डॉ भीमराव
आंबेडकर जी ने कहा था कि शिक्षित बनो, संगठित रहो,
संघर्ष करो यानि समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए सामाजिक न्याय
पाने के लिए सभी का शिक्षित होना जरुरी है उसके लिए संगठन की भी आवश्यकता हैं और
संघर्ष की भी। किन्तु आज बाबा साहेब के इन वचनों को भुलाकर जातीय रूप से बदले की
भावना का उदय हो रहा है। सामाजिक न्याय से शुरू हुआ आंबेडकर जी के आन्दोलन को
जातीय संघर्ष बनाया जा रहा है मसलन आज का अति दलितवाद कुछ इसी संघर्ष की ओर जाता
दिख रहा हैं।
कभी सामतंवादी
संस्थाओं और व्यवस्था के नीचे रहने वाली जातियों ने 18, 19 वीं सदी
में प्रतिकार करना शुरू किया था जिसके नतीजे से आशातीत अच्छे भी रहे, सामन्तवाद
धराशाही हुआ। वह व्यवस्था राजनितिक शाशन की प्रणाली से तो खत्म हो गयी किन्तु अभी
भी कुछ लोगों जेहन में सामाजिक न्याय या समानता के अवसर के स्थान पर बदले की भावना
में बदल दी गयी। इसलिये आज कथित शूद्र और दलित जातियाँ कहती हैं कि उनकी लड़ाई
ब्राह्मणवाद के विरुद्ध है। इसमें अर्थात ब्राह्मणों द्वारा जिन करोड़ों लोगों को
नीच, हीन और गरीब बनाया गया, वह खुद को हीन घोषित करने वाले नियम और
वाद से मुक्ति चाहते हैं।
बेशक बहुत अच्छा
मुक्तिवाद है बिल्कुल जायज बात भी है, किन्तु इसका
आधार क्या है यह कौन तय करेगा की वह मुक्ति के मार्ग क्या है? आज
जो मुक्ति के मार्ग दलितवाद के बहाने अपनाये जा रहे है मुझे उसमें कहीं भी मुक्ति
नहीं अपितु संघर्ष दिखाई दे रहा हैं। जैसे हाल ही मैंने देखा कि दलितवाद की आड़ में
हनुमान को आंबेडकर के पैरों को पूजते हुए दिखाना, मनुस्मृति
को जलाना, हिन्दुओं के देवी-देवताओं को अपशब्द लिखना, हर समय
अपने अतीत को कोसना, कथित ऊँची जातियों पर आरोप जड़ना इस आन्दोलन का
केंद्र बना दिया गया हैं। ऐसा करके शायद स्वयं के लिए सहानुभूति और अन्य के लिए
द्वेष की भावना का समाज खड़ा किया जा रहा हैं।
इसका अर्थ कुछ
ऐसा हो जैसा यह कहने की कोशिश की जा रही हो मध्यकाल में जिन साधनों संसाधनों शक्ति
के केन्द्रों से हमारा शोषण किया गया अब हम उन पर कब्जा कर तुम्हारा शोषण करेंगे।
कमाल देखिये इसके लिए दलित और मुस्लिम समीकरण तैयार किया जा रहा है कि सत्ताईस
फीसदी तुम बीस फीसदी हम आओ मिलकर इन्हें मजा चखाएं, भीमा
कोरेगांव के मंच से पिछले वर्ष बार यही सन्देश दिया जा रहा था। पर शोषण किसका किया
जायेगा! न तो आज वह शोषक रहे न वो शोषण किये लोग, तो बदला
किससे?
इसमें सबसे पहले
यह सोचना होगा कि शोषण किसका किया गया शायद उनका जो आर्थिक आधार पर कमजोर थे,
किन्तु आज कमाल देखिये आर्थिक आधार पर भी उन्नति करने बावजूद दलित
दलितवाद से बाहर नहीं आ सका। वह आरक्षण, सामाजिक
राजनितिक सहानुभूति पाने के लिए दलित ही बना रहना ज्यादा अच्छा समझता हैं। बसपा
नेता मायावती को ही देख लीजिये जिसे दलितों और अति पिछड़ी जातियों का जबरदस्त
समर्थन प्राप्त हुआ। परंतु यादव, कुर्मी और कई अन्य ओबीसी जातियों ने
दलित नेतृत्व स्वीकार करने से इंकार कर दिया। क्योंकि राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना
इस आंदोलन का लक्ष्य बन गया था और फुले, आंबेडकर और
पेरियार के मिशन को भुला दिया गया। केवल सत्ता पाना बसपा का लक्ष्य बन गया। बसपा
के सत्ता में आने के बाद जातिवादी और प्रतिक्रियावादी सामाजिक शक्तियों से हाथ
मिलाना शुरू कर दिया और आज फुले, आंबेडकर और पेरियार केवल चुनाव जीतने
के साधन बनकर रह गए हैं।
उंच-नीच या
जातिवाद को कोसने से पहले लोगों समझना चाहिए कि क्या झगड़ा सिर्फ स्वर्ण और दलित के
बीच है? नहीं! हर एक जाति समुदाय के अपने नियम-उपनियम है जिसे समझने देखिये
एक कहार, कोरी को अपने से नीचा समझता है, एक कोरी
हरिजन को नीचा कह रहा हैं, हरिजन पासी को पास नहीं बैठने देता और
पासी भंगी को अछूत मानता है, एक हरिजन किसी भी कीमत पर अपनी बेटी
भंगी के घर नहीं ब्याह सकता, और एक कोरी कहार के। इसके बाद सभी दलित
जातियां कह रही हैं कि हमारे साथ स्वर्ण भेदभाव कर रहे है? और इसके
लिए मनुस्मृति को कोसा जा रहा हैं। स्वयं इससे बाहर निकालने के बजाय उनमें सवर्णों
ख़िलाफ एक दलितवाद को जन्म दिया जो मात्र जातियों का बदलाव चाहता है, उसे
तोड़ना नहीं चाहता।
बात करें
मनुस्मृति की जिसमें मनुष्यों को कर्म के आधार पर समाज में रखा गया, चार
वर्ण बनाए गये, क्या वह नियम आज संविधान के अनुसार नहीं चल रहे
क्या है ग्रुप ए से लेकर ग्रुप डी तक क्या यह भेदभाव नहीं है? क्या
इस आधार पर भी आज समाज का बंटवारा नहीं किया जा रहा है यदि हाँ मनुस्मृति को
फूंकना बंद कर देना चाहिए। यदि नहीं तो फिर संविधान से लगाव क्यों? अब
कुछ लोग कहते है कि मनु महाराज ने शुद्र को पैरों से संबोधन किया किन्तु उसी मनु
महाराज ने प्रथम प्रणाम भी तो चरणों को लिखा उसे भी समझिये?
असल में सभी को
असली सच समझना होगा कि सामाजिक परिवर्तन, समानता, भाईचारा
और जातीय बंधन तथा जाति तोड़ो आंदोलन सिर्फ अवसरवादी राजनीति के केंद्र बन चुके
हैं। जाति बंधन सब तोडना चाहते है सामाजिक न्याय की बात भी होती रहेगी, आरक्षण
के सहारे वे प्रशासन के गलियारे तक पहुँचे, दलितों
के बड़े अधिकारी, नेता, मुख्यमंत्री और
राष्ट्रपति भी बने। किन्तु आज यह भी तय नहीं कर पा रहे हैं कि हम पूँजीवाद के साथ
रहे या समाजवाद के साथ। इस कारण बस दलितवाद के नाम पर अतीत को गाली देकर एक बदले
की भावना का निर्माण किया जा रहा है। दलितों के नेताओं को मंच माला और माइक की लत
लग चुकी है इन संगठनों के नेता कभी भी दलितों के असली मुद्दे के बात नहीं करेंगे,
केवल दलितवाद के प्रचार के सहारे जातीय संघर्ष खड़ा किया जा रहा है।
जिसे एक आम दलित अपना आन्दोलन समझ रहा है।...लेख राजीव चौधरी
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