स्वामी दयानन्द जी ने अपनी शिक्षा पूरी कर गुरु दक्षिणा के रूप में गुरु
विरजानन्द दण्डी स्वामी जी को जब कुछ लौंग प्रस्तुत की तो गुरु का हृदय विचलित हो
गया क्योंकि शिष्य दयानन्द की प्रतिभा, तक शक्ति शारीरिक बल और योग निष्ठा को
परख कर अपन सम्पूर्ण विद्या ज्ञान शिष्य दयानन्द को दान कर दिया था। गुरु जी को
आशा और विश्वास था कि भारत माता की दुर्दशा को सम्हालने की याग्यता और क्षमता
दयानन्द में हैं अतः गुरु ने लौंग के साथ ही दयानन्द शिष्य को सशरीर मांग लिया था
और आदेश दिया था कि जाओ ओर सम्पूर्ण भारत वर्ष में घूम-घूम कर भारत माता को दासता
की बेड़ियों से आजाद कराओ और अज्ञान के अन्धकार में साई हुई जनता को सच्चा वेद
मार्ग बता कर राष्ट्रोत्थान में अपना जीवन लगा दो।
शिष्य दयानन्द ने गुरु आज्ञा को स्वीकार कर अपना सिर गुरु चरणों में रख
दिया आर गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु चल
पड़े। इस घटना से स्पष्ट होता है कि भारत माता के उत्थान की अग्नि गुरु विरजानन्द
जी के हृदय में सुलग रही थी और शिष्य दयानन्द के मिल जाने पर वह अग्नि तीव्र होती
गयी जिसे शिष्य दयानन्द के हृदय में वेद ज्ञान द्वरा स्थापित कर दिया।
महर्षि दयानन्द जी के गुरु आदेश को एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में अपने
हृदय में स्थापित कर लिया और इस के प्रथम चरण में विधमी्र जनता को अपने अकाट्य
प्रवचनों, उपदेशों, शस्त्रार्थो के माध्यम से सत्य वैदिक
धर्म से अवगत कराया। यह स्वामी जी का शीत युद्ध था। स्वामी जी ने सभी मत
सम्प्रदायों का उनके गुण, अवगुण के
आधार पर प्रबल खण्डन किया। स्वामी जी के मन, वचन व आचरण में समानता थी। उनमें देश, काल परिस्थिति का सामना करने की खमता
थी। उनकी प्रचार शैली अद्भुत थी और ईश्वर पर पूर्ण विश्वास था जिस कारण वह निर्भीक
ओर निडर होकर अजेय रहे।
दूसरे चरण में भारत में फैली विभिन्न सशक्त रियासतों के राजाओं को वैदिक
धर्म का पाठ पढ़ाया और उन्हें राज धर्म की शिक्षा दी थी। महर्षि ने अनुभव किया कि
बिना संघर्ष अर्थात् बिना शस्त्र युद्ध के भारतमाता को आक्रान्ताओं की दासता की
बेड़ियों से छुटकारा नहीं मिल सकता। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु महर्षि ने हरद्विर
के चण्डी मन्दिर पर चुने हुए राजाओं से गुप्त मन्त्रणा की ओर सन् 1857 में स्वतन्त्रता युद्ध की योजना बनाकर
शस्त्र युद्ध छेड़ दिया था। परन्तु कुछ लोभी स्वार्थी गद्दारों ने अंग्रेज शासकों
को योजना से अवगत करा दिया। परिणामतः योजना असफल हो गई। परन्तु महर्षि जी ने
शीतयु( निरन्तर जारी रखा जिसके परिणाम स्वरूप अनेक देश भक्त उत्पन्न हुए और
उन्होंने ऋषि के धार्मिक, राजनीतिक शीत युद्ध को शक्ति प्रदान की। परिणाम
स्वरूप 1941 से 1946 तक के स्वतंत्रता आन्दोलन में आर्य
समाज के 85 प्रतिशत
काय्रकर्त्ताओं ने भग लिया और अनेकों अनुयायियों ने अपनी प्राण आहुतियां भी दी
थीं।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद आय्र समाज में कर्मठ, निष्ठावान, वेद अनुयायी कार्यकर्त्ताओं का अभाव हो
गया। आर्य समाज यमें स्वार्थी, लोभी, पौराणिक रूढ़ी वादी और निष्क्रीय
व्यक्ति प्रवेश कर गये जिनकी धारणा है कि संसार के सभी धर्म अथवा मठ सम्प्रदाय
अच्छे हैं इसलिए सभी धर्मो का समान रूप से आदर व सम्मान करना चाहिए, ऐसे लोगों के रहते कोई जाति, संस्था व संगठन अपने उद्देश्य में
सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्त मतो गोल पेदी के लोटे होते हैं। न जाने कब
कहां लुढ़क जाए। हां प्रजातान्त्रिक आधार पर प्रत्येक मत सम्प्रदाय का धर्म को अपने
प्रचार की पूर्ण स्वतन्त्रता तथा अधिकार होना चाहिए। परन्तु वैचारिक दृष्टि से
सबको समाजन समझना भारी भूल है। उनके गुण अवगुण के आधार से ही दृष्टिकोण निर्धारित
करना उचित है।
संसार की प्रत्येक वस्तु एक निश्चित सत्य पर आधारित होती है। यह एक
सर्वमान्य वैज्ञानिक सिद्धान्त है। इसी प्रकार संसार के समस्त मानवों का एक ही
सत्य सनातन वैदिक धर्म है जिसे मानव धर्म की संज्ञा दी जा सकती है। इसीलिए सीी
धर्मों, तक
सम्प्रदयों को समान समझना अवैज्ञानिक एवं मूर्खतापूर्ण मान्यता है। यह मान्यता इसी
प्रकार की है कि जैसे कोई व्यक्ति रेलवे जंक्शन पर खड़ा होकर यात्रियों को यह
सम्मति दे कि सभी रेल गाड़ियां एक ही स्थान पर पहुंचेंगी।
धर्म और संस्कृति के प्रति श्रद्धा तथा आस्था भी अन्धविश्वास के आधार पर
नहीं अपित इनके गुणों के आधार पर ही होनी चाहिए।
वास्तव में सभी मत, सम्प्रदाय
या धर्मों का प्रचार व प्रसार एक शीत युद्ध है। शीत युद्ध में सफलता की प्राप्ति
की इच्छुक जाति व संस्था के अन्दर जब तक अपने धर्म के प्रचार व प्रसार करने की लगन
व तड़प नहीं होगी तब तक उसका विजयी होना सर्वथा असम्भव है। अतः प्रत्येक जाति, संस्था तथा राष्ट्र का यह कर्त्तव्य है
कि वह अपनी जनता, अनुयायी
तथा मुख्यतः अपने धर्म प्रचारकों में धर्म के प्रचार व प्रसार की तीव्र लगन
उत्पन्न करे। ऐसा न करना अपनी मौत को स्वयं निमन्त्रण देना होता है।
धर्म और राजनीति का गठजोड़ है। धर्म का झण्डा झुकतेही किसी जाति, संस्था व राष्ट्र का राजनीतिक झण्डा
स्वतः झुक जाता है अर्थात् उसका राजनीतिक ढ़ांचा लड़खड़ा जाता है। अतः राजनीतिक ढ़ांचे
की सुरक्षा हेतु उसे अपने धार्मिक अनुयायियों की संख्या में वृद्धि करनी ही होगी, अन्यथा चुनाव के क्षेत्र में उन्हें
मुंह की खानी पड़ेगी।
आर्य समाज के संसथापक महर्षि दयानन्द जी ने बुविद का समर्थन करत ेहुए इस
मौलिक वि(ान्त को उपस्थित यिका था कि -
‘‘प्रत्येक को सत्य के ग्रहण करने और
असत्य के त्याग में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।’’ यही मान्यता बुंविद का मूल आधार है इसी
को लेकर वर्तमान शीतयुग् में पूर्ण सफलता की आशा की जा सकती है अन्यथा नहीं।
संघर्ष में विजय की प्राप्ति केवल व्यक्ति, जाति, संस्था अथवा राष्ट्र की धार्मिक तथा
दार्शनिक महानता पर ही निर्भर नहीं होती अपितु उनके आचरण पर निर्भर होती है। आचरण
विहीन धर्म, संस्कृति
तथा दर्शन किसी व्यक्ति, जाति, संस्था को बचाने में सर्वथा असमर्थ
होते हैं।
वर्तमान शीत युद्ध में ईश्वर समबन्धी मान्यता का सबसे अधिक महत्त्व है। इस
आधार पर वैदिक सम्बन्धी मान्यता ही सफलता का आधर बन सकती है। आशा है आर्य जाति के
शुभ चिन्तकइस तथ्य को स्वीकार कर इस पर आचरण करेंगे।... स्वामी सोम्यानन्द सरस्वती, मथुरा
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