स्वामी
श्रद्धानन्द जी एक ऐसा नाम जिसे इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में लगभग मिटा दिया गया
है। वह व्यक्तित्व जिनकी कहानी दान, त्याग, वीरता,
स्वतंत्रता सेनानी और समाज सेवा के कार्यों से स्वर्ण अक्षरों से
अंकित होनी चाहिए थी, उसे सिर्फ एक “हिन्दू
पुनरुत्थानवादी”
के रूप में चित्रित किया गया। पर जब हम इस महान आत्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी के
जीवन परिचय से गुजरते है तब इन महान विभूति के बलिदान के जीवंत चित्र मन में एक-एक
कर अगाध श्रद्धा से भर जाते हैं।
स्वामी श्रद्धानन्द
जी का जीवन परिचय तब शुरू होता है जब आर्य समाज के संस्थापक और आधुनिक भारत के
निर्माता महर्षि दयानन्द सरस्वती जी देश से अंधविश्वास, सामाजिक
भेदभाव की कुरूतियों और अंग्रेजी सरकार पर निडर होकर हमला कर रहे थे। उसी दौरान 22
फरवरी, 1856 को तत्कालीन अविभाजित पंजाब के जालंधर जिले के गांव तलवन में
पिता नानकचंद के घर मुंशीराम नामक एक बच्चें के जन्म की किलकारी गूंजी। बाद में इसी किलकारी ने
स्वामी श्रद्धानन्द बनकर समस्त धर्म और देशद्रोहियों की नींद उड़ाकर रख दी थी।
मुंशीराम की
स्कूली शिक्षा वाराणसी में शुरू हुई और कानून की पढाई लाहौर में समाप्त हुई। उनके
पिता पुलिस इंस्पेक्टर थे। बार-बार मिर्जापुर और बरेली स्थानांतरण के कारण उनकी
प्रारंभिक शिक्षा बाधित हुई थी। बड़े हुए तो तत्कालीन हिंदू समाज में अंधविश्वास,
पाखण्ड और अपने लोगों में उदासीनता देखकर जीवनशैली लगभग अनियंत्रित
हो गयी थी। किन्तु क्षण अनुकूल था, राष्ट्र को एक विरासत देने के लिए काल ने
मुंशीराम को स्वामी दयानंद सरस्वती से मिला दिया, स्वामी
दयानन्द जी का प्रवचन सुना, उस दिव्य आत्मा के मुख से जब तत्कालीन
हिंदू समाज को जगाने विषय में लम्बी चर्चा हुई तो मुंशीराम के जीवन में एकाएक महान
परिवर्तन आ गया।
आर्य समाज के
अनुयायी के रूप में मुंशीराम
ने महिलाओं की शिक्षा के लिए एक महत्त्वपूर्ण अभियान का नेतृत्व करना शुरू किया। आर्य
समाज द्वारा संचालित अखबार सदधर्मप्रचारक में महिलाओं की शिक्षा के बारे में लेखों
के माध्यम से गार्गी और अपाला जैसी वैदिक विदुषियों के उदाहरणों का हवाला देते हुए
महिलाओं की शिक्षा के लिए अनुरोध किया। समाज में अंगड़ाई आनी शुरू हुई, असल
में, जब उन्होंने अपनी ही बेटी को मिशनरी-संचालित स्कूल में पढ़ते हुए ईसाई
धर्म के प्रभाव में आते हुए देखा तो
भारतीय आदर्शों में निहित शिक्षा प्रदान करने का मन बनाया और अपने प्रयासों से
जालंधर में पहला कन्या महाविद्यालय की स्थापना कर दी।
वित्तीय संकट,
संघर्ष के थपेड़ों से जूझने के बाद, 1902 में
हरिद्वार के पास ग्राम कांगड़ी में गुरुकुल की स्थापना कर दी ताकि खोई वैदिक संपदा
के विचारों से नागरिकों में धर्म और राष्ट्रीय दृष्टिकोण पैदा किये जा सकें। यह
भारत का सर्वप्रथम एक ऐसा गुरुकुल बना जिसमें जाति, पंथ,
भेदभाव छुआछुत से दूर कर छात्रों को अलग-अलग कक्षाओं में एक साथ
मिलकर पढने के लिए प्रेरित किया और व्यक्तिगत रूप से स्वामी श्रद्धानन्द जी एक
पिता की तरह अपने छात्रों की आवश्यकताओं को पूरा करते रहे।
स्वतंत्रता के
लिए चल रहे आन्दोलन और सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने के साथ स्वामी श्रद्धानन्द
जी ने कथित अछूत माने जाने वाले समाज के मुद्दों को उठाते हुए 1919 में अमृतसर
कांग्रेस अधिवेशन के स्वागता के रूप में अपने संबोधन में कहा था कि “सामाजिक भेदभाव
के कारण आज हमारे करोड़ों भाइयों के दिल टूटे हुए हैं, जातिवाद
के कारण इन्हें काट कर फेंक दिया हैं, भारत माँ के ये लाखों बच्चे विदेशी सरकार के
जहाज का लंगर बन सकते है, लेकिन हमारे भाई नहीं क्यों नही बन सकते? मैं
आप सभी भाइयों और बहनों से यह अपील करता हूं कि इस राष्ट्रीय मंदिर में मातृभूमि
के प्रेम के पानी के साथ अपने दिलों को शुद्ध करे, और वादा
करें कि ये लाखों करोड़ों अब हमारे लिए अछूत नहीं रहेंगे, बल्कि
भाई-बहन बनेंगे, अब उनके बेटे और बेटियाँ हमारे स्कूलों में
पढ़ेंगे, उनके पुरुष और महिलाएँ हमारे समाजों में भाग लेंगे, आजादी
की हमारी लड़ाई में वे हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होंगे और हम सभी अपने राष्ट्र की पूर्णता का एहसास करने के लिए हाथ
मिलाएंगे।”
अछूतों की मदद
करने और कई मुद्दों पर गाँधी जी से असहमति होने के पश्चात स्वामी श्रद्धानंद ने
कांग्रेस की उप-समिति से इस्तीफा दे दिया। हिंदू महासभा में शामिल होकर अछूत और
दलित माने जाने वाली जातियों के कल्याण के लिए शुद्धि का कार्य शुरू किया। शुद्धि-आन्दोलन
के द्वारा सोया हुआ भारत जागने लगा! कहते हैं जिस देश का नौजवान खड़ा हो जाता है वह
देश दौड़ने लगता है! सच ही स्वामी जी ने हजारों देशभक्त नौजवानों को खड़ा कर दिया
था। स्वामी श्रद्धानंद ने वर्ष 1919 में दिल्ली की जामा मस्जिद में भाषण दिया था।
उन्होंने पहले वेद मंत्र पढ़े और एक प्रेरणादायक भाषण दिया। मस्जिद में वेद मंत्रों
का उच्चारण करने वाले भाषण देने वाले स्वामी श्रद्धानंद एकमात्र व्यक्ति थे।
दुनिया के इतिहास में यह एक असाधारण क्षण था।
स्वामी
श्रद्धानंद जी ने बलात् हिन्दू से मुसलमान बने लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में
शामिल कर आदि जगदगुरु शंकराचार्य के द्वारा शुरू की परंपरा को पुनर्जीवित किया और
समाज में यह विश्वास पैदा किया कि जो किसी भी कारण अपने धर्म से पतित हुए हैं वे
सभी वापस अपने हिन्दू धर्म में आ सकते हैं। फलस्वरूप देश में हिन्दू धर्म में
वापसी के वातावरण बनने से लहर सी आ गयी! राजस्थान के मलकाना क्षेत्र के हजारों
लोगों की घर वापसी उन्हें भारी पड़ी,
जब महान् सिद्धान्तों पर आधारित सांस्कृतिक धरातल पर उन्हें कोई
पराजित नहीं कर सका तब 23 दिसंबर 1926 को
एक धर्मांध मुस्लिम युवक अब्दुल रशीद द्वारा एक मजहबी हत्यारी परंपरा के शिकार हो
गये। देश धर्म और समस्त समाज के लिए अपना घर, अपना
परिवार का दान कर यहाँ तक की स्वयं को बलिदान करने वाली इन महान आत्मा को भुला
दिया गया। करोड़ों भारतीयों के लिए, जिनके कल्याण के लिए उन्होंने जीवन भर
दृढ़ता से काम किया, पूरा जीवन कर्मों और वैदिक धर्म कार्यों को
करते हुए अंत में अपने धर्म के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली इस महान आत्मा
महात्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी को आर्य समाज का कोटि-कोटि नमन। लेख-राजीव चौधरी
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