8/11 अचानक नोटबंदी से कई सारे मामले खुलकर सामने
आये.जहाँ भ्रष्टाचार से लड़ने वाली ताकते जिन्होंने 2012 में देश हिला दिया था वो इसके विरोध में खड़ी
हो गयी. तो वही
सारे काले इल्म के माहिर बाबा, दुनिया की परेशानियों का इलाज चुटकी में
करने वाले रूहानी फकीर, हाथ देखकर भविष्य बताने वाले ज्योतिषी सब के सब
इस समय बेंको के बाहर लाइन में खड़े नजर आये. कुछ अर्थशास्त्री इसे देश
के अच्छा और बेहतर कदम बता रहे तो कुछ इससे लाभ और हानि दोनों मिश्रित कर देख रहे
है. सब्जीमंडी से लेकर संसद तक देश का विपक्ष मुखर है. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता
बनर्जी ने नोटबंदी के खिलाफ विपक्ष को एक जाने को कहा है. हालाँकि हमारा उद्देश्य
सत्तापक्ष की प्रसंशा या विपक्ष की आलोचना का नहीं है. हाँ यदि किसी को आपत्ति है
तो सकारात्मक, निपक्ष राजनीति को अलग रखकर
एक स्वच्छ बहस होनी चाहिए. न की इससे जनता में अफवाह फेलाकर अपने राजनैतिक हित
तलाश किये जाये. क्योंकि नोटबंदी देश और
समाज से जुडी एक सरकारी नीति है, न की कोई राजनीति. जिसका मूल्याकन जरूरी है. सब
जानते है हमारे देश में भ्रष्टाचार अपने उच्च शिखर पर है एक निचले स्तर से लेकर
ऊपर तक बिना रिश्वत के लेनदेन नहीं होता. भ्रष्टाचार से उत्पन्न धन को
अर्थशास्त्री कालाधन कहते है क्योंकि वो धन आम आदमी से लेकर सरकार तक की पंहुच से
बाहर होता है.
बीबीसी को दिए अपने एक साक्षात्कार में दिल्ली के मुख्यमंत्री द्वारा
एक के बाद एक कई आरोप केंद्र सरकार पर जड़े गये इस बीच वो कई बार वो बीबीसी
संवादाता नितिन श्रीवास्तव पर भड़कते भी नजर आये. खैर फ़िलहाल देश का एक बड़ा धडा अब
इन आरोपों को गंभीरता से नहीं लेता. अब सवाल यह है कि क्या इससे काले धन की
अर्थव्यवस्था नियंत्रित होगी? जाने-माने अर्थशास्त्री नितिन देसाई जिनका
लेख दैनिक जागरण के सम्पादकीय में लिखते है कि साल 2015-16 में
भारत की राष्ट्रीय आय 134 लाख करोड़ रुपये थी और इसमें 500
और 1000 रुपये के नोटों का हिस्सा करीब 10 प्रतिशत
है. 31दिसंबर तक हम नहीं जान पाएंगे कि इसमें से कितने नोट वैध तरीके से
कमाए गए हैं और कितने अवैध तरीके से. लेकिन कहा जा रहा है कि इसका करीब 20
प्रतिशत हिस्सा प्रथम चार दिनों में बैंकों में जमा करा दिया गया है. देश में काले
धन का अधिकांश हिस्सा या तो रियल इस्टेट या सर्राफा बाजार या विदेशी बैंकों में
जमा के रूप में है. जब तक हम जड़ पर प्रहार नहीं करेंगे तब तक काले धन की
अर्थव्यवस्था से पीछा नहीं छुड़ा सकेंगे और इसकी जड़ कर चोरी, राजनीतिक
उगाही और भ्रष्टाचार में निहित है.
नोट बंदी का
व्यापक असर इस वक्त बैंकों और एटीएम के बाहर लगी लाइन के तहत नकारात्मक अंदाज में
देखा और प्रचारित किया जा रहा है. मगर केंद्र सरकार ने 500 और 1000
रुपए के नोट पर जिस तरह से पाबंदी लगाकर भ्रष्टाचार के दम पर जमा किए गए अकूत
कालेधन को तबाह किया है वह काफी सराहनीय है. इस फैसले का व्यापक असर आने वाले
दिनों में अंतरराष्ट्रीय बाजार पर भी देखने को मिलेगा. इससे भारतीय मुद्रा का
विदेशों में प्रभुत्व और बढ़ जाएगा. हालांकि, इस फैसले
को लेकर लोगों में तमाम तरह के सवाल उठ रहे हैं. फिर भी सभी को इसे स्वीकार करने
की जरूरत है कि इस निर्णय का बड़े पैमाने पर सकारात्मक व नकारात्मक असर आने वाले
दिनों में देखने को मिलेगा. हालाँकि, इस कदम से देश के असंगठित क्षेत्रों को
कुछ समय के बाद मजबूती मिलेगी. दूसरा इसका सबसे बड़ा पहलु यह है कि अतिवादी,
आतंकवादी, नक्सली व अन्य राष्ट्रद्रोही शक्तियों के पास
जमा भारतीय मुद्रा जिसका उपयोग वो लोग देश में हिंसा, अलगाव,
और दहशत फैलाने में करते थे कहीं न कहीं उनपर भी यह नोट की चोट पड़ी
है. एक बड़ी बात यह भी है कि रुपये का कागज तैयार करने के लिए दुनिया में 4
फर्म हैं फ्रांस की अर्जो विगिज, अमेरिका का पोर्टल, स्वीडन
का गेन और पेपर फैब्रिक्स ल्युसेंटल इनमें से दो फोर्मो का 2010-11
में पाकिस्तान के साथ भी रूपए के कागज का अनुबंध हो चुका है
जिसका भारत ने विरोध
भी किया था, अर्थात नोट छापने के लिए जो कागज भारत लेता था
वही कागज 2010 से पाकिस्तान भी ले रहा है, फलस्वरूप
पाकिस्तान उस कागज के अधिकतम हिस्से का इस्तेमाल भारतीय रूपए(नकली नोट) छाप कर
भारत मे भेजने का काम कर रहा है. इसीलिए वर्तमान सरकार ने आनन-फानन मे अब जर्मनी
के एक प्रिंटिंग प्रेस से कागज लेने का अनुबंध किया. साथ ही ये भी अनुबंध किए कि
ये कागज जर्मनी किसी अन्य को नहीं दे सकता, ताकि
भविष्य में फिर कभी नकली नोट की समस्या भारत में न हो सके. ये कागज पहले वाले से
बहुत हल्का और अधिक सुरक्षित हैं, ये पानी, धूप से
खराब नही हो सकता. लेकिन जब देश की अर्थव्यवस्था को कुछ फायदा होता दिखाई दे रहा
है तो संसद से लेकर सड़क तक नोटबंदी पर सियासी संग्राम शुरू हो गया है. कुछ लोग
परेशानी होने के बाद भी सरकार के पक्ष में बोलकर इसे राष्ट्र यज्ञ बता रहे है तो
वही कुछ लोग इसे तानाशाही व अच्छा फैसला नहीं बता रहे है इस सब के बाद संसद से सड़क
तक विपक्ष के चैतरफा हमले से सरकार के इरादों पर तो कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है
लेकिन पिछले एक हफ्ते से नोटबंदी से जिस तरह लोगों को परेशानी उठानी पड़ रही है
उससे ये सवाल जरूर उठ रहा है कि क्या इससे मोदी सरकार पर राजनीतिक असर पड़ सकता है?
या एक
बार फिर विपक्ष मुंह की खायेगा?...Rajeev Choudhary
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