ट्रंप की जीत के
बाद पूरे विश्व की राजनीति में एक अजीब परिवर्तन दिखाई दे रहा है. कभी जिन मुद्दों
पर सरकारें बदनाम होती थी या गिर जाती थी आज उन्हीं मुद्दों पर पूर्ण बहुमत से
सरकारें बन रही है. यानि के झूठी धर्मनिपेक्षता, समाजवाद
के गीत, खुद को उदारवादी और परम सहिष्णु कहने वाले नेताओं को लोग नकारते से नजर आ
रहे है. चाहें वो भारत का चुनाव या अमेरिका जैसे समर्द्ध देश का. डोनाल्ड ट्रंप पर
जो आरोप लगे, उनमें से अधिकांश ऐसे थे जिनकी सत्यता के बारे
में शायद ही किसी को कोई संदेह हो. उन पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगा. ठीक
यही आरोप भारत में मोदी पर भी अक्सर लगाये जाते रहे है. खैर इस चर्चा पर तो यहां
जगह कम पड़ जाएगी लेकिन अमेरिका के राष्ट्रपति बनने जा रहे डोनाल्ड ट्रंप को बेवजह
की चर्चा में बनाए रखने वाले मुद्दों का अंत नहीं होगा. दरअसल, ट्रंप
की कामयाबी और इसमें पारंपरिक मुद्दों का गौण हो जाना सिर्फ अमेरिका में ही नहीं
दिख रहा है. बल्कि दुनिया में पिछले कुछ सालों में कई ऐसे मौके आए हैं जिनसे ऐसे
संकेत मिले हैं कि आम लोगों के लिए सियासत के मुद्दे बदल रहे हैं. ट्रम्प ने वही
बात की जो अमेरिकी जनता सुनना चाह रही थी. सही अर्थो में कहा जाये तो मुस्लिम
देशों से बाहर जिस प्रत्याशी या पार्टी का मुसलमान खुलकर विरोध करता है वो ही
सत्ता का स्वाद चखता है.
भारत का ही
उदाहरण लें तो नरेंद्र मोदी को लेकर जमकर नकारात्मक बातें की गई थीं. गुजरात के
मुख्यमंत्री के तौर पर उनके कार्यकाल में दंगा हुआ था. इसलिए उन्हें दंगाई,
खून का सौदागर, मुस्लिम विरोधी और पता नहीं क्या-क्या
कहा गया. उन पर यह आरोप भी लगाया गया कि वे तानाशाह हैं. अंदेशा जाहिर किया गया कि
यदि वे प्रधानमंत्री बने तो कयामत आ जाएगी. लेकिन बदले में नरेंद्र मोदी पूर्ण से
भी अधिक बहुमत से देश के प्रधानमंत्री बने. दबी जुबान में ही सही मीडिया के एक
हिस्से में उनके चरित्र पर भी सवाल उठे. लेकिन आम मतदाताओं ने इनमें से किसी भी
बात पर यकीन नहीं किया और उन्हें ऐसा जनादेश दिया जैसा पिछले 30 साल में किसी को
नहीं दिया था. इससे मतलब साफ है कि जिन बातों को राजनीतिक वर्ग और मीडिया मुद्दा
बना रहे होते है, वे आम लोगों के लिए प्रासंगिक रह ही नहीं गये
है.
कभी पहले यौन
संबध उजागर होने के आरोपों से भी राजनीति खत्म हो जाया करती थी, लेकिन
आज लगता है मतदाताओं के लिए यह कोई मुद्दा नहीं रह गया हैं. इनकी जगह अन्य मुद्दे
खड़े हो गये दरअसल जिस जेहादी विचारधारा को भारत ने 800 साल झेला. वो आज यूरोप और
अमेरिका आदि गैर मुस्लिम देशों में अपनी जड़ें जमा रही है. या ये कहो एक पुरानी
एतिहासिक विचारधारा आधुनिक विज्ञान के सामने खड़ी है. ऐसे में यह कहना कोई गुनाह
नहीं होगा कि विश्व की उदार मीडिया और सेकुलरवाद जिस इस्लाम को एक शांति और
सहिष्णुता का मार्ग बताकर वोट बटोर रहे थे उसे पिछले कुछ सालों से पुरे विश्व का युवा
एक बड़े खतरे के रूप में भी देख रहा है. चेचन्या के कट्टरवादी गुटों के विरोध के
बाद रूस के राष्ट्रपति चुनावों में व्लादिमीर पुतिन पूर्ण बहुमत पाकर जीते थे. ठीक
यही कुछ भारत और उसके बाद अमेरिका में देखने को मिला.
यूरोपीय संघ से
ब्रिटेन के बाहर निकलने के मुद्दे पर जनमत सर्वेक्षण का जो परिणाम आया, उसमें
भी यह संकेत था कि आम लोग और राजनीतिक लोगों की सोच में काफी फासला खड़ा हो गया है
जिसमें मीडिया भी शामिल है, बहुत कम लोगों को उम्मीद थी कि ब्रिटेन
के लोग यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के पक्ष में राय देंगे. लेकिन नतीजों ने सारे
अनुमानों को धता बता दिया. मतलब कि जनता क्या सोच रही है और नेता उसे क्या देना
चाह रहे है इसमें काफी कुछ दुरी देखने को मिली. आज दुनिया के अलग-अलग हिस्से की इन
अलग-अलग घटनाओं को आपस में जोड़ने पर एक चीज जो सामने निकलकर आई है कि पूरी दुनिया
में आम लोगों के मुद्दे बदल रहे हैं. पारंपरिक मुद्दे अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं
लेकिन एक बड़ा राजनीतिक वर्ग अब भी उन्हीं पारंपरिक मुद्दों पर अटका हुआ है और नए
मुद्दों की पहचान कर पाने में सक्षम नहीं दिख रहा है.
कट्टरपंथी
इस्लामिक आतंकवाद से विश्व भयभीत है.अमेरिका भी 9/11 की त्रासदी झेल चुका है. ट्रम्प ने कोई बड़ा तीर नहीं चलाया
बस मुस्लिम के खिलाफ ब्यान दिए उसने
मुस्लिमों के अमेरिका में प्रवेश को प्रतिबंधित करने और प्रवासी मुस्लिमों पर नजर
रखने की बात कही थी. इस कारण मुसलमान नाराज हो गये थे. किसी विचारधारा के विरुद्ध
कुछ कहना उस विचारधारा के अनुयायियों के विरुद्ध बोलने में कोई अंतर नहीं रह गया है.
इस्लाम और मुसलमान दो ऐसी चीज हो गयी जो एक के बारे में कुछ कहना दुसरे का अपमान
समझा जाने लगा है. जबकि जो लोग इस्लाम को झूठे-सच्चे श्रद्धा-सुमन चढ़ाते रहते हैं,
जैसे जॉर्ज बुश, टोनी ब्लेयर, ओबामा या
याहया खान, अल कायदा, हिजबुल
मुजाहिदीन, लश्करे तोयबा, आई एस आई
एस आदि उन्हीं लोगों ने लाखों मुसलमानों को मारा है. सीधा आदेश देकर, स्वयं
भाग लेकर या दोनों तरीकों से.
पाकिस्तान, अफगानिस्तान,
ईरान, सीरिया, ईराक,
यमन, बहरीन, आदि देशों में
मुसलमान किनके हाथों मारे जा रहे हैं? इस तथ्य को नोट
करना चाहिए, और वैचारिक संघर्ष का आह्वान करने वालों की
नेकनीयती समझनी करनी चाहिए. मीडिया और सामाजिक मीडिया के कारण दुनिया सिमट गई है
और मनुष्य का आपस में संपर्क और हाल बहुत आसान हो गया है इसलिए दुनिया जहां एक जेब
में जगह पा लेती है तब किसी के लिए तथ्यों को जानना मुश्किल नहीं रहा.आज इस्लामी
राजनीतिक विचारधारा को किसी आलोचना से बचाने के लिए ओछी चतुराई का सहारा लेना
बताता है कि सच बात मान लीजिये चेहरे पर धूल है,
इल्जाम आइनों पर लगाना फिजूल है..........Rajeev choudhary
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