Friday, 7 October 2016

सियासत की भी हो लाइन आफ कंट्रोल

इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि देश के दुश्मनों को उनके घर में मात देने वाले वीरों के शोर्य पर अपने देश के नेता ही राजनैतिक लाभ के लिए प्रश्नचिंह उठा रहे है. यदि यह काम कोई दुश्मन देश करता तो समझ आता पर अपने देश के अन्दर गरिमामयी पदों पर विराजमान लोग ही ऐसा कर रहे है.यह बिलकुल समझ से परे है! क्या मैं इनकी तुलना जयचंद या मीरजाफर से कर सकता हूँ? यदि नहीं! “तो क्यों नहीं कर सकता?” यह सवाल भी अनिवार्य सवालों की पंक्ति में खड़ा है. नेताओ को जबाब देना चाहिए कि राजनीति बड़ी या देश?
यदि पिछले कुछ सालों में देखा जाये तो राजनीति अपने मूल स्तर से काफी नीचे गिरती दिखाई दी न अब इसके मूल्य बचे न सिद्धांत.यदि कुछ बचा है तो सिर्फ आरोप प्रत्यारोप चाहें उसके लिए कितना भी नीचे क्यों न गिरना पड़े. पाक अधिकृत कश्मीर में सेना द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक कर देश के दुश्मनों को खत्म करना अपने आप में अपने सैनिको द्वारा शोर्य की गाथा लिखना है. लेकिन उस गाथा पर व्यर्थ की बहस कहाँ तक जायज है?
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जब राजनीति में प्रवेश करने वाले थे तब उन्होंने कहा था कि राजनीति में बहुत गंदगी है. 
गंदगी को साफ करने के लिए गटर में उतरना पड़ता है जी. उसे साफ करने के लिए इसमें उतर रहा हूँ , किन्तु अब उनकी पार्टी की राजनीति देखे तो लगता है जो गंदगी राजनीति में थी वो तो थी लेकिन यह तो उसे हाथ में लेकर भारत माता के आंचल पर भी फेंकने लगे है. नीति, सिद्धांत और विचारधारा किसी राजनैतिक दल की जमीनी जड़ होती है. इसके बाद प्रजातंत्र में चर्चा आलोचना होती है. पर इसका ये मतलब नहीं कि शत्रु राष्ट्र के समाचार पत्रों की सुर्खियों में नायक बन जाये. हो सके तो सविंधान में नेताओं के लिए भी “लाइन आफ कंट्रोल”  एक नियन्त्रण रेखा होनी चाहिए कि आप यहाँ तक बढ़ सकते है इससे आगे बढ़ना राष्ट्र के प्रति आपराधिक गद्दारी मानी जाएगी. जिसकी सजा आम नागरिक तरह ही भुगतना पड़ेगी.
एक छोटा सा प्रसंग बताना चाहूँगा जब में छोटा था तो शाम को घर के बाहर चबूतरे पर गाँव के कई बुजुर्ग इकट्ठा होते और देश प्रदेश की राजनीति पर चर्चा आलोचना करते. एक दिन एक बुजुर्ग ने खड़े होकर कहा- कि “कहाँ है आजादी? गरीब को रोटी नहीं, किसान को उसकी फसल का उचित दाम नहीं, रोगी को दवाई नहीं, बच्चों को शिक्षा के लिए मूलभूत सुविधाएँ नहीं.” इसपर मैंने बीच में ही पूछ लिया दृ फिर आजादी का मतलब क्या है? तो उन्होंने कहा- “यही तो आजादी का मतलब है कि हम अपने यह मुद्दे सरकार के सामने शिष्टाचार के शब्दों में बे हिचक उठा लेते है.” किन्तु अब में देखता हूँ कि आजादी के नाम पर हमारे देश के नेता ही लोकतान्त्रिक मूल्यों पर राजनीति के बहाने हावी हो रहे है. शिष्टाचार और सुचिता पूर्ण शब्दों में अपनी बात रखना जैसे नेता भूल ही गये. कोई देश के प्रधानमंत्री को दरिंदा तो कोई मौत का सौदागर कह अपनी राजनैतिक शक्ति का प्रदर्शन कर रहा है. जैसे भूल ही गये हो कि देश पहले होना चाहिए और बाद में निजहित, 
सरकार की आलोचना करने से पहले सोच लेना चाहिए कि कहीं आप देश की साख पर तो दाग नही लगा रहे है?  इस कड़ी में अरविन्द केजरीवाल, संजय निरुपम, और दिग्विजय समेत कई नेता सर्जिकल स्ट्राइक पर सरकार को कमजोर करने के बहाने देश के रक्षको के आत्मबल पर हमला कर रहे है. राहुल गाँधी ने तो सेना के बलिदान को खून की दलाली तक जोड़ डाला. जो बेहद शर्मनाक बयान है सरहद पर जवान है तो वो सुरक्षित है हम सुरक्षित है ये देश सुरक्षित है.
पूर्व प्रधानमंत्री बाजपेई जी ने एक बार संसद में कहा था कि “सरकारे भी आती जाती रहेगी, पार्टी भी बनती बिगडती रहेगी, पर यह देश रहना चाहिए इसका लोकतंत्र रहना चाहिए.”
भारत में अनेकों पार्टिया है जो विचारधाराओं में बंटी है, जो एक देश की एकता अखंडता के लिए जरूरी भी है. एक स्वस्थ लोकतंत्र की खुसबू भी यही है कि सबका संगम राष्ट्रहित है. पर कुछेक लोग जो धर्म के नाम पर हिंसा करते है मैं उन्हें धर्म और वो पार्टी जिसकी विचारधारा राष्ट्र हित में न हो उन्हें पार्टी नहीं मानता. ‘यह सिर्फ एक झुण्ड है, जो अपने निज हित के लिए समाज को गन्दा कर रहे है.” राजनीति के नाम लेकर यह निर्लजता बंद होनी चाहिए. कहते है- जो जैसा होता है उसे सब कुछ ऐसा ही दिखाई देता है. यदि केजरीवाल को वीडियो फुटेज दिखा भी दे तो क्या गारंटी है कि वो उस पर सवाल न उठाये? और रहा पाकिस्तान का झूठ तो वीडियो देखने के दोनों पाकिस्तानी शरीफों के चेहरे देख लीजिये. भारतीय सेना के दावे का सच सीमा पार राजनीतिक गलियारे में स्पष्ट दिखाई दे रहा है. विनय आर्य दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा 

Monday, 3 October 2016

अपने देश की सेना पे सवाल उठा रहे हैं!

देश के कुछ नामी ‘बुद्धिजीवियों’ की वॉल्स से अद्भुत नज़राने इकट्ठा किये हैं. स्वयं पढ़िए और तय कीजिये कि क्या ये लोग आपके ‘ओपिनियन मेकर्स’ होने के लायक हैं?

1.सर्जिकल स्ट्राइक पहले भी होते थे, मीडिया में आ के गाए नहीं जाते थे.
2.इन्होंने तो म्यांमार में भी दावा किया था, सुबूत तो नहीं दिखा पाए.
3.वीडियो बनाया है तो रिलीज़ क्यों नहीं करते? है हिम्मत तो करें सार्वजनिक!
4.सर्जिकल स्ट्राइक सेना ने किये हैं, इसमें मोदी-मोदी क्या है?
5.सुन लिया न? पाकिस्तान ने एक जवान पकड़ लिया है, ये सरकार यही कराएगी.
6.बीबीसी ने अब तक भारत के कथित सर्जिकल स्ट्राइक की पुष्टि नहीं की है.
7.पुष्टि तो करे कोई! डीजीएमओ से क्या प्रेस कांफ्रेंस करा रहे हैं, रक्षा मंत्री क्यों नहीं ज़िम्मेदारी लेता?
8.पाकिस्तान ने साफ़ कह दिया है ऐसा कोई सर्जिकल स्ट्राइक नहीं हुआ, ये इंडियन मीडिया का जिंगोइज़्म है.
9.बंसल केस में अमित शाह को बचाने के लिए पाकिस्तान पे हमले की खबर प्लांट करा दी.
10.मोदी ने खुद ट्वीट क्यों नहीं किया फिर सेना के जवानों की हौसला अफजाई के लिए?

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जो लोग भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक्स के सुबूत मांग रहे थे, भारतीय होने के बावजूद पाकिस्तान के इनकार का हवाला दे के भारत को ही नीचा दिखा रहे थे, आतंक के सरगना हाफ़िज़ सईद का ताज़ा बयान उन सबके मुंह पे तमाचा है.

भारत के कथित बुद्धिजीवी मानें ना मानें, पाकिस्तान की सरकार माने न माने, उसकी समानांतर सत्ता पे काबिज़ हाफ़िज़ सईद तो मान रहा है, चिल्ला रहा है, तिलमिला रहा है.

हाफ़िज़ सईद की तिलमिलाहट से एक बात साफ़ हो गई कि ताल सही जगह ठुकी है. रही बात Zee TV वालो की, जिन्हें हाफ़िज़ सईद ने खुलेआम नाम ले के धमकी दी है, उन्हें आतंकवादियों के सर्टिफिकेट्स की न कभी ज़रूरत थी, न रहेगी. हमें हाफ़िज़ के पसंदीदा पत्रकार होने का कोई शौक नहीं.

देश के दुश्मनों का डीएनए ऐसे ही बेनकाब होता रहेगा, ताल ठोकी जाएगी और एक्स्ट्रा स्ट्रांग ठोकी जाएगी!

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जो भारत में पाकिस्तान का आधिकारिक उच्चायुक्त न कह सका, वो आधे राज्य के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कह डाला. मोदी जी, सुबूत दिखाओ. हम अपने देश की सेना के साथ हैं, लेकिन सेना के कहे पे भरोसा नहीं करते जी!


कहते हैं सीएनएन दिखा रहा है वहां तो बच्चे खेल रहे हैं. वो जो दिखा रहा है आप उसपे सवाल नहीं उठा रहे, अपने देश की सेना पे सवाल उठा रहे हैं.

हमारी सेना ने तो कभी कहा ही नहीं कि रिहायशी इलाके पे हमने हमला किया, सीएनएन रिहायशी इलाके दिखा रहा है, आप उसपे सवाल नहीं उठा रहे, अपने देश की सेना पे सवाल उठा रहे हैं.

कहते हैं सीएनएन को सुबूत दे दीजिए कि हमारी सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक किये. सीएनएन से भी पूछ लेते ओसामा के ऑपरेशन के बाद एबटाबाद गए थे क्या? ये जांचने के लिए कि यहाँ ओसामा नहीं था और उसे मारे जाने के सुबूत नहीं हैं. सीएनएन अब दिखा रहा है, आप उसपे सवाल नहीं उठा रहे, अपने देश की सेना पे सवाल उठा रहे हैं.

हमारी सेना ने आतंकी कैंप नष्ट किए. सीएनएन से कहिए न कि वो आतंकी कैंप दिखाए और बताए कि देखिये यहाँ तो कुछ हुआ ही नहीं, सारा धंधा वैसे ही चल रहा है. लेकिन वो कैम्प्स नहीं दिखा रहा है, और आप उसपे सवाल नहीं उठा रहे, अपने देश की सेना पे सवाल उठा रहे हैं!
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…तो भारतीय सेना ने वो कर दिया जिसकी क्षमता उसके पास हमेशा से थी, लेकिन उसके हाथ हमेशा से बंधे रहे थे.
भारत ने संसद हमले के बाद भी ऐसी कार्रवाई नहीं की थी, मुम्बई हमले के बाद भी. हमेशा एक सीज फायर के नाम पे भारतीय फौज को अपने लोगो को आतंकी हमलों में जान गंवाते देखने के बाद मन मसोस के रह जाना पड़ता था. लेकिन अबकी बार एलओसी पार हो गई. आखिर सब्र का बाँध कब तक अटका रहता?
हैरानी है कि कई लोगो का (पढ़ें पत्रकारों का) जोर अब भी इस बात पे है कि पाकिस्तान तो मना कर रहा है , ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. इनमें ज़्यादातर वही लोग हैं जो म्यांमार में भारतीय ऑपरेशन को झूठ साबित करने के लिए कई दिन तक पूरी ताकत झोंके रहे थे.

लेकिन पाकिस्तान ने कब किसी बात को माना है जो वो आज मान लेगा? उसने कसाब को अपना आदमी माना? मुम्बई हमले में अपना हाथ माना? संसद हमले में अपना हाथ माना? दाऊद उसके यहाँ है कभी माना? अच्छा चलिये ओसामा बिन लादेन उसके यहां था, कभी माना था? ओसामा को मार दिए जाने के बावजूद पाकिस्तान ये कहता रहा था कि ऐसा कुछ नहीं हुआ.
फिर पाकिस्तान से हमारे ये कथित बुद्धिजीवी कैसी स्वीकारोक्ति की उम्मीद कर रहे हैं?
इसलिए ऐसे कथित बुद्धिजीवियों की बजाए आज सेना की सुनिए. सेना में भी आपका विश्वास बढ़ेगा, और लोकतंत्र में भी.

– रोहित सरदाना 

संत रविदास और इस्लाम

आज जय भीम, जय मीम का नारा लगाने वाले दलित भाइयों को आज के कुछ राजनेता कठपुतली के समान प्रयोग कर रहे हैं। यह मानसिक गुलामी का लक्षण है। दलित-मुस्लिम गठजोड़ के रूप में बहकाना भी इसी कड़ी का भाग हैं। दलित समाज में संत रविदास का नाम प्रमुख समाज सुधारकों के रूप में स्मरण किया जाता हैं। आप जाटव या चमार कुल से सम्बंधित माने जाते थे। चमार शब्द चंवर का अपभ्रंश है। 
चर्ममारी राजवंश का उल्लेख महाभारत जैसे प्राचीन भारतीय वांग्मय में मिलता है। प्रसिद्ध विद्वान डॉ विजय सोनकर शास्त्राी ने इस विषय पर गहन शोध कर चर्ममारी राजवंश के इतिहास पर पुस्तक लिखा है। इसी तरह चमार शब्द से मिलते-जुलते शब्द चंवर वंश के क्षत्रियों के बारे में कर्नल टाड ने अपनी पुस्तक ‘राजस्थान का इतिहास’ में लिखा है। चंवर राजवंश का शासन पश्चिमी भारत पर रहा है। इसकी शाखाएं मेवाड़ के प्रतापी सम्राट महाराज बाप्पा रावल के वंश से मिलती हैं। संत रविदास जी महाराज लम्बे समय तक चित्तौड़ के दुर्ग में महाराणा सांगा के गुरू के रूप में रहे हैं। संत रविदास जी महाराज के महान, प्रभावी व्यक्तित्व के कारण बड़ी संख्या में लोग इनके शिष्य बने। आज भी इस क्षेत्रा में बड़ी संख्या में रविदासी पाये जाते हैं। 
 
                                          
उस काल का मुस्लिम सुल्तान सिकंदर लोधी अन्य किसी भी सामान्य मुस्लिम शासक की तरह भारत के हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की उधेड़बुन में लगा रहता था। इन सभी आक्रमणकारियों की दृष्टि ग़ाज़ी उपाधि पर रहती थी। सुल्तान सिकंदर लोधी ने संत रविदास जी महाराज मुसलमान बनाने की जुगत में अपने मुल्लाओं को लगाया। जनश्रुति है कि वो मुल्ला संत रविदास जी महाराज से प्रभावित हो कर स्वयं उनके शिष्य बन गए और एक तो रामदास नाम रख कर हिन्दू हो गया। सिकंदर लोदी अपने षड्यंत्रा की यह दुर्गति होने पर चिढ़ गया और उसने संत रविदास जी को बंदी बना लिया और उनके अनुयायियों को हिन्दुओं में सदैव से निषिद्ध खाल उतारने, चमड़ा कमाने, जूते बनाने के काम में लगाया। इसी दुष्ट ने चंवर वंश के क्षत्रियों को अपमानित करने के लिये नाम बिगाड़ कर चमार सम्बोधित किया। चमार शब्द का पहला प्रयोग यहीं से शुरू हुआ। संत रविदास जी महाराज की ये पंक्तियाँ सिकंदर लोधी के अत्याचार का वर्णन करती हैं। 
वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान
फिर मैं क्यों छोड़ूँ इसे पढ़ लूँ झूट क़ुरान
वेद धर्म छोड़ूँ नहीं कोसिस करो हजार
तिल-तिल काटो चाही गोदो अंग कटार

चंवर वंश के क्षत्रिय संत रविदास जी के बंदी बनाने का समाचार मिलने पर दिल्ली पर चढ़ दौड़े और दिल्लीं की नाकाबंदी कर ली। विवश हो कर सुल्तान सिकंदर लोदी को संत रविदास जी को छोड़ना पड़ा । इस झपट का ज़िक्र इतिहास की पुस्तकों में नहीं है मगर संत रविदास जी के ग्रन्थ रविदास रामायण की यह पंक्तियाँ सत्य उद्घाटित करती हैं

बादशाह ने वचन उचारा । मत प्यादरा इसलाम हमारा ।।
खंडन करै उसे रविदासा । उसे करौ प्राण कौ नाशा ।।
जब तक राम नाम रट लावे । दाना पानी यह नहीं पावे ।।
जब इसलाम धर्म स्वीरकारे । मुख से कलमा आप उचारै ।।
पढे नमाज जभी चितलाई । दाना पानी तब यह पाई ।।


जैसे उस काल में इस्लामिक शासक हिंदुओं को मुसलमान बनाने के लिए हर संभव प्रयास करते रहते थे वैसे ही आज भी कर रहे हैं। उस काल में दलितों के प्रेरणास्रोत्र संत रविदास सरीखे महान चिंतक थे। जिन्हें अपने प्रान न्योछावर करना स्वीकार था मगर वेदों को त्याग कर क़ुरान पढ़ना स्वीकार नहीं था। 
मगर इसे ठीक विपरीत आज के दलित राजनेता अपने तुच्छ लाभ के  लिए अपने पूर्वजों की संस्कृति और तपस्या की अनदेखी कर रहे हैं।  

 दलित समाज के कुछ राजनेता जिनका काम ही समाज के छोटे-छोटे खंड बाँट कर अपनी दुकान चलाना है अपने हित के लिए हिन्दू समाज के टुकड़े-टुकड़े करने का प्रयास कर रहे हैं। 

आईये डॉ अम्बेडकर की सुने जिन्होंने अनेक प्रलोभन के बाद भी इस्लाम और ईसाइयत को स्वीकार करना स्वीकार नहीं किया। डॉ विवेक आर्य 

Wednesday, 28 September 2016

डिस्को की आड़ में..सुप्रीम कोर्ट!

नारी का सम्मान करना एवं उसके हितों की रक्षा करना हमारे देश की सदियों पुरानी संस्कृति है. यह एक विडम्बना ही है कि भारतीय समाज में नारी की स्थिति अत्यन्त विरोधाभासी रही है. जिसमें चाहे सरकार शामिल हो, न्यायालय हो या हमारा समाज. अभी हाल ही में एक बार फिर देश की संस्कृतिक विरासत पर उच्च न्यायालय को हावी होते सभी ने देखा है. सुप्रीम कोर्ट ने डांस बार में शराब परोसने पर पाबंदी, संबंधी महाराष्ट्र के नए कानून को असंगत और पूरी तरह से मनमाना करार दिया है. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस तरह की  पाबंदी यह बताती है कि राज्य सरकार की सोच सदियों पुरानी है. अगर शराब न परोसी जाए तो बार लाइसेंस देने का क्या मतलब था. जबकि महाराष्ट्र सरकार के पक्षाकार का कहना है कि शराब पीना और परोसना हमारे मूल अधिकार नहीं है. ज्ञात हो महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी की सरकार ने 2005 में डांस बार पर रोक लगा दी थी. क्योंकि ये सामाजिक बुराई का प्रतीक थे. उस समय इस गठबंधन सरकार के फैसले का व्यापक रूप से स्वागत हुआ था. और देखते ही देखते इस रोक की चपेट में ठाणे, नवी मुंबई, पुणे, रायगढ़ के डांस बार भी आ गए. गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस रोक की वजह से करीब 6 लाख महिलाएं बेरोजगार हो गई थीं. साल 2013 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा डांस बार से प्रतिबंध हटा दिया गया पर अगले वर्ष 2014 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा पुलिस अधिनियम में दोबारा इसे लागू करने के सम्बंध में नया प्रावधान लाया गया था. किन्तु  अक्टूबर 2015 में  सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र में डांस बार पर लगी रोक को यह कहते हुए कि बार में डांस हो सकता है लेकिन किसी तरह की फूहड़ता नहीं. सशर्त हटाने का फैसला सुनाया था जिसके बाद डांस बार धडल्ले से चल निकले थे.

सदियों से ही भारतीय समाज में नारी की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है. उसी के बलबूते पर भारतीय समाज खड़ा है. नारी ने भिन्न-भिन्न रूपों में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. चाहे वह सीता हो, झांसी की रानी, इन्दिरा गाँधी हो, ओलम्पिक में पदक जीतने वाली साक्षी मलिक या पीवीसंधू, हो. किन्तु इन्ही सब के बीच से निकलकर आई वो नारी भी है जिन्हें बार बाला बोला जाता है. गरीबी, भूख, बेरोजगारी या मजबूरी इन्हें खींच लाती है इन अमीरों की ऐशगाह में. जहाँ उन्हें कुछ छोटी मोटी रकम के लिए कम से कम कपडें पहनकर जिस्म की नुमाइश के बदले पैसे मिलते है. जब महाराष्ट्र सरकार ने इसे हमारी संस्कृति के खिलाफ है, अश्लीलता बताकर बंद करने का आदेश दिया तो सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर आदेश निरस्त कर दिया कि ये अश्लीलता नहीं बल्कि उनकी कला है. अगर इन बार में अपनी कला का प्रदर्शन कर रही है तो उसे गलत नहीं कहा जाना चाहिए.मामला यही रुकता दिखाई नहीं दे रहा है. पीठ ने डांस बार में सीसीटीवी कैमरे लगाने की अनिवार्यता पर भी सवाल उठाए. जवाब में सरकार के वरिष्ठ वकील ने कहा कि अगर डांस बार में कुछ गलत होता है तो सीसीटीवी फुटेज से पुलिस को जांच में मदद मिलेगी. मगर कुछ लोग इस फैसले से खुश नहीं हैं क्योंकि वो कहते हैं सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने का फैसला आम आदमी की निजता में दखलंदाजी है. और यह तर्क सामने रखे कि यह सब हमारी संस्कृति का हिस्सा है हमारी संस्कृति के अनुसार दरबार में महिलाएं डांस करती थीं और उस दरबार में शराब भी परोसी जाती थी.
अगर उनके डांस का ही सवाल है, तो आज से नहीं बल्कि पिछले कई सैंकड़ों सालों से महिलाएं पुरूषों या भीड़ के सामने डांस कर रही हैं. यहां तक कि भगवान इंद्र के युग से लेकर राजा-महाराजों के दरबार में महिलाओं की ओर से डांस किया जाता था. बहरहाल इतना कहा जा सकता है कि अभी हमारे देश का पतन और अधिक होता दिखाई दे रहा है. दरअसल जब कभी पौराणिको ने काल्पनिक इंद्र और उसकी सभा में नाचती नर्तकी का उल्लेख कर इस झूठ को सत्य का रूप दिया होगा उन्होंने खुद नहीं सोचा होगा कि इनके इस झूठ की कीमत नारी जाति को हमेशा चुकानी पड़ेगी. अक्सर हमारी सरकारे एक ओर तो नारी को शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर उसे महिमामंडित करती है, जगह-जगह लोग नारी जागृति, नारी सम्मान की बात करते हें. बडे अधिकारी, नेतागण, अन्य सभी बुद्धिजीवी लोग सभाओं, गोष्ठियों एवं छोटे-बड़े मंचो पर नारी के समान अधिकार, महिला उत्पीडन के मुद्‌दों पर लच्छेदार भाषण झाडते हैं, लेकिन दूसरी ओर असल जीवन में इस पुरुष प्रधान समाज का नारी के प्रति वास्तविक नजरिया कुछ और ही होता है.
समझने को काफी है कि एक बार डांसर का जीवन 16 वर्ष की उम्र से शुरू होता है. जैसे-जैसे उम्र ढलती है, इन्हें कोई नहीं पूछता. बाद की जिन्दगी बेहद तकलीफदेह बन कर रह जाती है क्योंकि इनकी कीमत इनके चेहरे से लगाई जाती है. ज्यादा उम्र वाली औरतों का बार में कोई काम नहीं रहता इसके बाद अधिकांश को देहव्यापार की मंडी का रुख करना पड़ता है. जो एक बार इस दुनिया में आ गई तो समझो यहाँ से बाहर जाने के सारे रास्ते बंद हैं. इनकी जिन्दगी बार की चकाचैंध से शुरू जरूर होती है मगर इसका अंत जिस्म फरोशी की बदनाम काली गलियों में जाकर होता है. वो सिर्फ एक ऐसी देह बनकर रह जाती है जिसे भोगने को तो अधिकांश तैयार हो जायेंगे परन्तु अपनाने को कोई नही.! अक्सर सांस्कृतिक संध्या तो कहीं संस्कृतिक कार्यक्रमो के नाम पर, थानों में, नेताओं के जन्मदिन और पार्टियों में  समाचार पत्रों में अश्लील नृत्य की खबरें प्रसारित होती रहती है. जिनकी मीडिया से लेकर राजनैतिक गलियारों में निंदा होती देखी जा सकती है. पर कभी कोई कार्रवाही नहीं होती दिखती, सरकार महिला रोजगार की बात तो करती दिख जाती है किन्तु बार बालाओं के मामले में उनके स्थाई रोजगार के लिए कोई योजना सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सुझाई नहीं जाती. उलटा इस बार तो सुप्रीम कोर्ट ही महिलाओं के हक महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान से जुड़े कानून की अवहेलना सा करता नजर आ रहा है. क्या सुप्रीम कोर्ट यह भी तय कट बता सकता है कि बार डांसर महिलाएं है या नहीं है? यदि है तो फिर उनके सम्मान और रोजगार की रक्षा के प्रति उच्च न्यायालय प्रतिबद्ध क्यों नहीं?...लेख राजीव चौधरी 

पाकिस्तान के साथ किसका तकरार ?

मनसे की धमकी के बाद पाक कलाकार फवाद खान के भारत छोड़ने के बाद राजनीति और मीडिया में एक अजीब बहस चल पड़ी कुछ इसे कला का अपमान तो कोई कला पर हमला बता रहा है. क्वीनके निर्देशक विकास बहल का कहना है कि पड़ोसी देश के कलाकारों को देश छोड़ने पर मजबूर करने के बजाए, इस प्रकार के मुद्दों (आतंकवाद से संघर्ष) पर भावी कार्रवाई के लिए रणनीति बनानी चाहिए. गायक अभिजीत ने भाषा से संयम खोते हुए कई बालीवुड फिल्म निर्माताओं को दलाल और पाक कलाकारों को बेशर्म तक कह डाला. पूरा प्रकरण देखकर कहा जा सकता है कि बालीवुड दो हिस्सों में बंटता सा नजर आया. अभिजीत ने पिछले दिनों गुलाम अली के खिलाफ भी कहा था कि इन लोगो के पास सिर्फ आतंकवाद है और हम अपने देश में इन्हें पाल रहे है. पर उस समय सिने अभिनेता नसरुददीन शाह ने इस मामले पर दुख जताते हुए कहा था इस घटना से में बहुत शर्मिंदा हूँ क्योंकि जब में लाहौर गया था तो मेरा बहुत शानदार स्वागत किया गया था. इसका मतलब लड़ाई कलाकारों की नहीं है. न व्यापारियों की, राजनेता भी गलबहिया करते नजर आते है और क्रिकेटर भी.

भारत और पाकिस्तानी कलाकारो का एक दूसरे के यहां आना जाना लगा रहता है. राजनेता और मीडिया भी खबरों के अलावा आपसी संवाद स्थापित करते रहते है. क्रिकेटर भी मैच के बाद या कमेंटरी रुम में अच्छा वार्तालाप करते है. उधोगपति और व्यापारी भी अपने हितोनुसार आते जाते और मिलते रहते है. अब इस सारे प्रसंग पर गौर करने  कई सारे प्रश्न जन्म लेते है कि जब राजनीति, कला, व्यापार और खेल के साथ पाकिस्तान की कोई दुश्मनी नहीं है तो पाकिस्तान का भारत में दुश्मन कौन है? भारत की सेना? पर सेना के जवानों की यहाँ कौनसी ऐसी फैक्ट्री या परियोंजना चल रही है जो पाकिस्तानी उसे हथियाना चाहते है? या फिर पाकिस्तान के दुश्मन वो लोग जरुर है जो बाजारों में सामान खरीदते आतंकियों द्वारा बम विस्फोट में मारे जाते है. या फिर सरहद के किनारे बसे गाँवो में खेलते मासूम बच्चे जो अचानक हुई गोलाबारी में मारे जाते है वो जरुर पाकिस्तान के दुश्मन होंगे? 

फ़िल्मी सितारें तो पाकिस्तान के दोस्त है भला कला में क्या दुश्मनी? ओमपुरी उधर फिल्म बनाता है फवाद खान इधर कुमार सानू के वहां शो होते है और राहत फतेह अली खान के इधर. सानिया मिर्जा का शोहर पाकिस्तानी है तो अलगावादी नेता यासीन मलिक की बीबी पाकिस्तानी. जब राजनीती, कला, व्यापार और मीडिया में से पाकिस्तान का यहाँ कोई दुश्मन नहीं है तो पाकिस्तान का यहाँ तकरार किससे है? क्यों रोजाना सीमा पार से सीजफायर टूटते है,  क्यों हमारे देश के सैनिको पर घात लगाकर हमले होते है. क्यों उडी, पठानकोट में आतंकी हमले होते है?  आखिर उनकी यह दुश्मनी किससे है और कलाकारों की नजर में दुश्मनी का मापदंड क्या है?


स्थितियों का विश्लेषण करने की मेरी सीमित योग्यता के चलते मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ अभिजीत ने जो कहा वह उसकी देश के प्रति गहरी आस्था को दर्शाता है उसने कला से पहले देश को सम्मान दिया, हो सकता है उसके अन्दर शहीद हुए जवानों के परिवारों के प्रति प्रेम जागा हो, आखिर जो लोग सीमा पर बैठकर हमारे हितो की रक्षा करते है क्या हम उनके हित के लिए दो शब्द भी नही कह सकते? जब हिन्दुस्तान के मुस्लिम राजनेता सलमान रुश्दी के जयपुर साहित्य सम्मेलन में आने का विरोध कर सकते है तो मनसे और अभिजीत ने गुलाम अली का विरोध करके कोई पाप अनाचार नहीं किया इनके अन्दर भी देश प्रेम की भावना हिलोरे मार सकती है! क्योकि जिस देश से कलाकार आते है उसी देश से आतंक भी आता है, जिस देश के कलाकार यहाँ से पैसा और सोहरत बटोरकर ले जाते है उसी देश के आतंकी आकर जवानों के सर काटकर ले जाते है. तो इसका मतलब पाकिस्तान मेरा दुश्मन है? या फिर हर उसका दुश्मन है जिन्हें भारत की मिटटी से प्यार है?  दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा लेख राजीव चौधरी 

Monday, 26 September 2016

बुरहान हीरो है तो फेजुल्लाह आतंकवादी कैसे?

संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा है कि बुरहान वानी एक नौजवान नेता थे जिनकी भारतीय सेना ने जान ले ली, वो हालिया कश्मीरी स्वतंत्रता के प्रतीक के तौर पर उभरे थे जो कि एक लोकप्रिय और शांतिपूर्ण आजादी मांगने का अभियान है जिसकी अगुवाई कश्मीर के नौजवान और बुजुर्ग, पुरुष और महिला कर रहे हैं. नवाज अपने भाषण में कश्मीर के मुद्दे को कश्मीर की स्वतंत्रता से जोड़कर बता रहे थे जबकि बीते महीने नवाज शरीफ ही पाकिस्तान में नारे लगा रहे थे की कश्मीर बनेगा पाकिस्तान. हालाँकि भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शरीफ को जबाब देते हुए कहा है कि संयु्क्त राष्ट्र महासभा में हिज्बुल चरमपंथी बुरहान वानी का शरीफ द्वारा जो महिमामंडन किया, इससे पाकिस्तान का चरमपंथ से संबंध जाहिर होता है. सब जानते है बुरहान वानी हिजबुल मुजाहिदीन का एक घोषित कमांडर था जो कि एक आतंकी संगठन है.
नवाज शरीफ के भाषण पर अमेरिका में रहे पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी के अनुसार नवाज शरीफ के भाषण को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत ज्यादा तव्वजो नहीं मिली. क्योंकि संयुक्त राष्ट्र में 1947 से लोग ये सुन रहे है. रह गया आतंकवाद का मामला तो उस पर पूरी दुनिया सहमत है कि आतंकवाद का कोई औचित्य नहीं है. पाकिस्तान को अब ये कारोबार बंद करना होगा. दुनिया सब कुछ जानती है. पाकिस्तान का जिक्र करते हुए हक्कानी ने कहा कि पाकिस्तान के आतंकवाद पर अब दुनिया खुल कर बोलती है. यदि इसके बाद भी पाकिस्तान आतंकवाद से पल्ला झाड़ता है तो ये पाकिस्तान के लिए पछतावे के सिवा कुछ नहीं होगा. सर्वविदित है कि दिसम्बर 2014 पाकिस्तान के पेशावर के एक स्कूल में आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान द्वारा करीब 141 बच्चें मारे गए थे जबकि पाक सुरक्षाबलों की कार्रवाई में सभी 6 हमलावर भी मारे गए हैं। उस समय भारत में भी शोक व्यक्त किया गया था. एक अच्छे पड़ोसी का धर्म निभाते हुए हमने स्कूलों की एक दिन छुट्टी के साथ पुरे भारत ने इस दुःख की घड़ी में पाकिस्तान का साथ दिया था. तब भारत ने तहरीक-ए- तालिबान के कमांडर फेजुल्लाह जोकि इस हमले का मास्टर माइंड था उसे मासूम और युवा नेता कहने के बजाय आतंकी ही कहा था. यदि आज पाकिस्तान की नजर में हिजबुल आतंकी बुरहान वानी मासूम नेता है, तो फिर उत्तरी वजीरिस्तान में अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे तहरीक-ए-तालिबान के लड़ाके भी मासूम कहे जा सकते है? जिन पर पाकिस्तान की सेना लड़ाकू विमानों से बम बरसा रही है.
यह कोई नहीं बात है. पाकिस्तान हमेशा से विश्व समुदाय के सामने आतंक के प्रति दो मुखोटे रखता रहा है. जिसे पाकिस्तान ने गुड तालिबान और बेड तालिबान में विभक्त कर परिभाषित किया. मसलन जो आतंकवादी पाकिस्तान से बाहर हमले को अंजाम दे वो अच्छा तालिबान और पाकिस्तान में मासूम लोगों की हत्या करे वो बुरा तालिबान. शायद इसी वजह से आज विश्व में जब भी कहीं आतंक पर चर्चा होती है तो चर्चा में पाकिस्तान का नाम भी जरुर लिया जाता है. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कई अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय आतंकी पाकिस्तान की पनाह में मारे जा चुके जबकि कईयों का अभी भी सबसे सुरक्षित ठिकाना पाकिस्तान आज भी में बना हुआ है. जिनमें कई आतंकी संगठनों का रवैया पाकिस्तान के प्रति उदार रहा है. जबकि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान का रुख शुरू से कड़ा रहा है. उसका मानना है कि पाकिस्तान अमेरिका का गुलाम है और उसके नेता देश के गद्दार हैं. यही वजह है कि यह संगठन पाकिस्तानी नेताओं का दुश्मन नंबर वन है. उसका मानना है कि कबाइली इलाकों में अमेरिकी फौज के हमले पाकिस्तानी नेताओं की सहमति से हो रहे हैं. एक अनुमान के अनुसार इसके करीब 30000 से 35000 सदस्य हैं. प्रतिबंध लगने के बाद अल-कायदा, सिपह-ए-साहबा, लश्कर-ए-झांगवी, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हरकत-उल-मुजाहिदीन और हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लामी जैसे कई बड़े आतंकी संगठन भी पाकिस्तानी तालिबान में शामिल हो गए हैं.
दरअसल, पाकिस्तान ने पिछली सदी के 80 के दशक में आतंक के जहरीले नाग को दूध पिलाना शुरू किया था. पाकिस्तानी शासकों ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को इन विवशताओं के समीकरण में मिलाकर आतंक को न सिर्फ शह दी बल्कि उसको पाला पोसा. जिस कारण आज पाकिस्तान आतंक के अपने ही जाल में बुरी तरह फंस गया है. उसने जो गड्ढा पूरी दुनिया के लिए खोदा था. अब उसमें खुद ही आ धंसा है. लेकिन इन सबके बावजूद भी पाकिस्तान भारत के साथ मिलकर आतंकवाद के विरूद्घ ईमानदाराना लड़ाई लड़ने के लिए तैयार नहीं है. यदि भारत में आतंकी पठानकोट, गुरदासपुर, मुंबई, या उडी में हमला करते है, तो पाकिस्तान की नजर में वो हीरो होते है, किन्तु वहीं आतंकी जब लाहौर के पार्क में धमाका करते है, पेशावर या बाघा बोर्डर पर हमला कर पाकिस्तानी अवाम को मारते है तो आतंकवादी या बुरे तालिबानी हो जाते है. क्यों? गुलाम कश्मीर में जब कोई पाकिस्तान से अपने भू-भाग से मुक्ति चाहता है तो वो आतंकी होता है किन्तु जब कोई जिहाद की आड़ लेकर भारतीय सेना या समुदाय पर हमला करता है. उसे आजादी का परवाना कहा जाता है. युवा नेता कहा जाता है. यह दोहरा मापदंड किस लिए? हो सकता है इसी कारण लादेन और मुल्ला मंसूर जैसे आतंकी, जो अमेरिका में 3 हजार निर्दोष लोगों के हत्यारे थे वो भले ही समस्त विश्व के आतंकी रहे हो पर वो पाकिस्तान के हीरो रहे होंगे थे.
. इस सब के बावजूद पाकिस्तान चाहें तो बर्मा से सीख ले सकता है. उसने किस तरह पिछले वर्ष नागालेंड में भारतीय सेना के 18 जवानों की हत्या के बाद अपने देश में भारत को कार्रवाही के लिए खुली छुट दी थी. जिस कारण वहां आतंकी केम्प तबाह हुए थे. किन्तु पाकिस्तान इस मामले में भारत के खिलाफ आतंकियों को न केवल अपनी जमीन और हथियार उपलब्ध कराता बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पैरोकारी कर उन्हें हीरो बताता है. हालाँकि पाकिस्तान की यह परम्परा कोई नई नहीं है. पाक शासकों की भारत के प्रति यह दुर्भावना पुरानी है पाकिस्तान ने जिस तरह अपनी मिसाइल और अधिकतर युद्धक सामग्री को उन लोगों के नाम पर बनाया है जो कभी भारत को लुटने आया करते है. उसने गोरी, गजनवी आदि मिसाइल का निर्माण किया. उससे यह साबित होता है कि इस दुर्भावना का शिकार सभी पूर्व शाशक रहे है जो पाकिस्तान की राजनीति को विरासत में मिलती है. पाकिस्तान ने आज तक किसी भी मकान, मस्जिद या किसी सेवा को दाराशिकोह जैसे धर्मनिरपेक्ष लोगों का नाम नहीं दिया. क्या दाराशिकोह भी बुरा तालिबान था? और गोरी, गजनवी ओरंगजेब अच्छे तालिबानी हीरो? भारत सरकार को अब समझ जाना चाहिए कि सुरक्षा के मोर्चे पर कुछ नहीं बदला है.पाकिस्तान में भारत के प्रति दुर्भावना बहुत गहरी है जो कुछ मुलाकातों या से समाप्त नहीं हो सकती है. इससे आगे भी पाकिस्तान का दुहरा खेल अब उससे भी अधिक घिनौना होगा. कौन विश्वास करेगा कि पाकिस्तान सरकार और खुफिया सेवा को ओसामा बिन लादेन के छुपे होने की खबर नहीं थी? पाकिस्तान आज विश्व के लिए विस्फोटक बना हुआ है, जो आगे एक-एक दिन भारत समेत पुरे विश्व के लिए खतरनाक होता जा रहा है...दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा लेख्र राजीव चौधरी 

Saturday, 24 September 2016

युद्ध तो अवश्य होगा..

रक्षा मामलों के विश्लेषक राहुल बेदी के मुताबिक, सेना इस हालिया हमले के जवाब देने के लिए आतुर है. इससे परमाणु हथियारों से लैस दोनों पड़ोसियों के बीच तनाव बढ़ जाएगा. तो सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता राम माधव ने कहा है कि भारत के तथाकथित रणनीतिक संयम रखने के दिन लद गए. सेना के पूर्व अफसरों ने सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि भारत को पलटवार करना चाहिए. इसके जबाब में पाकिस्तान के पूर्व गृहमंत्री अब्दुल रहमान मलिक भारतीय प्रधानमंत्री के लिए अपशब्द बोलकर परमाणु हमले की धमकी दे रहे है. इस सारी उपापोह के बीच भारतीय जनता एक सवाल होटों पर लिए खड़ी है कि क्या युद्ध होगा?
तो में आपको बता दूँ. जब ‪‎कृष्ण अंतिम कोशिश के रूप में शांति संधि के लिए ‪‎हस्तिनापुर जा रहे थे तो द्रोपदी ने बड़ी ही ‪‎व्याकुलता से कृष्ण से पूछा था कि  ‘हे केशव, तो अब युद्ध नहीं होगा? कृष्ण ने उस समय द्रोपदी से कहा था  तुम मुझ से ज्यादा दुर्योधन पर विश्वास रखो, वो मेरी हर कोशिश को नाकाम कर देगा, इसलिए, हे द्रोपदी, निश्चिंत रहो, युद्ध तो अवश्य होगा। तो यहाँ भी सब भारतीय ‪‎नरेंद्र मोदी से ज्यादा ‪‎पाकिस्तान पर विश्वास रखे. युद्ध  तो अवश्य होगा। पर कैसे होगा इसका अभी सिर्फ आकलन ही किया जा सकता है. किन्तु इसमें अहम और ज्यादा गंभीर सवाल पर यह सोचना है कि क्या भारत के पास यह क्षमता है कि वह पाकिस्तान के अंदर पहले से तय ठिकानों पर हमला कर दे या उसकी जमीन पर सीमित युद्ध छेड़ दे? सोशल मीडिया में इस पर बहस छिड़ी हुई है कि भारतीय वायु सेना को पाकिस्तान स्थित ठिकानों पर क्यों अचूक और सटीक हमले करने चाहिए या नहीं.पर ज्यादातर रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा करना आसान नहीं है, क्योंकि पाकिस्तान के पास हवाई सुरक्षा के पुख़्ता इंतजाम हैं. इस पर भी संदेह जताया जा रहा है कि क्या भारत ने गैर पारंपरिक शक्ति संतुलन की क्षमता विकसित की है.
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि युद्ध होगा या नहीं होगा? तो लोगों को सोचना होगा कि युद्ध न कोई तमाशा है और न ही कोई मनोरंजन का साधन. युद्ध में मासूम लोग मरते है युद्ध से जमीने बंजर होती है. घायलों की कराह होती है. हर एक घटना के बाद भारत और पाकिस्तान की जनता युद्ध-युद्ध चिल्लाती है. कारण इन दोनों देशो ने अभी तक युद्ध देखा ही नहीं है.युद्ध के बारे में सिर्फ पढ़ा है. यदि युद्ध देखा भी है तो टीवी के सीरियल और फिल्मों में या फिर तीन चार बार सीमा पर फौजी जंगे देखी है. युद्ध देखा है लाओस वियतनाम इराक ने या युद्ध की त्रासदी झेली है जापान ने उनसे पूछो क्या होता है युद्ध? यूरोप के देशों से पूछो क्या होता युद्ध? मैं ये नहीं कहता कि इस डर से नपुंशक बन कर जियो. नहीं! जैसी स्थिति हो ऐसा प्रहार करो जरूरी नहीं कि सभी युद्ध हथियारों ही जीते जाते हो दुश्मन को भूखा मारकर भी युद्ध जीता जा सकता है!
बहरहाल कुल मिलाकर विदेश नीति के संबंध में हमें यह समझने की जरूरत है कि पहले विश्व दो ध्रुवीय था, लेकिन 21वीं शताब्दी में पूरा विश्व एक दूसरे पर ज्यादा निर्भर है. दुश्मन की निर्भरता के रास्ते रोक कर भी उसे कमजोर, पंगु किया जा सकता है. समझोते तोड़े जा सकते है. संधियाँ भी एक तरफा समाप्त की जा सकती है. उस अवस्था में हम भले ही ना भी लड़े पर भूगोल और परिस्थिति अपने शिकार को पकड़ लेती है. किसी भी देश की विदेश नीति उसके उसके भूगोल द्वारा निर्धारित होती है और हम पाकिस्तान की भोगोलिक स्थिति से भलीभांति परिचित है. हमेशा इस तर्क के सहारे युद्ध किये जाते रहे है कि शांति के लिए युद्ध जरूरी है. किन्तु युद्ध के बाद अमन या शांति का केवल नाम होता दरअसल उसके पीछे खामोशी छिपी होती है. न हमे अभी तक नाभकीय युद्ध का अंदाजा है न पाकिस्तान को दोनों देशों की मीडिया रात दिन युद्ध पर बहस कर रही है जबकि इस बात का सबको पता है कि दुसरे विश्व युद्ध को करवाने में यदि सबसे अहम रोल किसी का रहा था तो वो उस समय की मीडिया का रहा था. जो राजनेताओं को ताने देने लगी थी. नपुंशक और कायर तक लिखने लगी थी. आज भी मुझे कुछ ऐसा ही दिखाई दे रहा है. आज फिर मीडिया मानचित्रो को लेकर उन पर हमले कर रही है पर भूल जाती है कि मानचित्रो पर कलम चलाने से भूगोल नहीं जीते जाते उसके लिए रक्त से धरा लाल होती है. माओं को लाल बहनों को भाई और पत्नी को अपनी मांग का सिंदूर लुटाना पड़ता है. किन्तु इस युद्ध को तो हम धरा को लाल किये बिना भी दुश्मन से जीत सकते है उसकी निर्भरता पर वार कर सकते है.
अभी में एक रिपोर्ट पढ़ रहा कि क्या बलूचिस्तान का मामला उठानेवाले भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सिन्धु जल संधि के मुद्दे को आतंकवाद, दाउद इब्राहीम और हाफिज सईद से जोड़ने का साहस करेंगे! अंतर्राष्ट्रीय कानून की मान्यता है कि बदली हुई परिस्थितियों या घटनाओं के आधार पर कोई संधि भंग की जा सकती है. जिस प्रकार पाकिस्तान अपनी सीमा में भारत के खिलाफ आतंकवादी समूहों को पाल पोस रहा है, यह अपने आप में सिन्धु जलसन्धि (आईडब्ल्यूटी) भंग करने का पर्याप्त आधार है. सिंधु पाकिस्तान के गले की नस है. यदि भारत पाकिस्तान को अपने व्यवहार में सुधार लाने और आतंकवादियों का निर्यात रोकने के लिए विवश करना चाहता है तो आईडब्ल्यूटी भंग करने से अच्छा कारगर उपाय कोई नहीं! भारत के पास इस एकतरफा लेकिन अनिश्चितकालीन संधि को भंग करने के पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय कानूनी विकल्प मौजूद है. अमेरिका और रूस के बीच हुई ऐसी ही एक अनिश्चितकालीन अवधि की एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल संधि को अमेरिका ने भी बाद में वापस लिया था.
ऐसे समय में जब दोनों देशों के पास परमाणु शस्त्र हैं, और पाकिस्तान का रक्षा मंत्री खुलकर उनके प्रयोग की धमकी देता रहता है, उडी आतंकी हमले के बाद पानी कार्ड का अस्त्र ही भारत के लिए सबसे कारगर उपाय हो सकता है. दक्षिण एशिया के विशेषज्ञ स्टीफन कोहन का मानना है कि भारत-पाकिस्तान का कलह दुनिया के उन विवादों में एक है, जिनका निपटारा नहीं हो सकता है. हो सकता है कि कभी ख़त्म ही न हो. उन्होंने बीबीसी से कहा है, ‘यह ऐसा विवाद है जो पाकिस्तान जीत नहीं सकता और भारत हार नहीं सकता. इसके बाद भी सब जानते है भारत की विदेश नीति के निर्धारण में एतिहासिक परम्पराओं की भूमिका सराहनीय है. भारतीय दर्शनशास्त्र की सद्भावना उदारता और मानवतावादी सिद्धांत पर आधारित है. हम कमजोर नहीं किन्तु फिर भी अपनी इस परम्परागत नीति का अनुसरण करते है कि जियो और जीने दो. यदि इस सब के बावजूद भी कौरवो की समझ में नही आता तो पांड्वो को युद्ध के लिए तैयार रहना होगा........दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा लेख राजीव चौधरी