अभिव्यक्ति की आजादी का पंखा झलते
हुए जाकिर नाईक के भाषणों के प्रभाव से ढाका में इस्लामी आतंक के शोलों
को कैसे हवा मिली,
यह
हम सबने देखा था,
पिछले दिनों जेएनयू
से चली अफजल गेंग की आजादी की मुहीम से अब देश के लोगों ने कश्मीर के अन्दर भी देख
लिया| पर सवाल यह है कि देश के विश्वविद्यालयों और सत्ता सदनों के
भीतर आजादी के इस दुरुपयोग को हम कब तक देखते रहेंगे? कश्मीरी अवाम घायल है यह कह कहकर दुःख
मनाने वाले अक्सर उस समय मूक दिखाई देते है जब भारतीय सेना के जवान अपने खून से
धरती माँ का सीना सींचकर अपने प्राण मात्रभूमि के चरणों में अर्पित करते है| जिन लोगों को
कश्मीर में मासूम पत्थर फेंकने वालों के घायल होने का दुख सता रहा है उनके लिए कुछ
आंकड़े जारी हुए हैं। घाटी में हिंसा में अब तक कुल 3100 लोग घायल हुए हैं। इनमें से लगभग 1500 भारतीय सेना के
जवान हैं। जो कथित तौर पर कश्मीरियों द्वारा पत्थर फेंकने से घायल हुए हैं। हालाँकि
सेना पर पत्थर केवल कश्मीर में ही नहीं फेंके जा रहे है दिल्ली आकर देख लीजिये किस
तरह संसद में नेताओं के द्वारा और न्यूज रूम से मीडिया द्वारा सेना के जवानों पर
आरोप के पत्थर बरस रहे है? कश्मीर में मासूम लोगों की सेना द्वारा निर्मम हत्या| कांग्रेस के
नेता गुलाम नबी आजाद ने इस मुद्दे को पुरे जोर शोर से संसद के पटल पर रखा| हालाँकि
में यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ हमारा राजनीति से कोई लेना देना नहीं है, किन्तु राष्ट्र
की रक्षा कर रहे सेना के जवानों की पीड़ा उनपर लग रहे बेबुनियाद आरोपों को देखकर यह
मुद्दा हमारे लिए प्रासंगिक हो गया|
एक माँ का बेटा पढ़ लिखकर समाचार वाचक गया, एक माँ का बेटा
नेता बन गया, और एक माँ ने
अपना बेटा देश की सरहद की रक्षा के लिए भेज दिया कि जा बेटा सीमा पर सीना तानकर
खड़ा हो जा| आज वो बेटा इन दोनों बेटों की रक्षा के लिए सामने से दुश्मन की गोली और
पीठ पीछे अपनों से पत्थर खा रहा है| अब ये सोचने वाली बात है कि सेना की ज्यादती
की बात करने वाले पत्रकार और नेता इस पर कुछ क्यों नहीं बोलते हैं? क्या सेना के
जवानों का मानवाधिकार नहीं होता है। क्या वो उनको लगी चोट दर्द नहीं देती है? उनकी माएं नहीं
होती या परिवार नहीं होता? आखिर किसके लिए सेना के जवान अपनी माओं को अपनी पत्नी बच्चों को
छोड़कर लोगों के पत्थर, दुश्मनों
की गोली, नेताओं और
मीडिया की बोली सहन करते है? इस बात की चर्चा तो खूब होती है कि सेना की पेलेट गनों से
प्रदर्शनकारियों की आंखों को गंभीर चोटे लगी हैं। लेकिन सेना के लगभग 1500 जवानों की चोट
पर कोई चर्चा क्यों नहीं होती है। समाज के कुछ तबकों से आवाज उठ रही है कि कश्मीर
में सेना ज्यादती कर रही है। इन्हें ज्यादती तो दिख गयी क्या इन्हें ये नहीं दिखाई
दे रहा है कि सेना पर पत्थर बरसाए जा रहे हैं। भारत के ही एक राज्य में भारतीय
सेना को घायल किया जा रहा है।
बुरहान वानी के एनकाउंटर से दुखी जमात-उद-दावा
ने पाकिस्तान में आजादी कारवां निकाला। जिसमे ज्यादातर आतंकी संगठन के लोग ही
शामिल हुए। इस्लातमाबाद के डी चैक से इस कारवां को निकाला गया था। जिसके बाद हाफिज
सईद और अब्दुल रहमान मक्की् जैसे आतंकियों ने भारत के खिलाफ जमकर आग उगली। इन
आतंकियों ने ये भी धमकी दी है कि वो बुरहान की मौत को जाया नहीं जाने देंगे|
हालाँकि इसमें सारा दोष अकेले पाकिस्तान को देकर पल्ला झाड़ लेना काफी नहीं होगा
क्योकि ऐसी समर्थन की आवाजे भारत में कविता कृष्णन जैसी वामपंथी नेता समेत कई लोग
उठा रहे है| लेकिन कभी कोई एक आवाज उन लोगों के खिलाफ नहीं उठी जो हर रोज वहां
सेना दस्तों पर हमला करते है| हर सप्ताह जुमे की नमाज के बाद पाकिस्तान और कुख्यात
आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के झंडे लहराये जाते है| सेना पर पत्थर फैंकने की घटना
तो अब आम बात है,
लेकिन
युवा प्रदर्शनकारी खुलेआम देशी पेट्रोल बम फेंक रहे हैं। गंभीर बात तो यह है कि
प्रदर्शनकारियों में महिलाएं और छोटे बच्चे भी शामिल हैं। पिछले कुछ दिनों की
घटनाओं के वीडियो न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर चले हैं। इन वीडियो को देखने से
यह जाहिर होता है कि पेट्रोल बम फेंकने वालों के सामने सेना के जवान भी मजबूर है।
इधर सेना के जवान बम फेंकने वालों पर कोई सख्त कार्यवाही नहीं कर रहे तो कश्मीर
पुलिस के जवान जवाब में पत्थरबाजी करने को ही मजबूर हैं।
भारत में हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकी कमांडर की
मौत पर शोक के स्वर कुछ ऐसे स्थानों से उठे जहां इनके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। एक आतंकी को
सही और उसके खात्मे
को गलत बताने के संकेत करते लोगों को आप क्या कहेंगे? हाल में जेएनयू की
नई पौध का विष वृक्ष उमर खालिद और जम्मू-कश्मीर में सत्ता खोने से आहत उमर
अब्दुल्ला की बातों को किस तरह लिया जाए? क्या किसी विश्वविद्यालय
के पहचान पत्र देश को नुकसान पहुंचाने वालों की ढाल बन सकते हैं? क्या राजनीति
में हाशिए पर जाने का मतलब आतंकियों का दर्दमंद हो जाना और देश की
अखंडता को चुनौती देने वालों के साथ खड़े दिखना है? वानी की मौत के बाद सवाल उठाने वालों बुद्दिजीवियो को यह बताना चाहिए कि गोलियां
बरसाते, बारूद बिछाते आतंकी और
उनके दिहाड़ी पत्थरबाजों से आप कैसे निपटेंगे? सबसे बड़ा सवाल यह कि एक आतंकी की मौत पर भारत में बहस छेड़ने और घाटी का उफान
बैठाने की बजाय वहां
लोगों को भड़काने की चिनगारियां बिखेरते इन बुद्धिजीवियों और आतंकवाद को
मानवाधिकार से जोड़ते पाकिस्तानी पैरोकारों के बीच फर्क क्या है? बुरहान
वानी सरीखे आतंकियों की मौत को भुनाने की पाकिस्तानी तरकीबों से कैसे निबटना
है यह भारत जानता है। इन गद्दारों से हमारी सेना को निपटना आता है लेकिन असली
चुनौती घर में बैठे आतंकियों से है? ...लेख राजीव चौधरी
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