देश में कुछ समय
पहले तक जन समस्याओं का प्रतिनिधित्व मीडिया करती थी और नेता उसके पीछे चलते थे
किन्तु आज हालात बदल गये नेता एजेंडा सेट करते है और मीडिया उसके पीछे चलती है.
भारतीय राजनीति का अपना एक गौरव रहा है, अपना इतिहास है.
समय-समय पर बड़े-बड़े बदलाव राजनीति में होते आ रहे हैं. विदुर से लेकर चाणक्य तक और
मोदी से लेकर केजरीवाल तक इसी भारतीय राजनीति की देन है. लेकिन वर्तमान की राजनीति
जनता की मूलभूत जरूरतों, राष्ट्रहित जनहित के बजाय (लाशों) पर आकर टिकी से दिखाई
दे रही है. अभी कल फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ी जो प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ थी कि
राजनीति में लाशों का क्या मूल्य चल रहा है? पता नहीं
व्यंग था या वर्तमान राजनीति पर कटाक्ष! किन्तु भारतवर्ष की राजनीति में लाशों का बढ़ता
महत्व देखते हुए यह प्रश्न प्रासंगिक जरुर था. यह सत्य है कि पिछले कुछ समय से
भारतीय राजनीति लाशों के इर्द-गिर्द ही मंडराती पाई जाती है. इसे आप समय का मखोल
कहो या जिन्दा राजनीति की मृत सवेंदना दोनों ही सूरत में कोई अतिशयोक्ति नहीं
होगी. क्योंकि कुछ समय से राजनीतिक लोगों ने अपनी विचारधारा बदल ली है। यह कभी तो
लाशों को लेकर चिंतित होते हैं तो कभी घोड़े की टांग को लेकर. रोहित वेमुला हो या अकलाख,
डॉ नारंग हो या भिवानी से आत्महत्या करने वाला रामकिशन हो, मतलब हर
एक दल की अपनी लाशें हो गयी.
सालों पहले देश
में राजनैतिक रोटियां सेकी जाती थी किन्तु आज बोटियाँ सेकी जा रही है. हे भारतीय
राजनीति के संवेदनहीन नेताओं क्या आपको भूखे लोगों की कराह सुनाई नहीं देती?
जिन्दा किसान के आंसू या सीमा पर लड़ते जवान की याद आपको क्यों नहीं
आती या फिर जीवन से ज्यादा गुरुत्वाकर्षण मौत में हो गया? छात्र
रोहित वेमुला ने आत्महत्या की थी. जब उसे उतारा गया था तो सुनने में आता है कि
उसकी धड़कने चल रही थी. लेकिन मरने इसलिए दिया गया क्योंकि वह जिंदा किसी के काम का
नहीं था. अतः उसका मरना बेहद जरूरी था और राजनीति ने ऐसा ही किया कि छात्र रोहित
की मौत पर जमकर सियासी ड्रामा हुआ था. आज बीजेपी का पक्ष कमजोर पड़ रहा है. क्योंकि OROP से
ना खुश होकर पूर्व सैनिक ने आत्महत्या की है . जिस पर बीजेपी जवाब नहीं दे पा रही
है और मौके की नजाकत को देखते हुए आम आदमी पार्टी और कांग्रेस आज सैनिकों के सबसे
बड़े शुभचिंतक के रुप में उभर कर सामने आ रहे हैं . वो बात अलग है कि OROP का
मामला 1973 से अटका हुआ था और कांग्रेस कुछ नहीं कर पाई थी.
संविधान के
अनुसार आत्महत्या अपराध है यदि कोई ऐसा करता है तो वो अपराधी है. किन्तु राजनेताओं
के लिए यह अपराध शहादत बन जाता है. लेकिन सही अर्थो में तो ऐसा करने वाला कायर
होता है. इसके बाद नेता कहते है कि हम भारतीय संविधान का सम्मान करते है. ऐसा नहीं
है कि डेढ़ अरब की आबादी से एक रामकिशन या रोहित का चले जाना कोई भारी जन त्रासदी
हुई है जाना सबको है एक दिन हम भी जायेंगे किन्तु भगवान से यही प्रार्थना है कि
मेरा शव राजनेताओं की वोट की दुकान न बने. रामकिशन की मौत के बाद राहुल गाँधी और
केजरीवाल ने इस मामले में जमकर अफरातफरी मचाई केजरीवाल ने तो शब्दों की गरिमा को
भूलकर इसे केंद्र सरकार की गुंडागर्दी तक कह डाला और उनकी पार्टी तर्क रखा कि घटना
दिल्ली प्रदेश में घटी है तो केजरीवाल के लिए यह जरूरी था. पर मुझे याद है कि
सियाचिन में कई दिनों तक बर्फ में दबा रहने वाला जवान हनुमंतथप्पा भी दिल्ली के एक
अस्पताल में जिन्दगी और मौत की जंग लड़ रहा था किन्तु उसके लिए राहुल और केजरीवाल
के पास टाइम नहीं था.
देखा जाये तो इस
देश में हर रोज हजारों लोग मरते है कोई बीमारी से तड़फकर कोई भूख से लड़कर, कहीं
दहेज के कारण बेटी तो कहीं कर्ज में डूबा बाप आत्महत्या कर लेता है. यहाँ न जाने
कितने किसान आत्महत्या करते है पर उनकी मौत पर नेताओं के लिए उनके परिवार के लिए
कोई संवेदना नहीं होती. दूर दराज गांवों की बात छोड़िए, देश की
राजधानी में ही लोग भूख से तड़पकर मर जाते हैं लेकिन उनको लेकर न कोई चर्चा,
न कोई अवार्ड वापसी, न ही मीडिया पर जैसे ही किसी अन्य
समुदाय विशेष या धर्म विशेष में इस प्रकार की घटना घटती है तो नेतागण उसे
विश्वस्तरीय मुद्दा बनाने से नहीं हिचकते. दूर न जाकर पास ही देख लो पिछले हफ्ते
सिमी के आठ आतंकी जेल तोड़कर फरार हुए जिन्हें बाद में मुठभेड़ में मार गिराया तो
राजनेताओं ने उसे वोट से जोड़कर न्यायिक जाँच की मांग तक कर डाली जस्टिस काटजू ने
तो इस मुठभेड़ में शामिल पुलिसकर्मियों के लिए फांसी की मांग तक कर डाली. जाने माने
शायर मुनव्वर राणा ने भोपाल में सिमी के संदिग्ध
आतंकियों के एनकाउंटर को फर्जी बताया और कहा कहा कि एनकाउंटर में जब तक 5-10
पुलिसवाले और 15-20 लोग ना मारे जाए, तब
तक एनकाउंटर कैसा? ये वही मुनव्वर राणा है जो अवार्ड वापसी करने
वाली लिस्ट में सबसे ज्यादा चर्चित थे. बहरहाल इन लोगों पर क्यों अपनी कलम की
स्याही बेकार की जाये यही लोग है जो याकूब को भी फरिश्ता बता रहे थे. इनकी अपनी
दुकानदारी है और अपने ग्राहक. शायद इसी वजह से दादरी, हैदराबाद
तो कभी सुनपेड़ और भिवानी होते रहेंगे क्योकि यहाँ हर किसी की अपनी लाशें है......विनय आर्य
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