दक्षिण कोरिया को लेकर कुछ महीने पहले तक उत्तर कोरिया परमाणु हथियारों, मिसाइलों की धमकी की जिस जुबान में बात
कर रहा था अचानक उसमें बदलाव आया है। पिछले महीने की 27 तारीख को उत्तरी कोरिया ने वो काम कर
दिखाया जो अब तक असंभव समझा जा रहा था। उसके नेता किम जोंग-उन ने दक्षिण कोरिया के
साथ 1953 से चली आ
रही युद्ध की स्थिति खत्म करने की घोषणा कर दी। कोरियाई प्रायद्वीप की इस बड़ी घटना
के बाद सोशल नेटवर्क की वेबसाइटों पर ये बहस शुरू हो गई कि यदि उत्तर कोरिया और
दक्षिण कोरिया दोनों ऐसा कर सकते हैं तो भारत और पाकिस्तान क्यों नहीं?
हालाँकि इसके बाद पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा अचानक भारत से
दोस्ती के इच्छुक दिखाई दिए और कूटनीतिक सूत्रों की माने तो पूर्व विदेश सचिव
विवेक काटजू एवं अन्य विशेषज्ञों की एक टीम पाकिस्तानी के पूर्व मंत्री जावेद
जब्बार एवं अन्य समेत दोनों पक्षों के बीच इस्लामाबाद में 28 से 30 अप्रैल के बीच संवाद हुआ। साथ ही कुछ
ही दिन पहले ही पाकिस्तान की ओर से सद्भावना के तौर पर में एक बीमार भारतीय कैदी
को रिहा किया गया था।
इस क्षेत्र की राजनीति पर विश्लेषकों का मानना है कि कम से कम पाकिस्तान ने
ऐसे संकेत दिए हैं कि वो भारत के साथ शांति चाहता है। लेकिन मेरा सवाल अलग है कि
शांति चाहता कौन है, पाक सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा या पाकिस्तानी सियासत या फिर
पाकिस्तानी आवाम? क्योंकि
इतिहास से यदि पिछले उदाहरण उठाकर देखें तो पाकिस्तान के किसी भी प्रधानमंत्री या
सैनिक तानशाह के लिए भारत से दोस्ती के कोई शुभ संकेत नहीं मिलते। 1947 में बंटवारे के बाद वर्ष 1958 तक भारत को जहाँ एक प्रधानमंत्री जवाहरलाल
नेहरु संभाल रहे थे तो वहां पड़ोसी पाकिस्तान में सात प्रधानमंत्री बदल चुके थे।
फिर अचानक लोकतंत्र भंग करके जनरल अय्यूब खां कुर्सी पर बैठ जाते हैं। अमेरिका से
दोस्ती और समझौते के बल पर 1965 में भारत
पर जंग थोप दी जाती है। भारत के हाथों जंग में बुरी तरह हारे अयूब खां को पता चल गया
कि अमेरिका डबल गेम खेल रहा है और भारत से दुश्मनी रखकर पाकिस्तान को आगे नहीं ले
जाया जा सकता इस कारण उधर 1966 में
ताशकंद में समझौता होता है और इधर आवाम में उनके खिलाफ मुहीम चला दी जाती है।
नतीजा उनकी पहले वर्दी उतरी और फिर उन्हें पद से भी हटा दिया गया।
पद पर आसीन होने वाले अगले सैनिक तानाशाह आये जनरल याहिया खां जो बखूबी समझ
चुके थे कि आवामी मुल्लों के बगैर शासन करना मुश्किल है। इस कारण यहियाँ खां शुरू
में तो भारत के कड़े विरोध में रहा लेकिन 71 की जंग की हार और शिमला समझौते से
यहियां खां का भी वही अंजाम हुआ जो पूर्व में अय्यूब खां का हो चुका था। खैर एक
दशक से ज्यादा समय तानाशाही में गुजार चुके पाकिस्तान के लोकतंत्र को घुटन से आजादी
मिली और 1973 में
जुल्फिक्कार अली भुट्टों 13 दिन कार्यवाहक
प्रधानमंत्री रहने वाले नुरुल अमीन के बाद पाकिस्तान के 9 वें प्रधानमंत्री बनते है। भारत से
संबंधों की बात ठीक होने लगती है। शान्ति के दरवाजे खुले। दोस्ती की पींगे आगे बढ़
ही रही थी कि जियाहुल हक ने आकर सारी आशाओं पर पानी फेर दिया। भुट्टों को भी भारत
से दोस्ती का ख्वाब महंगा पड़ा। पाकिस्तान की जम्हूरियत फिर तानाशाही के अँधेरे में
चली गयी और भुट्टो को फांसी दे दी गयी।
जियाहुल हक ने भी आने के साथ भारत से जम कर दुश्मनी निभाई। उसी दौरान भारत
और पाकिस्तान की सेना एक दूसरे के सामने खड़ी थी जंग का माहौल था, भारतीय सेना सियाचिन पहुँच चुकी थी कि
अचानक पाकिस्तान के अन्दर अप्रैल, 1988 को गोला बारूद के रूप में इस्तेमाल
किया जाने वाले शिविर में विस्फोट हो चले जिसमें 93 से अधिक मारे गए और 1,100 के करीब लोग घायल हो गए। ऐसे में
जियाहुल हक को लगा की भारत से दुश्मनी में कोई फायदा नहीं है। स्व. प्रधानमंत्री
राजीव गाँधी से दोस्ती का हाथ ही नहीं बढाया बल्कि जियाहुल क्रिकेट का मैच देखने
भी भारत आए। लेकिन नतीजा फिर वही दोहराया गया और इसके बाद जियाहुल हक की हत्या कर दी जाती है। मसलन जो भी सिविल सरकार या तानाशाह भारत आया उसे उड़ा
दिया गया या हटा दिया गया।
हक की मौत के बाद एक बार फिर पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाल होता है और
बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री बनती है। उस दौर में भारत पाकिस्तान के रिश्तों में एक
बार फिर गर्मजोशी देखने को मिलती है कहा जाता है उस दौरान बेनजीर सरकार ने खालिस्तानी
आतंकियों की एक सूची भारत को सौंप देती थी और राजीव गाँधी भी इस दोस्ती को आगे
बढ़ाने के उद्देश्य से पाकिस्तान की यात्रा करते हैं। पर एक बार फिर वही हुआ कि 1988 में प्रधानमंत्री बनी भुट्टों को 90 में ही पद से हटा दिया जाता है। इसके
बाद नवाज शरीफ को पाकिस्तान की सत्ता की चाबी मिलती है लेकिन वो भी जब-जब भारत की
तरफ दौड़ा पद से हटा दिया गया। फिर बेनजीर आई फिर भारत से दोस्ती की बात होती है और
उसे फिर हटा दिया जाता है।
फरवरी 1997 में एक
बार फिर नवाज सत्ता सम्हाकर आगे बढ़ते हैं और उनके इस कार्यकाल में तो भारत से
दोस्ती को हिमालय से ऊँचा ले जाने की बात होती है। तत्कालीन भारतीय
प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपेई जी की लाहौर बस यात्रा होती है लेकिन इस बार कारगिल
वार हो जाता है और नवाज को सत्ता से बेदखल कर पाकिस्तान सैनिक तानाशाह जनरल परवेज
मुशर्रफ के अधीन चला जाता है। भारत से दुश्मनी का दौर फिर शुरू होता है। इधर भारत
में संसद हमले के बाद भारत की फौज का सीमा पर जमावड़ा होता देख अटल जी को सेल्यूट
करने तक से मना तक कर देने वाला मुशर्रफ भारत में हुए सार्क सम्मलेन में शामिल ही
नहीं होता बल्कि सीज फायर जैसे समझौते की गारंटी भी देता है। रिश्तों में गर्माहट
बढती है और नतीजा मुशर्रफ से पहले वर्दी और फिर सत्ता और इसके बाद पाकिस्तान से
भागना पड़ता है।
एक बार फिर पाकिस्तान में जम्हूरियत चैन की साँस लेती है और आसिफ अली
जरदारी पाकिस्तान की कमान सम्हालते हैं, कहा जाता है इस दौर में दोनों सरकारें
कश्मीर समस्या पर आगे बढ़ ही रही होती हैं कि पूरे विश्व को हिला देने वाली 26/11 की दर्दनाक घटना घट जाती है। रिश्तों
में पिंघलती बर्फ फिर दुश्मनी में जम जाती है। धीरे-धीरे कलेंडर में वर्ष और
पाकिस्तान में सत्ता बदलती रहती है एक बार फिर नवाज को सत्ता नसीब होती है और इधर
अपने प्रचंड बहुमत से मोदी सत्ता में आते हैं. मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में नवाज
को बुलावा भेजा जाता है। जिसके बाद आम और साड़ी आदि उपहारों का दौर भी चलता है। कभी
रूस के उफा में दोनों मिलते है तो कभी अफगानिस्तान से लौटते हुए मोदी पाकिस्तान नवाज़
के घर पहुँच जाते हैं। नतीजा पठानकोट एयरबेस पर हमले के साथ पाकिस्तान में मजहबी
मुल्लाओं के द्वारा नारे लगने शुरू होते हैं कि ‘‘जो मोदी का यार है गद्दार गद्दार है।’’ और फिर नवाज शरीफ को पद से हटा दिया
जाता है। शाहीद अब्बास खक्कानी नये प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेते हैं और ऐसे
में वहां के आर्मी चीफ का दोस्ती का बयान आना बस यही सवाल उठाता है कि क्या ये
दोस्ती मुमकिन है यदि है तो इस बार दोस्ती की कीमत कौन चुकाएगा? बाजवा या खक्कानी!..लेख राजीव चौधरी
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