Monday, 12 September 2016

देश गुलाम क्यों बनता है ?

हमारा देश 1947 में स्वतंत्र हुआ था. किन्तु सही अर्थो  में हम आज भी पराधीन है. भाषा के पराधीन. मुगलों और अंग्रेजो की भाषा के पराधीन. हमारे तहसील और थाने अभी भी इन भाषाओं से स्वतंत्र नहीं है एक आरोप पत्र से लेकर भूमि के आय व्यय तक में उर्दू भाषा अभी भी यहाँ विराजमान है. तो वहीं हिंदी  संवैधानिक  मान्यता प्राप्त  मात्र भाषा व्यवहार में है। देश में एक नहीं दो  राजभाषाएँ हैं। अंग्रेजी वास्तव में दूसरी सहभाषा हो कर भी सत्ता के सभी केंद्रों  पर राज  कर  रही है। दूसरी ओर हिंदी प्रथम संवैधानिक राजभाषा के पद पर होते हुए भी मात्र कागज पर है। मतलब आज हिदी अँग्रेजी के अनुवाद की भाषा बनकर रह गयी है। दुनिया में ऐसी सोचनीय स्थिति किसी भाषा की नहीं होगी। देश की भाषा अपने पद से अधिकार से वंचित है। विदेशी भाषा  का  प्रभुत्व  देश की सत्ता पर, राजकाज  पर, शिक्षा, न्याय, मीडिया, व्यापार, उद्योग, उच्च वर्ग जो मुश्किल से चार प्रतिशत है, उसके आम व्यवहार में है। जिस कारण हिंदी प्रसांगिक बनकर रह गयी. हिंदी वस्तुत: फारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है, हिन्दी का या हिंद से सम्बन्धित। हिन्दी शब्द की उत्पत्ति सिन्धु -सिंध से हुई है क्योंकि ईरानी भाषा में स को ह बोला जाता है। इस प्रकार हिन्दी शब्द वास्तव में सिन्धु शब्द का प्रतिरूप है। कालांतर में हिंद शब्द सम्पूर्ण भारत का पर्याय बनकर उभरा । इसी हिंदी से हिन्दी शब्द बना। आज हम जिस भाषा को हिन्दी के रूप में जानते है,वह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक है। आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक संस्कृत है, जो साहित्य की आत्मिक भाषा थी।
2 फरवरी 1865 के दिन लॉर्ड मैकाले ने ब्रिटिश संसद में दिए गए अपने भाषण में जो कहा थामैंने पूरे भारत कोने-कोने में भ्रमण कर ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं देखा जो या तो भिखारी हो या चोर हो। इस देश में मैंने ऐसी समृद्धता, शिष्टता और लोगों में इतनी  अधिक क्षमता देखी है कि मैं यह सोच भी नहीं सकता कि हम इस देश पर तब तक राज कर पायेंगे, जब तक कि हम इस देश की रीड़ की हड्डी को ही न तोड़ दें, जो कि इस देश के अध्यात्म और संस्कृति निहित है। अत: मेरा यह प्रस्ताव है कि हम उनकी पुरानी तथा प्राचीन शिक्षा प्रंणाली को बदल दें। यदि ये  भारतीय सोचने  लगे कि  विदेशी और अँग्रेजी  ही श्रेष्ठ है और हमारी संस्कृति से उच्चतर है तो वे अपना आत्म सम्मान, अपनी  पहचान तथा अपनी  संस्कृति को ही खो देंगे और तब वे वह बन जायेंगे जो हम उन्हें वास्तविकता में बनाना चाहते हैं। सही अर्थ में एक गुलाम देश. मेकाले का कथन वह बताता है कि स्वाधीनता के सत्तर वर्ष हो जाने पर भी अपनी भाषाओं और शिक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्र में हमारी मानसिकता अब भी अँग्रेजी और अँग्रेजियत से मुक्त से मुक्त नहीं है। राष्ट्र स्वाधीन है, परंतु राष्ट्र की अपनी राष्ट्र भाषा तक नहीं है।
शिक्षा, न्याय, प्रशासन और जीवन के हर क्षेत्र में अँग्रेजी भाषा का प्रभुत्व निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। अब हमें यह सत्य स्वीकार करना है कि हमने अँग्रेजी को ही माध्यम माना लेकिन समझा नहीं कि माध्यम ही संदेश होता है। अँग्रेजी से चिपके रहे और अब अँग्रेजी भाषी देशों के अंध भक्त हैं। फ्राँस और जर्मनी पश्चिमी होते हुए भी अँग्रेजी से विज्ञान नहीं सीखते। पूर्व का जापान, जापानी में ही विज्ञान की पढ़ाई करता है। रूस भी विज्ञान की पढ़ाई अपनी भाषा रसियन  के माध्यम से करता है। परंतु हमारी धारणा है कि विज्ञान और तकनीक को अँग्रेजी में ही सीखा और विकसित किया जा सकता है, भारत की किसी भी भाषा में नहीं सीखा जा सकता है। हमें समझने ही नहीं दिया गया कि भाषा सिर्फ माध्यम नहीं है, वह हमारी जीवन पद्धति भी है और उसे अभिव्यक्त करने का साधन भी है। वह हमारी संस्कृति और सभ्यता का सार है। उसे त्याग कर हम कोई भी मौलिक काम कभी भी नहीं कर सकते हैं। अन्य भाषाऐं सीख कर उनमें कुशल कारीगर तो हो सकते हैं किंतु उनसे मौलिक सृजन नहीं कर सकते हैं। मौलिकता और सृजन का सीधा संबंध हमारी जीवन पद्धति को अपने वास्तविक रूप में पूरी तरह से खुल कर अभिव्यक्त करने से है। यह अभिव्यक्ति सिर्फ अपनी भाषा में ही कर सकते हैं। बीसवीं सदी में रूस और जापान विज्ञान में ब्रिटेन और अमेरिका से आगे नहीं थे।
आज उपभोक्ता वस्तुओं और तकनीक में जापान इन सबसे आगे है। सामरिक विज्ञान और अंतरिक्ष की खोज में रूस किसी से कम नहीं है। दोनों देशों में विज्ञान और तकनीक में अपनी जीवन पद्धतियों को नहीं बदला। इन देशों ने सार्वभौम विज्ञान को अपनी भाषाओं में सीखा और तकनीक को अपने देश की भाषाओं की आवश्यकताओं के अनुसार विकसित किया। लेकिन हमने अपनी मान्यता बना रखी है कि विज्ञान और आधुनिकता अँग्रेजी भाषा से सीखी और लायी जा सकती है। अंग्रेज भाषा में साहित्य रचने वाले भारतीयों के लेखन में मौलिकता का अभाव होता है। इस कारण वे अँग्रेजी साहित्य में सही जगह नहीं पा रहे हैं। यही हालत अँग्रेजी से डॉक्टर, इंजीनियर या तकनीक सीखने वालों की है। अँग्रेजी हमें किसी क्षेत्र में आगे नही बढ़ने देगी। हम उसके अंध बन कर ही रह सकते हैं। असली सवाल हिंदी या भारतीय भाषाओं का है ही नहीं, अपितु भारत का अपने साक्षात्कार के माध्यम से भारत होने का है। इंडिया से मुक्त होना होगा। जब तक हम अँग्रेजी से अपनी समस्याओं के ताले खोलने की कोशिश करेंगे, तब तक हम विषमता, भेदभाव, गरीबी, बेरोजगारी और हर व्यक्ति को सच्ची स्वाधीनता दे नहीं सकेंगे और नही सच्चे लोकतंत्र की स्थापना कर सकेंगे। भारत के भविष्य का निर्माण हिंदी सहित भारतीय भाषाओं को अपना कर ही किया जा सकता है। हमें पता लगाना होगा कि भारत की भाषाओं में कहाँ-कहाँ पर कितने युवाओं ने इंजीनियर, वैज्ञानिक, तकनीक के लिए संघर्ष किया है। अँग्रेजी भाषा से मुक्ति के लिए अपनी भाषाओं को अंगीकार किया है। इनका यशोगान हिंदी वालों को अवश्य करना चाहिए। हमारा लक्ष्य अँग्रेजी भाषा की अनिवार्यता के ख़िलाफ भारतीय भाषाओं को सम्मान देने का होना चाहिए।...आर्य समाज (दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा) Rajeev choudahray       

Thursday, 8 September 2016

मदर टेरेसा: क्या वो संत थी?

मदर टेरेसा! यह नाम सुनते ही किसी के भी मस्तिष्क में एक नीले बॉर्डर वाली, सर तक ढकी हुई, सफ़ेद साड़ी पहनी हुई, वृद्ध महिला का झुरियों भरा चेहरा उभरता है, जिसने मानवता की सच्ची सेवा के लिए अपना मूल देश त्याग दिया। जो गरीबों की हमदर्द बनकर उभरी और जिसने हज़ारों अनाथों, दीनों और निराश्रयों को सहारा दिया। जिसे उसकी सेवा के लिए विश्व शांति का नोबल पुरस्कार मिला था। मदर टेरेसा के विषय आपको यह सब मालूम है क्यूंकि आपको यही बताया गया हैं। परन्तु इस सिक्के के दूसरे पहलु से आप अभी अनभिज्ञ है। उसी से अवगत करवाना इस लेख का मुख्य उद्देश्य है।
सत्य अगर कड़वा भी हो तो भी वह सत्य ही कहलाता है। भारत में कार्य करने वाली ईसाई संस्थाओं का एक चेहरा अगर सेवा है तो दूसरा असली चेहरा प्रलोभन, लोभ, लालच, भय और दबाव से धर्मान्तरण भी करना हैं। इससे तो यही प्रतीत होता है की जो भी सेवा कार्य मिशनरी द्वारा किया जा रहा है उसका मूल उद्देश्य ईसा मसीह के लिए भेड़ों की संख्या बढ़ाना है। संत वही होता है जो पक्षपात रहित एवं जिसका उद्देश्य मानवता की भलाई है। ईसाई मिशनरीयों का पक्षपात इसी से समझ में आता है की वह केवल उन्हीं गरीबों की सेवा करना चाहती है, जो ईसाई मत को ग्रहण कर ले।

मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को स्कोप्जे, मेसेडोनिया[i] में हुआ था और बारह वर्ष की आयु में उन्हें अहसास हुआ कि “उन्हें ईश्वर बुला रहा है”। 24 मई 1931 को वे कलकत्ता आई और यही की होकर रह गई। कोलकाता आने पर धन की उगाही करने के लिए मदर टेरेसा ने अपनी मार्केटिंग आरम्भ करी। उन्होंने कोलकाता को गरीबों का शहर के रूप में चर्चित कर और खुद को उनकी सेवा करने वाली के रूप में चर्चित कर अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करी। वे कुछ ही वर्षों में "दया की मूर्ति", "मानवता की सेविका", "बेसहारा और गरीबों की मसीहा", “लार्जर दैन लाईफ़” वाली छवि से प्रसिद्द हो गई। हालाँकि उन पर हमेशा वेटिकन की मदद और मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी की मदद से “धर्म परिवर्तन” का आरोप तो लगता रहा । गौरतलब तथ्य यह है कि इनमें से अधिकतर आरोप पश्चिम की प्रेस[ii] या ईसाई पत्रकारों आदि ने ही किये थे[iii][iv]। ना कि किसी हिन्दू संगठन ने, जिससे संदेह और भी गहरा हो जाता है[v]। अपने देश के गरीब ईसाईयों की सेवा करने के स्थान पर मदर टेरेसा को भारत के गरीब गैर ईसाईयों के उत्थान में अधिक रूचि होना क्या ईशारा करता है? पाठक स्वयं निर्णय कर सकते है।
मदर टेरेसा को समूचे विश्व से, कई ज्ञात और अज्ञात स्रोतों से बड़ी-बड़ी धनराशियाँ दान के तौर पर मिलती थी। सबसे बड़ी बात यह थी की मदर ने कभी इस विषय में सोचने का कष्ट नहीं किया की उनके धनदाता की आय का स्रोत्र एवं प्रतिष्ठा कैसी थी। उदहारण के लिए अमेरिका के एक बड़े प्रकाशक रॉबर्ट मैक्सवैल, जिन्होंने कर्मचारियों की भविष्यनिधि फ़ण्ड्स में 450 मिलियन पाउंड का घोटाला किया[vi]। उसने मदर टेरेसा को 1.25 मिलियन डालर का चन्दा दिया। मदर टेरेसा मैक्सवैल की पृष्ठभूमि को जानती थी। हैती के तानाशाह जीन क्लाऊड डुवालिये ने मदर टेरेसा को सम्मानित करने बुलाया। मदर टेरेसा कोलकाता से हैती सम्मान लेने गई। जिस व्यक्ति ने हैती का भविष्य बिगाड़ कर रख दिया। गरीबों पर जमकर अत्याचार किये और देश को लूटा। टेरेसा ने उसकी “गरीबों को प्यार करने वाला” कहकर तारीफ़ों के पुल बांधे थे। मदर टेरेसा को चार्ल्स कीटिंग से 1.25 मिलियन डालर का चन्दा मिला था। ये कीटिंग महाशय वही हैं जिन्होंने “कीटिंग सेविंग्स एन्ड लोन्स” नामक कम्पनी 1980 में बनाई थी और आम जनता और मध्यमवर्ग को लाखों डालर का चूना लगाने के बाद उसे जेल हुई थी[vii]। अदालत में सुनवाई के दौरान मदर टेरेसा ने जज से कीटिंग को माफ़ करने की अपील की थी। उस वक्त जज ने उनसे कहा कि जो पैसा कीटिंग ने गबन किया है क्या वे उसे जनता को लौटा सकती हैं? ताकि निम्न-मध्यमवर्ग के हजारों लोगों को कुछ राहत मिल सके, लेकिन तब वे चुप्पी साध गई।

यह दान किस स्तर तक था इसे जानने के लिए यह पढ़िए। मदर टेरेसा की मृत्यु के समय सुसान शील्ड्स को न्यूयॉर्क बैंक में पचास मिलियन डालर की रकम जमा मिली। सुसान शील्ड्स वही हैं जिन्होंने मदर टेरेसा के साथ सहायक के रूप में नौ साल तक काम किया। सुसान ही चैरिटी में आये हुए दान और चेकों का हिसाब-किताब रखती थी। जो लाखों रुपया गरीबों और दीन-हीनों की सेवा में लगाया जाना था। वह न्यूयॉर्क के बैंक में यूँ ही फ़ालतू पड़ा था[viii]?

दान से मिलने वाले पैसे का प्रयोग सेवा कार्य में शायद ही होता होगा इसे कोलकाता में रहने वाले अरूप चटर्जी ने अपनी पुस्तक "द फाइनल वर्डिक्ट" पढ़िए[ix]। लेखक लिखते हैं ब्रिटेन की प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका Lancet के सम्पादक डॉ.रॉबिन फ़ॉक्स ने 1991 में एक बार मदर के कलकत्ता स्थित चैरिटी अस्पतालों का दौरा किया था। उन्होंने पाया कि बच्चों के लिये साधारण “अनल्जेसिक दवाईयाँ” तक वहाँ उपलब्ध नहीं थी और न ही “स्टर्लाइज्ड सिरिंज” का उपयोग हो रहा था। जब इस बारे में मदर से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “ये बच्चे सिर्फ़ मेरी प्रार्थना से ही ठीक हो जायेंगे"। मिशनरी में भर्ती हुए आश्रितों की हालत भी इतने धन मिलने के उपरांत भी उनकी स्थिति कोई बेहतर नहीं थी। मिशनरी की नन दूसरो के लिए दवा से अधिक प्रार्थना में विश्वास रखती थी। जबकि खुद कोलकाता के महंगे से महंगे अस्पताल में कराती थी। मिशनरी की एम्बुलेंस मरीजों से अधिक नन आदि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का कार्य करती थी। यही कारण था की मदर टेरेसा की मृत्यु के समय कोलकाता निवासी उनकी शवयात्रा में न के बराबर शामिल हुए थे।

मदर टेरेसा अपने रूढ़िवादी विचारों के लिए सदा चर्चित रही। बांग्लादेश युद्ध के दौरान लगभग साढ़े चार लाख महिलायें बेघर हुई और भागकर कोलकाता आईं। उनमें से अधिकतर के साथ बलात्कार हुआ था जिसके कारण वह गर्भवती थी। मदर टेरेसा ने उन महिलाओं के गर्भपात का विरोध किया और कहा था कि “गर्भपात कैथोलिक परम्पराओं के विरुद्ध है और इन औरतों की प्रेग्नेन्सी एक “पवित्र आशीर्वाद” है। मदर टेरेसा की इस कारण जमकर आलोचना हुई थी[x]।
मदर टेरेसा ने इन्दिरा गाँधी की आपातकाल लगाने के लिये तारीफ़ की थी और कहा कि “आपातकाल लगाने से लोग खुश हो गये हैं और बेरोजगारी की समस्या हल हो गई है”[xi]। गाँधी परिवार ने उन्हें इस बड़ाई के लिए “भारत रत्न” का सम्मान देकर उनका “ऋण” उतारा। भोपाल गैस त्रासदी भारत की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना है, जिसमें सरकारी तौर पर 4000 से अधिक लोग मारे गये और लाखों लोग अन्य बीमारियों से प्रभावित हुए। उस वक्त मदर टेरेसा ताबड़तोड़ कलकत्ता से भोपाल आईं, किसलिये? क्या प्रभावितों की मदद करने? जी नहीं, बल्कि यह अनुरोध करने कि यूनियन कार्बाईड के मैनेजमेंट को माफ़ कर दिया जाना चाहिये[xii]। और अन्ततः वही हुआ भी, वारेन एंडरसन ने अपनी बाकी की जिन्दगी अमेरिका में आराम से बिताई। भारत सरकार हमेशा की तरह किसी को सजा दिलवा पाना तो दूर, ठीक से मुकदमा तक नहीं कायम कर पाई।
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रकार क्रिस्टोफ़र हिचेन्स ने 1994 में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, जिसमें मदर टेरेसा के सभी क्रियाकलापों पर विस्तार से रोशनी डाली गई थी। बाद में यह फ़िल्म ब्रिटेन के चैनल-फ़ोर पर प्रदर्शित हुई और इसने काफ़ी लोकप्रियता अर्जित की। बाद में अपने कोलकाता प्रवास के अनुभव पर उन्होंने एक किताब भी लिखी “हैल्स एन्जेल” (नर्क की परी)। इसमें उन्होंने कहा है कि “कैथोलिक समुदाय विश्व का सबसे ताकतवर समुदाय है। जिन्हें पोप नियंत्रित करते हैं, चैरिटी चलाना, मिशनरियाँ चलाना, धर्म परिवर्तन आदि इनके मुख्य काम है। जाहिर है कि मदर टेरेसा को टेम्पलटन सम्मान, नोबल सम्मान, मानद अमेरिकी नागरिकता जैसे कई सम्मान इसी कारण से मिले[xiii]।

ईसाईयों के लिए यही मदर टेरेसा दिल्ली में 1994 में दलित ईसाईयों के आरक्षण की हिमायत करने के लिए धरने पर बैठी थी। तब तत्कालीन मंत्री सुषमा स्वराज ने उनसें पूछा था की क्या मदर दलित ईसाई जैसे उद्बोधनों के रूप में चर्च में जातिवाद का प्रवेश करवाना चाहती है[xiv]। महाराष्ट्र में 1947 में देश आज़ाद होते समय अनेक मिशन के चर्चों को आर्यसमाज ने खरीद लिया क्यूंकि उनका सञ्चालन करने वाले ईसाई इंग्लैंड लौट गए थे। कुछ दशकों के पश्चात ईसाईयों ने उस संपत्ति को दोबारा से आर्यसमाज से ख़रीदने का दबाव बनाया। आर्यसमाज के अधिकारीयों द्वारा मना करने पर मदर टेरेसा द्वारा आर्यसमाज के पदाधिकारियों को देख लेने की धमकी दी गई थी। कमाल की संत? थी[xv]।

मदर टेरेसा जब कभी बीमार हुईं तो उन्हें बेहतरीन से बेहतरीन कार्पोरेट अस्पताल में भर्ती किया गया। उन्हें हमेशा महंगा से महंगा इलाज उपलब्ध करवाया गया। यही उपचार यदि वे अनाथ और गरीब बच्चों (जिनके नाम पर उन्हें लाखों डालर का चन्दा मिलता रहा) को भी दिलवाती तो कोई बात होती, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। एक बार कैंसर से कराहते एक मरीज से उन्होंने कहा कि “तुम्हारा दर्द ठीक वैसा ही है जैसा ईसा मसीह को सूली पर हुआ था, शायद महान मसीह तुम्हें चूम रहे हैं। तब मरीज ने कहा कि “प्रार्थना कीजिये कि जल्दी से ईसा मुझे चूमना बन्द करे”।
मदर टेरेसा की मृत्यु के पश्चात भी चंदा उगाही का कार्य चलता रहे और धर्मान्तरण करने में सहायता मिले इसके लिए एक नया ड्रामा रचा गया। पोप जॉन पॉल को मदर को “सन्त” घोषित करने में जल्दबाजी की गई। सामान्य रूप से संत घोषित करने के लिये जो पाँच वर्ष का समय (चमत्कार और पवित्र असर के लिये) दरकार होता है, पोप ने उसमें भी ढील दे दी। पश्चिम बंगाल की एक क्रिश्चियन आदिवासी महिला जिसका नाम मोनिका बेसरा था।उसे टीबी और पेट में ट्यूमर हो गया था। बेलूरघाट के सरकारी अस्पताल के डॉ. रंजन मुस्ताफ़ उसका इलाज कर रहे थे। उनके इलाज से मोनिका को काफ़ी फ़ायदा हो रहा था और एक बीमारी लगभग ठीक हो गई थी। अचानक एक दिन मोनिका बेसरा ने अपने लॉकेट में मदर टेरेसा की तस्वीर देखी और उसका ट्यूमर पूरी तरह से ठीक हो गया। मिशनरी द्वारा मोनिका बेसरा के ठीक होने को चमत्कार एवं मदर टेरेसा को संत के रूप में प्रचारित करने का बहाना मिल गया। यह चमत्कार का दावा हमारी समझ से परे है। जिन मदर टेरेसा को जीवन में अनेक बार चिकित्सकों की आवश्यकता पड़ी थी। उन्हीं मदर टेरेसा की कृपा से ईसाई समाज उनके नाम से प्रार्थना करने वालो को बिना दवा केवल दुआ से, चमत्कार से ठीक होने का दावा करता होना मानता है। अगर कोई हिन्दू बाबा चमत्कार द्वारा किसी रोगी के ठीक होने का दावा करता है तो सेक्युलर लेखक उस पर खूब चुस्कियां लेते है। मगर जब पढ़ा लिखा ईसाई समाज ईसा मसीह से लेकर अन्य ईसाई मिशनरियों द्वारा चमत्कार होने एवं उससे सम्बंधित मिशनरी को संत घोषित करने का महिमा मंडन करता है तो उसे कोई भी सेक्युलर लेखक दबी जुबान में भी इस तमाशे को अन्धविश्वास नहीं कहता[xvi]।

जब मोरारजी देसाई की सरकार में सांसद ओमप्रकाश त्यागी द्वारा धर्म स्वातंत्रय विधेयक के रूप में धर्मान्तरण के विरुद्ध बिल पेश हुआ[xvii]। तो इन्ही मदर टेरेसा ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इस विधेयक का विरोध किया और कहाँ था की ईसाई समाज सभी समाज सेवा की गतिविधिया जैसे की शिक्षा, रोजगार, अनाथालय आदि को बंद कर देगा। अगर उन्हें अपने ईसाई मत का प्रचार करने से रोका जायेगा। तब प्रधान मंत्री देसाई ने कहाँ था इसका अर्थ क्या यह समझा जाये की ईसाईयों द्वारा की जा रही समाज सेवा एक दिखावा मात्र है। उनका असली प्रयोजन तो धर्मान्तरण हैं। देश के तत्कालीन प्रधान मंत्री का उत्तर ईसाई समाज की सेवा के आड़ में किये जा रहे धर्मान्तरण को उजागर करता है[xviii]।
इस लेख को पढ़कर हिन्दुओं का धर्मान्तरण करने वाली मदर टेरेसा को कितने लोग संत मानना चाहेंगे? 
लेख डॉ विवेक आर्य

Wednesday, 7 September 2016

कर दिया गायब वैदिक इतिहास,

एनसीईआरटी से गायब किया वैदिक इतिहास, क्या व्यर्थ जाएगी इस देश के लिए आर्यों की कुर्बानियां? 

सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए एक प्रश्न के जवाब राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और पशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) का कहना है कि उसके पास स्कूली किताबों में वैदिक इतिहास का चेप्टर जोड़ने की कोई योजना नहीं है। यह बात संस्थान ने कही है। सूचना में एनसीईआरटी ने कहा कि 2005 राष्ट्रीय पाठ्यक्रम परिचर्या तैयार किए जाने के बाद पुस्तकों में बदलाव किया गया। 2007 में इतिहास की नई किताबें शामिल की गई जिसमें वैदिक इतिहास को नहीं रखा गया है। जबकि इससे पहले तक एनसीईआरटी की एक पुस्तक में वैदिक इतिहास पढ़ाया जा रहा था। लेकिन एनसीईआरटी का कहना है कि विशेषज्ञों की सिफारिश पर पाठ्यक्रम तैयार हुआ था। जिसमें अब कोई बदलाव होने का प्रस्ताव नहीं है।
वैदिक इतिहास के मुद्दे पर कार्य कर रहे लोगों का कहना है कि एनसीईआरटी ने वामपंथी लेखकों के दबाव में वैदिक साइंस के विषय को हटा दिया। लेकिन आज छात्रों को यह जानने का हक है कि वेद क्या हैं, वैदिक गणित आज भी सामयिक है। इसी प्रकार आर्यन सभ्यता के बारे में आज एनसीईआरटी की किताबों में एक भी लाइन नहीं पढ़ाई जाती है। एक तरफ सरकार ने ऋगवेद को यूनेस्को के विश्व धरोहरों में शामिल कराया है तथा दूसरी तरफ इस वेद के बारे में एनसीईआरटी की इतिहास की किताबों में एक भी लाइन दर्ज नहीं है। आखिर यह काम किसके दबाव में हुआ? तब की तत्कालीन सरकार ने यह फैसला क्यों लिया और आज मौजूदा सरकार इस पर मौन क्यों है? भारत दुनिया का शायद अकेला ऐसा देश है, जहां के आधिकारिक इतिहास की शुरुआत में ही यह बताया जाता है कि भारत में रहने वाले लोग यहां के मूल निवासी नहीं हैं भारत में रहने वाले अधिकांश लोग भारत के हैं ही नहीं. ये सब विदेश से आए हैं. वामपंथी इतिहासकारों ने बताया कि हम आर्य हैं. हम बाहर से आए हैं. कहां से आए? इसका कोई सटीक जवाब नहीं है. फिर भी बाहर से आए. आर्य कहां से आए, इसका जवाब ढूंढने के लिए कोई इतिहास के पन्नों को पलटे, तो पता चलेगा कि कोई सेंट्रल एशिया कहता है, तो कोई साइबेरिया, तो कोई मंगोलिया, तो कोई ट्रांस कोकेशिया, तो कुछ ने आर्यों को स्कैंडेनेविया का बताया. आर्य धरती के किस हिस्से के मूल निवासी थे, यह इतिहासकारों के लिए आज भी मिथक है. मतलब यह कि किसी के पास आर्यों का सुबूत नहीं है, फिर भी साइबेरिया से लेकर स्कैंडेनेविया तक, हर कोई अपने-अपने हिसाब से आर्यों का पता बता देता है. भारत में आर्य अगर बाहर से आए, तो कहां से आए और कब आए, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है. यह भारत के लोगों की पहचान का सवाल है. विश्‍वविद्यालयों में बैठे बड़े-बड़े इतिहासकारों को इन सवालों का जवाब देना है. सवाल पूछने वाले की मंशा पर सवाल उठाकर इतिहास के मूल प्रश्‍नों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है.
एनसीईआरटी  से वैदिक इतिहास के हटाये जाने पर सरकार जबाब देना होगा यह दुनिया की सबसे पुरातन सभ्यता है. इतिहास में रुचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह आश्‍चर्य का विषय है कि जब ग्रीस, रोम और एथेंस का नामोंनिशान नहीं था, तब यहां के लोग विश्‍वस्तरीय शहर बनाने में कैसे कामयाब हो गए, टाउन-प्लानिंग का ज्ञान कहां से आया और उन्होंने स्वीमिंग पूल बनाने की तकनीक कैसे सीखी? अफ़सोस इस बात का है कि भारत के लोग जब अपने ही इतिहास को पढ़ते हैं, तो उन्हें गर्व की अनुभूति नहीं होती है. इसका कारण यह भी है कि देश के इन वामपंथी इतिहासकारों ने इस ढंग से इतिहास लिखा है कि जो एक बार पढ़ ले, तो उसकी इतिहास से रुचि ही ख़त्म हो जाती है.
भारतीय इतिहासकारों ने इन्हीं अंग्रेजों के लिखे इतिहास पर आर्यों और द्रविड़ों का भेद किया. बताया कि सिंधु घाटी में रहने वाले लोग द्रविड़ थे, जो यहां से पलायन कर दक्षिण भारत चले गए. अब यह सवाल भी उठता है कि सिंधु घाटी से जब वे पलायन कर दक्षिण भारत पहुंच गए, तो क्या उनकी बुद्धि और ज्ञान सब ख़त्म हो गया. वे शहर बनाना भूल गए, स्वीमिंग पूल बनाना भूल गए, नालियां बनाना भूल गए. और, बाहर से आने वाले आर्य, जो मूल रूप से खानाबदोश थे, कबीलाई थे, वे वेदों का निर्माण कर रहे थे. दरअसल, वामपंथी इतिहासकारों ने देश के इतिहास को मजाक बना दिया. यह भी एक कारण है कि इतिहास को फिर से लिखा जाना चाहिए हमारा सभी आर्यों से निवेदन है अपने अपने स्तर पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय को पत्र लिखकर विरोध दर्ज कराए यदि सरकार इस मुद्दे पर आँख बंद कर बैठना चाह रही हो तो हमारा समस्त भारत विश्व के आर्यों से आह्वान है की आन्दोलन के लिए तैयार रहे है सरकार चुप बैठ सकती है पर आर्य समाज चुप नहीं बैठेगा हमे वो इतिहास जिसमे एकता का संचार हो और जो हमारा हौसला बुलंद कर सके कि हम मानव विकास के मानदंडों पर दुनिया में अग्रणी रहे हैं.....(दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा) लेख राजीव चौधरी 

Tuesday, 6 September 2016

फिर राजनीति शर्मसार हुई

केजरीवाल खुद कहते फिर रहे थे कि कुछ भी गलत हो तो वीडियो बना लो| दिल्ली के महिला एवं बाल कल्याण मंत्री संदीप कुमार का किसी महिला से नाजायज सम्बन्ध का वीडियो लीक हुआ हालाँकि उन्हें तत्काल पद प्रभाव से हटा दिया जाना सामाजिक और राजनितिक लिहाज से सराहनीय कदम कहा जा सकता है| परन्तु इसके बाद भी यह मामला दबने का नाम नहीं ले रहा है| अब विवादित सीडी में सहयोगी महिला जो कि अब पीड़ित है ने थाने पहुंचकर मामले में को और तीखा बनाया तो वही  आम आदमी पार्टी के ही नेता आशुतोष ने अपने एक विवादित ब्लॉग के माध्यम से पूर्व महिला कल्याण मंत्री संदीप कुमार को क्लीनचिट देते हुए लिखा है कि भारतीय इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जहां हमारे नायकों और नेताओं ने सामाजिक बंधनों से बेपरवाह होकर अपनी इच्छाओं की पूर्ति की।
पंडित जवाहर लाल नेहरू की कई सहयोगी महिलाओं से प्रेम संबंधों के किस्से चटखारे लेकर कहे-सुने जाते थे। लेकिन इससे उनका करियर नहीं बरबाद हुआ। एडविना के साथ उनके रिश्तों की खूब चर्चा हुई। सारी दुनिया इसके बारे में जानती थी। उनका ये लगाव पंडित नेहरु के आखिरी सांस लेने तक बना रहा। क्या वो पाप था? आशुतोष यहीं नहीं रुके उन्होंने आगे लिखा इतिहास इसका भी गवाह है ब्रम्हचर्य से अपने प्रयोग के लिए गांधी जी बाद के दिनों में अपनी दो भतीजियों के साथ नंगे सोते थे। नेहरू ने उन्हें समझाया कि ऐसा न करें वर्ना देश उनके खिलाफ हो जाएगा, मगर गांधी नहीं माने। उनकी यह बात सही हो सकती है कि किसी के भी निजी जीवन के आंतरिक पलो में ना झाँका जाये पर यह मामला देश की राजधानी दिल्ली के मंत्री और वो भी महिला और बाल कल्याण मंत्री से जुडा है! इसका मतलब एक बार फिर राजनीति शर्मसार हुई या कहो देश पतन की और चला.इस मामले को समझने के लिए हमे एक पुनः थोडा अतीत का रुख करना पड़ेगा दरअसल अन्ना के लोकपाल आन्दोलन रामलीला मैदान की भूमि के उपजे आप पार्टी के सयोजक अरविन्द केजरीवाल पिछले कुछ सालों पहले देश के नौजवानों के लिए एक आशा बनकर उभरे थे कि देश अरविन्द के जरिये एक नैतिकता के मूल्यों में बंध जायेगा भ्रष्टाचार काला बाजारी बंद होने के साथ इस राजनीति के खेल में अरविन्द पारंपरिक वर्तमान राजनीति को चुनौती देंगे और पुराने खिलाड़ियों को नई वास्तविकताओं के साथ नई पीढ़ी के साथ नये विचारों के साथ देश के साथ जुड़ना पड़ेगा किन्तु हाल ही में अरविन्द और उसकी टीम द्वारा राजनैतिक व् सामाजिक मूल्यों की उडती धज्जियों के देखकर शायद एक फिर आज का युवा खुद को विकल्पहीन होकर निराशा के रास्ते पर लिए खड़ा है| हो सकता है कल लोग संदीप कुमार का नाम भूल जाये आशुतोष गुजरे जमाने की चीज हो जाये लेकिन लोग शायद ये बात नहीं भूलेंगे कि नेता तो यार ऐसे ही होते है|
आशुतोष ने उदहारण दिए पता नहीं उनमें कितना दम है पर में यह जानता हूँ कि अगर हम राजनेताओ का उदहारण दे तो हमें नेताजी सुभाषचंद्र बोस, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री, चौधरी चरणसिंह, जैसे बहुत सारे ऐसे नेता मिल जायेंगे जिनके चरित्र धवल है क्या आज इनके उदहारण कोई मायने नही रखते? प्रजातन्त्र मे चर्चा, आलोचना और समालोचना का अधिकार सबको है। सत्तारूढ़ पक्ष के कार्यों की उचित आलोचना, उसको आईना दिखाने का काम होना ही चाहिए। लेकिन ऐसा करते समय सफ़ेद झूठ का सहारा लेना, गाली और अपशब्दों का उपयोग करना बिलकुल उचित नहीं है। किसी भी देश की संस्कृति उस देश के बुजुर्गो, पूर्वजो और महापुरुषों के इर्दगिर्द घुमती है जिनसे हम सीखते और फिर उस संस्कृति को अगली पीढ़ी के हाथों में सोपते है| जाहिर सी बात यदि हम उस संस्कृति के मूल्यों में कुछ ना जोड पाए तो भी हमें ये भी अधिकार नहीं है कि हम अपने सामाजिक व् राजनैतिक स्वार्थ के लिए उसे खंडित कर अगली पीढ़ी के ऊपर थोफ कर भाग जाये|
मै परिवर्तन के खिलाफ नहीं हूँ खराब व्यवस्था कोई भी वो हटनी चाहिए पर उसकी जगह कोई ऐसी व्यवस्था जरुर आनी चाहिए जो स्थाई हो जिसकी गरिमा हो जिसका स्थापित मूल्य हो! लेकिन जिस तरह आशुतोष ने जो की अब राजनीति में है और एक नेता भी है पूर्व में लिखा कि यदि कोई लड़की शादी से पहले बहुत सारे शारारिक सम्बन्ध स्थापित नहीं करती तो वो समाज की दौड़ में पीछे रह जाती है| शायद हमारी सभ्यता और संस्कृति में इस तरह बयान एक बेहद ओछी हरकत कहा जायेगा क्या आशुतोष बता सकते है कि क्या आज एक महिला सिर्फ यौन सम्बन्ध के लिए ही रह गयी है? उसका वजूद यही तक सिमित रह गया है? क्या वो समाज की दौड़ पदक जीतकर, डाक्टर बनकर, संगीत, या आई,एस अफसर या फिर देश की राजनीति का हिस्सा बनकर नहीं जीत सकती? ऐसा नहीं है कि सिर्फ आशुतोष ही ऐसे नेता है समय-समय पर राजनीति के अन्दर से ऐसे गन्दी मानसिकता के नेता लगभग सभी पार्टियों में देखे गये है|
आज वर्तमान परिद्रश्य में राजनैतिक पार्टियों के शीर्ष नेता स्वयं एक दूसरों पर कीचड़ उछालने मे व्यस्त हैं। इनकी जबान से जनता की जरूरते उनके मुद्दे गायब हो चुके है अपने स्वार्थ और लाभ सर्वोपरी हो गये है, चाहे उसके लिए किसी भी हद तक जाना पड़े आज अल्पसंख्यक और दलित दो मुद्दे ऐसे हो गये है कि इनसे जुड़कर या किसी को जोड़कर नेता समाज में एक विघटन पैदा कर रहे है जैसे अभी सब ने देखा अपने कुकर्म पर पकडे जाने के बाद संदीप कुमार ने कहा कि में दलित हूँ इस वजह से मुझे फंसाया जा रहा है ये राजनीति में एक समाज को तोड़ने वाला गन्दा सा चलन बन गया है लोगों को ऐसे नेताओं को तिरस्कार करना चाहिए तभी राजनीति स्वस्थ होगी तभी देश स्वस्थ होगा यदि इसके बाद आशुतोष और आम आदमी पार्टी इतिहास के कुछ कारनामो को मानक बना रहे है तो उन्हें मुबारक वो फोलो करे देश को कोई आपत्ति नहीं है पर यह कृत्य देश के नौजवानों को ना सिखाये|..........(दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा) लेख राजीव चौधरी 

Saturday, 3 September 2016

बेटी है तो कल है पर उस बेटी का कल क्या है?

दिल्ली अपराध शाखा ने देह व्यापार के जरिए रोजाना दस लाख रुपए कमाने वाले एक बड़े अंतरराष्ट्रीय गिरोह का पर्दाफाश किया है। मुरादाबाद का अफाक और हैदराबाद की सायरा  इन दोनों के छह कोठों में 40 कमरों में ढाई सौ लड़कियों को बंधक बनाकर इस गोरखधंधे को अंजाम देने वाले पति-पत्नी सहित आठ लोगों को गिरफ्तार कर पुलिस ने इनके खिलाफ मकोका एक्ट के तहत मामला दर्ज किया है। वैसे देखा जाये तो कई बार तो हमारा देश राह चलती एक लड़की की छेडछाड़ पर भी शर्मसार हो जाता है और कई बार इस तरह की बड़ी से बड़ी घटना पर भी शर्मसार नहीं होता| मतलब हम ज्यादातर सिर्फ उन्ही खबरों पर शर्मसार होते है जिन पर न्यूज एंकर होते दिखाई देते है| रोहित वेमुला की आत्महत्या पर देश शर्मसार हुआ, अखलाक की हत्या पर हुआ, इतना तक हुआ कि अवार्ड, पदक तक सरकार के ऊपर फेंक दिए कलमकार, कथाकार, कलाकार इस घटना पर हर कोई शर्मसार हुआ था| यदि हम कभी शर्मसार नहीं हुए और ना होते इस मानव तस्करी कर कोठे पर बैठा दी जाने वाली नाबालिग बच्चियों को लेकर| आज हमारा समाज वेश्याओं को सोसायटी का सबसे तुच्छ हिस्सा मानता है लेकिन क्या ये बात सच नहीं कि इस भाग की रूपरेखा का निर्माण करने वाला भी स्वयं हमारा समाज ही है। हम अक्सर महिलाओं और पुरुषों से भरे कमरे में नारीवादी आंदोलन की बातें करते हैं, उसके विकास की, उसकी स्वतंत्रता के मूल्यों की| यदि कभी बात नहीं होती तो बस इस व्यभिचार की| या फिर इसे गन्दा विषय समझकर दूर खड़े हो जाते जबकि पुरुषवादी समाज बहुत अच्छे से समझता है। इसी समाज ने उन्हें घर की चारदीवारी से निकालकर सड़क पर खड़ा कर दिया है।

पिछले दिनों राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के एक अध्ययन के मुताबिक भारत में 68 प्रतिशत लड़कियों को रोजगार के झांसे में फंसाकर वेश्यालयों तक पहुंचाया जाता है। 17 प्रतिशत शादी के वायदे में फंसकर आती हैं। वेश्यावृत्ति में लगीलड़कियों और महिलाओं की तादाद 30 लाख है। सयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार किसी व्यक्ति को डराकर, बलप्रयोग कर या दोषपूर्ण तरीके से भर्ती, परिवहन या शरण में रखने की गतिविधि तस्करी की श्रेणी में आती है। दुनिया भर में 80 प्रतिशत से ज्यादा मानव तस्करी यौन शोषण के लिए की जाती है, और बाकी बंधुआ मजदूरी के लिए। भारत में दिल्ली मानव तस्करी का गढ़ बनता जा रहा है|सवाल है कि जब सारा समाज सभ्य है तो यह स्थिति क्यों बनती है| कहीं ऐसा तो नहीं कि इस स्थिति पर भी मांग और आपूर्ति का सिद्धांत लागू होता है। पुरुष काम करने के लिए बड़े व्यवसायिक शहरों की ओर पलायन करते हैं, जिससे व्यापारिक सेक्स की मांग पैदा होती है। इस मांग को पूरा करने के लिए सप्लायर हर तरह की कोशिश करता है जिसमें अपहरण भी शामिल है।
गरीब परिवार की छोटी लड़कियों और युवा महिलाओं पर यह खतरा ज्यादा होता है। यदि आप किसी गरीब परिवार में पैदा हों या लड़की हों तो खतरा और बढ़ जाता है। कभी कभी पैसों की खातिर मां बाप भी बेटियों को बेचने पर आमादा हो जाते हैं। सामाजिक असमानता, क्षेत्रीय लिंग वरीयता, असंतुलन और भ्रष्टाचार मानव तस्करी के प्रमुख कारण हैं। हमे आजाद हुए एक अरसा बीत गया किन्तु जब तरह कि घटना होती है तो हम कहीं ना कहीं खुद को लचर कानून व्यवस्था वाले देश के लाचार से नागरिक महसूस करते है| सडको, मेट्रो, बस आदि में  सब लोग होर्डिंग देखते होंगे जिनमें दो चुटिया कर एक बच्ची हाथ में स्लेट लिए बैठी रहती है जिसके नीचे लिखा होता है बेटी बचाओं-बेटी पढाओं, बेटी है तो कल है, भूर्ण हत्या पाप है आदि-आदि बहुतेरे स्लोगन दिखाई पड़ते है| पर क्या कभी सरकारें वो पोस्टर भी लगाती है जिनमें कोठों की खिडकियों से क्रीम, पाउडर से रंगी पुती मासूम बेटी मज़बूरी में ग्राहकों को आकर्षित करती दिखाई देती है? शायद नहीं कारण वो बेबस है, अपनी गरीबी में देह बेचने के लिए| कहा जाता है बेटी है तो कल है पर उस बेटी का कल क्या है? यही कि यदि वो कोख से बच गयी तो तस्कर उसे जिस्म बेचने के लिए किसी कोठे पर बैठा देंगे यदि हाँ तो फिर यह हमारे सभ्य संस्कारी समाज पर काला धब्बा उसका कोख में ही मर जाना सही है वरना हर रोज हर पल मारना पड़ेगा|

अनैतिक तस्करी निवारण अधिनियम के तहत व्यवसायिक यौन शोषण दंडनीय है। इसकी सजा सात साल से लेकर आजीवन कारावास तक की है। दिसंबर 2012 में हुए जघन्य बलात्कार मामले में सरकार ने एक विधेयक पारित किया जिससे यौन हिंसा और सेक्स के अवैध कारोबार से जुड़े कानूनों में बदलाव हो सके। लेकिन इन कानूनों के बनने और लागू होने में बड़ा अंतर है। हर तरफ फैले भ्रष्टाचार और रिश्वत के कारण इन एजेंटों का लड़के और लड़कियां को बेचना आसान है। लेकिन इन लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की जरुरत है जिससे इस समस्या को खत्म किया जा सके। साथ ही लोगों को उनके इलाके में अच्छी शिक्षा और बेहतर सुविधाएं देने की जरुरत है, जिससे मां बाप अपने बच्चों को इस तरह ना बेच सकें। इसके साथ ही लड़कियों और महिलाओं के प्रति नजरिया बदलने की भी जरुरत है। पिछले दिनों एक न्यूज़ रिपोर्ट में मेने पढ़ा था कि पॉर्न के नाम पर लड़कियों का किस तरह शोषण किया जाता है। उनके साथ कैसी हैवानियत की जाती है और जिसे सब लोग सहज -सेक्स कहकर पल्ला जाड़ देते हैं वह बेहद दर्दनाक होता है। फर्ज कीजिए,मेकअप लगाकर,दवाएं खाकर, बगैर किसी भावनात्मक तत्व के घंटों कैमरे के सामने सिर्फ शरीर के दो अंगों का घर्षण कितना दुखद और दर्दनाक होता होगा। मेरी बस एक छोटी सी गुजारिश है, सेक्स को प्रेम और प्रकृति का हिस्सा रहने दीजिए। प्रकृति को ही सेक्स मत बना दीजिए। हवस से हत्या ही होगी। किसी के चाहत की, किसी के सपने की तो किसी के अहसास की। सामने से इन्हें भला बुरा कहने वाले भी कहीं ना कहीं इन वेश्याओं से आकर्षित हो ही जाते है. शायद नसीब की मारी इन लड़कियों की हालत देखकर अगली बार इन्हें देखकर मुहं से गाली नहीं शायद सांत्वना के दो बोल निकल जाए...(दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा) लेख राजीव चौधरी

Wednesday, 31 August 2016

कश्मीर पर पाकिस्तानी अजान?

कश्मीर के मामले में भारत पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाने को पाकिस्तान अपने 22 सांसदों का दल विश्व के अलग-अलग देशो में भेजेगा| ये 22 प्रतिनिधि जाकर विश्व के अन्य देशो को बतायेंगे कि कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा है| इनमे एक सांसद है, अल्म्दाद लालिका ये चीन जायेंगे और वहां बताएँगे कि कश्मीर हमारा है दुसरे है मलिक परवेज ये लाहौर में अवेध कब्जे करने के लिए जाने जाते है ये जनाब हिंसा और इस्लामिक आतंक से झुझते देश तुर्की को समझाने जायेंगे, एक तीसरे है अब्दुल रहमान ये दक्षिण अफ्रीका जायेंगे और अफ़्रीकी समुदाय को बतायेंगे कि कश्मीर उनका है| लिस्ट लम्बी है और इसमें सबसे गजब बात ये है कि इनमें आधे से ज्यादा सांसदो को अंग्रेजी भाषा का ज्ञान नहीं है| सर्वविदित है कि पिछले 70 सालों से पाकिस्तान कश्मीर को लेकर परेशान है| जिस कारण एक बार फिर घाटी के कई जिले हिंसा से बुरी तरह प्रभावित है| डल झील में हॉउसबोट सुनसान दिखाई पड़ते है तो घाटी के सभी होटल खाली पड़े है| ईश्वर ने जम्मू कश्मीर को अप्रतिम प्राकृतिक सुषमा एवं जल संसाधन प्रदान किए हैं जिनका पर्यटन के संवर्धन के लिए समुचित ढंग से दोहन करने की जरूरत है। श्रीनगर में पर्यटन की वजह से जिन लोगों का भी कारोबार चलता है, उन लोगों में मायूसी छाई हुई है ञात हो कि पिछले साल 2015 में सबसे पीक सीजन 2014 में आए बाढ़ की वजह से प्रभावित हो गया था। इस साल वहां के कारोबारी उम्मीद लगाकर बैठे थे लेकिन श्रीनगर में चल रही हिंसा की घटनाओं ने एक बार फिर से उनकी उम्मीदों को झटका दिया है।
शायद लोगों के मन में यही सवाल खड़ा हो रहा है कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है? कुछ महीने पहले दिल्ली के जेएनयू से कश्मीर की आजादी के लिए निकला नारा कश्मीर में पंहुचकर घाटी को इस तरह लाल बना देगा किसी ने सोचा भी नहीं होगा| आज वहां सड़कें सूनी हैं। चौक पर बिखरे पत्थर, कंटीले तार और जली हुई गाड़ियां जंग सा अहसास कराते हैं। गलियों की खिड़कियों के टूटे कांच से खौफ झांकता दिखाई देता है| मुख्यमंत्री मुफ़्ती ने कहा है 95  फ़ीसद लोग बातचीत के ज़रिये सूबे में शांति की बहाली चाहते हैं और सिर्फ़ पांच प्रतिशत पूरी प्रक्रिया में रुकावट पैदा कर रहे हैं| अब प्रश्न यह है कि ये पांच प्रतिशत 95 प्रतिशत आबादी पर हावी कैसे होते है तो सुनिए पिछले दिनों एक प्रसिद्ध न्यूज़ चैनल की घाटी से रिपोर्ट आई थी कि वहां पर कदम-कदम पर मस्जिदों और मदरसों का निर्माण हो रहा है जो घाटी के लिए सबसे खतरनाक हो चला है| एक तरफ गरीब तबका और दूसरी ओर आलिशान मस्जिदे इस बात की गवाह है कि मस्जिदों में लगा धन वहां के लोगों के बजाय विदेशी है| तो सोचिये उनका सञ्चालन कहाँ से हो रहा होगा! इन मदरसों में कौन लोग पढ़ा रहे है और उनकी गतिविधियां क्या रहती इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया| कुछ स्थानीय लोगों के अनुसार सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकने का काम अलगावादी ताकतों के द्वारा इन्ही मदरसों के छात्रों को उकसाकर कराया जाता है| हिजबुल कमांडर बुरहान की मौत के बाद कश्मीर में सबने देखा है कि किस तरह मस्जिदों से मोमिनो का आवाहन होता रहा| घाटी में आजादी के गीत और इस्लाम के नाम पर सहादत की नज्म और तराने सुनाई देते रहे|

दरअसल कश्मीर पर पाकिस्तान की डबल नीति है एक को लॉन्ग टर्म पॉलिसी और दूसरी को शोर्ट टर्म बोला जाता है| लॉन्ग टर्म तो कश्मीर को हासिल करने की है और शोर्ट टर्म पॉलिसी यह है जब भी कश्मीर में कोई घटना हो तो उसे तुरंत मजहब से जोड़कर लोगों को उकसाकर हिंसा द्वारा उसका फायदा उठाया जाना| अब सवाल यह है कि सीमा पर सेना होने के बावजूद घाटी में पाकिस्तान की ये मजबूत पकड कैसे है? तो सुनिए अलगावादी नेता यासीन मलिक की पाकिस्तानी पत्नी मुशाल मलिक इन्ही दिनों पाकिस्तान में कश्मीर की आजादी का केम्पेन चला रही है तो अलगाववादी नेता गिलानी भी हर रोज कश्मीर बंद का आहवान करते है इसमें आसिया हो या मीरवाइज उमर इन लोगो ने घाटी के अन्दर अपनी एक वैचारिक फौज तैयार कर ली है|तो इस विचार को धन भी पाकिस्तान से मुहया हो जाता जिसका उपयोग शांत कश्मीर को अशांत बनाकर किया जाता है|कुछ रोज पहले ही एक रिपोर्ट के हवाले से पता चला था कि एक पत्थरबाज को इस काम को करने के 5 सौ रूपये मिलते है| दरअसल, घाटी में पत्थरबाजों ने एक रूल बना रखा है। हर घर से एक व्यक्ति को प्रदर्शन में भीड़ बढ़ाने जाना जरूरी है। नहीं गए तो अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहो। संवेदनशील इलाकों में ज्यादा फोर्स तैनात रहती है। शुक्रवार को ज्यादा बढ़ा दी जाती है। शाम को जब ये फोर्स अपने कैम्प में लौटने लगती है तो लड़के पीछे से उन पर पथराव करते हैं। हर रोज घंटे दो घंटे इन पत्थरबाजों का यही ड्रामा चलता है। सेना भी पहले पत्थर से ही इनका जवाब देती है। जब ये कैम्प और उनकी गाड़ियों के नजदीक आने लगते हैं तो आंसू गैस और रबर बुलैट का इस्तेमाल करती है। अगर भीड़ ज्यादा है और बेकाबू होने का खतरा है तब जाकर पैलेट गन चलाई जाती है। यहां भीड़ कई बार कुल्हाड़ी फेंकती है। पिछले एक महीने में तीन चार बार भीड़ में से एके-47 से फायर किया गया और ग्रेनेड भी दागे गए। हालाँकि विपक्ष ने संसद से लेकर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक पैलेट गन के इस्तेमाल पर रोक की मांग की, जिसके बाद गृह मंत्रालय का एक एक्सपर्ट पैनल पैलेट गन की जगह 'पावा शेल्स' यानी मिर्ची के गोले के इस्तेमाल पर विचार कर रहा है|


अक्सर कश्मीर के मुद्दे पर कई बार आम भारतीय सोचता है कि आखिर इस समस्या को भारत क्यों लिए डोल रहा क्यों वहां पर सैनिक मर जाते है क्यों वहां देश का पैसा वहां बर्बाद किया जा रहा है? इन सारे प्रश्नों का जबाब राजनाथ सिंह ने कश्मीर पहुंचकर दिया कि हिंदुस्तान का भविष्य कश्मीर के भविष्य से जुड़ा हुआ है| क्यों है जुडा हुआ इसका जबाब यह है कि घाटी में बेहिसाब जल श्रोत व् दुर्गम वनस्पति का भंडार है जिनपर चीन की नजर है| इस वजह से चीन हिमालय क्षेत्र पर कब्ज़ा करना चाहता है| कश्मीरी आज नासमझ है वो नहीं समझ पा रहे कि उनकी असली स्वतन्त्रता उनके नैतिक मूल्य उनकी कश्मीरियत उनके हित तब तक जिन्दा है जब तक वो भारत के साथ है| जिस दिन भारत अपना दावा छोड़ देगा उस दिन पाक की सहायता से चीन तिब्बत की तरह कब्ज़ा कर जायेगा फिर ना कश्मीर बचेगा ना कश्मीरियत|......चित्र साभार गूगल लेख राजीव चौधरी 

मदर टेरेसा मेक इन वेटिकन संत

चार सितम्बर को वेटिकन में मदर टेरेसा को संत घोषित करने के लिए आयोजित होने वाले कार्यक्रम में भारत प्रतिनिधित्व करेगा| विदेश मंत्री सुषमा स्वराज उस 12 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करेंगी| दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी रोम की यात्रा करेंगी| मार्च में पोप फ्रांसिस ने घोषणा की थी कि मिशरीज आफ चैरिटी की स्थापना करने वाली मदर टेरेसा को संत घोषित किया जाएगा| इससे पहले उनके निधन के बाद 1997 में गिरजाघर ने उनसे जुड़े दो चमत्कार की पहचान की थी| मदर टेरेसा को अब रोमन कैथोलिक चर्च का संत घाषित किया जाएगा| वैसे चमत्कार पर विश्वास भारत के मूल सविंधान के खिलाफ है और भारत सरकार का इसमें सम्मिलित होना एक गलत परम्परा को भी जन्म देगा क्योकि जिस आधार पर मदर टेरेसा को चमत्कारिक संत घोषित किया जा रहा है वो भारत जैसे देश में अन्धविश्वास को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने वाला कदम होगा|
सरकार द्वारा लोगों के साथ यह एक धार्मिक व्यंग है कि भारतीय संतो की दुनिया में एक विदेशी ब्रांड संत जल्दी आने वाली है| अभी तक भारतीय धर्म नगरी देशी संतो से सराबोर थी| अब पहली बार एक देश को विदेशी संत मिलेगी जो चार सितम्बर को वेटिकन से लांच होगी प्योर रोमन केथोलिक संत| पर अच्छा होता यह सब भी सरकार के मेक इन इंडिया प्रोग्राम के तहत होता| या ऐसा हो सकता है वर्तमान सरकार ने धर्म में भी एफ.डी.आई. लागू की हो कि संत भी अब विदेशी होंगे! यदि नहीं तो क्या सरकार ये बता सकती है कि अगर वो भारतीय थी तो उसे ये संत की डिग्री विदेश से क्यों? क्या चमत्कार करने वाले बाबाओं को भी संत की डिग्री देगी सरकार? ये प्रश्न उठने जायज है क्या अब सरकार टेरेसा के चमत्कारों से उत्साहित होकर चमत्कार अस्पताल खोलेगी? जिसमें दवा के बजाय चमत्कारों से असाध्य रोगियों का इलाज होगा! हो सकता है केजरीवाल जी भी मोहल्ला क्लीनिक के बजाय चमत्कार क्लीनिक खोल दे या फिर सुषमा स्वराज जी के आदेश पर स्वास्थ मंत्रालय में एक विभाग बना दे चमत्कार विभाग!
21 सदी में भारत जैसे गरीब देश में जहाँ सरकारों की कोशिश होनी चाहिए थी कि व्यापक पैमाने पर शिक्षा घर-घर तक पहुचाई जाये और लोगों को इन तथाकथित संतो देवी देवताओं पशु बली टोने टोटके आदि से बाहर निकाला जाये तब वहां वर्तमान सरकार इसे और अधिक बढ़ावा देने का कार्य सा करती नजर आ रही है| पिछले कुछ वर्षो में अंधविश्वास पर बारीकी से अध्यन करने के बाद एक बात सामने आई है कि कोई भी मजहब या समप्रदाय हो इस प्रकार की हरकते होती रही है और आगे भी होती रहेगी जब तक कि आम जनता अपने कर्मो पर विस्वास करने की बजाय बाबाओ, संतो माताओं, देवियों आदि के चक्कर में पड़ी रहेगी|
हो सकता है मदर टेरेसा की सेवा अच्छी रही होगी परन्तु इसमें एक उद्देश्य हुआ करता था कि जिसकी सेवा की जा रही है उसका इसाई धर्म में धर्मांतरण किया जायेपर मदर टेरेसा सिर्फ और सिर्फ इसाई कैथोलिक प्रचारक थी मदर टेरेसा की संस्था के अनाथालयों में अनाथ बच्चों को रोमन कैथोलिक चर्च के रीति रिवाजों और विधि विधान के मुताबिक पाला पोसा जाता रहा है यदि वहां से कोई बच्चा गोद लेना चाहे तो वो सिर्फ कैथोलिक इसाई बनने के बाद ही दिया जाता है एक बार एक प्रोटेस्टेंट इसाई परिवार बच्चा गोद लेने गया तो उसे यह कहकर मना कर दिया कि आपके साथ बच्चों के मनोवैज्ञानिक विकास पर बहुत बुरा प्रभाव होगा| उनके विकास की गति  छिन्न भिन्न हो जायेगी| हम उन्हें आपको गोद नहीं दे सकते क्योंकि आप प्रोटेस्टेंट हैं|उसी दौरान भारतीय संसद में धर्म की स्वतंत्रता के ऊपर एक बिल प्रस्तुत किया जाना था बिल प्रस्तुत करने के पीछे उद्देश्य था कि किसी को भी अन्यों का धर्म बदलने की अनुमति नहीं होनी चाहिए| जब तक कि कोई अपनी मर्जी से अपना धर्म छोड़ कर किसी अन्य धर्म को अपनाना न चाहे और मदर टेरेसा पहली थीं जिन्होने इस बिल का विरोध किया| उन्होंने तत्कालीन सरकार को पत्र लिखा कि यह बिल किसी भी हालत में पास नहीं होना चाहिए क्योंकि यह पूरी तरह से हमारे काम के खिलाफ जाता है| हम लोगों को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और लोग केवल तभी बचाए जा सकते हैं जब वे रोमन कैथोलिक बन जाएँ|
एक बड़ा सवाल लोग यह भी करते है कि यदि हम अपने लोगों की सेवा करते तो बाहरी लोगों को यहाँ आने की जरूरत नहीं पड़ती यह बात बिलकुल सत्य के करीब है क्योकि गरीब आदमी के पेट और अशिक्षा पर धर्म बड़ा जल्दी खड़ा होता है उड़ीसा के दाना मांझी वाले मामले में ही देख लीजिये कि बहरीन के सुल्तान ने उसे पैसे देने की पेशकश तक कर डाली वरना लोग तो सीरिया में भी रोजाना मर रहे है जो मुसलमान भी है उनके प्रति उसके मन में कोई संवेदना क्यों नही जगी? पर नहीं वह जानता है कि दाना मांझी एक हिन्दू आदिवासी है और इनकी गरीबी पर इस्लाम थोफा जा सकता है| जिस तरह मदर टेरेसा की नजर में उसके लिए गरीब आदमी सबसे बड़ा वरदान था मदर टेरेसा ऐसा क्यों चाहती थी| इसका जबाब 1989 में मदर टेरेसा ने खुद टाइम मैगजीन को दिए एक इंटरव्यू में दिया था|
प्रश्न- भगवान् ने आपको सबसे बड़ा तोहफा क्या दिया है?
मदर टेरेसा- गरीब लोग
प्रश्न भारत में आपकी सबसे बड़ी उम्मीद क्या है ?
मदर टेरेसा  सब तक जीसस को पहुंचाना

यह सब सुनकर पढ़कर क्या कोई उसे संत या कोई धार्मिक मानेगा शायद नहीं मेरे लिए मदर टेरेसा और उनके जैसे लोग पाखंडी हैं, क्योंकि वे कहते एक बात हैं, और करते दूसरी बात हैं| पर यह सिर्फ बाहरी मुखौटा होता है क्योंकि यह पूरा राजनीति का खेल है, आज वर्तमान सरकार भी पूर्वोत्तर राज्यों में अपनी पैठ बनाने के लिए इस पाखंड के खेल का हिस्सा बनने जा रही है संख्याबल की राजनीति| टेरेसा की मौत के बाद पॉप जॉन पॉल को उन्हें संत घोषित करने की बेहद जल्दबाजी हो गयी थी हो सकता है इसका मुख्य कारण भारत में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण किया जाना रहा हो? बहरहाल इस मामले पर प्रश्न इतना है कि यह इसाई समुदाय का अपना व्यक्तिगत मामला ना होकर धार्मिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह बन जाता कि क्या दो संयोग हो जाने पर किसी को संत घोषित किया जा सकता है? मनुष्य ईश्वर की बनाई व्यवस्था को संचालित कर उसके वजूद को टक्कर दे सकता है? यदि मदर टेरेसा को याद करने से दो रोगी ठीक हो सकते है तो समूचे विश्व में अस्पतालों की जरूरत क्या है? हर जगह टेरेसा का फोटो टांग दो मरीज ठीक हो जाया करेंगे| या फिर भारत में और अंधविश्वास को बढ़ावा देने की योजना हैवैसे देखा जाये तो पिछले कुछ सालों में भारत के अन्दर भी कोई दो ढाई करोड़ लोग संत शब्द का इस्तेमाल करने लगे है पर सही मायने में यह संत शब्द का अपमान है| सरकार को इस तरह के आयोजन में शरीक होने के बजाय बचना चाहिए| चित्र साभार गूगल लेख आर्य समाज