत में अपने लिए सुरक्षित स्थान खोज रहे हैं। अब सवाल यह है कि यदि वो बांग्लादेश छोड़कर भारत में बसते हैं तो उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा? क्योंकि राजनीति के तुष्टीकरण के कारण भारत में ही भारतीय हिन्दुओं के हितों पर ही तलवार सी लटकती दिखाई दे रही है।



कश्मीर से पंडित निकाले गये! राजनीति मौन रही। केरल में साम्प्रदायिकता का सरेआम तांडव हुआ! सब खामोश रहे। कैराना पर राजनितिक दलों ने वहां के हिन्दुओं के पलायन को राजनीति से प्रेरित बताकर अपना वोट बैंक साधा! सब चुप रहे। लेकिन कब तक? एक-एक कर क्षेत्र पर क्षेत्र खाली हो रहे हैं यह तुष्टीकरण की राजनीति है या झूठी धर्मनिरपेक्षता का शोर कब तक सन्नाटे से निकलती सिसकियों को दबाएगा। क्या अब राजनेताओं और धर्मनिरपेक्ष दलों को नहीं समझ जाना चाहिए कि इन जेहादियों को अपनी मनमानी करने के लिए एक सुरक्षित क्षेत्र की तलाश है? दुनिया के किसी भी हिस्से में इनका लोकतंत्र में विश्वास नहीं है और ना ही संविधान के धर्मनिपेक्षता के ढ़ांचे का ख्याल। ये लोग सिर्फ एक पुरातन परम्परा जो इनकी नहीं बल्कि इन पर जबरन लाधी गयी है उसका बचाव हिंसक तरीके से कर रहे हैं। 

हमेशा सच्चे लेखन पर लेखक का धर्म तलाशा जाता है लेकिन यहाँ तो तुफैल अहमद जैसे निर्भीक विचार रखने वाले मुस्लिम विद्वान खुद लिख रहे हैं कि इस्लाम के मानने वाले एक बड़े वर्ग को मजहब नहीं अपने लिए एक क्षेत्र की तलाश है। तुफैल लिखते हैं कि जब मक्का में गैर मुस्लिमों ने प्रोफेट मोहम्मद से कहा कि आप और हम मक्का में साथ-साथ रह सकते हैं, किन्तु मोहम्मद ने कहा यह नहीं हो सकता, आपका धर्म अलग है, रहन-सहन अलग है, हम साथ नहीं रह सकते और यहीं से द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का जन्म हुआ। वहां अब कोई जूं नहीं बचे, न कोई यहूदी बचे। ईरान में पारसी नहीं बचे, अफगानिस्तान में, बलूचिस्तान में, पाकिस्तान में कहीं हिन्दू नहीं बचे। लाहौर सिक्ख महानगर था, अब नहीं है। वही क्रम आज भी जारी है। कश्मीर में, कैराना में, केरल में, प.बंगाल में क्या हो रहा है? मेरे पास केवल सवाल हैं, जबाब नहीं।...... लेख राजीव चौधरी  चित्र साभार गूगल