आज पूरी दुनिया में आतंक के धर्म को लेकर एक बड़ी
बहस मुखर है कि आतंक किस पंथ की देन है? हालाँकि मजहब विशेष की आड़ में हमलावर
आतंकी हर बार हमले के बाद नैतिक तौर जिम्मेदारी लेते है| किन्तु उदारवादी मुस्लिम
जगत इसे नकार देता है| यदि एक पल को मान भी लिया जाये कि चलो इन्होने जिम्मेदारी
ले भी ली तो तभी क्या हो जायेगा? क्या हिंसा से भरी खोपड़ियाँ अपना हिंसक खेल खेलना
बंद कर देगी? हिंसक मनोवृति के लोग तब भी हिंसा का खेल जारी रखेंगे| आतंक के स्थान
और उनको अंजाम देने के तरीके बदलते रहेंगे| ओरलेंडो में गोली मारकर हत्या ढाका में
गर्दन रेतकर तो अब फ्रांस के एक शहर नीस
में 80 से ज्यादा लोगों की ट्रक द्वारा रोंदकर हत्या कर दी गयी जिसकी जिम्मेदारी
इस्लामिक स्टेट के आतंकियों ने ली है| अपना देश सबको प्यारा
होता है| मुझे भी है, फ्रांसिसियों को भी होगा लेकिन भारत में रहते हुए भी मैं सोच सकता हूं कि फ्रांस के लिए यह कितना दुखद दिन होगा। मृतको के
परिजनों की गीली पलके दुःख में फरकते होट खुद से प्रश्न कर रहे होंगे कि आखिर हमने
उन हत्यारों क्या बिगाड़ा था? मैं यहां से सोच सकता हूं कि फ्रांस के लोग दुख के इस माहौल में भी समझदारी से काम
लेंगे| तुर्की, बगदाद, काबुल, ढाका में हुए हमले के बाद एक बार फिर विश्व समुदाय
की लिए यह घटना निंदा से भरी रहेगी हो सकता है मोबाइल में ट्वीट पहले से सेव हो बस
ट्वीट करने से पहले देश का नाम बदला हो! मीडिया को न्यूज़ मिल गयी, लेखको को टॉपिक
किन्तु मरने वाले को क्या मिला? अब एक बार फिर विश्व समुदाय आतंक से लड़ने के लिए
एक जुट होने का ढोंग रचता दिखाई देगा| आतंक से साथ मिलकर लड़ने के बयान सुनाई
देंगे| किन्तु सवाल यह है कि लड़ाई किससे होगी और कहाँ होगी? एक आतंकवादी संगठन का
ढांचा गिरता है तो दूसरा खड़ा हो जाता है| आतंक के संगठनो के नाम बदलते रहते है
कृत्य सामान ही रहते है| आखिर कब तक एक हत्यारी सोच से बारूद की लड़ाई होगी?
आतंक के मजहब को
लेकर बहस बेकार और आधारहीन है, इसे साबित कर कुछ सिद्ध नहीं होगा| आतंकवाद का कोई
एक निश्चित ठिकाना नहीं है वो हर बार किसी भी एक नाम से निकलकर आता और मासूमों को
मार देता है| इसे एक हिंसक सोच का उदार सोच पर प्रहार भी कह सकते है| अब समय आ गया
है ऐसी हिंसक सोच के वो अड्डे तलाशने होंगे, जहाँ से ये निकलकर आता है! और जहाँ ये
फिर से छिप जाता है| आखिर क्यों बार बार एक ही मत के लोग यह अमानवीय कृत्य करते है
और उस मत के ठेकेदार हमेशा उसकी निंदा, आलोचना कर बस पल्ला झाड़ लेते है? एक जाकिर
नायक को गिरफ्तार करने, या सेन्य असैन्य कारवाही कर मुल्ला मंसूर या लादेन को
मारने से क्या यह सोच मर जाएगी? यदि कोई हाँ कहे तो उसे अतीत के पन्नो में झांककर
देख लेना होगा कि कहीं मत की आड़ में हिंसा का खेल पुराना तो नहीं| पुराना है तो
क्यों है? मेरा मानना है अभी विश्व समुदाय के मन में आतंक के लिए उतनी नफरत नहीं
पनपी जितना आतंकवादी के मन में मासूम लोगों की बेदर्दी से हत्या के लिए पनप रही
है| क्योंकि अभी दस लाख के इनामी आतंकी बुरहान वानी के मामले में मैंने देखा भारत
के अन्दर ही किस तरह एक आतंकी को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर समर्थन मिल रहा
है| वामपंथी नेता कविता कृष्णन ने बुरहान वानी के एनकाउंटर
पर सवाल ही नहीं उठाए बल्कि बुरहान के मौत को देश के
लिए शर्मनाक बताया| यहाँ से शुरू होता है एक खेल| जहाँ आतंक के प्रति संवेदना हो
वहीं पर उसके लिए प्रेरणा भी छिपी होती है| वरना मान लीजिये किसी का द्रष्टिकोण
मानवीय है और वो किसी की भी हत्या को गलत मान रहा है तो उसकी नजरों में सैनिक और
आतंकी में भेदभाव क्यों? शायद ही मैंने कविता कृष्णन का कभी कोई ऐसा विचार सुना हो
जिसमें उन्होंने आतंकवादियों द्वारा किये गये किसी हमले को शर्मनाक बताया हो? या
आतंकी हमले शहीद हुए किसी जवान के प्रति सवेंदना या शोक व्यक्त किया हो!
कई बार लगता कि एक तो आतंक को कहीं ना कहीं
राजनीतक संरक्षण प्राप्त होता है और दूसरा मीडिया की भी अंतर्राष्ट्रीय आतंक में
भूमिका संदिग्ध नजर आती है जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता | चाहे उसमें माध्यम इलेक्ट्रोनिक
मीडिया हो या प्रिन्ट मीडिया| सोशल मीडिया की तो बात छोड़ दीजिये यहाँ तो हर किसी
का अपना स्टेंड है| स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है किन्तु जब पूरा
विश्व आतंकवाद से त्रस्त हो उस समय किसी आतंकवादी को इस
प्रकार नायक बनाना या अपनी प्रेरणा का उदगम मान लेना अपने विनाश को न्यौता देना है|
यह एक खतरनाक शुरुआत है माना की आप सरकार के किसी कार्य से सहमत नहीं है या यह कहो
इतना बड़ा देश है इतनी विविधता है तो स्वाभाविक रूप से असहमतियां भी होंगी किन्तु
क्या इसका हल क्या किसी को मकबूल भट्ट, अफजल या बुरहान बना दे? सब जानते है जब पत्रकारिता
बाजार में है तो बिकाऊ जरुर होगी| चाहे उसका रुझान सत्ता पक्ष हो या विपक्ष| आज
पत्रकारिता आदर्शो में बंधी नही रही| जगह-जगह पत्रकारिता के नाम पर कभी अभिवयक्ति
की आजादी के नाम पर बुद्दिखोर लोगों का जमघट है| हर एक आतंकी घटना
के पहले दिन मीडिया एक सुर बोलती दिखाई देगी दो दिन बाद सबके मत विभाजित हो जाते
है| कभी आतंकी की माँ को दिखाकर तो कभी उसके परिवार को दिखाकर न्यूज़ रूम से मातमी धुन
चलाई जाती है| कई बार तो सेना के शहीद जवानों पर 2 मिनट में खट्टी डकारे लेने वाले
संवाददाता पूरा दिन आतंकी के परिवारों के गुजर बसर पर चिंतित दिखाई देते है| ये
किसी एक देश की कहानी नहीं है हर दुसरे देश में यही हाल है कुछ दिन पहले एक
अमेरिकी ब्लोगर पामेला जेलर ने कहा था आज
अमेरिकी जमीन खून से सनी है किन्तु यहाँ के वामपंथी उसे से धूल ढकने की कोशिस कर
रहे है| ठीक यही हाल भारत के अन्दर दिखाई दे रहा है| दिन पर दिन आतंकी सोच और
समर्थन मजबूत होता जा रहा है| राष्ट्रों के प्रमुख बदल जाते है वैश्विक मंचो पर
आतंक पर प्रहार करने की कसमे खाई जाती है| नतीजा फिर एक आतंकी घटना फिर चीखते घायल
रोते बिलखते परिवारजन आज फ्रांस में हो गया कल कही और होगा अगले दिनों हम अपने काम
में लगे होंगे सभी राष्ट्रों के प्रमुख अपनी सरकारे बचा रहे होंगे लेकिन प्रश्न यह
है कि मासूम लोगों के खून से हर रोज अपने हाथ
रंगने वाली इस सोच को खत्म कैसे किया जा सकता है इसका दमन कर या इसका समर्थन कर?.....लेख राजीव चौधरी
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