एक बार फिर बरसाती नदियों की तरह राजनीति
अपने उफान पर है| मुद्दों की बारिस झमाझम हो रही है| नेता और उनके समर्थक चालीस
डिग्री से ज्यादा तापमान में वातानुकूलित घर गाड़ियाँ छोड़ सड़कों पर खड़े है| कारण एक
तो गुजरात में दलित समुदाय के लडकों की पिटाई और दूसरा बसपा पार्टी अध्यक्ष
मायावती पर अभद्र टिप्पणी यह दोनों मुद्दे मीडिया और राजनीति में किसी संजीवनी
बूटी से कम नहीं है| मीडिया एक महिला के अपमान पर एक बार फिर चिंतित है जिसे दलित
समुदाय इसे अपनी आन-बान का प्रश्न बना बैठा है| गुजरात के वेरावल में कथित गौरक्षा
के नाम पर दलितों की पिटाई के बाद वहां दलित
समुदाय में भारी गुस्सा है| हालाँकि राज्य सरकार द्वारा सभी आरोपी गिरफ्तार किये
गये| पीड़ितों को करीब चार- चार लाख रूपये की सहायता राशि की भी घोषणा की गयी दोषी
पुलिसकर्मी तत्काल प्रभाव से हटाये गये| लेकिन फिर भी राजनेताओं द्वारा गुजरात बंद
के दौरान
कुछ जगहों पर हिंसा की घटनाएँ हुई सरकारी सम्पत्ति में आग लगी जिसमे एक पुलिसकर्मी
की मौत हो गयी| ये मुद्दा संसद में भी गूंजा है जिसके
बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने पीड़ित परिवार को पांच लाख रुपये की आर्थिक सहायता देने का ऐलान किया| हालंकि दोनों ही मामले एक सभ्य
समाज के लिए निंदा का विषय है| अच्छे समाज के लिए जरूरी है कि राजनेतिक और सामाजिक
सुचिता बनी रहे| किन्तु कुछ तर्क खड़े होना भी लाजिमी है जब प्रशासन अपना काम कर
रहा था दोषी पकडे गये थे तो क्या सड़क पर उतरकर सरकारी सम्पत्ति आग के हवाले करना,
पथराव करना जायज है? हम मानते है इसमें राजनीति हुई है पर क्या इस तरह सडक पर
न्याय के बहाने हिंसा करना एक लोकतंत्र में स्वस्थ परम्परा का जन्म है? यदि नहीं
तो क्या राजनेता जूनागढ़ समेत गुजरात के कई शहरों में दलित समुदाय द्वारा किये इस हिंसक
कृत्य की भी निंदा कर सकते है?
दूसरा सबसे बड़ा प्रश्न आजादी के 70 साल बाद भी दलित
यदि दलित है तो इस बात का कौन जबाब देगा कि वो दलित क्यों है? शायद मायावती
उत्तरप्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी है| जाहिर सी बात है मान-सम्मान के
साथ धन सम्पद्दा की भी कोई कमी नही रही होगी लेकिन वो अब भी दलित है तो उनको इस मानसिकता
से कैसे उबारा जा सकता है? मुझे नहीं लगता सत्ता या सरकारी योजनाओं की ललक कभी इस
मानसिकता से ऊपर किसी दलित को समाज की मुख्यधारा में ला सके| कहीं ये चलन तो नहीं
बन गया कि दलितों को सभी सरकारी सुविधाओं से नवाज़ा जाये| उनकी आर्थिक स्थिति ठीक
हो जाए बस कोशिश यह रहे कि वो इस दलित मानसिकता से ना उभर पाए? पिछले दिनों कांग्रेस
नेता सेलजा कुमार ने खुद को दलित बताते हुए अपने साथ मंदिर में अपमान होने की बात
कही थी| आज मायावती पर की गयी एक शब्द की अभद्र टिप्पणी को समस्त दलित समुदाय से
जोड़ दिया गया| लेकिन जब देश के एक राज्य केरल के अन्दर एक दलित गरीब लड़की के साथ
रेप कर उसके अंगभंग कर उसकी हत्या कर दी गयी तो राजनीति से कोई एक आवाज़ उसके लिए
बाहर नहीं आई? क्या ये एक दलित की हत्या नहीं थी? या एक दलित महिला का अपमान नहीं
था? उसका राजनेतिक कद नहीं था या उस राज्य में के चुनाव में दलित मुद्दा नहीं थे, या
वो गरीब दलित की बेटी मायावती की तरह देवी नहीं थी?
कुछ साल पहले उत्तरप्रदेश में एक नेता ने भारत माता
को डायन कहकर संबोधित किया था| सब जानते है भारत माता शब्द राष्ट्र की अस्मिता से
जुडा शब्द है किन्तु तब विरोध का एक स्वर मुझे कहीं सुनाई नहीं दिया हो सकता है आज
हमने राष्ट्र से बड़ी अपनी जाति को मान लिया हो| तभी मायावती ने किसी
अहम् के बल पर कहा हो कि समाज के लोग मुझे देवी के रूप में देखते हैं, यदि
आप उनकी देवी के बारे में कुछ गलत बोलेंगे
तो उन्हें बुरा लगेगा और वे मजबूरन विरोध करेंगे। बिलकुल
सत्य कहा एक नारी को देवी ही माना जाना चाहिए और हमारी तो संस्कृति संस्कृति ही यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः है|
दयाशंकर को तत्काल उसके पद प्रभाव से हटाया जाना पार्टी से निष्काषित किया जाना
इसी का परिणाम रहा| किन्तु मायावती के समर्थको द्वारा बीजेपी नेता दयाशंकर की पत्नी
और बेटी को लेकर अभद्र टिप्पणी कहाँ तक सही है, उनकी क्या गलती है यही वो बस एक
मुंहफट नेता की पत्नी है? क्या वो नारी देवी नहीं है? या देवी होने के लिए किसी
जाति समुदाय में राजनैतिक कद होना जरूरी है?
ऐसा नहीं है महिलाओं पर इस तरह की
टिप्पणी हमारे समाज में पहली बार हुई है जिसको लेकर आग लगाई जाये| महाभारत में भी
एक प्रसंग में कर्ण द्वारा द्रोपदी पर ऐसी ही टिप्पणी की गयी थी| पिछले कुछ सालों
में तो इस तरह के बहुत मामले सामने आये कांग्रेस नेता नीलमणि सेन डेका ने स्मृति ईरानी पर
भद्दी टिप्पणी करते हुए उन्हें मोदी की
दूसरी पत्नी बताया था| कुछ समय पहले एक महिला
सांसद मीनाक्षी नटराजन को उन्ही के सहयोगी कांग्रेस नेता ने सौ फीसदी टंच माल कहा
था| एक
नही ऐसे अनेकों उदहारण मिल जायेंगे| कुछ समय पहले लगता था देश अतीत से
निकलकर भविष्य की और बढेगा| अतीत के मान-अपमान को भूलकर संकीर्ण मानसिकता से
निकलकर ऊपर उठेगा| जातिगत भेदभाव गुजरे जमाने की चीज हो जाएगी| लेकिन अब देखकर
लगता है कि सामाजिक समरसता अब भी एक सपना है और शायद तब तक सपना ही रहेगा जब तक
कोई दलित अपनी दलित और कोई उच्च अपनी उच्च मानसिकता से बाहर नहीं आएगा| लेख राजीव चौधरी
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