इस साल मार्च के
अंत तक 80 अर्धसैनिक मारे जा चुके हैं. देश में हर वर्ष आतंकवाद नक्सलवाद से लड़ने
के मसौदे तैयार किये जाते है लेकिन बाद में या तो सरकार बदल जाती है या फिर मंत्री
जिस
कारण तैयार मसौदे गोलियों की तडतडाहट में कहीं उड़ जाते है. फिर ढाक के तीन
पात वाली कहावत दिखाई देती है. लोगों को मुख्यधारा में लाये जाने की बात होगी या
फिर सेना की और दस पांच टुकड़ी भूखे भेडियों के झुण्ड में फेंक दी जाती है.
दुनिया की कोई
भी विचारधारा हो, यदि वह समग्र चिंतन पर आधारित है और उसमें
मनुष्य व जीव-जंतुओं सहित सभी प्राणियों का कल्याण निहित होता है लेकिन पृथ्वी पर
साम्यवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसके संदर्भ में गभीर चिंतन-मंथन करने से ऐसा
प्रतीत होता है कि मात्र कुछ समस्याओं के आधार पर और वह भी पूर्वाग्रह से ग्रसित
होकर, इस रास्ते को खोजा गया. यही कारण है जिस तेजी से कभी यह विचारधारा
पनपी थी उसी तरीके से अब यह अपने अंत की ओर अग्रसर है. राजनीतिक विश्लेषक अजय
साहनी की माने तो हाल के दिनों में कई माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया है. उनसे
प्रभावित जिलों की संख्या कम हुई है. वो कहते हैं,
नक्सलवादी के दबदबे वाले 223 जिले थे जो अब सिकुड़ कर 107 रह गए हैं.
कोई कुछ भी कहे
पर भारत में नक्सल की उम्र अभी बहुत बची है उसके कुछेक कारण है. एक तो नक्सलवाद को
कलम और मगरमच्छ के मानवतावादी आसुओं से बहुत तेज डोज दी जा रही है. दूसरा नक्सलवाद
का नेटवर्क कई राज्यों में फैला है और नक्सलवाद से लड़ने के लिए अलग-अलग राज्यों की
एक नीति के बजाय अनेक नीति है. तीसरा नक्सल प्रभावित राज्यों में अशिक्षा और गरीबी
भी इसका मूल कारण है इसके बाद प्रलोभन और भय. प्रलोभन यह कि जिस दिन नक्सलवाद जीत
जायेगा उस दिन देश में समता आ जाएगी, कोई गरीब नहीं रहेगा, ना
किसी पास आर्थिक परेशानी होगी न कोई दिक्कत ख्वाब कुछ इस तरह दिखाया जाता है जैसे इस खूनी लड़ाई में भाग लेने वाला
हर कोई सीधा प्रधानमंत्री बन जायेगा. यह सब बगदादी के जिहाद से मिलती जुलती
प्रेरणा है, उसमे मरने के बाद लाभ दिखाया जाता है इसमें जीत सुनिश्चित होने पर. आज
नक्सलवाद देश के लिए विध्वंसक साबित हो रहा है। इन कथित क्रांतिकारियों की
गतिविधियों से देश की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। सुरक्षाबल और पुलिस के
सैंकड़ों जवानों सहित अनगिनत निर्दोष लोग इस कथित आंदोलन के शिकार हुए हैं. आदिवासी
लोगों की मुख्य समस्या यह है कि सेना और इस खुनी विचारधारा का वो लोग दोनों का शिकार
बन रहे है.

माना जाता है कि
भारत के कुल छह सौ से ज्यादा जिलों में से एक तिहाई नक्सलवादी समस्या से जूझ रहे
हैं. विश्लेषक मानते हैं कि नक्सलवादियों की सफलता की वजह उन्हें स्थानीय स्तर पर
मिलने वाला समर्थन है. सरकार को चाहिए कि कोई ठोस कदम उठाए जिससे हमारे जवान
बार-बार अपने लहू से भारत माता की सेवा न करें. एक सैनिक की मौत के साथ एक पूरे
परिवार के सपनों की और उम्मीदों की मौत हो जाती है. इसका दर्द नक्सली नहीं
समझेंगे. क्यूंकि उनके लिए तो ये गरीब जवान केवल “व्यवस्था के दलाल” हैं. और इस तरह की अमानवीय घटना को
अंजाम देने वालों के समर्थन में सबसे पहले तथाकथित माननवाधिकार संगठन झंडा बुलंद
कर देते हैं. बोलते हैं, सीआरपीएफ जबरदस्ती करती है, एनकाउंटर
फर्जी होते हैं. उन्हीं से मेरा यह सवाल है कि सुकमा में जो हुआ है, उसमें
किसका दोष है? किसके मानवाधिकार का हनन हुआ है? क्या
ये भी फर्जी एनकाउंटर था? है कोई जवाब! नहीं होगा.. क्योंकि जवाब
देना इनके लिए शायद ‘राजनीति के लिहाज से सही नहीं होगा. लेकिन जवाब
तो एक ना एक दिन देना ही होगा आखिर कब तक गणतंत्र में यह गनतन्त्र चलता रहेगा?
चित्र साभार गूगल लेख राजीव चौधरी
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