लोग फिर जमा
हो रहे हैं धर्म के नाम पर, जातियों-उपजातियों के नाम पर, क्षेत्र
और समुदाय से लेकर गौरक्षा के नाम पर पर।
सवाल यह है इंसानों की रक्षा के लिए कितने लोग
जुड़ रहे हैं? शुद्ध हवा, पेड़ और स्वच्छ पानी को बचाने के लिए कितने संगठन बने? कुपोषण, बेरोजगारी
समाज को शिक्षित करने के लिए कितने लोग सामने
आये? सवाल
ही मेरा बचकाना है, भला शुद्ध हवा, स्वच्छ पानी, बीमारी से बचाने वाले को कौन वोट देगा?
जातियां बचाने
को देश के अन्दर सेनाएं बन रही है। भीम सेना, करणी सेना,
सनातन संस्था, हिंदू युवा वाहिनी, बजरंग
दल, श्रीराम
सेना, भोंसला मिलिट्री और ना जाने
कितनी सेना! हर कोई जाति और धर्म के नाम पर हर रोज संगठन या सेना रजिस्टर्ड करा रहा है। एक दूसरे के प्रति भय का माहौल खड़ा किया
जा रहा है। देश में विपक्ष बचा ही नहीं जो भी बचे
हैं वो नई परिभाषा के हिसाब से गद्दार और
देशद्रोही बचे हैं। आखिर ये पुराना भारत क्यों बदल रहा है?
सालों पहले
ऐसी ही भीड़ ने सिखों का क़त्लेआम किया, पिछले साल मालदा में हिंसा करने वाली ऐसी ही भीड़ ने बाजार फूंका था। सहारनपुर में गरीबों
के घर फूंकने वाली भीड़, कश्मीर के
पत्थरबाजो से लेकर हमने भीड़ का भयावह रूप कई देखा है लेकिन
उसके ख़तरों को बिल्कुल नहीं समझा है। बहुत सारे लोग इस बात पर नाराज़ हो सकते हैं कि हिंदुओं की तुलना मुसलमानों से न की जाए,
लेकिन हिंदू धर्म को शांतिप्रिय और अहिंसक मानने वालों को झूठा साबित
कर रही है महाराणा प्रताप और अम्बेडकर के नाम
हत्याएं करने वाली ये भीड़।
महाराणा प्रताप
को लेकर सहारनपुर जल रहा है जिसने देश-धर्म बचाने के लिए घास की रोटी खाई लेकिन उसके कथित वंशज आज उसके नाम पर मलाई चाट रहे
है। शोभायात्रों के लिए मर रहे हैं और मार
रहे हैं, मूर्ति स्थापना को लेकर मर रहे
हैं और मार रहे हैं, जातीय प्रतिस्पर्धा, राजनीति
और हिंसा का इससे विकृत रूप और क्या हो सकता है
भला?
असल समस्याएं
कूड़ेदान में चली गयी। नयी-नयी अजीबोगरीब समस्याएं पैदा हो रही है और उनसे राजनीति हो रही है. लोगों को इस बात की जरा भी परवाह
नहीं वे किन चीजों के लिए मर और मार रहे हैं.
संस्कृति और परंपरा पर गर्व करने और इसकी माला
फेरने वालों भारत को सिर्फ बुतों, पुतलों, प्रतीकों और
मूर्तियों का देश बना देने में कोई कसर न छोड़ना. शायद
यही धर्म की परिभाषा शेष रह गयी है!!
मसलन हम
जो आज कर रहे है पाकिस्तान चालीस साल पहले करके देख चुका है। इसी का नतीजा है कि आज स्पेस में उसके उपग्रह के बजाय दिन दहाड़े उसके
बाजारों में बम विस्फोट हो रहे हैं। पाकिस्तान में
जनरल जिया उल हक की सरकार के दौर में देश का
इस्लामीकरण हुआ था। पाठ्यक्रम बदले गये। विज्ञान की जगह बच्चों को मजहब थमाया गया था। जिसके बाद मजहब से निकले लोगों ने संगठन
बनाए। संगठने राजनीति पर हावी हुई। राजनीति उनकी
गुलाम बनी और पाकिस्तान भीख पर पलने वाला देश
बनकर रह गया।
पिछले कुछ
सालों में समय का चक्र स्पीड से घूमा है और दुनिया के कई हिस्सों में बड़ा बदलाव आया अमरीका में भारतीय मूल के लोगों की लगातार हो
रही हत्याओं, बांग्लादेश में पाकिस्तान में मानवतावादी पत्रकारों, ब्लागरों
की हत्या समेत भारत में गौरक्षा के नाम पर हत्या
भी अंतर्राष्ट्रीय चिन्ताओं के सवाल बने हैं।
आज पूरे
विश्व में राजनैतिक सत्ता के लिए जो दूध बिलोया जा रहा है कहीं उसका मक्खन अतिवादी चरमपंथी ना खा जाये यह भी सोचना होगा! हमारे देश
में भी एक भीड़ बढ़ रही है, इसका उपयोग
भी हो रहा है, आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय
और मानव मूल्यों समेत लोकतंत्र के नाश के लिए किया जा सकता है। आज मेरी बात भले ही बकवास और तर्कहीन दिखाई दे लेकिन मेरी यह
बात प्रसिद्ध लेखक हरिशंकर परसाई को समर्पित है जिसकी
दशकों पुरानी रचना “आवारा भीड़ के ख़तरे”
को
लोगों ने व्यंग समझा था। लेकिन परसाई की लिखी सैकड़ों बातें कई महान भविष्यवक्ताओं से सटीक निकली।
पिछले दिनों
बीबीसी की पर आलेख पढ़ा था कि हमारा आन्दोलनों से भी पुराना नाता रहा है कई बार शांत तो कई बार आंदोलन हिंसक हो जाते हैं, जाट
और गुज्जर आंदोलन की तरह। हमारा दंगों का इतिहास
भी पुराना है, दंगे भड़कते रहे हैं, इंसानों को
लीलते है मकान दुकान फूंकते है फिर शांत हो जाते है। कोई चिंगारी कहीं से उड़ती है, कहीं से आग का गुब्बार निकलता है,
करता
कोई है, भरता कोई है। धीरे-धीरे सब
सामान्य हो जाता है। यदि कुछ कायम नहीं होता तो वह है फिर से
वही
सौहार्द।
इस समय
देश में बड़े दंगे नहीं हो रहे लेकिन जो कुछ हो रहा है वो शायद ज्यादा ख़तरनाक है। दंगा घटना है, मगर अभी जो
चल रहा है वो एक प्रक्रिया है। शुरूआती
कामयाबियों और गुपचुप शाबाशियों के बाद कुछ लोगों को विश्वास हो रहा है कि वे सही राह पर हैं। धर्म और सत्ता की शह से पनपने
वाली ये भीड़ ख़ुद को क़ानून-व्यवस्था और
न्याय-व्यवस्था से ऊपर मानने लगी है। जब उन्हें तत्काल
सजा सुनाने के अधिकार हासिल हो चुका हो तो वे पुलिस या अदालतों की परवाह क्यों करें, या उनसे क्यों डरें?
जब एक
नई राह बनाई जाएगी तो पुरानी मिट जाएगी। जिन देशों में मजहबी कट्टरता ने अन्य पंथो, समुदायों को मिटाकर कट्टरता का ध्वज
लहराया था आज उस कट्टरता का शिकार
उसका बड़ा वर्ग ही हो रहा है। दिन के उजाले में इतिहास पढने वाले जानते कि जब भी किसी देश में धार्मिक कट्टरता का बोलबाला हुआ
तो सिर्फ़ अल्पसंख्यकों का नहीं बल्कि वहां के
बहुसंख्यक समुदाय का भी अत्यधिक नुक़सान हुआ।
मसलन, ज्यादा
पुरानी बात नहीं, जब सीरिया एक ख़ुशहाल देश हुआ करता था। लेकिन पिछले कुछ सालों से कई हिस्सों में बंटा समाज हिंसक हो गया।
बिगड़ते हालात में सरकार की गलत नीतियों ने आग को और
हवा दी। जिस कारण आज सीरिया गृह युद्ध में जल
रहा है। ये एक सभ्यता, एक ख़ुशहाल देश के बहुत कम वक्त में बर्बाद होने की मिसाल है। या कहो एक विचारधारा ने सीरया को
मलबे, लाशों और कब्रिस्तान
का देश बना दिया। लेकिन अब पुरानी राह पर लौटना आसान नहीं जाहिर सी बात है उन्हें नई राह खोजनी होगी।...राजीव चौधरी
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