29 जून इस्तांबुल
एयरपोर्ट पर हुए धमाके में 41 लोगों
की मौत हो गयी मरने वाले 41 लोगों में 13 विदेशी नागरिक हैं| 30 जून
को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल के
बाहर आत्मघाती हमलावरों ने 40 लोग मार डाले| 2 जुलाई को ढाका में आतंकियों द्वारा 21 लोगों की गला रेतकर हत्या
कर दी जाती है और 3 जुलाई को बगदाद में एक विस्फोट कर 119 लोगों की| 4 जुलाई सऊदी
अरब जेद्दाह में अमरीकी वाणिज्य
दूतावास के पास एक आत्मघाती हमलावर ने खुद को उड़ा दिया है| ज्ञात हो सभी घटना
इस्लामिक मुल्कों में हुई किन्तु इन सबके बाद भी इस्लाम को शांति का मजहब बताकर
पवित्र रमजान माह का हवाला देकर बचाव पक्ष सामने खड़ा दिखाई दे रहा है| जबकि बचाव
पक्ष हर बार यह भूल जाता है कि ऐसे बयानों से आप अनजाने में मजहब की बजाय आतंक का बचाव
कर जाते है|
चलो एक बार फिर
पुरे विश्व समुदाय को निंदा करने का अवसर मिला, एक बार फिर आतंक की पहचान पर
प्रश्न उठ रहा है कि आतंक को किसी धर्म से जोड़े या नही जोड़ें! ढाका के रेस्टोरेंट में
आतंकवादी ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ के नारे लगाते हुए
घुसे और रेस्टोरेंट में अधिकतर विदेशी समुदाय के लोगों की हत्या को अंजाम दिया यानी आतंकियों ने अपना
लक्ष्य बड़े ध्यान से चुना था| विदेशी नागरिकों की हत्या अंतरराष्ट्रीय स्तर
पर अभूतपूर्व सुर्खियां दिलवाती है| पश्चिमी विदेशी मीडिया ने इस आतंकी
हमले को व्यापक कवरेज दी और कईयों ने तो इन आतंकियों को मात्र ‘‘बन्दूकधारी’’ ही कहा| जबकि आतंकी
कुरान की आयतें ना पढने वालों की चाकुओं से गर्दन रेत रहे थे| आतंकियों ने अपने
धार्मिक जुड़ाव और जिहाद के
प्रति प्रतिबद्धता को लेकर किसी के भी मन-मस्तिष्क में तनिक भी संदेह नहीं छोड़ा कि वो
धर्म विशेष के लिए ही मारने मिटने आये थे|
हालाँकि बांग्लादेश से निर्वासित
लेखिका तसलीमा नसरीन ने हमलावरों को बंदूकधारी कहें जाने के संबोधन के मुद्दे पर पूछा है कि
उन्हें इस्लामिक आतंकी क्यों नहीं कहा जा रहा है? “मीडिया उन्हें
गनमैन लिख
रहा है, लेकिन उन्होंने लोगों को मारने और उनमें दहशत फैलाने से पहले अल्लाहू अकबर का
नारा लगाया|”
क्या अब भी उन्हें इस्लामी आतंकी नहीं कहा जाना चाहिए? तस्लीमा ने
कहा कि इस्लाम को
शांति का धर्म कहना बंद करें। अब यह मत कहिए की गरीबी और निरक्षरता लोगों को
इस्लामिक आतंकवादी बनाती
है, इस्लामिक आतंकवादी बनने के लिए गरीबी निरक्षरता, तनाव , अमेरिकी विदेश नीति और इस्त्राइल की
साजिश की जरूरत नहीं है। आपको इस्लाम
की जरुरत है। इसके
साथ ही उन्होंने इस तर्क को भी खारिज
किया कि गरीबी किसी को आतंकवादी बना देती है। ढाका हमले के सभी
आतंकी अमीर
परिवार से थे और सभी ने अच्छे स्कूलों में पढ़ाई की थी।
ऐसा नहीं है तसलीमा ने ऐसा पहली
बार कहा इससे पहले भी उसने विश्व समुदाय को कई बार चेताया है, 2015 में तसलीमा ने
कहा था| आज ISIS बांग्लादेश में है कल पाकिस्तान में होगा परसों भारत में होगा| उसने आगे
कहा था कि सिर कलम करना कैसे सीखते है ये लोग? पहले बैलो का सिर काटते है उसके बाद
मनुष्यों का| अकेले तसलीमा ही नहीं फिल्म अभिनेता इरफ़ान
खान ने
भी इस्लामिक आतंक पर खुलकर खुलकर सवाल खड़े करते हुए कहा क़ुरान की आयतें न जानने
की वजह से रमज़ान के महीने में लोगों को क़त्ल कर दिया गया| हादसा
एक जगह होता है और बदनाम इस्लाम और पूरी दुनिया का मुसलमान होता है ऐसे
में क्या मुसलमान चुप बैठा रहे और मज़हब को बदनाम होने दे? या वो ख़ुद इस्लाम के सही मायने
को समझे और दूसरों को बताए कि ज़ुल्म और नरसंहार करना इस्लाम नहीं है |”
हमेशा इस्लाम
के जानकार और चिंतक कहते हैं कि आतंकवाद और इस्लाम का कोई संबंध हो ही नहीं
सकता| जो मुसलमान इस्लाम का नाम लेकर कभी और कहीं आतंकवादी घटना में लिप्त होते
हैं, दरअसल वे मुसलमान नहीं
हैं| उनका इस्लाम से हरगिज कोई संबंध नहीं हो सकता| मुस्लिम नेता हमेशा लोगों के
दिमागों में यही बात ठूंसने की कोशिश करते रहते हैं कि
इस्लाम एक शांति का धर्म है और उसका आतंकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं
है| लेकिन जब भी कोई मुस्लिम आतंकवादी
पकड़ा जाता है, तो यह मौलवी और नेता चुप्पी साध लेते| या कहने
लगते हैं कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता है किन्तु इस प्रश्न का जबाब
किसी चिन्तक के पास नहीं होता कि हर एक आतंकी हमला कुरान, जिहाद अल्लाह हु अकबर के
नारे से ही जुड़ा क्यों होता है? पिछले दिनों अमेरिकी लेखिका पामेला जेलर ने पूछा
था| 9/11 को हमला करने वाले आतंकियों ने 90 बार अल्लाह हूँ अकबर कहा था कोई मुझे
बताये कि इसे इस्लामिक आतंकवाद क्यों ना कहें? आखिर यह सच मुसलमानों को चुभता
क्यों है? ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी एबट ने कहा था जिसकी भरपूर
आलोचना भी हुई थी| कि इस्लाम धर्म में 'बहुत समस्याएं' आ खड़ी हुई है और इसीलिए सुधारों की ज़रूरत है ऑस्ट्रेलियाई मीडिया
में छपे एबट के ख़त के मुताबिक सभी संस्कृतियां बराबर नहीं हैं और पश्चिम
को अपने मूल्यों का बचाव करते हुए माफ़ी मांगना बंद कर आतंक से निपटना चाहिए| हर
एक हमला कट्टरपंथी इस्लामी हिंसा के स्तर को और आगे ले जाने के मकसद से
किया जाता है| कट्टरपंथी समुदाय इस बात को क्यों नहीं समझते कि हर एक संस्कृति
मूल्यवान है| आखिर 1400 साल पहले आपके द्वारा बनाये गये नियम विश्व समुदाय क्यों
माने? और यही सोच क्यों निर्धारित कर ली है कि हमारी संस्कृति उत्कृष्ट एवं अन्य
संक्रतियाँ निचली दोयम दर्जे की है?
हालाँकि
आतंक के परिपेक्ष में भारतीय मुस्लिम की बात की जाये तो इसकी भूमिका अभी तक
सराहनीय रही है| वो नाउम्मीदी का शिकार नहीं है| वो मजहब के उसूलों से बड़ा भारत का
संविधान मानता है| किन्तु ढाका में हमले के गहरे संदेश भारत के लिए जरुर छिपे हैं| अपने पाले
हुए आतंक से जो दुःख आज भारत के पड़ोसी झेल रहे है जल्द ही भारत भी इसकी चपेट में
घिरता दिखाई दे रहा है| इसके लिए आज बांग्लादेश जैसे कमजोर
देशों की मदद करने के अलावा भारत समेत वैश्विक समुदाय
को उन देशों को भी चिन्हित
करना होगा जो अपने भू-राजनीतिक लक्ष्यों को पाने के लिये
एक उपकरण के रूप में आतंकवाद
का सहारा लेते हैं और यह सुनिश्चित करना होगा के वे सभ्य
समाज और विश्व के नियमों के या लोकनियमो अनुसार व्यवहार
करें| बांग्लादेश के मजहबी जूनून में पागल जो लोग आज कुरान की आयत ना पढ़ पाने पर
हत्या कर रहे है उन लोगों को सोचना होगा 1971 में जब पाकिस्तान की आर्मी अल्लाह को
महान बताकर ढाका की सड़कों पर निर्दोषों का खून बहा रही थी तब हमारी मुक्ति वाहिनी
सेना ने बिना किसी भेदभाव के किसी मुस्लिम की जान उससे गीता के श्लोक पढ़वाकर नहीं
बचाई थी!!....लेख राजीव चौधरी
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