अयोध्या में 25 नवम्बर को विश्व
हिंदू परिषद की ओर से धर्मसभा का आयोजन किया गया था जिसमें महाराष्ट्र समेत देश भर
से भारी संख्या में रामभक्तों का जमावड़ा हुआ था. सभी राम भक्तों और साधु-संतों की
बड़ी संख्या में रामनगरी पहुँचने से शहर की गलियां और चौक-चोराहे भगवा झंडों से अटे
थे. सड़कें तथा गलियां जय श्रीराम, बच्चा बच्चा राम का, जन्मभूमि
के काम का जैसे नारों से गूंज रही थी. रामभक्तों का कहना था कि यह धर्म सभा सरकार
और सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने के लिए रखी गयी हैं, ताकि सरकार
और उच्च न्यायलय राम मंदिर को लेकर जल्द फैसला लें.
धर्म सभा तो समाप्त हो गयी लेकिन
एक बार फिर पुन: सवाल अयोध्या में खड़ा रह गया कि क्या निकट भविष्य में सरकार
द्वारा कोई अद्ध्यादेश लागू होगा या सुप्रीम कोर्ट में इसकी सुनवाई शुरू होने के
कोई आसार हैं. शायद हर कोई यही कहेगा कि भगवान ही जाने. यूँ तो सितम्बर 2010 में
इलाहबाद हाईकोर्ट ने बाबरी मस्जिद के बीच के गुम्बद को राम जन्म भूमि मानते हुए
विवादित डेढ़ हजार वर्ग मीटर जमीन का तीन पक्षों में बंटवारा कर दिया था. जमीन का
एक हिस्सा मस्जिद के अंदर विराजमान भगवान राम, जिनके पैरोकार विश्व
हिंदू परिषद के नेता हैं. उन्हें दे दिया था. दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा जो लगभग
सवा सौ साल से इस स्थान पर मंदिर बनाने की कानूनी लड़ाई लड़ रहा है. उन्हें दिया था
साथ ही तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड और कुछ स्थानीय मुसलमान जो 1949 से इस
मामले में कानूनी लड़ाई लड़ रहे है उन्हें प्रदान कर दिया था. किन्तु इस फैसले पर
सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी. तब से अब तक देश में लगभग आम सहमति है कि सुप्रीम
कोर्ट ही इसके स्वामित्व का फैसला करे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला कब आएगा, यह
बात शायद सुप्रीम कोर्ट को भी मालूम नही.
हालाँकि मुझे नहीं लगता इसमें
कोई बड़ी अड़चन सामने हैं. हाँ जितनी भी अडचने है वह सब राजनितिक अडचने हैं जिसका
सारा दोष कुछ नेताओं और कोर्ट पर डाल दिया जाता रहा हैं. इसके बाद बचता है श्रेय
जिसे सभी राजनितिक दल लेना चाहते है किन्तु साथ ही वोट बेंक न दरक जाये इससे पीछे
भी हटते हैं. जहाँ इस पूरे मामले को हिन्दुओं की जनभावना से जोड़कर देखा जाता है
वही मुस्लिम पक्षकार भी इसे अपने सम्मान से जुड़ा प्रश्न बना चुकें हैं. ऐसे हालात
में सवाल फिर वही खड़ा हो जाता है कि क्या मंदिर बन पायेगा या ऐसे ही राजनीती होती
रहेगी? क्योंकि
अब मामला धार्मिक आस्था से ज्यादा राजनितिक प्रतिष्टा का प्रश्न बन चूका हैं.
आज यदि इस संदर्भ में देखें तो
इस पर हर किसी की अपनी अलग राय है हिन्दुओं का एक बड़ा तबका चाहता है कि राममंदिर
का निर्माण हो और मुस्लिमों का एक बड़ा तबका यह चाहता है कि अल्पसंख्यक होने नाते
फैसला उनके हक में हो और यदि कोर्ट के के अनुसार वहां से मस्जिद हटे तो वहां
राममंदिर की बजाय किसी अन्य चीज अस्पताल या स्कूल का निर्माण हो जाये शायद ये
धार्मिक द्वंद है जो दोनों ओर से जारी है. आस्था को भूलकर यहाँ धार्मिक ताकत का
प्रदर्शन किया जा रहा हैं. साथ ही इसमें जो असली मनोस्थिति हैं वह कुछ ऐसे भी
दिखती है कि आज आजादी के सत्तर इकत्तर साल बाद भी और लगातार देश पर शासन करने के
बाद भी हिन्दुओं का एक धडा अपने को उपेक्षित मान रहा है. वह बार-बार अपने साथ
अत्याचार का जिक्र कर रहा है. मुस्लिम इस बात को लेकर डर रहा है कि यदि मंदिर का
निर्माण हो गया तो उसे उपेक्षित किया जाएगा, मुख्यधारा से बाहर
किया जाएगा, पीटा
जाएगा और मारा भी जाएगा. यदि आज उसने अयोध्या में हार मान ली तो कल मथुरा और काशी
की विवादस्पद मस्जिदों पर भी इसी तरह हमला बोला जायेगा.
ऐसे में हिंदू, मुस्लिम
और सभी भारतीयों के सामने प्रश्न फिर वही चुनौती बनकर खड़ा है कि क्या मंदिर बन
पायेगा या नहीं?
शायद यही कारण था कि मार्च 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने को भी
कहना पड़ा था कि राम मंदिर विवाद का कोर्ट के बाहर निपटारा होना चाहिए. इस पर सभी
संबंधित पक्ष मिलकर बैठें और आम राय बनाएं.
बातचीत नाकाम रहती है तो हम दखल देंगे. जहाँ इस बात को देश के कई
बुद्धिजीवियों ने सराहा था मैंने तब भी लिखा था कि यदि यह मामला आम राय से निपट
जाता तो क्या सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचता?
अब यदि इस आम राय पर चर्चा की
जाये तो मुझे नहीं लगता कि यह अगले सौ वर्षों में भी बन पाए क्योंकि पक्षकार केवल
दो धर्म या गुट नहीं बल्कि अदालत में मुख्य रूप से चार मुकदमे विचाराधीन हैं, तीन
हिंदू पक्ष के और एक मुस्लिम पक्ष का. लेकिन वादी प्रतिवादी कुल मिलाकर मुक़दमे
में लगभग तीस पक्षकार हैं.शिया बोर्ड एतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर सुप्रीम
कोर्ट में यह दावा कर रहा है कि मस्जिद बाबर के समय में मीर बकी ने बनाई थी, जो
कि हिस्ट्री के मुताबिक ईरान का एक शिया था. बाबर तो कभी अयोध्या गया ही नहीं, ऐसे
में इस मस्जिद पर शियाओं का हक है. बोर्ड के चेयरमैन वसीम रिजवी इसे भगवान राम की
जन्मस्थली मानते है तो सुन्नी वक्फ बोर्ड इसे इस्लामिक आस्था से जोड़कर कह रहा है
कि मस्जिद जहां एक बार बन गई तो वो क़यामत तक रहेगी, वो अल्लाह की
संपत्ति है, वो
किसी को दे नहीं सकते.
इसके बाद सरकार बार-बार यही कह
रही कि राम मंदिर को संविधान के दायरे में रहकर ही बनाया जा सकता है. तो विपक्षी दलों
के अपने राजनितिक तंज हैं. इतिहासकारों के अलग-अलग इतिहास हैं तो जनभावनाओं का
अपना गुबार हैं. हाँ कोर्ट चाहें तो एतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर फैसला सुना
सकती हैं. किन्तु बिना किसी राजनितिक दबाव के ऐसा होता संभव नहीं दिख रहा हर कोई
कह रहा है कि विवाद आपसी बातचीत से ही संभव हो सकता है लेकिन कह किसके रहे है यह
कोई नहीं जानता. इतना जरुर है राममंदिर बने या ना बने सरकारें बनती रहेगी और लोग
आस्था का मूल्य वोट और खून से चुकाते रहेंगे...राजीव चौधरी
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