कृष्ण कहो या दीक्षानन्द
जब कभी हम किसी नाम को सुनते हैं या पढ़ते हैं तब हमें उस नाम से
मिलते-जुलते महापुरुषों या अपने परिचितों की याद ताजा हो जाती है, परन्तु कई बार कहने वाले का या लिखने
वाले का आशय कुछ और भी हो सकता है। कुछ इसी तरह लेख के शीर्षक में कृष्ण शब्द को
देखते ही किसी के मानस पटल पर योगीराज श्री कृष्ण की छवि उभरेगी तो किसी के या हो
सकता है कृष्ण के किसी और रूप की कल्पना किसी के मानस पटल पर हिलोरें लेने लगें, क्योंकि कृष्ण शब्द का प्रयोग योगीराज श्री कृष्ण या उसके
अन्य रूपों के साथ ही सबसे ज्यादा किया जाता है। परन्तु इस शीर्षक में कृष्ण शब्द
का प्रयोग बालक कृष्ण स्वरूप उर्फ आचार्य कृष्ण जी उर्फ स्वामी दीक्षानन्द सरस्वती
जी के लिए किया गया है।
10 जून 1918 तदनुसार विक्रमी संवत् 1975 ज्येष्ठ मासे शुक्ल पक्षे द्वितीय तिथि
को एक नहीं दो सूर्य उदय हुए। द्योलोक का सूर्य प्रतिदिन की भांति उसी दिन सायंकाल
अस्त हो गया परन्तु उस दिन मध्यम वर्गीय परिवार में जन्में बालक कृष्ण स्वरूप ने
जीवन पर्यन्त अविवाहित रह कर दूसरे सूर्य के प्रतीक रूप में अपने ज्ञान रूपी सूर्य
के प्रकाश से समाज को 15 मई 2003 तदनुसार विक्रमी संवत् 2016 वैशाख मासे शुक्ल पक्षे चतुर्दशी तिथि
तक प्रकाशित एवं लाभान्वित किया।
बालक कृष्ण स्वरूप ने आरम्भिक शिक्षा भटिंडा और लाहौर में प्राप्त की और
तदुपरान्त उपदेशक विद्यालय लाहौर में प्रवेश लिया। वर्ष 1943 में गुरुकुल भटिंडा की स्थापना की और 1945 तक उसमें आचार्य पद पर आसीन होकर अपनी
सेवाएं प्रदान कीं, इस प्रकार
बालक कृष्ण स्वरूप आचार्य कृष्ण बन गए। आप वर्ष 1948 से 1956 तक गुरुकुल प्रभात आश्रम टीकरी, मेरठ में आचार्य पद पर आसीन रहे। आप
वर्ष 1956 से जीवन
के अन्तिम क्षणों तक आर्य समाज के मंचों से वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में
सक्रियता से लगे रहे।
आपके गुरु पं. बुद्धदेव विद्यालंकार ;स्वामी समर्पणानन्द सरस्वतीद्ध जी थे।
आचार्य कृष्ण ने 1975 में आर्य
समाज के शताब्दी समारोह में स्वामी सत्यप्रकाश जी से संन्यास की दीक्षा ली और
आचार्य कृष्ण से स्वामी दीक्षानन्द सरस्वती बन गए। शब्दकोश में दीक्षा का अर्थ
होता है गुरु के पास रहकर सीखी गई शिक्षा का समापन। दीक्षा शब्द दो स्वरों (द एवं
क्ष) और दो व्यंजनों (ई एवं आ) के योग से बनता है। द स्वर से दमन, क्ष स्वर से क्षय, ई व्यंजन से ईश्वर उपासना और आ व्यंजन
से आनन्द समझने से दीक्षा शब्द का महत्त्व बहुत बढ़ जाता है। इसी आशय को समझते हुए
आचार्य कृष्ण ने दीक्षा मात्र औपचारिकता के लिए नहीं ली थी, अपितु दीक्षा को जीवन में धारण करते
हुए मन का निग्रह एवं इन्द्रियों का निग्रह किया अर्थात् मन और इन्द्रियों के दमन
से जीवन को आगे बढ़ाया, ईश्वर
उपासना के द्वारा जीवन में ऐसी स्थिति प्राप्त की, जिससे अधिक सूक्षमता, दूरदर्शिता एवं विवेक के साथ संसार और
उसकी परिस्थितियों का निरीक्षण करके प्राणियों का मार्ग दर्शन किया जा सके। आपने
वासनाओं का क्षय करके जीवन की सोच को उच्चकोटि का बनाने में सफलता प्राप्त की। काम, क्राध, लोभ, मद, मोह आदि सभी विकारों को अपने जीवन से
दूर कर आनन्द का अनुभव किया और जीवन को धन्य बनाया।
भारत देश के विभिन्न प्रांतों में वैदिक धर्म का प्रचार-प्रसार करने एवं
सारगर्भित यज्ञों को सम्पन्न कराने के साथ-साथ मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, डरबन, नैरोबी, केन्या आदि देशों में भी वेद प्रचार की
दुंदभी बजाई। आपकी प्रवचन शौली अद्वितीय होने के साथ-साथ अति प्रभावकारी थी, जिससे आपकी बात श्रोताओं के हृदय में
सदा के लिए अंकित हो जाती थी। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी ने आपको योग शिरोमणि
की उपाधि देकर सम्मानित किया। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय द्वारा आपको विद्या
मार्तण्ड सम्मान से सम्मानित किया गया। आपने वर्ष 1939 में हैदराबाद आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग
लिया। फरवरी 2000 में
सत्यार्थ प्रकाश न्यास, उदयपुर द्वारा
आपको 31 लाख की
राशि से सम्मानित किया गया। इस 31 लाख की
राशि को आपने न्यास को सधन्यवाद समर्पित कर दिया।
वेदों में छिपे गूढ़ रहस्यों को समझने के उद्देश्य से आपने वर्ष 1978 में अपने गुरु के नाम पर समर्पण शोध
संस्थान की स्थापना की, जिसमें
असंख्य शोध विद्वानों ने अनेकों धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करके उनमें छिपे एक-एक
विषय का बारीकी से विश्लेषण कर समाज का मार्ग दर्शन किया।
शब्दकोश में सर्वस्व का एक अर्थ होता है अमूल्य और महत्त्वपूर्ण पदार्थ और
दूसरा अर्थ होता है सम्पूर्ण सम्पत्ति। आपको अपने कार्यां के साथ-साथ जीवन में
सम्पूर्णता पसन्द थी, यही
सम्पूर्णता आपके लेखन में भी झलकती थी। इसी सम्पूर्णता को और सम्पूर्ण बनाने के
लिए आपने अपने अधिकांश ग्रन्थों के नाम में सर्वस्व का प्रयोग किया जैसे- नाम
सर्वस्व, उपहार
सर्वस्व, मर्यादा
सर्वस्व इत्यादि। आप द्वारा रचित ग्रन्थ जिनके नाम में सर्वस्व का प्रयोग नहीं
किया गया है, ऐसा नहीं
है कि उनमें सम्पूर्णता नहीं है। आप द्वारा रचित अन्य ग्रन्थों में जैसे-दो पाटन
के बीच, वैदिक
कर्मकाण्ड पि(त, पुरुषोत्तम
राम, राजर्षि
मनु, स्वाभिमान
का उदय आदि में भी पूर्ण सम्पूर्णता है। आपने अपने ग्रन्थों के प्रकाशन के साथ-साथ
अन्य विद्वानों की पुस्तकों का समर्पण शोध संस्थान के माध्यम से प्रकाशन एवं
सम्पादन भी किया।
स्वामी दीक्षानन्द जी द्वारा लिखित व सम्पादित पुस्तकों की लम्बी सूची से
एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि स्वामी जी उच्चकोटि के विद्वान थे क्योंकि एक
सामान्य विद्वान के लिए इतनी पुस्तकों का लेखन या सम्पादन असम्भव सा प्रतीत होता
है। आपने इतनी बड़ी संख्या में पुस्तकों के लेखन और सम्पादन से वैदिक धर्म के
अतिरिक्त नैतिक एवं मानवीय पहलुओं का ऐसा अथाह ज्ञान प्राप्त कर लिया था कि वह सभी
मत मतान्तरों के अनुयायियों को चुम्बक के समान आकर्षित एवं प्रभावित कर लेते थे।
सरल हृदयी उच्चकोटि के विद्वान को जितना भी नमन किया जाये उतना ही अपर्याप्त है, फिर भी स्वामी दीक्षानन्द सरस्वती जी
को कोटि-कोटि नमन।
-सुरिन्द्र चौधरी
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