Monday, 27 February 2017

बटवारे के अड्डे बनते शिक्षण संस्थान

ज्यादा पुरानी बात नहीं है सब जानते हैं 1947 में  देश के बटवारे की नींव अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रखी गयी थी। आज यह फसल जेएनयू में सिंचती नजर आ रही है। पिछले वर्ष उमर खालिद और कन्हैया कुमार की अगुवाई में जेएनयू में हुई राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के खिलाफ दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा के तत्त्वाधान में आर्य समाज ने दिल्ली में दर्जनों से ज्यादा जगह धरना प्रदर्शन कर दोषी लोगों के खिलाफ कार्रवाही की मांग की थी। क्योंकि आर्य समाज गुलामी की पीड़ा समझता है, राष्ट्र के साथ-साथ आर्य समाज ने भी बंटवारे का दंश झेला था। सैंकड़ों कुरबानियों के साथ आर्य समाज ने आजादी का वह मूल्य चुकाया था जिसे इतिहास कभी नहीं भुला सकता पर क्या ऐसे सभी मामलों में आर्य समाज को हर बार धरना प्रदर्शन करना पड़ेगा? जब  देश स्वतंत्र है एक लोकतान्त्रिक तरीकों से चुनी सरकार है तो सरकार अपने दायित्व की पूर्ति करे क्या संविधान में राष्ट्र विरोध के लिए कोई सजा का प्रावधान नहीं है? जो इस तरह खुलेआम अभिवयक्ति की आजादी के नाम पर राजद्रोह हो रहा है।

विद्यार्थी जीवन मानव जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समय होता है। इस काल में विद्यार्थी जिन विषयों का अध्ययन करता है अथवा जिन नैतिक मूल्यों को वह आत्मसात् करता है वही जीवन मूल्य उसके और किसी राष्ट्र के भविष्य निर्माण का आधार बनते हैं। लेकिन आज के इन शिक्षण संस्थाओं में देखें तो कुछेक छात्रों द्वारा बाकि के छात्रों के भविष्य को किसी मोमबत्ती की तरह दोनों ओर से आग लगाने का कार्य हो रहा है। फिर खबर है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से ऊपजी अस्थिरता के बाद अब डीयू में भी इस तरह की कोशिशें शुरू हो गई हैं। जेएनयू के बाद अब विचारधारा की लड़ाई डीयू तक पहुंच गई है। रामजस कॉलेज विवाद अब पूरी तरह राजनीतिक रंग ले चुका है और इसको लेकर अब डीयू के शिक्षक भी लामबंद हो गए हैं। क्या ऐसे में कोई बता सकता है कि देश के लोगों की मेहनत के टैक्स से चलने वाले यह शिक्षण संस्थान शिक्षा के केंद्र हैं या राजनीति और देशविरोधी गतिविधियों के अड्डे?

हालाँकि डीयू में ऐसा पहली बार हुआ है कि छात्रों के बीच की लड़ाई शिक्षकों की लड़ाई बन गई है, क्योंकि इसमें एक तरफ जहां वामपंथी शिक्षक संघ डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट के कई पदाधिकारी लोगों को आमंत्रित कर रहे हैं वहीं भाजपा समर्थित शिक्षक संघ नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट सहित राष्ट्रवादी शिक्षक संघ ने भी मोर्चा खोल दिया है। ऐसे में राष्ट्र के शुभचिंतकों के सामने प्रश्न यह उपजता है कि डीयू हो या जेएनयू या फिर अन्य शिक्षण संस्थान इसमें पढ़ाने वाले शिक्षकों को वेतनमान किस कार्य के लिए दिया जाता है और पने वाले छात्रों को किस कार्य के लिए छात्रवृति प्रदान की जा रही है? यदि राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहने और उन्हें समर्थन करने के लिए तो फिर आतंकवाद, नक्सलवाद के अड्डों और इन शिक्षण संस्थानों में अंतर क्या है? आखिर क्यों कुछ चुनिन्दा छात्रों और अध्यापकों को इन शिक्षण संस्थानों से बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जा रहा है? क्यों इस संस्थानों में राष्ट्र के टुकड़े करने और बंटवारे का पाठ पढाया जा रहा है

यदि सत्ता के शिखर बैठे लोग गलतियाँ करें तो विपक्ष को ईमानदारी से उन मुद्दों को उठाना चाहिए लेकिन देशद्रोह जैसे मुद्दों पर सरकार और विपक्ष एक मत होने के बजाय राजनीति करने लगे तो देश का दुर्भाग्य ही कहलाया जायेगा। हो सकता है सक्रिय राजनीति में जाने का रास्ता स्कूल-कालेज से होकर जाता हो लेकिन जरूरी है कि दायरे में रह विद्यार्थी जीवन में राजनीति करें, और यह राजनीति शिक्षा की कीमत पर नहीं होनी चाहिए। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है  अतः जहाँ वह निवास करता है उसके आस-पास होने वाली घटनाओं के प्रभाव से वह स्वयं को अलग नहीं रख सकता है। उस राष्ट्र की राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक परिस्थितियाँ उसके जीवन पर प्रभाव डालती हैं। सामान्य तौर पर लोगों की यह धारणा है कि विद्यार्थी जीवन में राजनीति का समावेश नहीं होना चाहिए। 

अक्सर देश के राजनेता देश-विदेश की क्रांतियों के उदाहरण देते हुए कहते हैं कि राजनीतिक बदलाव के लिए जागरूक और पढ़े लिखे युवाओं को आगे आना होगा। उदहारण अपनी जगह सही भी है किन्तु यहाँ तो देश तोड़ने, बाँटने जैसे मुद्दे लेकर युवा आगे आ रहे हैं और विडम्बना देखिये देश के उच्च स्तर के राजनेता इन्हें इस कार्य के लिए नमन कर रहे हैं हम मानते हैं कि एक वक्त था, जब देश में राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, वीपी सिंह आदि ने राष्ट्र हितों का हवाला देकर छात्र शक्ति को जागृत किया था और लोकतांत्रिक अधिकारों के संरक्षण के साथ-साथ सत्ता परिवर्तन और खराब व्यवस्थाओं को बदलने का महत्वपूर्ण काम किया था लेकिन उनके लिए सर्वोच राष्ट्र हित था न कि आधुनिक छात्र नेताओं की तरह राष्ट्र विखंडन।

युवाओं को देश का भविष्य कहा जाता है। परन्तु जब वर्तमान में युवा ही दिशाहीन और दशाहीन होंगे तो देश का भविष्य कैसे सुधरेगा? ध्यान से देखने पर हम यह भी पाते हैं कि सोशल मीडिया के जरिये खुद को अभिव्यक्त करने वाली यह युवा पीढ़ी शिक्षा और रोजगार जैसे स्थायी मुद्दों को लेकर नहीं, बल्कि देश की नींव को बर्बाद करने वाले मुद्दों को ज्यादा तरजीह देती नजर आ रही है। शायद इसकी एक बड़ी वजह यह है कि आज देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्र नेता खुद अराजकता के प्रतीक बन गए हैं और वे स्थापित राजनीतिक दलों के हाथों की कठपुतली की तरह काम कर रहे हैं। इस कारण विश्वविद्यालयों से बाहर आने पर उन्हें स्थापित दलों का चुनावी टिकट तो मिल जाता है, लेकिन उन्हें जनता का जरा भी समर्थन हासिल नहीं हो पाता है। जरूरत छात्रसंघों की राजनीति को रचनात्मक स्वरूप देने की है न कि उन्हें विभिन्न राजनीतिक दलों के हाथों कठपुतली बनने की। साफ है कि छात्रसंघ यदि सियासत के मोहरे बनना बंद कर दें तो वे देश और जनता के सामने एक नया एजेंडा और उम्मीद पेश कर सकते हैं और तभी उनके नेताओं को लेकर जनता के मन में कोई सम्मान और आस जग पाएगी। आज सरकार को देखना चाहिए कि यह आम छात्र है या खास जाति के लोग ऐसा कर रहे हैं या कुछ लोग उनको साधन बनाकर आगे बढ़ा रहे हैं। ये तत्त्व कौन से हैं इनका उद्देश्य क्या है? ये घटनाएं महत्वपूर्ण और गंभीर हैं। इन पर सरकार को संज्ञान लेना आवश्यक है।
विनय आर्य 


Monday, 20 February 2017

अरसे बाद एक अच्छा बिल

अक्सर जब भी शादी में कम खर्चे और बिना किसी बड़े तामझाम के बात होती है तो आर्य समाज का नाम जरुर आता है। कारण जितना खर्चा आमतौर पर घरों में किटी पार्टी या जन्मदिवस जैसे छोटे-मोटे आयोजनों पर होता है उतने में आर्य समाज मंदिर में वैदिक रीति अनुसार वैवाहिक जोड़े शादी जैसे पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। सब जानते हैं कि आज शादी समारोह में एक पवित्र बंधन की रस्म से ज्यादा अन्य शान शौकत का ज्यादा दिखावा हो रहा है। हवन मंत्रोच्चारण और सात फेरों से ज्यादा नृत्य-गीत और शराब आदि में लोग मशगूल रहते हैं। इससे किसी को क्या दिक्कत हो रही है, यह कोई नहीं सोचता?

जल्द ही शादी-विवाह में फिजूलखर्ची रोकने, मेहमानों की संख्या सीमित करने और समारोह के दौरान परोसे जाने वाले व्यंजनों को सीमित करने के मकसद वाला एक निजी विधेयक लोकसभा में पेश किया जाएगा। लोकसभा के आगामी सत्र में विवाह ;अनिवार्य पंजीकरण और फिजूलखर्च रोकथामद्ध विधेयक, 2016 एक निजी विधेयक के रूप में पेश किया जाएगा। लोकसभा में कांग्रेस सांसद रंजीता रंजन यह निजी विधेयक पेश करेंगी, जिसमें कहा गया है कि अगर कोई परिवार विवाह के दौरान 5 लाख रुपये से अधिक राशि खर्च करता है, तब उसे गरीब परिवार की लड़कियों के विवाह में इसकी 10 प्रतिशत राशि का योगदान करना होगा।


इस विधेयक का मकसद विवाह में फिजूलखर्ची रोकना और सादगी को प्रोत्साहन देना है। शादी दो लोगों का पवित्र बंधन होता है और ऐसे में सादगी को महत्व दिया जाना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से इन दिनों शादी विवाह में दिखावा और फिजूलखर्ची बढ़ गई है। जिस कारण शादी एक बंधन कम और एक प्रतियोगिता जैसा नजर आने लगा है। हालांकि समाज का एक बड़ा हिस्सा चाहता है कि शादियों का खर्च उनकी हैसियत के अंदर रहे। वे शादियों के खर्च को सामाजिक तौर पर शान दिखाने की प्रतियोगिता से अलग रखना चाहते हैं। शायद यह बिल यही दर्शाता है कि हमारी शादी जैसी परम्पराएं तो मजबूत रहे बस शादियों के खर्च को सीमाओं में बांधने की कोशिश हो।
अक्सर देखने में आता है कि वैवाहिक समारोह में जहाँ डीजे, कानफोडू संगीत या अन्य क्रियाकलापों में कोई समय अवधि निश्चित नहीं होती कई बार तो यह शोर-शराबा पूरी रात चलता रहता है वहीं अक्सर लोग इस बात की चिंता व्यक्त करते दिख जाते हैं कि पंडित ऐसा हो जो यह रस्म कम से कम समय में पूरी कर दे। जबकि विवाह का असली मकसद मंत्रोचारण के साथ दो आत्माओं को एक पवित्र बंधन में पिरोने का कार्य होता है मसलन सिर्फ फेरों में ही जल्दबाजी क्यों?


हमारे मन में अक्सर यह सवाल आता है कि आखिर हमारे देश में खास से लेकर आम घर-परिवारों में शादियों या दूसरे समारोहों में इतने पैसे की बर्बादी क्यों होती है? आप इसका आंतरिक अध्ययन करके देखें तो पाएंगे कि भारत के हर समाज में अपनी क्षमता से अधिक पैसे शादी पर खर्च करने की मनोप्रवृत्ति काम करती है। इसके कई कारण होते हैं। अपने दैनिक जीवन में सीमित संसाधनों से अपना काम चलाने वाले व्यक्ति के लिए शादी सिर्फ एक सामाजिक समारोह न होकर यह दिखाने का अवसर बनकर रह गया कि उसने पिछले 25-30 सालों में क्या किया? आर्थिक सीढ़ियों पर कितनी पायदान इस बीच वह चढ़ चुका है यह दिखाने के लिए बेहद खर्चीली शादी एवं भव्य मकान दिखाना शेष रह गया। हमेशा इस तर्क की चोट पर भी लोग खर्च करते दिख जाते हैं कि शादी ऐसी हो जो लोग सालों तक याद रखे या फिर जिसका खाया है उसका उधार चुकाना है। हालाँकि पंडाल से बाहर आने पर किसी को याद नहीं रहता कि शादी कितनी महंगी और उसमे कितनी भव्यता थी।

पिछले दिनों देश में दो शादियों ने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। एक तो अमीर उद्योगपति और पूर्व मंत्री जी. जनार्दन रेड्डी की बेटी ब्रह्माणी की शादी में 500 करोड़ रुपए खर्च और दूसरा सूरत में एक शादी में दूल्हा-दुल्हन के परिजनों ने बारात में आए मेहमानों को केवल एक कप चाय पिलाकर विदाई दी। इस शादी पर केवल 500 रुपये का खर्च आया। यदि इस तरह का कम खर्चे का चलन समाज में बढ़ जाये तो कन्या भूर्ण हत्या से लेकर दहेज तक एक साथ कई विसंगतियों पर लगाम लग जाएगी। 


हम विवाह समारोह के खिलाफ नहीं हैं पर इसके खर्च में दिखावे का समर्थन नहीं करते जिनके पास अकूत धन है, उनके लिए कोई परेशानी नहीं होती। लेकिन इसी तरह के दिखावे का प्रदर्शन कम पैसे वालों के भीतर भी एक स्वाभाविक भूख पैदा करता है। इसके बाद होता यही है कि आमतौर पर कम आमदनी वाले लोग भी शादी या पारिवारिक समारोहों में कर्ज लेकर सामाजिक प्रतिष्ठा एवं बच्चों की खुषी के नाम पर खर्च करते हैं। कई बार इस तरह के प्रदर्शन की चाह में लोग कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं। यह कहां की समझदारी है? कोई व्यक्ति जिन्दगी के किसी क्षेत्र में सफल होकर ज्यादा धन कमाए, इसमें किसी को क्या एतराज होगा! लेकिन विवाह पंडाल के बाहर वधु पक्ष की तरफ से खड़ी की गयी चमचमाती गाड़ी दिखावे की मानसिकता के सिवा अलावा कुछ नहीं। इसी कारण आज उपभोक्तावाद की चकाचौंध में किसी भी रास्ते विलासिता की चीजें हासिल करने की ललक ने युवकों को लालची बना दिया है। अफसोस कि इस नए दौर के नौजवान भी दहेज लेने-देने में कोई शर्म महसूस नहीं करते। अब इस प्रस्ताव के आने से हो सकता है दिखावे के इस तरह के आयोजनों पर कुछ लगाम लगे! संसद को चाहिए इस तरह के विधेयक को ध्वनिमत से पारित करें क्योंकि विवाह बेहद सादगी गरिमापूर्ण कर्त्तव्य की एक डगर बने न कि किसी शोर शराबा और फूहड़ता से भरा आयोजन।....विनय आर्य 


पाकिस्तान का दर्द दुनिया क्यों समझे?

14 फरवरी का दिन था। इस्लामबाद की सड़कों पर जिस युवक-युवती के हाथ में गुलाब का फूल दिखता पुलिस गिरफ्तार कर लेती। सरकारी फरमान था कि वेलेंटाइन डे पर कोई युवक-युवती किसी को गुलाब न दे पाए। यह विदेशी त्यौहार है इससे पूरी पाकिस्तानी कौम को खतरा होगा। जिसके बाद एक-एक कर गुब्बारे और फूल बेचने वाले गरीबों को गिरफ्तार किया गया। लेकिन उसी दिन लाहौर की सड़कों पर आतंकी खून खराबा कर हमलों की जिम्मेदारी ले रहे थे। लेकिन इस्लामाबाद बम बारूद से ज्यादा गुलाब के फूलों सा डरा सहमा सा नजर आ रहा था। उसी दिन वहां की मीडिया भी अपनी संस्कृति और इस्लाम की दुहाई देकर वेलेंटाइन डे का विरोध करती नजर आ रही। क्या कोई बता सकता है किसी मुल्क के लिए फूल खरतनाक है या बम-बारूद? युवाओ के हाथ में गुलाब सही है या असलहा? मुझे नहीं पता उनकी यह सोच इस्लामिक है या पाकिस्तानी! पर जो भी हो यह तय है कि यह सोच आने वाले भविष्य में पाकिस्तान को बर्बाद जरुर कर देगी।


सन् 1947 से दुनिया के नक्शे पर आया एक देश पाकिस्तान शायद शुरू से ही यथार्थ को भूल कल्पनाओं में जी रहा है। वह मजहब के रास्ते दुनिया को फतेह करने के रोग से शिकार दिखाई देता है। जिसका सबसे बड़ा सबूत यह कि आज भारत और अफगानिस्तान के अलावा पूरी दुनिया में आतंकवाद कहीं भी हो, उसमें पाकिस्तान के निशान जरुर दिखाई देते हैं। चाहे अमेरिका के सैनबर्नार्डिनो में तश्फीन मलिक का हाथ हो या कंधार और भारत में कोई हमला। सबमें अमूमन पाकिस्तान का ही हाथ होता है। शायद इस्लामाबाद हाफिज सईद और अजहर मसूद के जरिये जिन्ना के पाकिस्तान का नक्शा बड़ा करना चाहता है। यदि यह उनकी प्रमाणिक सोच है तो इस्लामाबाद की किस्मत में अभी काफी खून देखना बाकी है। हाल ही में हफ्ते भर के भीतर वहां एक के बाद एक कई आतंकी हमले हो चुके हैं और इन घटनाओं के निशाने पर सेना के जवान, पुलिसकर्मी, जज, पत्रकार और स्त्रियों व बच्चों समेत सभी तबकों के लोग रहे हैं। एक हफ्ते में करीब 100 से 200 लोग मारे गये। शायद भौगोलिक दृष्टि से भी इन वारदातों का दायरा व्यापक है इन सब वारदातों से पाकिस्तान अपने क्षेत्रफल से ज्यादा स्थान विश्व के अखबारों के पन्नो में पा गया।

पिछले एक सप्ताह से पाकिस्तानी अवाम और मीडिया इस बात को लेकर मुखर है कि दुनिया को पाकिस्तान का दर्द समझना चाहिए कि वह किस तरह आतंक से पीड़ित है। बिल्कुल मानवता के नाते यह समझना भी चाहिए लेकिन सवाल यह कि आतंकी अजहर मसूद को बचाने के लिए चीन से वीटो कराने वाला पाकिस्तान क्या किसी का दर्द समझता है? सब जानते है इस्लामाबाद ने आतंक को दो हिस्सों में विभक्त किया है जिसे वह अच्छा और बुरा तालिबान कहता है। उनकी नजर में भारत में मुम्बई अटेक होता है तो अच्छा तालिबान पर जब पेशावर में 150 बच्चें या शहबाज कलंदर दरगाह शाह की दरगाह पर 100 लोग मरते है तो बुरा तालिबान। उडी हमला कर 19 भारतीय जवानों की हत्या करने वाले अच्छे तालिबानी लेकिन क्वेटा में पुलिस ट्रेनिंग सेंटर पर हमला कर 61 जवानों को मारने वाले बुरे तालिबानी होते हैं।

शहबाज कलंदर  दरगाह शाह पर हमले के 24 घंटे बाद ही पाक आर्मी ने 50 से 100 के बीच आतंकियों को मार गिराने का दावा किया है। फिलहाल अफगानिस्तान से लगी सीमा भी सील कर दी गई है पर सवाल है कि इतने कम समय में, सेना ने इतनी ज्यादा जगहों पर मुठभेड़ कैसे की? क्या उसे वे सारे ठिकाने पता थे और सब कुछ जानते हुए भी खामोशी बरती जा रही थी? इन सवालों से भी पाकिस्तान अपने घर में ही घिरता नजर आ रहा है। इतिहास के कुछ पन्ने कहते है कि जिन्ना ने मुसलमानों की बेहतरी के लिए अलग पाकिस्तान की मांग की थी लेकिन थोड़े समय के बाद जिन्ना का पाकिस्तान मजहबी तंजीमों, उलेमाओं, मोलवियों और आतंकियों का पाकिस्तान बनकर रह गया और बने भी क्यों ना? क्योंकि जिस देश का प्रधानमंत्री एक आतंकी बुरहान वानी को युवाओं का रोल माडल उनका आदर्श बताने से गुरेज नहीं करता तो उस मुल्क के युवा बुरहान वानी ही बनेंगे न कि अब्दुल कलाम। जहाँ सरकारी स्तर पर आतंकियों को महिमामंडित किया जाता हो और भौतिक विज्ञानी नोबेल प्राइज विजेता प्रोफेसर अब्दुससलाम जैसे लोगों का का अपमान तो सब आसानी से सोच सकते है कि वहां युवा क्या बनेंगे
 पाकिस्तान वैश्विक मंच पर खुद को आतंक से पीड़ित देश होने का रोना रोता है। ताजा हमले से भी जाहिर होता है कि यह तथ्य अपनी जगह सही भी है। लेकिन जब काबुल या दिल्ली से आतंक से निपटने की बात की बात दोहराई जाती है तो पाकिस्तान का दोहरा चरित्र देखने को मिलता है। बलूचिस्तान, पश्चिमी वजीरिस्तान आदि में पाक आर्मी आप्रेशन जर्बे अज्ब चलाकर हवाई हमले करती है तो उसे आतंक का खात्मा आतंक के खिलाफ पाक मुहीम बताया जाता है लेकिन जब कश्मीर में भारत की फौज पर उसके पाले सांप जहर उगलते है तो इस्लामबाद की तरफ से उन्हें आजादी के परवाने कहकर होसला अफजाई होती है।

शायद अब इस्लामबाद को समझना चाहिए मजहबी आतंक किसी मुल्क के लिए लाभ का सौदा नहीं होता। इसके उदहारण के लिए उसे मिडिल ईस्ट की तरफ देखना होगा। मजहबी तंजीमो के कारण ही आज सीरिया, सूडान, इराक तबाह हुए तो सोमालिया, नाइजीरिया आदि देश भुखमरी की जिन्दगी जीने को विवश हैं। इस्लामाबाद को अजहर मसूद, हाफिज सईद, सयैद सलाहुदीन जैसे मानवता के खून के प्यासे दरिंदों से बचना होगा। आतंक के भेद में गुड- बेड तालिबान के फेर से बाहर आना होगा। अपना दर्द किसी को समझाने से पहले दिल्ली और काबुल का दर्द भी समझना होगा। इसके बाद ही लोग पाकिस्तान का दर्द समझ पाएंगे।
-राजीव चौधरी


Sunday, 12 February 2017

बिना धर्म के लोग!!

कश्मीर से हिन्दू निकाले गये उन्हें राजनीति से बड़े आराम से कह दिया कि नहीं-नहीं  साहब वहां से पंडित निकाले गये. सब चुप कि चलो पंडित निकले. मुजफरनगर में दंगा हुआ उसे बड़ी सावधानी से मीडिया और राजनीति ने यह कह दिया कि नहीं साहब ये हिन्दू-मुस्लिम नहीं यह तो जाट-मुस्लिम दंगा था सब चुप कि चलो हिन्दू मुस्लिम होता तो देखते. मालाबार में लाखों हिन्दू मारे गये पर तब कहा गया कि ये वहां के  नम्बूदरी ब्राह्मणों और मुस्लिमों के बीच दंगा था. कैराना से हिन्दू निकाले गये मीडिया ने कहा नहीं- नहीं साहब यह तो मात्र कुछ व्यापारियों का पलायन था. अभी बंगाल के धुलागढ़ में हिन्दुओं पर अत्याचार हुआ तो कहा गया नहीं-नहीं यह तो दलितों और मुस्लिमों के बीच का मामला था. यदि ऐसा है तो फिर क्या भारत की 80 फीसदी बहुसंख्यक आबादी बिना धर्म की है? इन्हें किस एजेंडे के तहत जातिवाद में बांटा जा रहा है बस आज यही सोचने का विषय है  कि जब इनकी राजनीतिक और मीडियाई पहचान जाति से तो क्या यह बिन धर्म के लोग है?

क्या कभी देश में फिर ऐसा चाणक्य आएगा जो एक एक बिखरी हुई आबादी का नेतृत्व करने की काबलियत रखता हो? अनैतिक राजनीतिज्ञों से निपटने और विश्व राजनीति के दाँवपेचों को भी समझने की उनकी क्षमता रखता हो? शायद सबका जवाब होगा कि चाणक्य तो है पर बिखरा जनसमूह साथ नहीं देता. यह एक पीड़ा है जो सब देशवासियों के मन को द्रवित करती है. वैसे राजनीति पर लिखना तो नहीं चाहता पर देश अपना है, समाज अपना है, धर्म अपना है तो कर्तव्यवश लिखना मजबूरी बन जाता है. बहराल अभी देश में पांच राज्यों में चुनाव है. जिनमें जातिगत समीकरण बनाकर देश और समाज को बांटने का काम होता दिखाई दे रहा है.

इस विषय में मुझे रह-रहकर 2014 लोकसभा चुनाव के दौरान पाकिस्तानी न्यूज रूम में बैठे उनके राजनेतिक विचारक जफर हिलाली की बात याद आती कि मोदी को रोकना है तो वहां के अन्य राजनैतिक दलों को हिन्दुओ को जात-पात में बाँट देना चाहिए. हालाँकि मुझे वर्तमान राजनीति से इतना लगाव नहीं है किन्तु में हतप्रभ था कि शत्रु हमारी कमजोरी से कदर वाकिफ है. अभी हाल ही में  उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में हमेशा की तरह मुस्लिम वोटों को लेकर राजनीतिक दलों में जबरदस्त रस्साकशी जारी है. सवाल ये उठ रहा है कि क्या मुसलमानों का वोट किसकी झोली में जाएगा या फिर कई पार्टियों में बंट जाएगा? इसलिए सभी राजनैतिक दल अपनी-अपनी हैसियत से बढ़कर खुद को मुस्लिम हितेषी साबित करने का प्रयास कर रहे है. यदि ऐसे में कोई पार्टी हिन्दू हितेषी होने की बात करें भी तो मीडिया और तथाकथित सेकुलर पार्टियाँ उसका साम्प्रदायिक होने का आरोप जड़कर बहिष्कार करने की कोशिश करती है.

खैर तथाकथित धर्मनिपेक्ष पार्टियाँ खुद जाट-मुस्लिम, दलित-मुस्लिम, यादव-मुस्लिम तो कोई गुज्जर या राजपूत या ब्राहमण मुस्लिम समीकरण बनाने में जुटी है. इन सारे जातीय समीकरणों को देखकर मन में टीस अवश्य उठती है कि क्या देश में हिन्दू खत्म हो गये? या सब सत्ता स्वार्थ में जातियों में बंटकर रह गये? यदि ऐसा है तो नई गुलामी की आदत अभी से डालनी होगी!! इतिहास गवाह रहा है कि कुछ लोगों ने सत्ता के पायों को मजबूत रखने के लिए सदैव राष्ट्रवाद को कमजोर करने के वे सभी तरीके अपनाएं हैं, जो राष्ट्र के हित में नहीं थे. अंग्रेजों के जाने के बाद आजाद भारत में लोकतंत्र प्रारम्भ हुआ. लेकिन राजनेताओ ने अपने व्यक्तिगत सुख और महत्वकांक्षी जीवन के लिए इसे जातितंत्र बना डाला. यदि गौर करें तो देश पर जातियों का ही प्रभुत्व दिखाई देता है न कि धर्म का.


जब देश आजाद हुआ तो भारत के पास अपनी विश्वकल्याणकारी संस्कृति और अपना धर्म था. हमारे पास जो था वह अन्य देशों के पास नहीं था. लेकिन दु:ख की बात यह है कि जातिवाद से निकले नेताओं ने इन चीजों को सहेजने के बजाय उनको नष्ट किया. मामला सिर्फ चुनाव तक सीमित रहता तो भी कोई बड़ी बात नहीं थी लेकिन जिस तरह जातिवाद सामाजिक स्तर पर फैल रहा है वो आने वाले दिनों में एक मीठे स्वर में लिपटे इस राष्ट्र को पीड़ा की कराह में बदल देगा. अक्तूबर, 2014 में आयोग द्वारा जारी आदेश के जवाब में पुलिस मुख्यालय ने स्वीकार किया है कि पटना की न्यू पुलिस लाइन की रसोई और बैरक अलग-अलग जातियों में बंटी हुई है. इससे पहले साल 2006 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी पुलिस लाइन के जातीय चूल्हे बंद कराने का निर्देश दिया था. लेकिन कोई फर्क़ पड़ा नहीं था.

मुगल शासन, अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए क्या ऐसी ही आजादी के लिए करोड़ों देशभक्तों ने अपने प्राणों की आहुतियां इस लिए दीं थी कि इतनी कुर्बानियां देने के पश्चात भी सत्ताधीश नेता भारतमाता के साथ धोखा करेंगे? देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज को जितना अपमानित इस देश में किया गया उतना शायद ही किसी अन्य देश में किया गया हो. हिन्दू समाज की दर्दनाक उपेक्षा और प्रताड़ना की गई. इसे जाति में इस तरह विभाजित कर दिया कि एक देश एक समाज सर्वसमाज के चीथड़े उड़ा दिए. वोट के लिए राष्ट्रवाद और सामाजिक समरसता को दाव इस तरह खेला कि प्रजातंत्र मात्र भ्रम बनकर रह गया. क्योंकि प्रजा जिस तंत्र को चलाती है, उसे प्रजातंत्र कहते हैं, लेकिन यहां इसके उलट हो रहा है. प्रजा तो सिर्फ एक बार वोट दे देती है, उसके बाद तो पांच साल देश और हमारे लोगों को ये नेता चलाते हैं.
  अजब जूनून है इस दौर के नेताओं का... तू धर्म के लिए मर गया तो तुझे फिर जाति के नाम पर जला कर मारेंगे.राजीव चौधरी 


Monday, 6 February 2017

बटवारें का नया बीज

वैसे देखा जाये तो भारतीय राजनीतक महत्वकांक्षा देश के अन्दर छोटे बड़े हजारों मुद्दों को जन्म देने का कार्य कर रही है। जिस कारण कुछ लोग तो भारत को विवादों का देश भी कहने से गुरेज नहीं करते हैं। अभी पिछले दिनों ही अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के सबसे बड़े सभागार केनेडी हॉल में संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण देने की बात को नकारते हुए संविधान की इसी धारा 341 को खत्म करने की मांग करने के लिए यह सेमिनार बुलाया गया था। सेमिनार के महत्त्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस सेमिनार में हिस्सा लेने आए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील महमूद पार्चा ने दावा किया कि आरक्षण धर्म के आधार पर भी दिया जा सकता है।

देखा जाये तो आरक्षण देश के अन्दर एक ऐसा अमृत का प्याला बन चुका है जिसे जाति और धर्म के नाम पर हर कोई पीना चाहता है। गुजरात में गुज्जर समुदाय तो हरियाणा में जाट समुदाय तो इसके लिए सत्ता से टकराव लेने से भी नहीं हिचकते दिख रहे हैं। यह जातिगत आरक्षण का प्याला है लेकिन मुस्लिम समुदाय इससे एक कदम आगे बढ़कर धार्मिक आधार पर आरक्षण की मांग लेकर खड़े होने लगे हैं। भारतीय युवाओं को यह याद दिलाने की जरुरत है कि 1947 में धर्म के आधार पर देश के बंटवारे की नींव भी इसी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रखी गई थी। गौर करने वाली बात यह है  70 साल बाद  एक बार फिर भारत को बांटने की बात यहां से हो रही है।

मुस्लिम आरक्षण की इस मांग पर जाने-माने विचारक तुफैल अहमद लिखते हैं कि भारतीय सेना से रिटायर्ड ब्रिगेडियर सैयद अहमद अली ने 2012 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति का काम संभाला था सेना में 35 साल काम करने के बाद भी ब्रिगेडियर साहब उसकी धर्मनिरपेक्षता को आत्मसात नहीं कर पाए। केवल नाम से ही सही लेकिन सैयद अहमद अली का वास्ता पैंगबर मोहम्मद के वंश से है। मुसलमानों में सैयद ऊंची जाति मानी जाति है और इनका निकाह निचली जातियों में अमूमन नहीं होता। एएमयू की वेबसाइट भी ब्रिगेडियर अली को जाने-माने जमींदारों के परिवार से बताती है। मुसलमानों के पिछड़ेपन में इन जमींदारों का भी उतना ही हाथ है जितना उलेमाओं का है।

तुफैल कहते हैं कि अब ब्रिगेडियर अली ने भारतीय मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग उठाई है। ब्रिगेडियर साहब शायद बंटवारे के दौरान हुए खून-खराबे को भूल गए। जिन हालातों में संविधान निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्ष संविधान बनाया था। सेमिनार में मुख्य अतिथि ब्रिगेडियर अली ने कहा,‘मुसलमानों का पिछड़ापन दूर करने के लिए शिक्षा में आरक्षण जरुरी है।होना तो यह चाहिए था कि भारत पर 1000 साल के मुस्लिम शासन के दौरान शिक्षा और विज्ञान के दम पर वह देश को चार-चांद लगा देते। लेकिन मुस्लिम शहंशाहों को मस्जिद, महल और मकबरे बनवाने से फुर्सत मिलती तब तो वे रेलवे, बस और टेलीफोन विकसित करने के बारे में सोचते। नई खोज और आविष्कार की बात करने के बजाए जब एक विश्विविद्यालय का कुलपति आरक्षण की बात करे, तो अफसोस होना लाजमी है। उस पर से सैयद अहमद अली सेना में ब्रिगेडियर भी रह चुके हैं। ब्रिगेडियर साहब सेना से इतना नहीं सीख पाए कि तवज्जो काबिलियत को मिलनी चाहिए।


मुस्लिम समाज को आगे बढ़ना हो तो उसे वैज्ञानिक नजरिया अपनाना होगा, उदार सोच रखनी होगी, तभी असलियत के मसले और उनसे जुड़े सही सवाल उठा पाएगा। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाने के पीछे भी सर सैयद की खास सोच थी। उन्होंने मुस्लिम समुदाय में वैज्ञानिक और तार्किक सोच पैदा करने के लिए इसकी नींव रखी थी। उनकी ऊर्दू पत्रिका तहजीबुल अखलाक भी मुस्लिम छात्रों में नई सोच पैदा करना चाहती थी। लेकिन लगता है एएमयू के कुलपति ने इसके संस्थापक सर सैयद से इतना भी नहीं सीखा। अली ने धर्म के आधार पर आरक्षण की वकालत की। धर्म के आधार पर इस तरह की वकालत का नतीजा एक और बंटवारा ही होगा। दुख की बात यह है कि एक बार फिर एएमयू इसका गवाह बन रहा है। हाल के दिनों में भारत में इस्लाम के पैरोकारों ने अपना मकसद पूरा करने के लिए दलितों से दोस्ती गांठी है। जिसका मुख्य कारण भारत में 25 फीसदी दलितों की आबादी है। महमूद पार्चा ने संविधान की धारा 341 को दलितों और मुसलमानों की इस दोस्ती की गांठ बता दिया.। सेमिनार में पार्चा ने कहा कि धारा 341 पर बहस न होना दलितों और मुसलमानों के अधिकारों का हनन है। इसे तुरन्त हटाया जाना चाहिए। साल 2017 में सर सैयद की 200वीं जन्मशती है। इस मौके पर एक बार देखना चाहिए क्या एएमयू एक बार फिर भारत के बंटवारे के आंदोलन की अगुवाई तो नहीं कर रहा?...राजीव चौधरी


नया पाकिस्तान बनाने की तैयारी

नेताओं के दिमाग से लेकर आम जनजीवन तक जातिप्रथा अपने पुरे चरम पर दिख रही है. भले ही हमें आज यह एक आध घटना लगे लेकिन भेदभाव के इस बीज को खाद बराबर मिल रहा है जो आने वाले दिनों एक विशाल वृक्ष बनकर खड़ा हो जायेगा. हाल ही में मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ में जो हुआ वह किसी ने कभी सोचा नहीं होगा यहां बच्चों ने केवल इस बात पर मिड डे मील खाने से इनकार कर दिया क्योंकि वह एक दलित महिला ने अपने घर पर बनाया था. केवल 12 बच्चें ही खाना खाने आये. बाकि के बच्चों ने यह कहते हुए खाने का बहिष्कार कर दिया कि, यह खाना एक छोटी जाति की महिला ने अपने घर पर बनाया है जिसे हम नहीं खा सकते.
 
कुछ लोग सोचेंगे इस खबर से नये पाकिस्तान बनने का क्या अर्थ है! परन्तु अर्थ है और इतना ही गहरा है जितना एक बीज के अन्दर छिपे एक पेड़ का अस्तित्व. बस उसे मिटटी खाद पानी मिल जाये तो वो पनप जाता है. हम हिन्दू एकता के कसीदे पढ़ते है पर सवाल यह है यदि बच्चों को मिड डे मील परोसने वाली कोई मुस्लिम या इसाई महिला होती तो क्या बच्चे उस भोजन को खाने से इंकार करते? शायद नहीं! आखिर किसने सिखाया उन मासूम बच्चों को कि यह अछूत है इसके हाथ का बना खाना खाने से हम अछूत हो जायेंगे?जवाब शायद सबके मन में हो पर जबान पर आने से अटक रहा हो. क्या आपको नहीं लगता कि जाति प्रथा ने देश की 50 फीसदी आबादी को अछूत और सामाजिक स्तर पर कमजोर बनाकर रख दिया. यदि देश की सामाजिक दशा ठीक रही होती तो क्या बड़ी संख्या में धर्मांतरण होता? यदि धर्मांतरण नहीं होता तो क्या साम्प्रदायिक बटवारे का प्रश्न उठता? क्या पाकिस्तान बनता?
70 साल बीत गये पीढियां बदल गयी लेकिन हमारी सोच नहीं बदली कई जगह आज भी अगर किसी हैण्ड पम्प पे चले जाए पानी के लिए तो नल अछूत, बाल्टी पर हाथ लग जाये तो बाल्टी अछूत, हाँ यदि कोई इसाई या मुस्लिम आ जाये तो कोई बात नहीं उसका सत्कार करेंगे आखिर अपनों से यह फासला क्यों? स्वामी श्रद्धानन्द जी कहा करते थे कि मन की बुराइयों को मारो, तभी सारे समाज का उद्धार होगा. अगर आपने खुद को सुधार लिया तो समाज को और फिर देश को सुधरने में देर नहीं लगेगी. कुछ लोगों का मानना है कि भारत में इस्लाम का प्रचार-प्रसार बहुत ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुआ है. हिन्दुओं के इस्लाम ग्रहण करने का सबसे मुख्य कारण रहा जातिवाद, घोर अन्ध विश्वास और हिंसक बल प्रयोग. इस प्रकार, जातिवाद के कुचक्र के कारण अनेक स्थानों पर हजारों हिंदू वीरों को परिवार सहित जिन्दा रहने के लिए ऐसी घोर अपमानजनक शर्त स्वीकार करनी पड़ी. मुस्लिम आक्रान्ताओं ने पूरे हिंदू समाज पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की रणनीति पर काम किया और उन्होंने समाज से बहिस्कृत जातियों को साथ लेकर भारत के धार्मिक आंकड़ो को बदलकर रख दिया

बहराल हम यहाँ हजार वर्षों से भी अधिक चले धर्मांतरण का वह सबसे अधिक मार्मिक और पीड़ाजनक अध्याय नहीं उठाना चाहते बस यह बताना चाहते है कि हमारी हजार वर्षो की गुलामी का कारण जातिवाद रहा भारतवर्ष के खंड-खंड बाँटने का कारण जातिवाद रहा. आज थोडा गंभीरता से अध्ययन करे तो जानेगें कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का शोर करने वाले खुद को कहाँ पाएंगे! इस समय देश की हिन्दू आबादी लगभग 80 करोड़ है जिसमें 50 फीसदी से ज्यादा वे लोग है जिन्हें शुद्र मानसिकता के लोग अछूत मानते है. यदि यह लोग इसी तरह प्रताड़ित अपमानित होते रहे तो हिन्दू कहाँ रह जायेंगे? ध्यानपूर्वक देखे तो पूवोत्तर राज्य इसाई बहुल हो चुके है. केरल, कश्मीर, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, आसाम के एक बड़ा हिस्से समेत उत्तर प्रदेश के धार्मिक आंकड़े एक नजर में हिन्दू होने गुमान ढीला कर देते है.
कुछ लोग कहते है जातिवाद तो पुरातन काल से प्रभावी था इसमें किसी का क्या दोष! लेकिन यह बिलकुल सच नहीं है हिन्दुओं में आदिकाल से गोत्र और वर्ण व्यवस्था थी, परन्तु जातियाँ नहीं थीं. वेद सम्मत वर्ण व्यवस्था समाज में विभिन्न कार्यों के विभाजन की दृष्टि से लागू थी. यह व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर सीधे-सीधे कर्म पर आधारित थी. कोई भी वर्ण दूसरे को ऊँचा या नीचा नहीं समझता था. इसका सबसे बड़ा उदहारण अपने प्रारंभिक जीवन में शूद्र कर्म में प्रवृत्त वाल्मीकि जी जब अपने कर्मों में परिवर्तन के बाद पूजनीय ऋषियों के वर्ण में मान्यता पा गए तो वे तत्कालीन समाज में महर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हुए. मर्यादा पुरषोत्तम राम के विवाह उपरांत सभी प्रतिष्ठित ब्राह्मणों को दान और उपहार देने के लिए श्री वाल्मीकि जी को ही विशेष आदर के साथ आमंत्रित किया था.

लेकिन समय के विसंगतिया पनपती गयी समाज पर प्रभुत्व स्थापित करने वाले लोगों ने धार्मिक सामाजिक ताना-बाना बिगाड़कर रख दिया. तत्कालीन सम्मान और आत्ममुग्धता के भूखे राजाओं ने भी इन्ही विसंगतियों और कुप्रथाओं को सच मान लिया. जिस कारण समाज के बड़े निर्धन वर्ग को अछूत करार दिया गया. परन्तु यह लोग फिर भी छुप-छुप कर अपने सभी उत्सव मनाते रहे और सनातन धर्म की पताका को अपने हृदयाकाश में लहराते रहे. जिन्हें उस समय एक बड़े वर्ग ने जाति के नाम पर प्रताड़ित किया तथा मुस्लिम आतातियों ने धर्म के नाम पर लेकिन वे लोग फिर भी अपने धर्म मार्ग पर डटें रहे क्या उनका यह त्याग कम रहा है? जिनका सब कुछ खण्ड-खण्ड हो चुका था, परन्तु, उन्होंने धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को लेशमात्र भी खंडित नहीं होने दिया. जरा सोचिये, हिंदू समाज पर इन कथित अछूत लोगों का कितना बड़ा ऋण है. यदि उस कठिन काल में ये लोग भी दूसरी परिणति वाले स्वार्थी हिन्दुओं कि तरह ही तब मुसलमान बन गए होते तो आज अपने देश का इतिहास भूगोल क्या होता? और सोचिये, आज हिन्दुओं में जिस वर्ग को हम अनुसूचित जातियों के रूप में जानते हैं, उन आस्थावान हिन्दुओं की कितनी विशाल संख्या है, जो मुस्लिम दमन में से अपने धर्म को सुरक्षित निकालकर लाई है. क्या इनका अपने सनातन हिंदू धर्म की रक्षा में इनका पल-पल अपमानित होना कोई छोटा त्याग था? क्या इनका त्याग ऋषि दधिची के त्याग की श्रेणी में नहीं आता? यदि आता है तो अब यह छूत-अछूत का आडम्बर हटा देना होगा वरना धर्मपरिवर्तन के कुत्सित जाल में फंसकर आगे भी पाकिस्तान बनते रहेंगे...राजीव चौधरी 


Friday, 3 February 2017

भारतीय आध्यात्म से ही होगा आतंक का खात्मा

भारतीय आध्यात्म से ही होगा आतंक का खात्मा
गुरुग्राम हरियाणा- से फरवरी तक चलने वाले हिंदू आध्यात्मिक सेवा मेले का शुभारंभ गुरुग्राम में हो गया है। इस मेले में सामाजिकपर्यावरण संबंधी कार्य एवं सेवा कार्यों को प्रदर्शित किया जायेगा। इस आध्यात्मिक मेले में उत्तर भारत की करीब 400 संस्थाएं भाग ले रही हैं। सेक्टर 29 के लेजर वैली में फरवरी तक चलने वाले इस मेले में हिदुत्व के मूल्यों से परिचित कराने के साथ ही लोगों को मानवीय मूल्यों के प्रति जागरूक किया जा रहा है। इस अवसर पर मेले का उद्घाटन करते हुए हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने कहा कि ‘‘भारतीय हिन्दू अध्यात्मवाद वैदिक संस्कृति पर आधारित है। वेदों में अध्यात्म व भोगवाद पर गंभीर चिंतन किया गया है। यजुर्वेद के 40 वें अध्याय का पहला श्लोक हमें यह बताता है कि संसार के कण-कण में भगवान विद्यमान हैं। वैदिक संस्कृति पर आधारित हमारी भारतीय संस्कृति भोगवाद का विरोध नहीं करती लेकिन मनुष्य को सीख देती है कि उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का त्याग पूर्वक भोग करो। इसलिए हमें संसार में उपलब्ध सभी प्राकृतिक संसाधनों का भोग यह समझ कर करना चाहिए कि ये दुनिया किसी और यानी ईश्वर की है। इसका नाजायज दोहन नहीं किया जाना चाहिए। अगर इस चिंतन को दुनिया आत्मसात कर ले तो आतंकवाद जैसी समस्या के लिए दुनिया में कोई जगह नहीं रहेगी।’’ अपने अभिभाषण के बाद राज्यपाल देवव्रत जी ने आर्य समाज दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा के स्टॉल 197- 198 का उद्घाटन किया. आर्य समाज के स्टॉल पर दीप प्रज्वलित करते हुए जेबीएम ग्रुप के चेयरमैन एस के आर्य ने अपने स्वागत भाषण में कहा कि ‘‘इस मेले का आयोजन बिंदुओं-वन एवं वन्य प्राणियोंपर्यावरणमानवीय मूल्योंनारी सम्मानदेशप्रेम तथा सांस्कृतिक सुरक्षा को लेकर किया जा रहा है। इन बिंदुओं के माध्यम से हमारी समृद्ध संस्कृति को लोगों विशेषकर युवा पीढ़ी तक पहुंचाना है।