Friday, 21 December 2018

नवीन दलितवाद एक आन्दोलन या एक बदला


डॉ भीमराव आंबेडकर जी ने कहा था कि शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो यानि समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए सामाजिक न्याय पाने के लिए सभी का शिक्षित होना जरुरी है उसके लिए संगठन की भी आवश्यकता हैं और संघर्ष की भी। किन्तु आज बाबा साहेब के इन वचनों को भुलाकर जातीय रूप से बदले की भावना का उदय हो रहा है। सामाजिक न्याय से शुरू हुआ आंबेडकर जी के आन्दोलन को जातीय संघर्ष बनाया जा रहा है मसलन आज का अति दलितवाद कुछ इसी संघर्ष की ओर जाता दिख रहा हैं।

कभी सामतंवादी संस्थाओं और व्यवस्था के नीचे रहने वाली जातियों ने 18, 19 वीं सदी में प्रतिकार करना शुरू किया था जिसके नतीजे से आशातीत अच्छे भी रहे, सामन्तवाद धराशाही हुआ। वह व्यवस्था राजनितिक शाशन की प्रणाली से तो खत्म हो गयी किन्तु अभी भी कुछ लोगों जेहन में सामाजिक न्याय या समानता के अवसर के स्थान पर बदले की भावना में बदल दी गयी। इसलिये आज कथित शूद्र और दलित जातियाँ कहती हैं कि उनकी लड़ाई ब्राह्मणवाद के विरुद्ध है। इसमें अर्थात ब्राह्मणों द्वारा जिन करोड़ों लोगों को नीच, हीन और गरीब बनाया गया, वह खुद को हीन घोषित करने वाले नियम और वाद से मुक्ति चाहते हैं।

बेशक बहुत अच्छा मुक्तिवाद है बिल्कुल जायज बात भी है, किन्तु इसका आधार क्या है यह कौन तय करेगा की वह मुक्ति के मार्ग क्या है? आज जो मुक्ति के मार्ग दलितवाद के बहाने अपनाये जा रहे है मुझे उसमें कहीं भी मुक्ति नहीं अपितु संघर्ष दिखाई दे रहा हैं। जैसे हाल ही मैंने देखा कि दलितवाद की आड़ में हनुमान को आंबेडकर के पैरों को पूजते हुए दिखाना, मनुस्मृति को जलाना, हिन्दुओं के देवी-देवताओं को अपशब्द लिखना, हर समय अपने अतीत को कोसना, कथित ऊँची जातियों पर आरोप जड़ना इस आन्दोलन का केंद्र बना दिया गया हैं। ऐसा करके शायद स्वयं के लिए सहानुभूति और अन्य के लिए द्वेष की भावना का समाज खड़ा किया जा रहा हैं।

इसका अर्थ कुछ ऐसा हो जैसा यह कहने की कोशिश की जा रही हो मध्यकाल में जिन साधनों संसाधनों शक्ति के केन्द्रों से हमारा शोषण किया गया अब हम उन पर कब्जा कर तुम्हारा शोषण करेंगे। कमाल देखिये इसके लिए दलित और मुस्लिम समीकरण तैयार किया जा रहा है कि सत्ताईस फीसदी तुम बीस फीसदी हम आओ मिलकर इन्हें मजा चखाएं, भीमा कोरेगांव के मंच से पिछले वर्ष बार यही सन्देश दिया जा रहा था। पर शोषण किसका किया जायेगा! न तो आज वह शोषक रहे न वो शोषण किये लोग, तो बदला किससे?

इसमें सबसे पहले यह सोचना होगा कि शोषण किसका किया गया शायद उनका जो आर्थिक आधार पर कमजोर थे, किन्तु आज कमाल देखिये आर्थिक आधार पर भी उन्नति करने बावजूद दलित दलितवाद से बाहर नहीं आ सका। वह आरक्षण, सामाजिक राजनितिक सहानुभूति पाने के लिए दलित ही बना रहना ज्यादा अच्छा समझता हैं। बसपा नेता मायावती को ही देख लीजिये जिसे दलितों और अति पिछड़ी जातियों का जबरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ। परंतु यादव, कुर्मी और कई अन्य ओबीसी जातियों ने दलित नेतृत्व स्वीकार करने से इंकार कर दिया। क्योंकि राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना इस आंदोलन का लक्ष्य बन गया था और फुले, आंबेडकर और पेरियार के मिशन को भुला दिया गया। केवल सत्ता पाना बसपा का लक्ष्य बन गया। बसपा के सत्ता में आने के बाद जातिवादी और प्रतिक्रियावादी सामाजिक शक्तियों से हाथ मिलाना शुरू कर दिया और आज फुले, आंबेडकर और पेरियार केवल चुनाव जीतने के साधन बनकर रह गए हैं।

उंच-नीच या जातिवाद को कोसने से पहले लोगों समझना चाहिए कि क्या झगड़ा सिर्फ स्वर्ण और दलित के बीच है? नहीं! हर एक जाति समुदाय के अपने नियम-उपनियम है जिसे समझने देखिये एक कहार, कोरी को अपने से नीचा समझता है, एक कोरी हरिजन को नीचा कह रहा हैं, हरिजन पासी को पास नहीं बैठने देता और पासी भंगी को अछूत मानता है, एक हरिजन किसी भी कीमत पर अपनी बेटी भंगी के घर नहीं ब्याह सकता, और एक कोरी कहार के। इसके बाद सभी दलित जातियां कह रही हैं कि हमारे साथ स्वर्ण भेदभाव कर रहे है? और इसके लिए मनुस्मृति को कोसा जा रहा हैं। स्वयं इससे बाहर निकालने के बजाय उनमें सवर्णों ख़िलाफ एक दलितवाद को जन्म दिया जो मात्र जातियों का बदलाव चाहता है, उसे तोड़ना नहीं चाहता।

बात करें मनुस्मृति की जिसमें मनुष्यों को कर्म के आधार पर समाज में रखा गया, चार वर्ण बनाए गये, क्या वह नियम आज संविधान के अनुसार नहीं चल रहे क्या है ग्रुप ए से लेकर ग्रुप डी तक क्या यह भेदभाव नहीं है? क्या इस आधार पर भी आज समाज का बंटवारा नहीं किया जा रहा है यदि हाँ मनुस्मृति को फूंकना बंद कर देना चाहिए। यदि नहीं तो फिर संविधान से लगाव क्यों? अब कुछ लोग कहते है कि मनु महाराज ने शुद्र को पैरों से संबोधन किया किन्तु उसी मनु महाराज ने प्रथम प्रणाम भी तो चरणों को लिखा उसे भी समझिये?

असल में सभी को असली सच समझना होगा कि सामाजिक परिवर्तन, समानता, भाईचारा और जातीय बंधन तथा जाति तोड़ो आंदोलन सिर्फ अवसरवादी राजनीति के केंद्र बन चुके हैं। जाति बंधन सब तोडना चाहते है सामाजिक न्याय की बात भी होती रहेगी, आरक्षण के सहारे वे प्रशासन के गलियारे तक पहुँचे, दलितों के बड़े अधिकारी, नेता, मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति भी बने। किन्तु आज यह भी तय नहीं कर पा रहे हैं कि हम पूँजीवाद के साथ रहे या समाजवाद के साथ। इस कारण बस दलितवाद के नाम पर अतीत को गाली देकर एक बदले की भावना का निर्माण किया जा रहा है। दलितों के नेताओं को मंच माला और माइक की लत लग चुकी है इन संगठनों के नेता कभी भी दलितों के असली मुद्दे के बात नहीं करेंगे, केवल दलितवाद के प्रचार के सहारे जातीय संघर्ष खड़ा किया जा रहा है। जिसे एक आम दलित अपना आन्दोलन समझ रहा है।...लेख राजीव चौधरी 

आत्महत्या की ओर क्यों बढ़ रहे हैं बच्चें


वैसे तो 6 दिसम्बर की सुबह अखबार में किसी से चर्चा या बहस करने को बाबरी ढांचा, अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले से लेकर माल्या के प्रत्यापण और सीबीआई विवाद जैसी कई खबर मौजूद थी। किन्तु इसी बीच एक छोटी सी खबर थी कि शिक्षक की डांट से आहत होकर दिल्ली के इंद्रपुरी इलाके में कक्षा 7 की एक छात्रा ने कथित तौर पर आत्महत्या कर ली। एक पल को तो यह सामान्य खबर लगी लेकिन दूसरे पल अचानक मन में प्रश्न उठा कि सिर्फ इस वजह से आत्महत्या कि शिक्षक ने डांट दिया था? इसके बाद जेहन में एक पुरानी और दुखद स्मृति जिन्दा हो गयी जब कई साल पहले मेरे में गाँव में पड़ोस के एक लडकें ने दसवीं क्लास में फैल हो जाने पर इस कारण आत्महत्या कर ली थी कारण उसके पिता ने उसे डांट दिया था।

ऐसा ही कुछ पिछले साल मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले में हुआ था जहां प्रिंसिपल की डांट-फटकार से आहत 10वीं की एक छात्रा ने खुदकुशी कर ली थी। इसके बाद का एक मामला और मुझे याद आया कुछ समय पहले दिल्ली कैंट स्थित आर्मी स्कूल में एक दसवीं की छात्रा स्कूल में कंप्यूटर की शिक्षिका के डांटने पर घर आकर जहर खा लिया था। दरअसल अब ये खबर इतनी आम चुकी है कि दिल्ली समेत देश के बड़े महानगरों से हर दूसरे-तीसरे दिन ऐसी खबरें अखबारों के कोनों में छपी होती है और भागती दौडती जिन्दगी में लोग इन पर ध्यान भी नहीं देते।

इन खबरों के जाल को तोड़ते हुए मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ गये जब गलती पर तो अध्यापक पीटते ही थे, कई बार तो बिना गलती के डांट खानी पड़ती थी। लेकिन कभी ऐसा ख्याल मन में नहीं आया किन्तु आज छात्रों को जरा सा डांटने पर कितनी आसानी से ऐसे कदम उठा लेते हैं। हालांकि विगत कुछ वर्षों में स्कूलों में बच्चों की पिटाई पर पूरी तरह बैन लगा दिया गया, फिर भी ऐसे मामले रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। ऐसा लग रहा कि पढने, खेलने कुछ कर दिखाने की चाह से ज्यादा आज बच्चो में अपने आप को मिटा देने की राह ज्यादा भा रही है।

इसमें सबसे पहले समस्या को खोजना होगा इसके बाद समाधान पर ही चर्चा हो सकती हैं। यदि समस्या की बात स्कूल से करें तो बेशक आज स्कूलों में शारीरिक दंड पर पूरी तरह बैन लगा दिया, किन्तु जो बदले में मानसिक दंड देने की शुरुआत की वह ज्यादा खतरनाक हैं। इसमें छात्रों को बार-बार स्कूल से निकाले जाने की धमकी देना, उनके अभिभावकों को बुलाकर या क्लासरूम में सभी छात्रों के सामने अपमानित करना आदि हैं। इसे भावनात्मक रूप से मजबूत छात्र तो बर्दास्त कर जाते किन्तु जो छात्र भावनात्मक रूप से कमजोर होते है वह इसे बर्दास्त नहीं कर पाते। हालाँकि विद्यालय ऐसे मुद्दों को सामान्य बनाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं जो पिछले कुछ सालों में नये अनुशाशन के लिहाज से वर्जित से हो गए हैं।

दूसरा एक तो आज स्कूल चाहरदीवारी वाली जगह बन गए हैं, जहां बच्चे केवल किताबी शिक्षा ग्रहण करते हैं दूसरा घर वहां भी वह दीवारों के अन्दर तक सिमट गये हैं। कॉलोनी भले कितनी पॉश हो, भले ही उन्हें आधुनिक सुविधाएं दी जा रही हैं, याद रखें बच्चें अकेले है। उनके पास संयुक्त परिवार नहीं है कि माँ ने डांट दिया तो दादी, ताई या बुआ ने स्नेह दे दिया। आज इस कमी के कारण उनके अंदर असुरक्षा की भावना पैदा हो रही है। बच्चों के साथ खेलें, उन्हें समय दे, भावनात्मक रूप से मजबूत करें, उनके अन्दर नकारात्मकता को जन्म न लेने दे। स्कूलों को समझना होगा उन्हें बच्चें को सिर्फ कागजी शिक्षा का ठेका नहीं दिया बल्कि उन्हें सामाजिक शिक्षा और भावनात्मक स्तर पर मजबूत बनाने की जिम्मेदारी भी हैं। इसमें सबसे बड़ी बात यह सोचनी होगी कि वह छात्र-छात्रा के अतिरिक्त अभी कोमल मन के बच्चें भी हैं वह इस उम्र में शरारत नहीं करेंगे तो फिर कब करेंगे? इसमें बेहतर समाधान तो यह है कि बच्चों के लिए स्कूलों में हलकी-फुलकी शरारत करने का भी समय अवधि होनी चाहिए ताकि वो भविष्य में जरा-जरा सी बात पर आहत न हो।
आज अभिभावकों द्वारा भारी भरकम रकम चुकाने के बाद भी छात्रों की आत्महत्या के अधिकांश मामले आधुनिक महंगे स्कूलों, कोचिंग संस्थानों से आ रहे है। मैं पिछले दिनों राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों को देखा तो अकेले कोटा में छात्र-छात्राओं द्वारा 2014 में 100 आत्महत्या के मामले दर्ज किए गए जिनमें से 45 कोचिंग छात्र थे तो वहीं 2015 में 20 छात्रों के खुदकुशी के मामले सामने आए थे।  
दरअसल शिक्षण संस्थाओं की तो प्रकृति है कि वह छात्रों का केवल क्लासरूम तक ही ध्यान रखती है। इसके बाहर की जि‍म्मेदारी छात्रों की खुद की होती है कि वह बाहर की संस्कृति से तालमेल कैसे बैठा पाते हैं। ऐसे में कुछ तो कई प्रेम संबंधों में सुकून ढूंढने लगते हैं। कुछ अकेलेपन का शिकार हो जाते है। यदि आप बच्चों को अच्छे नंबरों, करियर, नौकरी, उनकी आदतों, आदि के लिए लगातार डांटते फटकारते रहते हैं, तो वे खुद की दुनिया को सीमित समझने लगते हैं और जब उनका मानसिक दर्द असहनीय हो जाता है तब वो यह कदम उठाते हैं।
तीसरा सब जानते है छात्रों को पढने खेलने आगे बढ़ने के लिए साधनों, संसाधनों के साथ जरूरत के हिसाब से उम्र के एक पड़ाव तक आर्थिक सहायता की भी जरूरत होती हैं। कई बार यह सब चीजें तो उन्हें मिल जाती हैं किन्तु किसी भी तनाव या दबाव के दौर में वह नैतिक, मानसिक समर्थन नहीं मिल पाता जो पहले संयुक्त परिवारों में मिलता था। आप बच्चों को 20 वर्ष की आयु तक परिपक्व मत समझिये क्योंकि इस अवस्था तक वह अपनी सभी परेशानियों का हल अकेला नहीं खोज सकता उसके साथी बनिए उसके सहयोगी बनकर उसे परेशानियों का सामना करने की हिम्मत और प्रेरणा दीजिये।
अब हो क्या रहा है कि ज्यादातर जगह माता-पिता दोनों कामकाजी होते हैं. बच्चों को महंगे स्कूलों में डालकर अपनी पूर्ण जिम्मेदारी समझ लेते है, लाड-प्यार के नाम पर उसे महंगे खिलोने थमा देते है। इससे एक पल को बच्चा खुश तो हो जाता हैं लेकिन उसके अन्दर कहीं न कहीं अकेलेपन में अवसाद घर करने लगता हैं। ऊपर से माता-पिता का हर रोज ये कहकर दबाव बनाया जाना कि हम उसके ऊपर किस तरह धन खर्च कर रहे हैं यदि अच्छे अंक नहीं आये सोसायटी में उनकी इज्जत कम हो जाएगी।
आज अभिभावकों को समझना होगा कि लाड-प्यार, पालन-पोषण की परिभाषा बड़े स्कूल में दाखिला, महंगे खिलोने, ढेर सारे कपड़ों तक सिमित नहीं हैं। आप उन्हें पढ़ा रहे तो हर समय उन पर इसका अहसान मत दिखाइए ये बच्चें है आपके घोड़े नहीं कि आप इन पर दांव लगा रहे है कि अगर ये चूक गये तो आपका दांव बेकार हो जायेगा। उन पर अहसान जताने के बजाय उन्हें जिंदगी की अहमियत का अहसास दिलाएं। उन्हें समझाएं जिंदगी जीना एक ख़ूबसूरत चीज है और जिंदगी की आंखों में आंखें डालकर देखना असली बहादुरी है. हार-जीत जीवन का नियम हैं, हम विजेता बनकर जन्म नहीं लेते खिलाडी बनकर जन्म लेते हैं। जब हम जीवन के हर एक मैदान पर अच्छा खेलते है तभी विजेता बनते है। शायद तभी वह समस्याओं का सामना करेंगे वरना उनके पास सिर्फ घुटन, अकेलापन, चिडचिडापन मानसिक अवसाद के साथ आत्महत्या जैसी चीजें होंगी।...लेखक-राजीव चौधरी 

आखिर हमारे युवा किस दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं?


इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज का वर्तमान कल का भविष्य तय करेगा, मसलन जिस सोच और विचारधारा को लेकर हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे वही विचारधारा कल देश, काल और समाज को प्रभावित करेगी। आज आप तटस्थ होकर गहनता से अध्यन कीजिए सोशल मीडिया से लेकर विश्विद्यालयों तक जहाँ आपको युवाओं का झुण्ड सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक मुद्दों पर चर्चा करता नजर आयेगा। आपको एकदम से बदलाव दिखाई देगा। युवा आपको गंभीर चिन्तक दिखाई देगा, किन्तु इसके बाद का युवा आपको कुछ और दिखाई देगा। यानि किताबें पढ़ो, नई नई बातें सीखो, लेकिन घर और समाज में घुसने से पहले उन्हें छोड़ आओ।



अब आप युवाओं का चार भागों में वर्गीकरण करिये। पहला युवा चिन्तक है लेकिन कुछ कर नहीं सकता।  दूसरा युवा चिन्तक है लेकिन कुछ करना नहीं चाहता। तीसरा युवा चिन्तक और मननशील है किन्तु अपने लिए अवसर चाहता है। इसके बाद एक चौथा युवा है जो इन सबसे अलग है उसकी कोई सोच और विचाधारा नहीं है वो भीड़ की शक्ल में खड़ा है तमाम लोगों द्वारा भरपूर उपयोग किया जा रहा है।

एक विचारधारा आज युवाओं को सीखा रही है कि सभी समस्याओं की जड़ धर्म और जाति है। किन्तु इसका निदान क्या इससे हाथ खाली दिखाई दे रहे है। मैं भी मानता हूँ आज कई सामाजिक समस्याओं में धर्म और जाति के हस्तक्षेप को नकारा नहीं जा सकता। किन्तु वह हस्तक्षेप राजनितिक धर्म और जाति का दिखाई देगा हाँ जहाँ इस राजनितिक धर्म की समस्या से बाहर निकलने के रास्ते सुझाने थे वहां इसे बवाल का पोचा बनाकर विचारकों, बुद्धिजीवियों द्वारा अपनी स्वयं की पैठ का फर्श चमकाया जा रहा है। अफसोस कि वरिष्ठ पत्रकार भी अपना बौद्धिक संतुलन खोकर इस बवाल की राजनीति की जय-जयकार कर रहे हैं. सोशल मीडिया पर उन्हें फोलो करने वाले लोग उनकी पूजा करने पर उतारू हैं। 

जहाँ राष्ट्रीय विचारधारा को आगे लेकर बढ़ना था वहां विचारधारा के नाम पर युवाओं को तीन भागों में बाँट दिया गया। एक तरफ लेफ्ट विंग है। दूसरी तरफ राईट विंग और तीसरा युवा लोक कथाओं, आत्ममुग्धता से भरे काल्पनिक इतिहास को सच माने बैठा है। कमाल देखिये तीनों ही लोग अपनी-अपनी विचारधारा को परमसत्य माने बैठे है।

असल में ये जो लड़ाई आज युवाओं को सिखाई जा रही है वह लड़ाई बहुत पहले खत्म हो चुकी है, किन्तु इतिहास से लाश निकालकर पुन: युवाओं को चीरफाड़ के लिए थमाई जा रही हैं। मसलन  नेहरु और पटेल के रिश्ते कैसे थे, भगतसिंह का मुकदमा किस कारण कांग्रेस से जुड़ें लोगों ने लड़ा, संघ ने आजादी की लड़ाई में कितना भाग लिया, आंबेडकर किस जाति का नेता है, गाँधी जी ने मस्जिद में गीता का पाठ क्यों नहीं किया आदि-आदि। क्या यह मुद्दे हमें भविष्य में होने वाले जलसंकट, वायु प्रदूषण, बढती भूख, बेरोजगारी और जनसँख्या विस्फोट से निपटना सिखा रहे है?

मार्क्स, माओ, लेनिन, चे गुवेरा वह अतीत की समस्या के समाधान हो सकते हैं लेकिन भविष्य की समस्याओं के समाधान नहीं है। हर एक काल, हर एक युग में नई समस्याएं उत्पन्न रहती है तो उनके समाधान भी नये तलाशने होते है। जातिवाद समस्या हैं पर क्या इस समस्या पर बात करने, इस समस्या पर राजनीति करने या आंसू बहाने पर निपट जाएगीं? नहीं! क्योंकि हमारा हजारों सालों का अतीत इन सबसे रमा हुआ है। हाँ इस समस्या को भूलकर सब मिलकर अगली समस्याओं से मिलकर जब लड़ने चलेंगे शायद तब यह समस्या स्वयं समाप्त हो सकती है।

लेकिन अतीत से समस्या और झगडे निकालकर युवाओं को बाँटने का कार्य किया जा रहा है। विचारों के नाम पर दुनिया को अपने हाथों से नचाने वाले लोग भीमा कोरेगांव हल्दीघाटी की गुजरी घटनाओं पर चर्चा के संवाद खड़े करते रहेंगे, जब हमें देश के लिए शक्ति संतुलन साधने के लिए हथियारों की जरुरत होगी हमें हथियार बेचेंगे, जब हम शांत होकर आगे बढ़ने की कोशिश करेंगे तब हमें अतीत के मुद्दे थमा देंगे।

गौर से समझिये युवाओं को विचारधाराओं में किस तरह लपेटा जाता है। उन्हें पाश्चात्य संस्कृति की तरह खाओ-पियो मौज उडाओ, कौन देखता है जैसे जुमले बेचे जाते है। लेकिन कितने लोग समझते है कि यदि वह खाने पीने मौज उड़ाने वाले ही लोग है तो फिर नये आधुनिक अविष्कार, विज्ञान, टेक्नोलोजी नई-नई बिमारियों पर शोध कौन कर रहा है? असल में बस यही विचारों का हमला है जो सदा से होता आया है जिसमें विश्व की न जाने कितनी सभ्यतायें गुलाम हुई कितनी लुप्त हो गयीं, दूसरों को आनंद के नाम पर खोल दो और खुद उनकी जगह काबिज हो जाओं।

यानि एक अबूझ ताकत ही दुनिया को चलाती है। कई बार चीजें उस तरह से इच्छित या निर्देशित होती है जिस तरह वे घटती हैं सबसे पहले कमजोर विचारधारा के लोग प्रभावित होते है। यकीन नहीं तो देखिये किस तरह दुनिया भर में आज कई ऐसे आतंकी संगठन हैं जो विश्व को डराने का काम कर अपने विचारों के लिए जमीन तलाश रहे हैं जिसपर वे अपना मालिकाना हक समझ रहे हैं। उन्हें नतीजो की परवाह नहीं, न ही इस बात की परवाह कि यह जंग जायज है या नाजायज।  वे किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं। वह सफल भी होते है क्योंकि वह जानते है कि अधिकांश युवा उन्हीं विचारों पर भरोसा करते है जो उन्हें थमाएं जाते हैं।

युवाओं को चाहिए कि राष्ट्र को शक्तियां देने की जरूरत है आज हमारे सामने राजनितिक समस्या इतनी बड़ी नहीं है जितनी हमें दिखाई जा रही है। हमारी असली समस्या भविष्य में होने वाले प्राकृतिक साधनों, संसाधनों के रूप में है। लिहाजा युवाओं को चाहिए कि वे अपने कार्यों को सामंजस्य में रख कर अपने नए दुश्मनों से लड़ें। अतीत के युद्ध को अतीत में दफना दे यही उनकी जीत है। यदि उन्हें किसी प्रकार का संशय है तो किसी भी विचार धारा को समझने के दो तरीके होते हैं, पहला उस विचारधारा के साहित्य को पढ़े, दूसरा विचारधारा के अनुयायियों का निकट से निरीक्षण करे उनके सामने सब कुछ स्पष्ठ हो जायेगा कि वह किस तरह वैचारिक शिकारियों के जाल में उलझे है।
 लेखक-राजीव चौधरी 


Monday, 10 December 2018

किसी के हिन्दू होने से तुम्हें एतराज क्यों


किसी गली, मौहल्ले या किसी चौराहे पर यदि दो बच्चे एक दूसरे की जाति या धर्म का उपहास उड़ाते दिख जाएँ तो चौकिये मत क्योंकि धर्म, जाति और गोत्र अब राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ चुके हैं तो कह सकते हैं कि राष्ट्रीय राजनीति के हिसाब से उन बच्चों ने प्रगति की है। पिछले दिनों राजस्थान चुनाव के दौरान पुष्कर में खुलासा होता है कि राहुल गाँधी का गोत्र दत्तात्रेय है। इसके बाद देश के प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार के दौरान ही पूर्वांचल पहुंच कर अपनी जाति का ऐलान करते है। इसके बाद राजनितिक हलकों में राहुल के गौत्र और धर्म को लेकर बखेड़ा खड़ा होता है। बार-बार उनके धर्म और गोत्र को लेकर प्रश्न किये जाते हैं। उनसे उनके हिन्दू होने के प्रमाण मांगे जाते हैं।

प्रमाण देने या स्वयं की भक्तिभाव के कारण राहुल कभी खुद को जनेऊ धारी पंडित बताते हैं, खुद को शिव भक्त बताते हैं और तत्पश्चात् कैलाश मानसरोवर यात्रा पर निकल जाते हैं वापस आते हैं तो अपना गोत्र कौल दत्तात्रेय बताते हैं। विरोधी हँसते हैं उपहास उड़ाते हैं और उनके दादा का नाम लेकर फिर उनसे उनके धर्म का प्रमाणपत्र मांगते हैं। इससे राजनितिक खिचड़ी तो पता नहीं कितनी पक जाती है पर वह लोग जरूर भयभीत हो जाते हैं जो सनातन धर्म के आध्यात्मिक दर्शन से प्रेरित होकर पुनः हिन्दू धर्म में लौटे थे।
असल में आज जो यह हो रहा है ये कोई नया कार्य या राजनीति नहीं है ये हमारा हजारों साल पुराना इतिहास रहा है कि हम अपने धर्म में किसी का स्वागत करने के बजाय उपहास उड़ाते रहे हैं। कहा जा रहा है राहुल के दादा पारसी समुदाय से आते थे तो राहुल पारसी हुए जबकि इस पर पुरोहित बता रहे हैं कि पारसी समुदाय में पत्नी को हिंदू धर्म की तरह पति का गोत्र नहीं दिया जाता है। ऐसे में पिता के गोत्र का इस्तेमाल हो सकता है। इसी वजह से इंदिरा गांधी ने भी पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू का गोत्र कौल दत्तात्रेय ही रखा, विवाह जरूर एक पारसी से किया किन्तु खुद के धर्म का त्याग नहीं किया बल्कि इसके उलट जब फिरोज गाँधी को पहली बार दिल का दौरा पड़ा था तभी उन्होंने अपने मित्रों से कह दिया था कि वह हिंदू तरीकों से अपनी अंत्येष्टि करवाना पसंद करेंगे। जब उनकी मृत्यु हुई तो तब 16 साल के राजीव गांधी ने दिल्ली निगमबोध घाट पर फिरोज की चिता को आग लगाई। उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीतिरिवाजों से किया गया था।
शायद किसी भी इन्सान का अंतिम संस्कार काफी होता है उसका धर्म जानने के लिए फिरोज ने हिन्दू दर्शन और संस्कारों को स्वीकार कर लिया इसके अलावा हिंदू बनने का मान्य तरीका क्या है? किस नदी में डुबकी लगाने पर लोग हिंदू धर्म में प्रवेश कर लेते हैं? उस नदी का नाम किस वेद में कहाँ लिखा है? किसी के पास स्पष्ट जानकारी हो अवगत जरूर कराएँ। एक ओर तो वर्तमान सत्ताधारी दल धर्म और धर्मांतरण को लेकर आध्यात्मिक चिंता व्यक्त करते दीखते हैं। दूसरी ओर अपने ही धर्म को मानने वाले का उपहास उड़ाते दिख जाते है। तब उनसे यह भी पूछा जाना चाहिए कि आध्यात्मिक उच्चता या किसी का धर्म मापने का कोई फीता या सूचकांक उनके पास कहाँ से आया और क्या वह किसी विश्व धर्म संसद से मान्यता प्राप्त है? यदि नहीं तो आखिर क्यों धर्म प्रमाणपत्र की दुकान खोलकर बैठ गये।
किसी के धर्म से जुड़े होने या उसकी आस्था का पैरामीटर नहीं होता पर यह जरूर है कि ये उसी पुरानी बीमारी का नया लक्षण हैं जिसने इस महान सनातन संस्कृति को मिटाने का कार्य किया। जिसे यह जानना हो वह भारतीय संघर्ष का इतिहास नामक पुस्तक से इस विषय को गहराई से जान सकते हैं। पुस्तक के लेखक डॉ नित्यानंद लिखते हैं कि रिनचिनशाह नाम का एक साहसी बौद्ध युवा कश्मीर के राजा रामचंद्र की हत्या कर कश्मीर का स्वामी बन गया था और रामचंद्र की पुत्री कोटारानी से विवाह कर लिया था। इसके बाद रिनचिनशाह की इच्छा हुई कि वह सनातन धर्म ग्रहण कर ले। तब वह हिन्दू धर्माचार्य देवस्वामी की शरण में गया। परंतु देवस्वामी ने रिनचिन को हिन्दू धर्म में शामिल करने से मना कर दिया था। यह बात रिनचीन शाह को काफी बुरी लगी और वह सुबह होते ही सूफी बुलबुलशाह की अजान सुनकर उनके पास गया तो बुलबुलशाह से रिनचिन ने इस्लाम की दीक्षा ली थी। जिसके बाद इसी राजा के राज्य में अधिकतर हिंदुओं को मुसलमान बनाने का एक गंदा और घिनौना खेल हुआ था।
यही हाल बंगाल में भी हुआ था जब कालाचंद राय नाम के एक बंगाली ब्राह्मण युवक ने पूर्वी बंगाल में उस वक्त के मुस्लिम शासक की बेटी से शादी की इच्छा जाहिर की थी। लड़की भी इस्लाम छोड़कर हिंदू विधि से उससे शादी करने के लिए तैयार हो गई लेकिन इन धर्म के तथाकथित ठेकेदारों ने न केवल कालाचंद का विरोध किया बल्कि उस मुस्लिम युवती के हिंदू धर्म में प्रवेश की अनुमति नहीं दी थी। इसके बाद कालाचंद राय को अपमानित किया गया। अपने अपमान से क्षुब्ध होकर कालाचंद ने इस्लाम स्वीकारते हुए उस युवती से निकाह कर लिया और गुस्से में बंगाल का धार्मिक समीकरण बदलकर रख दिया।
ऐसा ही हाल साल 1921 में केरल के मालाबार में मोपला विद्रोह के दौरान हजारों हिंदुओं का कत्लेआम हुआ और हजारों हिंदुओं को धर्म बदलने के लिए बाध्य होना पड़ा। वो तो शुक्र है आर्य समाज का कि उससे जुड़ें लोगों ने शुद्धि आंदोलन चलाया तो जिन हिंदुओं को जबरन मुस्लिम बना दिया गया था, उन्हें वापस हिंदू धर्म में लाया गया। वरना वो लोग भी आज इसी उपहास और अपमान का जीवन जी रहे होते। किन्तु इतना सब कुछ होने के बाद भी यदि आप अब भी अपने धर्म से जुड़ें लोगों का उपहास उड़ायेंगे या बात-बात पर उससे धर्म प्रमाणपत्र मांगेंगे तो इसे सबसे बड़ी मूर्खता कही जाएगी क्योंकि आपने अपने इतिहास से कुछ सीखा ही नहीं बेशक आप राजनीति कीजिए सत्ता सुख प्राप्त कीजिए लेकिन धर्म से जुड़ें लोगों का उपहास करना बंद कीजिए आज देश का भविष्य आपके हाथों में है काश ऐसा न हो कल का भविष्य आपके उपहासात्मक बयानों का मूल्य चुकाए। 

दलितों को सम्मान नहीं कम से कम हनुमान ही दे दीजिये


यूँ तो हमेशा भारतीय राजनीति विवादों के आस-पास ही घूमती रहती है, किन्तु हाल ही में राजस्थान की एक चुनावी रैली में उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हनुमान जी को दलित बताकर भारतीय राजनीति में एक नया विवाद पैदा कर दिया है। जिसके बाद भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर का बयान आया कि  यदि हनुमान दलित हैं तो अब चढ़ावे हमारा ही अधिकार हैं। इसके बाद तो मानों बयानों के बाजार में देश की सियासत एक बार फिर उफान पर आ गयी हैं।
कांग्रेस नेता अमित सिंह ने खुद को दलित बताते हुए कहा कि अब से अपनी जाति के देवता हनुमान के सभी मंदिरों में हम ही पूजा करेंगे और इनके हम ही महंत होंगे. देश में जितने भी हनुमान मंदिर हैं, उनका रखरखाव और पूजा करने वाला अब अनुसूचित जाति का व्यक्ति ही होगा। अखिल भारतीय कोली समाज के उपाध्यक्ष नंदलाल ने कहा कि हम मुख्यमंत्री योगी से यह भी निवेदन करते हैं कि वे बता दें कि कौन-कौन से दूसरे भगवान हमारे समाज में आते हैं।

भारत जैसे देश में जहाँ राजनीति जातिवाद के कंधे पर बैठकर चलती हो, जहाँ अधिकांश नेता जन्म ही जातिवाद की कोख से लेते हों वहां उस देश में भला ऐसे बयान को कौन हाथ से फिसल देना चाहेगा? यहाँ तो नेता सुबह उठकर एक दूसरे का मूंह ताकते हैं कि कब किसका मुंह खुले और राजनीतिक मशाला हाथ लगे। खबर है बयान आने के बाद दलित समुदाय के नेता देश भर के हनुमान मंदिरों पर कब्जा करने की कोशिश में लग गये हैं।
भले ही बहुत से लोगों के लिए ये खबर, विवाद या बयान हो लेकिन मेरे लिहाज से ये बहुत गंभीर मुद्दा है कि देश को आजाद हुए करीब 70 वर्ष बीत चुके हैं यदि इस दौरान हमने कोई अहसास खोया है तो वह सिर्फ ये खोया कि हम सब भारतीय है। हमने अभी तक स्वयं को सामाजिक रूप से करीब 6 हजार जातियों में विभक्त किया फिर उसमें सामाजिक रूप से जातीय उंच-नीच का भेदभाव पैदा भी किया इसके बावजूद हम आगे बढ़ते रहे किन्तु अब जिस तरह देश के वीरों, महापुरुषों और अराध्य देवी-देवताओं को जाति में बाँटने का कार्य कर रहे हैं ये शायद हमारी भारतीयता को नष्ट करने वाला है। हनुमान पर योगी का बयान आने के बाद जिस तरह अन्य लोगों ने सकारात्मक पक्ष रखने के बजाय उल्टा हनुमान की अलग-अलग जातियां बताने का कार्य किया क्या वो सही है? शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की माने तो भगवान हनुमान ब्राह्मण थे, योगी जी ने दलित बताया अर्थात् सबने अपने राजनितिक स्वादानुसार महावीर हनुमान जी की जाति बताने का कार्य किया।
आखिर आज लाखों पुराना इतिहास लेकर ऐसे वाकयुद्ध की आवश्यकता क्यों आन पड़ी? सब जानते हैं वर्षों से दलितों को पूजा अर्चना से लेकर अन्य सामाजिक कार्यों में वह सम्मान नहीं मिला जिसके वो हकदार थे अब यदि लोग उन्हें सम्मान नहीं दे सकते कम से कम भगवान तो दे दीजिये. प्रवेश नहीं दे सकते तो मंदिर दे दीजिये।
यह बात सर्वविदित है कि चुनावों के दौरान गांव-गांव, गली-गली सभी को विभिन्न जातियों में बांट कर जीत या हार के लिए आंकडें गड़े जाते है। किन्तु वर्तमान में जातिवाद की राजनीति से जो सबसे दुःखद पहलू उभरा है वह है कि अब महापुरुषों को भी जातिवाद की राजनीति ने डस लिया है। इसमें सबसे पहली सोचने वाली बात यह है कि कोई भी इन्सान उस समय महापुरुष या भगवान बनता है कि उसने समस्त समाज के लिए बिना भेदभाव और जनकल्याण के कार्य किये हो। यदि इसके बाद उसे जाति की नजर से देखें तो यह सम्पूर्ण समाज और देश के लिए अपमान जनक है।
किन्तु आज ये कार्य बड़े स्तर पर हो रहा है। देश के संविधान निर्माता अम्बेडकर साहब को आज तक उनके किये कार्यों से ज्यादा उनकी जाति के नाम पर घसीटा जा रहा है। गुजरात चुनाव में भी गाँधी जी की जाति को लेकर बवाल सबने सुना था। देश के प्रथम गृह मंत्री लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल से लेकर वर्तमान में तो राजनेता महापुरुषों के साथ-साथ देवी, देवताओं, ऋषि मुनियों तक को जाति विशेष के रंग में रंगने की कोशिश कर रहे हैं।
श्री कृष्ण और रावण की जाति से लेकर ये लोग किस तरह महर्षि बाल्मीकि की जाति, संत रविदास को चर्मकार, विश्वकर्मा को बढ़ई, चित्रगुप्त को कायस्थ, कुबेर को वैश्य, परशुराम को ब्राह्मण समाज से जोड़ कर देखने-दिखाने की रीत चल रही है। महाराणा प्रताप को लेकर सहारनपुर में राजपूत और दलितों के बीच हुई हिंसा गत वर्ष कैसी सुर्खिया बनी थी कौन नहीं जानता। क्या महाराणा प्रताप ने सिर्फ एक जातीय विशेष के लिए अकबर से युद्ध किया था या देश और धर्म की रक्षा के लिए? आखिर क्यों जो युद्ध जीतने वाले या समाज के लिए कार्य करने वाले की जाति को लेकर अपनापन दिखाते हैं वह कन्नौज के राजा जयचंद और सिकन्दर का साथ देने वाले राजा अम्भिक की जाति बताने से क्यों डरते है?
भगवान परशुराम जाति से ब्राह्मण थे और कहा जाता है 21 बार उन्होंने धरा क्षत्रिय विहीन की थी यानि बड़ा नरसंहार हुआ होगा ना? उनकी जय-जयकार की जाती रही है तो फिर सोमनाथ के मंदिर में प्रवेश द्वार का रास्ता बतलाने वाले पंडित रुद्र्भद्र की जाति को क्यों सामने नहीं लाया जाता? समस्या यही है कि अच्छे लोगों को जाति में बाँटकर गर्व करो बुरे लोगों की जाति से किनारा करो, जबकि महापुरुषों के दर्शन व शिक्षाएं जो सम्पूर्ण मानव जाति के लिए अनुकरणीय हैं तथा उनके जैसी अतुलनीय छवि को जाति में बांधना उनका घोर अपमान करना है। ऐसा करने में कोई एक शामिल नहीं है लेकिन इससे वीरों, महापुरुषों का जातिगत बंटवारा होकर उनकी शिक्षा और वीरता धूमिल हो जाती है और देश की एकता अखंडता पर भी चोट लगती है।....राजीव चौधरी   


Alarming time to look beyond the one-child policy In India


Born in the urban estate of a Big town, 17-year-old, Mr. Surya is just like the any other youth of India. His parents brought him up very dedicatedly, patiently, and carefully. They actually left no stone unturned while looking after his education, providing health facilities, amusement options and a lot more. Being the only child to his parents, who are again the single children to their respective parents, it was Surya who has to look for the aging elders at his home, ultimately, which includes- four of his grandparents and two- his own parents.

Apart from carrying attributes like high intellectual capacity and decision-making skills, he was at the time highly ignorant to his elders, adamant by nature and least adjustive to the family. His parents were really concerned about his growing tough behaviour and carrying rudeness towards his responsibilities. While recalling the day he was born, his parents had found themselves fortunate enough to have the first child as male and likewise never felt a need to go for the option of the second child. Now, they are a solely dependent on their only child and quite nervous about their future life. Such types of tales are not confined to Surya’s family only but belong to many households across India.
Rapidly increasing population in last century had occurred as a serious issue to the Government and for the developing country like India- Higher Population appears as a burden on its resources, be it- water, fresh air, land, food, minerals, housing, jobs and more. Worldwide, in terms of population size wise, India is currently in the second place, preceded by its neighbour country China. After the last census in 2011, the population of India was counted as 1.23 crore, which, before crossing the next decade, has reached 1.33 crore.
Time to time, a number of steps/ initiatives have been taken up by the government, civil societies, NGOs etc. to put a check on the rising population like- Formulation of National Population Policy, Family planning practices, One-Child Policy, etc. Although these initiatives have worked in the desirable direction and have taken us at a certain point yet with many aftermaths. At present, the growth rate of population in India is 1.1%. Of course, this is what we approached for, to control the demographic dividend and to ensure better welfare services to all. But are we sure of where we all are heading to?
In fact, One Child Policy in India is dragging us towards a much darker period where the social consequences will be more and more severe and their repercussions will reverberate for generations to come. Perhaps, that’s what our neighbour country -China has already experienced and genuinely, in 2015, they had announced a major shift from their controversial one-child policy to two child policy. China had seen the social set back from their previous notorious one-child policy which was introduced nationally in 1979, with the idea to slow down the population growth rate. The abolition of the policy was done in the backdrop of shrinking labour workforce, rapidly aging population, unbalanced growth, disturbed social health of the country and numerous other issues.
In India too, we have reached 1.1% population growth rate and this has again taken the debate of population controlling measures at the forefront, especially, questioning the credibility of one-child policy across the nation. With the narrowing down of the family pyramid, India’s joint family structure has already been shaken up and we have moved towards the nuclear family structure. This, no doubt has killed the spirit of Big families and hence, family values which the children ought to learn from their uncles/aunts-’chacha-Chachi’, ‘bua-fufa’, ‘mausa-mausi’, grandparents, grandparents (maternal), cousins, relatives of the relatives and so on.
The intervention of the state in the family structure vis a vis reproductive rights of the people has hampered the mindset of people. However, initially it was needed but putting on regressive actions like- throwing people with extra children- out of job; not allowing them to contest elections, not provide access to welfare schemes like scholarship etc to the extra children have certainly tilted the psyche of Indian couples and made them bias in reproductive decision making. Now the Indian couples have made themselves satisfy with their only child, and two children when the first child is a baby girl. This has triggered for the unbalanced growth of society.
Government’s clampdown of births will grapple India in future- with the shortage of staff for armed forces, diminish the demographic dividend and decrease the stake of the Indian diaspora in taking high-end jobs across the world. (One must know that India is the only country in the world with a demographic dividend which means we are the only country where the number of workable population (15-59 age) is more than the dependent population (0-14, 59+ age)). Moreover, the choice and number of childbearing differs class-wise, as observed that the economic well-off segment is more prone towards producing fewer children as compared to those who are economically poor. This has made the number of children inversely proportional to the symbol of social status, in the majority of Indian minds.
One child policy has also acted against women- whose consent and a stake in reproductive decisions is hardly counted in orthodox societies, and the blame, as well as burden, comes as whole to them. Even the patriarchal mindsets have resorted towards a higher rate of abortions, female infanticide and even abandoning female infants. This has brought the reproductive health of women the vulnerable and coercively hampering their rights. Female-Infanticide- which apart from being a total unethical practice, is acting negatively towards the sex ratio in India. Even the shared household responsibility factor has hit the low along with rise in crime against women, girls and brought the existence of fairer sex at questionable place. 
Apart from providing a balanced growth, and value-based family environment, having more than one child in a family keep themselves emotional and social connected and be there for each other in any sort of time. As seen in the above-stated case of Surya- the single child can hardly become the citizens with cooperative mindsets. Since they don’t learn to share toys, things, foods, living place and even feelings to their age-mates in the beginning days to the psychological development of their life, their later phases of life too bear the aftermaths of their isolative upbringing. The duty to provide a sister or a brother to the child lies with the parents, which will also help the child once the parents are not there for him. The child will learn to give and take love, execute responsibilities and understand the world around him more clearly. Additionally, the duty of upbringing of the child will also get relieved when another sibling is there to look after his/her brother/sister.
Ranging from Macro to Micro level, economic to political level; the one-child policy appears as a policy which is more of regressive nature than that of a progressive one. In the context of social and cultural settings of India, One-child policy is strictly not going to be ok. Our government and educated people must learn from the example of China and must not overstrain the implementation of One child Policy here. However, our policymakers must not resort to these coercive practices rather they should resort to persuasion and education vis-a-vis ensuring the improved quality life of the people here. 
Ms. Minakshi Sehrawat

Monday, 3 December 2018

अयोध्या क्या मंदिर बन पायेगा?


अयोध्या में 25 नवम्बर को विश्व हिंदू परिषद की ओर से धर्मसभा का आयोजन किया गया था जिसमें महाराष्ट्र समेत देश भर से भारी संख्या में रामभक्तों का जमावड़ा हुआ था. सभी राम भक्तों और साधु-संतों की बड़ी संख्या में रामनगरी पहुँचने से शहर की गलियां और चौक-चोराहे भगवा झंडों से अटे थे. सड़कें तथा गलियां जय श्रीराम, बच्चा बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का जैसे नारों से गूंज रही थी. रामभक्तों का कहना था कि यह धर्म सभा सरकार और सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने के लिए रखी गयी हैं, ताकि सरकार और उच्च न्यायलय राम मंदिर को लेकर जल्द फैसला लें.

धर्म सभा तो समाप्त हो गयी लेकिन एक बार फिर पुन: सवाल अयोध्या में खड़ा रह गया कि क्या निकट भविष्य में सरकार द्वारा कोई अद्ध्यादेश लागू होगा या सुप्रीम कोर्ट में इसकी सुनवाई शुरू होने के कोई आसार हैं. शायद हर कोई यही कहेगा कि भगवान ही जाने. यूँ तो सितम्बर 2010 में इलाहबाद हाईकोर्ट ने बाबरी मस्जिद के बीच के गुम्बद को राम जन्म भूमि मानते हुए विवादित डेढ़ हजार वर्ग मीटर जमीन का तीन पक्षों में बंटवारा कर दिया था. जमीन का एक हिस्सा मस्जिद के अंदर विराजमान भगवान राम, जिनके पैरोकार विश्व हिंदू परिषद के नेता हैं. उन्हें दे दिया था. दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा जो लगभग सवा सौ साल से इस स्थान पर मंदिर बनाने की कानूनी लड़ाई लड़ रहा है. उन्हें दिया था साथ ही तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड और कुछ स्थानीय मुसलमान जो 1949 से इस मामले में कानूनी लड़ाई लड़ रहे है उन्हें प्रदान कर दिया था. किन्तु इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी. तब से अब तक देश में लगभग आम सहमति है कि सुप्रीम कोर्ट ही इसके स्वामित्व का फैसला करे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला कब आएगा, यह बात शायद सुप्रीम कोर्ट को भी मालूम नही.
हालाँकि मुझे नहीं लगता इसमें कोई बड़ी अड़चन सामने हैं. हाँ जितनी भी अडचने है वह सब राजनितिक अडचने हैं जिसका सारा दोष कुछ नेताओं और कोर्ट पर डाल दिया जाता रहा हैं. इसके बाद बचता है श्रेय जिसे सभी राजनितिक दल लेना चाहते है किन्तु साथ ही वोट बेंक न दरक जाये इससे पीछे भी हटते हैं. जहाँ इस पूरे मामले को हिन्दुओं की जनभावना से जोड़कर देखा जाता है वही मुस्लिम पक्षकार भी इसे अपने सम्मान से जुड़ा प्रश्न बना चुकें हैं. ऐसे हालात में सवाल फिर वही खड़ा हो जाता है कि क्या मंदिर बन पायेगा या ऐसे ही राजनीती होती रहेगी? क्योंकि अब मामला धार्मिक आस्था से ज्यादा राजनितिक प्रतिष्टा का प्रश्न बन चूका हैं.
आज यदि इस संदर्भ में देखें तो इस पर हर किसी की अपनी अलग राय है हिन्दुओं का एक बड़ा तबका चाहता है कि राममंदिर का निर्माण हो और मुस्लिमों का एक बड़ा तबका यह चाहता है कि अल्पसंख्यक होने नाते फैसला उनके हक में हो और यदि कोर्ट के के अनुसार वहां से मस्जिद हटे तो वहां राममंदिर की बजाय किसी अन्य चीज अस्पताल या स्कूल का निर्माण हो जाये शायद ये धार्मिक द्वंद है जो दोनों ओर से जारी है. आस्था को भूलकर यहाँ धार्मिक ताकत का प्रदर्शन किया जा रहा हैं. साथ ही इसमें जो असली मनोस्थिति हैं वह कुछ ऐसे भी दिखती है कि आज आजादी के सत्तर इकत्तर साल बाद भी और लगातार देश पर शासन करने के बाद भी हिन्दुओं का एक धडा अपने को उपेक्षित मान रहा है. वह बार-बार अपने साथ अत्याचार का जिक्र कर रहा है. मुस्लिम इस बात को लेकर डर रहा है कि यदि मंदिर का निर्माण हो गया तो उसे उपेक्षित किया जाएगा, मुख्यधारा से बाहर किया जाएगा, पीटा जाएगा और मारा भी जाएगा. यदि आज उसने अयोध्या में हार मान ली तो कल मथुरा और काशी की विवादस्पद मस्जिदों पर भी इसी तरह हमला बोला जायेगा.
ऐसे में हिंदू, मुस्लिम और सभी भारतीयों के सामने प्रश्न फिर वही चुनौती बनकर खड़ा है कि क्या मंदिर बन पायेगा या नहीं? शायद यही कारण था कि मार्च 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने को भी कहना पड़ा था कि राम मंदिर विवाद का कोर्ट के बाहर निपटारा होना चाहिए. इस पर सभी संबंधित पक्ष मिलकर बैठें और आम राय बनाएं.  बातचीत नाकाम रहती है तो हम दखल देंगे. जहाँ इस बात को देश के कई बुद्धिजीवियों ने सराहा था मैंने तब भी लिखा था कि यदि यह मामला आम राय से निपट जाता तो क्या सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचता?
अब यदि इस आम राय पर चर्चा की जाये तो मुझे नहीं लगता कि यह अगले सौ वर्षों में भी बन पाए क्योंकि पक्षकार केवल दो धर्म या गुट नहीं बल्कि अदालत में मुख्य रूप से चार मुकदमे विचाराधीन हैं, तीन हिंदू पक्ष के और एक मुस्लिम पक्ष का. लेकिन वादी प्रतिवादी कुल मिलाकर मुक़दमे में लगभग तीस पक्षकार हैं.शिया बोर्ड एतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट में यह दावा कर रहा है कि मस्जिद बाबर के समय में मीर बकी ने बनाई थी, जो कि हिस्ट्री के मुताबिक ईरान का एक शिया था. बाबर तो कभी अयोध्या गया ही नहीं, ऐसे में इस मस्जिद पर शियाओं का हक है. बोर्ड के चेयरमैन वसीम रिजवी इसे भगवान राम की जन्मस्थली मानते है तो सुन्नी वक्फ बोर्ड इसे इस्लामिक आस्था से जोड़कर कह रहा है कि मस्जिद जहां एक बार बन गई तो वो क़यामत तक रहेगी, वो अल्लाह की संपत्ति है, वो किसी को दे नहीं सकते.
इसके बाद सरकार बार-बार यही कह रही कि राम मंदिर को संविधान के दायरे में रहकर ही बनाया जा सकता है. तो विपक्षी दलों के अपने राजनितिक तंज हैं. इतिहासकारों के अलग-अलग इतिहास हैं तो जनभावनाओं का अपना गुबार हैं. हाँ कोर्ट चाहें तो एतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर फैसला सुना सकती हैं. किन्तु बिना किसी राजनितिक दबाव के ऐसा होता संभव नहीं दिख रहा हर कोई कह रहा है कि विवाद आपसी बातचीत से ही संभव हो सकता है लेकिन कह किसके रहे है यह कोई नहीं जानता. इतना जरुर है राममंदिर बने या ना बने सरकारें बनती रहेगी और लोग आस्था का मूल्य वोट और खून से चुकाते रहेंगे...राजीव चौधरी