यह खबर देश,
समाज और वैदिक धर्म के लिए कुछ कर गुजरने को प्रेरित ही नहीं करेगी
बल्कि राष्ट्र और धर्म के प्रति उऋण होने का मौका भी प्रदान करेगी. आपने देश तोड़ने
वाली बहुत विचारधारा इस देश में अभिवयक्ति की आजादी के नाम पर मुहं खोले खड़ी देखी
होगी. उस समय गुस्सा भी आता होगा मन यह भी सोचता होगा कि क्या इस देश में कोई ऐसी
विचारधारा भी है जो बिना किसी राजनैतिक एजेंडे के सारे देश को एक सूत्र में पिरोने
का कार्य करती हो? यदि हाँ! तो चले आईये आर्य समाज रानी बाग दिल्ली और खुद अपनी आँखों से देखिये
अखिल भारतीय दयानन्द सेवाश्रम संघ के सानिध्य में विद्यार्थियों के संस्कार,
राष्ट्र भक्ति एवं चरित्र निर्माण के लिए 14 मई से 28 मई 2017 तक 36
वां वैचारिक क्रांति शिविर
यहाँ त्रिपुरा
से आये एक बच्चे की उम्र करीब 9 साल है सफेद कुरता पायजामा पहने, गले
में यज्ञोपवीत धारण किये वो खेल रहा था. हमारे लिए पूर्वोत्तर भारत के इस मासूम से
बचपन को करीब से देखने जानने का यह एक बेहतर मौका था. अचानक उसकी नजर कुर्सी पर
जमी हल्की से धूल पर गयी वह दौड़कर एक कपडा लेकर आया और कुर्सी को साफ करने लगा.
शायद यह आर्य समाज के दिए संस्कारो का प्रभाव था. जब हमने उससे पूछा की यहाँ आकर
कैसा लगा? उसने बेहद उत्सुकता के साथ हाथ जोड़कर नमस्ते कर बताया बहुत अच्छा.
उसका हिंदी भाषा में जवाब सुनकर मन गदगद हो गया कि देश की स्वतन्त्रता के 70 सालों
बाद जिन पूर्वोत्तर प्रान्तों को सरकारें सीधा रेल या सडक मार्ग से नहीं जोड़ पाई
वहां आर्य समाज दयानन्द सेवाश्रम संघ द्वारा देश के मासूम बचपन को इन भीषण
परिस्थितियों के बाद भी हिंदी भाषा और वैदिक संस्कार से जोड़ने का कार्य कर रहा है.
लगभग 10 साल का
चन्द्रदेव आर्य जो उत्तर प्रदेश से आया है आज बेहद खुश था उसकी खुशी सिर्फ इस बात
में थी कि 21 मई को यज्ञोपवीत संस्कार पर नया यज्ञोपवीत धारण किया था. शायद उसका
मन उन बच्चों की खुशी से कई गुना खुश था जो हजारों रूपये के खिलोने लेकर भी नहीं
मुस्कुरा पाते. वो बड़े गर्व के साथ यज्ञोपवीत की ओर इशारा कर बता रहा था कि यह मेने
कल ही धारण किया है. नागालेंड की राजधानी दीमापुर से करीब 80 किलोमीटर दूर एक छोटे
से गाँव से आया केविलोन बेझिझक कहता है कि आर्य समाज के कारण वह आज इसाईयत के जहर
से बच गया. अपने सनातन धर्म अपनी संस्कृति पर गर्व करता हुआ बताता है कि हम खुश
है. हमें नहीं पता हम किन-किन मार्गो से गुजरकर यहाँ पहुंचे लेकिन यहाँ आकर जो
सीखा उसे जीवन में उतारकर अपने देश अपने धर्म के लिए कार्य करेंगे. अब आप खुद
अंदाजा लगा सकते है कि आर्य समाज किन-किन रास्ते से होकर इन बच्चों तक पहुंचा
होगा!
बबलू डामर
मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्र झाबुबा से आया है. महाशय धर्मपाल आर्य विद्या
निकेतन बमानिया में पढता है और थोडा शर्मीले स्वभाव का है. ज्यादा बात नहीं कर पा
रहा था. लेकिन उसकी खुशी उसकी नन्ही मासूम आँखों में स्पष्ट दिख रही थी. जेम्स
आसाम से आया है. महाशय धर्मपाल आर्य विद्या निकेतन धनश्री स्कूल का छात्र है वो
बताता है कि वह उन इलाकों से आया है जहाँ स्कूल कालिजों से ज्यादा चर्च मिलेंगे
हल्का गेरुए रंग का कुर्ता सफेद पायजामा पहने जेम्स की नजरे मानों आर्य समाज का
आभार प्रकट कर रही हो. जेम्स नाम से एक पल को चौक गये होंगे लेकिन बाद में उसने
बताया कि वहां उन क्षेत्रों में सनातन नामावली भी करीब-करीब मिट चुकी है. इससे
पहले हम और बच्चों से मिलते यहाँ एक सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हो चूका था. बच्चें
कतारबद्ध होकर अपना-अपना स्थान ग्रहण करने लगे. ऐसे एक दो नहीं इस शिविर में करीब
200 से ज्यादा बच्चे है जो ओडिशा, मध्यप्रदेश, राजस्थान,
उत्तरप्रदेश, आसाम, छत्तीसगढ़,
उत्तराखण्ड नागालैंड, झारखण्ड आदि प्रदेशों से आये हैं. वे
कहते है हमने कभी सोचा भी नहीं था कि हम लोग इतनी अच्छी जगह शिक्षा प्राप्त
करेंगे.
अधिकांश बच्चें
उन प्रान्तों से है जहाँ इसाई मिशनरीज खुलेआम मतमतांतर का कार्य रही है. जिसे बहुत
पहले रूस के जोसेफ स्टालिन ने वेटिकन द्वारा चर्च की “अदृश्य सेना” माना था. जो लोगों को उनकी जड़ों से
काटकर पाश्चात्य संस्कृतियों का नामहीन और व्यक्तित्वहीन नकलची भर बनाते है तथा
इसके बदले उनकी पुरानी धार्मिक मान्यताओं को न केवल समाप्त करने बल्कि उनसे और
अपने राष्ट्र से घृणा करना सिखाते है. लेकिन इसके विपरीत जब आप इन बच्चों के करीब
जाओंगे तो सांस्कृतिक आधार पर भारत के सुदूर प्रांतों से आये इन बच्चों के बीच
समरसता, और आत्मीयता मिलेगी. इनकी आँखों में आपको स्नेह के साथ आभार दिखाई देगा.
आप कुछ देर चुपचाप किसी स्थान पर बैठकर देखना फिर आपको अहसास होगा कि धर्म
संस्कृति के बीच उगने वाले ये छोटे-छोटे पोधे कल जब विशाल वृक्ष बनेंगे तो इसका
मीठा फल राष्ट्र को सांस्कृतिक रूप से जरुर उज्जवल बनाने के काम आएगा
कहते है समाज को
विद्या और विज्ञान जानने वाला वर्ग ही लेकर आगे बढ़ता है. पहले भी ऐसा ही था और आगे
भी ऐसा ही होगा. यही सोचकर आर्य समाज विपरीत परिस्थितियों, में जन
और धन के अभाव में भी निरंतर आज यह कार्य कर रहा है. ताकि पूर्व से पश्चिम तक
उत्तर से दक्षिण तक वैदिक सभ्यता का प्रचार कर अपनी संस्कृति को वहां स्थापित करे
सके जहाँ आर्य लोग हजारों वर्ष पहले कर चुके हैं. देश के भिन्न-भिन्न प्रान्तों के
बच्चों को जोड़कर राष्ट्रीय मिलन का यह सबसे उत्तम प्रयास है जिसके लिए तन-मन-धन के
सहयोग की जरूरत होगी क्योंकि यह भी सब भलीभांति जानते है कि कोई एक अकेला इन्सान
यह सब नहीं कर सकता.
किसी कवि ने कहा है,
मंजिल यूँ ही
नहीं मिलती राही को जुनून सा दिल में जगाना पड़ता है,
पूछा चिड़िया से
कि घोसला कैसे बनता है वो बोली कि तिनका तिनका उठाना पड़ता है,,
राजीव चौधरी
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