डॉ विवेक आर्य
आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द हमारे देश के इतिहास की दो सबसे महान
विभूति है। दोनों ने अपने जीवन को धर्म रक्षा के लिए समर्पित किया था।
दोनों का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था और दोनों ने जातिवाद के
विरुद्ध कार्य किया। दोनों के बचपन का नाम शंकर और मूलशंकर था। दोनों को
अल्पायु में वैराग्य हुआ और दोनों ने स्वगृह त्याग का देशाटन किया। दोनों
ने धर्म के नाम पर चल रहे आडम्बर के विरुद्ध संघर्ष किया। दोनों की कृतियां
त्रिमूर्ति के नाम से प्रसिद्द है। आदि शंकराचार्य की तीन सबसे प्रसिद्द
कृतियां है उपनिषद भाष्य, गीता भाष्य एवं ब्रह्मसूत्र। स्वामी दयानन्द की
तीन सबसे प्रसिद्द कृतियां है सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं
संस्कार विधि। दोनों की मृत्यु भी असमय विष देने से हुई थी।
आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द
1. आदि शंकराचार्य का जिस काल में प्रादुर्भाव हुआ उस काल में उनका
संघर्ष जैन एवं बुद्ध मतों से हुआ जबकि स्वामी दयानन्द का संघर्ष रूढ़िवादी
एवं कर्मकांडी हिन्दू समाज के साथ साथ विधर्मियों के साथ भी हुआ।
2. आदि शंकराचार्य का संघर्ष भारत देश में ही उत्पन्न हुए विभिन्न मतों
से हुआ जबकि स्वामी दयानन्द का संघर्ष देश के साथ साथ विदेश से आये हुए
इस्लाम और ईसाइयत से भी हुआ।
3. आदि शंकराचार्य को मुख्य रूप से नास्तिक बुद्ध मत एवं जैन मत के वेद
विरुद्ध मान्यताओं की तर्कपूर्ण समीक्षा करने की चुनौती मिली थी। जबकि
स्वामी दयानन्द को न केवल वेदों को महान आध्यात्मिक ज्ञान के रूप में पुन:
स्थापित करना था। अपितु विदेशी मतों द्वारा वेदों पर लगाए गए आक्षेपों का
भी निराकरण करना था। हमारे ही देश में प्रचलित विभिन्न मत-मतान्तर की
धार्मिक मान्यताएं भी विकृत होकर वेदों के अनुकूल नहीं रही थी। उनका
मार्गदर्शन करना भी स्वामी जी के लिए बड़ी चुनौती थी।
4. आदि शंकराचार्य के काल में शत्रु को भी मान देने की वैदिक परम्परा
जीवित थी। जबकि स्वामी दयानन्द का विरोध करने वाले न केवल स्वदेशी थे अपितु
विदेशी भी थे। स्वामी जी का विरोध करने में कोई पीछे नहीं रहा। मगर स्वामी
दयानन्द भी बिना किसी सहयोग के केवल ईश्वर विश्वास एवं वेदों के ज्ञान के
आधार पर सभी प्रतिरोधों का सामना करते हुए आगे बढ़ते रहे।
5. आदि शंकराचार्य को केवल वैदिक धर्म का प्रतिपादन करना था जबकि स्वामी
दयानन्द को वैदिक धर्म के प्रतिपादन के साथ साथ विदेशी मतों की मान्यताओं
का भी पुरजोर खंडन करना पड़ा।
6. आदि शंकराचार्य के काल में धर्मक्षेत्र में कुछ प्रकाश अभी बाकि था।
विद्वत लोग सत्य के ग्रहण एवं असत्य के त्याग के लिए प्राचीन शास्त्रार्थ
परम्परा का पालन करते थे। जिसका मत विजयी होता था उसे सभी स्वीकार करते थे।
पंडितों का मान था एवं राजा भी उनका मान करते थे। शंकराचार्य ने उज्जैन के
राजा सुन्धवा से जैन मत के धर्मगुरुओं से शास्त्रार्थ का आयोजन करने के
लिए प्रेरित किया। राजा की बुद्धि में ज्ञान का प्रकाश था। जैन विद्वानों
के साथ हुए शास्त्रार्थ में शंकराचार्य विजयी हुए। राजा के साथ जैन
प्रचारकों ने वैदिक धर्म को स्वीकार किया। स्वामी दयानन्द के काल में यह
परम्परा भुलाई जा चुकी थी। स्वामी जी ने भी शास्त्रार्थ रूपी प्राचीन
परिपाटी को पुनर्जीवित करने के लिए पुरुषार्थ किया। काशी में उन्होंने
मूर्तिपूजा पर बनारस के सकल पंडितों के साथ काशी नरेश के सभापतित्व में
शास्त्रार्थ का आयोजन किया। शास्त्रार्थ में स्वामी दयानन्द के विजय होने
पर भी काशी नरेश ने उनका साथ नहीं दिया और पंडितों का साथ दिया। काशी नरेश
और पंडितों के विरोध का स्वामी दयानन्द ने पुरजोर सामना किया मगर सत्य के
पथ से विचलित नहीं हुए। अडिग स्वामी दयानन्द को केवल और केवल ईश्वर का साथ
था।
7. आदि शंकराचार्य के काल में वेदों का मान था। स्वामी दयानन्द के काल
में स्थिति में परिवर्तन हो चूका था। स्वामी जी को एक ओर विदेशियों के
समक्ष वेदों को उत्कृष्ट सिद्ध करना था। दूसरी ओर स्थानीय विद्वानों द्वारा
वेदों के विषय में फैलाई जा रही भ्रांतियों का भी निराकरण करना था। वेदों
को यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करने वाला, जादू-टोने का समर्थन करने
वाला,अन्धविश्वास का समर्थन करने वाला बना दिया गया था। स्वामी जी के वेदों
के नवीन भाष्य को करने का उद्देश्य इन्हीं भ्रांतियों का निवारण करना था।
स्वामी जी के पुरुषार्थ के दर्शन उनके यजुर्वेद और ऋग्वेद भाष्य को देखकर
होते हैं। हमारे समाज को स्वामी जी के इस योगदान के लिए आभारी होना चाहिए।
8. आदि शंकराचार्य के काल में पंडित लोग सत्यवादी थे। सत्य को स्वीकार
करने के लिए अग्रसर रहते थे। स्वामी दयानन्द के काल में पंडितों को सत्य से
अधिक आजीविका की चिंता थी। वेदों को सत्य भाष्य को स्वीकार करने से उन्हें
आजीविका छीनने का भय था, उनकी गुरुडम की दुकान बंद होने क भय था, उनकी
महंत की गद्दी छीनने का भय था। इसलिए उन्होंने स्वामी दयानन्द को सहयोग
देने के स्थान पर उनके महान कार्य का पुरजोर विरोध करना आरम्भ कर दिया।
वैदिक धर्म सत्य एवं ज्ञान पर आधारित धर्म है। सत्य और ज्ञान अन्धविश्वास
के शत्रु है। दयानन्द के भाग्योदय करने वाले वचनों को स्वीकार करने के
स्थान पर उनका पुरजोर विरोध करना हिन्दू समाज के लिए अहितकारी था। काश
हिन्दू समाज ने स्वामी दयानन्द को ठीक वैसे स्वीकार किया होता जैसा अदि
शंकराचार्य के काल में स्वीकार किया था। तो भारत देश का स्वर्णिम युग आरम्भ
हो जाता।
9. आदि शंकराचार्य को विदेशी मतों के साथ संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं
पड़ी। जबकि स्वामी दयानन्द के तो अपनों के साथ साथ विदेशी भी बैरी थे।
इस्लामिक आक्रांताओं ने हिन्दुओं के आत्मविश्वास को हिला दिया था। वीर
शिवाजी और महाराणा प्रताप सरीखे वीरों से हिन्दुओं की कुछ काल तक रक्षा तो
हो पायी। मगर आध्यात्मिक क्षेत्र में हिन्दुओं की जो व्यापक हानि हुई उसे
पुनर्जीवित करना अत्यंत कठिन था। रही सही कसर अंग्रेजों ने पूरी कर दी।
उन्होंने हमारे देश की आत्मा पर इतना कठोर आघात किया कि हिन्दू समाज अपने
प्राचीन गौरव को भूलकर बैठा। स्वामी दयानन्द को हमारे देशवासियों को अपनी
प्राचीन ऋषि परम्परा एवं इतिहास से परिचित करवाने के लिए अत्यंत पुरुषार्थ
करना पड़ा। भारतीयों के आत्मविश्वास को जगाने के लिए एवं विदेशी मतों को
तुच्छ सिद्ध करने के लिए उन्हें उन्हीं की कमी से परिचित करवाना अत्यंत
आवश्यक था। इसी प्रयोजन से स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के 13 वें
एवं 14 वें समुल्लास की रचना की थी। स्वामी जी के इस पुरुषार्थ का
मूल्याङ्कन नहीं हो पाया। अन्यथा समस्त हिन्दू समाज उनका आभारी होता।
हिन्दू समाज की व्याधि को स्वामी दयानन्द ने बहुत भली प्रकार से न केवल
समझा अपितु उस बीमारी का उपचार भी वेद रूपी औषधि के रूप में खोज कर दिया।
शंकराचार्य के काल में हमारे देश में स्वदेशी राजा था जबकि स्वामी जी के
काल में विदेशी राज था। आदि शंकराचार्य से स्वामी दयानन्द का पुरुषार्थ
किसी भी प्रकार से कमतर नहीं था। इसके विपरीत स्वामी जी को आदि शंकराचार्य
से अधिक विषम चुनौतियों का सामना करना पड़ा। हमें उनके आर्य जाति के लिए
किये गए उपकार का आभारी होना चाहिए। यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
मैं इस लेख को थियोसोफिकल सोसाइटी की संस्थापककर्ता मैडम ब्लावट्स्की के कथन से पूर्ण करना चाहुँगा।
“इस कथन में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत देश ने आदि शंकराचार्य
के पश्चात आधुनिक काल में स्वामी दयानन्द के समान संस्कृत का विद्वान् नहीं
देखा, आध्यात्मिक रोगों का चिकित्सक नहीं देखा, असाधारण वक्ता नहीं देखा
और अज्ञान का ऐसा निराकरण करने वाला नहीं देखा। ”
(नोट- इस लेख का उद्देश्य आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द के मध्य
तुलना करना नहीं है। दोनों हमारे लिए महान एवं प्रेरणादायक है। इस लेख का
उद्देश्य यह सिद्ध करना है कि स्वामी दयानन्द को अधिक विपरीत परिस्थितियों
का सामना करना पड़ा था।इस लेख के लेखन में बावा छज्जू सिंह कृत स्वामी
दयानन्द चरित्र का प्रयोग किया गया है।- लेखक)
No comments:
Post a Comment