संस्कृति और
सभ्यता के चिन्तक, विचारक
कहते है कि सभ्यतायें बचती नहीं हमेशा बचाई जाती है, इनका रखरखाव बच्चे के लालन पालन की तरह होता है
जो इनसे मुंह मोड़ता उसे इसके दुखद परिणाम भुगतने पड़ते है. ऐसा नहीं
कि यह सिर्फ अनुमान है वरन इसके उदहारण भी हमारे समक्ष प्रस्तुत है. रोमन
साम्राज्य हो, या मिस्र की सभ्यता या फिर भारतीय उप-महाद्वीप
में सिंधु घाटी की सभ्यता. ये इंसान की तरक्क़ी की बड़ी मिसालें थीं. मगर इन सबका
पतन हो गया. महान मुगल साम्राज्य जो कभी मध्य एशिया से लेकर दक्षिण भारत तक पर राज
करता था वो ख़त्म हो गया. वो ब्रिटिश साम्राज्य जहां कभी सूरज अस्त नहीं होता था,
वो भी एक वक़्त ऐसा आया कि मिट गया. आज अमरीका की अगुवाई वाले
पश्चिमी देश जिस तरह की चुनौतियां झेल रहे हैं, उस वजह
से अब पश्चिमी सभ्यता के क़िले के ढहने की आशंका जताई जा रही है. यहाँ आकर सवाल
उपजता है कि यूरोप की सभ्यता सिमट गयी तो किस सभ्यता का राज होगा? अमेरिकी
विचारक मार्क स्टेयन ने इससे आगे बढ़कर भी कहा है पश्चिमी विश्व 21वीं
शताब्दी तक बच नहीं पायेग और हमारे समय में यदि पूरा यूरोप नहीं तो यूरोप के कुछ
देश अवश्य अदृश्य हो जायेंगे.
इस विषय में संक्षेप
में चर्चा के साथ पहला तर्क यह दर्शाता है कि मुसलमानों की सक्रियता और यूरोप की
निष्क्रियता के कारण यूरोप का इस्लामीकरण होगा और अपने धार्मिक स्तर के साथ वह
इस्लाम में धर्मान्तरित हो जायेगा, उच्च और निम्न धार्मिकता, उच्च
और निम्न जन्म दर तथा उच्च और निम्न सास्कृतिक आत्मविश्वास के कारण यह सम्भव होगा.
कहने का अर्थ है कि आज यूरोप एक खुला द्वार है जिसमें मुसलमान टहल रहे हैं. आज
यूरोप की सेक्यूलरिज्म के प्रति गहरी आसक्ति के कारण ही चर्च खाली रहते हैं और एक
शोधकर्ता के अनुसार लन्दन में शुक्रवार को मस्जिदों में मुसलमानों की संख्या
रविवार को चर्च में आने वालों से अधिक होती है.जबकि लन्दन में ईसाइयों की संख्या
मुसलमानों से 7 गुना अधिक है.
हम यह चर्चा
किसी को भय दिखाने या किसी की हिम्मत बढ़ाने के लिए नहीं कर रहे बल्कि समय के साथ
सचेत करने के लिए कर रहे है कारण मध्य एशिया का हिंसक वर्तमान आज किसी से छिपा
नहीं है. जो अब धीरे-धीरे यूरोप की तरफ बढ़ रही है. कोई भी सभ्यता चाहे कितनी ही
महान क्यों ना रही हो, वो, वक़्त आया तो
ख़ुद को तबाही से नहीं बचा पाई. आगे चलकर क्या होगा, ये पक्के
तौर पर तो कहना मुमकिन नहीं. मगर ऐतिहासिक अनुभव से हम कुछ अंदाजे तो लगा सकते
हैं. भविष्य के सुधार के लिए कई बार इतिहास की घटनाओं से भी सबक़ लिया जा सकता है.
पश्चिमी देश, रोमन साम्राज्य से सबक़ ले सकते हैं. यदि आज
पश्चिमी देश आर्थिक घमंड में जी रहे है तो उन्हें यह भी सोचना होगा कि संसाधनों पर
बढ़ते बोझ के कारण कब तक इसे सम्हाल पाएंगे दूसरा क़ुदरती संसाधनों पर उस सभ्यता का
दबाव और तीसरा सभ्यता को चलाने का बढ़ता आर्थिक बोझ और चौथा बढ़ता मुस्लिम शरणार्थी
संकट कब तक सहन करेंगे?
यूरोप और
इस्लामी दुनिया की समझ रखने वाले लेखक विचारक डेनियल पाइप्स इस पर अपनी राय बड़ी
संजीदगी से रखते हुए कहते है कि मुसलमानों की उत्साही आस्था जिहादी सक्षमता और
इस्लामी सर्वोच्चता की भावना से यूरोप की क्षरित ईसाइयत से अधिक भिन्न है. इसी अन्तर
के चलते मुसलमान यूरोप को धर्मान्तरण और नियन्त्रण के परिपक्व महाद्वीप मानते हैं.
डेनियल कुछेक मुस्लिम धर्म गुरुओं के अहंकारी सर्वोच्च भाव से युक्त दावों के उदाहरण
सामने रखते है जैसे उमर बकरी मोहम्मद ने कहा “ मैं
ब्रिटेन को एक इस्लामी राज्य के रूप में देखना चाहता हूँ. मैं इस्लामी ध्वज को 10
डाउनिंग स्ट्रीट में फहराते देखना चाहता हूँ”. या फिर
बेल्जियम मूल के एक इमाम की भविष्यवाणी “ जैसे ही हम इस
देश पर नियन्त्रण स्थापित कर लेंगे जो हमारी आलोचना करते हैं हमसे क्षमा याचना
करेंगे. उन्हें हमारी सेवा करनी होगी. तैयारी करो समय निकट है. डेनियल इससे भी
आगे बढ़कर एक ऐसी स्थिति का चित्र भी खींचते हैं जहाँ अमेरिका की नौसेना के
जहाज यूरोप से यूरोपियन मूल के लोगों के सुरक्षित निकास के लिये दूर-दूर तक तैनात
होंगे.
यूरोप में तेजी
से बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या के साथ इस महाद्वीप के साथ इनके लम्बे धार्मिक संबधों पर
रौशनी डालते हुए डेनियल कहते है कि इस अवस्था में तीन रास्ते ही बचते हैं- सद्भावनापूर्वक
आत्मसातीकरण, मुसलमानों को निकाला जाना या फिर यूरोप पर इनका
नियन्त्रण हो जाना. इन परिस्थितियों के सर्वाधिक निकट स्थिति कौन सी है यह
यूरोपवासियों को सोचना होगा.
प्रोफेसर थॉमस
होमर-डिक्सन कहते हैं कि इस्लामिक शरणार्थी यूरोप के लिए चुनौती बड़ी है. क्योंकि
ये मध्य-पूर्व और अफ्रीका के अस्थिर इलाकों के क़रीब है. यहां की उठा-पटक और आबादी
की भगदड़ का सीधा असर पहले यूरोप पर पड़ेगा. हम आतंकी हमलों
की शक्ल में ऐसा होता देख भी रहे हैं. अमरीका, बाक़ी
दुनिया से समंदर की वजह से दूर है. इसलिए वहां इस उठा-पटक का असर देर से होगा.जब
अलग-अलग धर्मों, समुदायों, जातियों
और नस्लों के लोग एक देश में एक-दूसरे के आमने-सामने होंगे, तो झगड़े
बढ़ेंगे. पश्चिमी देशों में शरणार्थियों की बाढ़ आने के बाद यही होता दिख रहा है. वहीं
कुछ जानकारों का ये भी कहना है कि हो सकता है पश्चिमी सभ्यताएं ख़त्म ना हों लेकिन
उनका रंग-रूप जरूर बदलेगा. लोकतंत्र, उदार समाज जैसे फलसफे मिट्टी में मिल
जाएंगे. चीन जैसे अलोकतांत्रिक देश, इस मौक़े का फायदा उठाएंगे. ऐसा
होना भी एक तरह से सभ्यता का पतन ही कहलाएगा. किसी भी सभ्यता की पहचान वहां के
जीवन मूल्य और सिद्धांत होते हैं. अगर वही नहीं रहेंगे, तो
सभ्यता को जिंदा कैसे कहा जा सकता है? यह आज यूरोपियन लोगों के लिए सबसे बड़ा सवाल है. राजीव चौधरी
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