यह एक ऐसा ही सवाल है जैसे कोई निराशवादी कहे कि ओलिंपिक खेल, क्रिकेट या फुटबाल के अंतर्राष्ट्रीय
मैच, सालाना
उत्सव या त्योहार जरूरी है? या फिर कोई कहे कि देश तो आजाद हो गया
अब स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस की जरुरत क्यों? दरअसल यह सब चीजें जरूरी है क्योंकि इन
सब चीजों से सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एकता में प्रगाढ़ता आती है। राष्ट्रप्रेम की
भावना के साथ धार्मिक, सांस्कृतिक भावना का संचार होता हैं। लोग विविधता को समझते हैं और एक दूसरे
से अपने अनुभवों का आदान-प्रदान करते हैं।
दूसरा जब अपनी भाषा की प्रस्तुति से ज्यादा विदेशी भाषा का आतंक हो, धार्मिक साहित्य से ज्यादा अश्लील
साहित्य की चर्चा हो, असल सामाजिक राष्ट्रीय मुद्दों की धार न हो, विद्वानों से ज्यादा सेलेब्रिटीज की
धमक हो, संस्कृति
की जगह सनसनी, धर्म पाखंड
भीड़ में गुम होने लगें और लोग अन्धविश्वास के प्रांगण में सेल्फियों में लिप्त हो
तो समझा जा सकता है कि देश की धार्मिक सांस्कृतिक दिशा और दशा क्या है। ये लोग सफल
हो जाये क्या यह देश के लिए सार्थक होगा?
अपने फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सऐप पर राष्ट्रीय ध्वज की तस्वीर लगा देने से, सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देने से गर्व
का अनुभव करना कोई बुरी बात नहीं लेकिन इससे आगे भी आज समाज और देश में बहुत कुछ
घटित हो रहा है। क्या उसके खिलाफ मंचों से आवाज उठाकर, एक साथ उच्च स्वर में सन्देश देना क्या
वर्तमान आर्यों का कर्त्तव्य नहीं बनता?
19वीं सदी को भारत में धार्मिक एवं
सामाजिक पुनर्जागरण की सदी माना गया है। पाश्चात्य शिक्षा पतित से आधुनिक तत्कालीन
युवा मन चिन्तनशील हो उठा, युवा व वृद्ध सभी इस विषय पर सोचने के
लिए मजबूर हुए। पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित लोगों ने वैदिक सामाजिक रचना, धर्म, रीति-रिवाज व परम्पराओं को तर्क की
कसौटी पर कसना आरम्भ कर दिया। इससे सामाजिक व धार्मिक आन्दोलनों का जन्म हुआ। ऐसे
समय में भारतीय समाज को पुनर्जीवन प्रदान करने के लिए आर्य समाज की स्थापना हुई और
इसके बाद आर्य महासम्मेलनों का उदय हुआ ताकि विश्व भर में फैले आर्यों को सम्मान
देने, एकजुट
होने, परस्पर बोद्धिक
विचारों के आदान-प्रदान, मेल-मिलाप और सामाजिक से लेकर धार्मिक और राजनितिक जीवन में उनके द्वारा
प्राप्त की गयी उपलब्धियों को मनाने और अपनी विराट संस्कृति पर बल देने के लिए लोग
एकत्र हो सकें, उनके द्वारा
किये गए कार्यों की सराहना की जा सके, उन्हें अपने क्षेत्रों में किये गये
कार्यों के लिए सम्मान दिया सके और उनके लिए प्यार जताया जा सके।
पहला आर्य महासम्मेलन सन् 1927 में आयोजित किया गया था। इसके बाद से
आर्य समाज कई स्थानों पर राष्ट्रीय एकता, जन जागरण व विश्व शांति के लिए अपने सब
अनुयायियों व कार्यकर्ताओं को एकत्र कर निरंतर देश और विदेशों में अपनी संस्कृति
अपने वैदिक धर्म का प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से आर्य महासम्मेलन आयोजित
करता आ रहा है। सम्मेलनों की लोकप्रियता बढ़ने के साथ देश-विदेश में आर्य समाज और
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी विचाधारा का फैलाव हुआ जिसके जीते-जागते उदाहरण, बर्मा, नेपाल, आस्ट्रेलिया, सूरीनाम समेत विश्व के अनेक देशों में
सफलतापूर्वक आयोजित हुए अंतर्राष्ट्रीय आर्य महासम्मेलन बने।
किसी भी संस्कृति की प्रगति के लिए जरूरी है उस देश की धर्म और सामाजिक
क्षेत्रां में उसकी भूमिका का आकलन। बिना आकलन और योगदान के तो कोई भी धर्म और
संस्कृति प्रगति नहीं कर सकती। अतः इसके लिए जरूरत है कुछ सम्मेलनों की। आज ऐसे कई
देश हैं जहाँ वह लोग अपनी संस्कृति को सहेजने में नाकाम रहे या फिर पहले के
मुकाबले कई जगहों पर बहुत पिछड़ी हुई है। अंतरार्ष्ट्रीय आर्य महासम्मेलनों के दिन
इन कमियों को दूर करने के लिए, अपने समाज को ध्यान दिलाने के लिए पूरे
विश्व से विचारवान लोग एक साथ एकत्रित होते हैं। समझने-समझाने के लिए कार्यक्रम
प्रस्तुत किये जाते हैं, भाषण और सेमिनार आयोजित किये जाते हैं। उन लोगों को सम्मानित किया जाता है
जिन्होंने सभी असमानताओं से लड़ा और उपलब्धियाँ हासिल कीं।
इस प्रसंग में एक छोटा सा उदाहरण देते हुए हर्ष हो रहा कि वर्ष 2016 नेपाल की राजधानी काठमांडू में
अंतर्राष्ट्रीय महासम्मेलन आयोजित किया गया वहां करीब 10 हजार से ज्यादा लोगों ने इसमें भाग
लिया उसमें अधिकांश नेपाली लोग ऐसे थे जिन्हें महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की
विचारधारा का पता ही नहीं था। वे राम और कृष्ण के साथ अपनी वैदिक संस्कृति को
भूलने के कगार पर बैठे थे लेकिन सम्मेलन में आये आर्य वक्ताओं को सुना, अपनी वैदिक विचारधारा को गहनता से समझा, उनके रक्त में वैदिक विचाधारा का संचार
हुआ तथा वे आर्य समाज से जुड़े। आम नेपाली लोग ही नहीं बल्कि वहां के कुछ सांसद और
बुद्धिजीवी तथा और तो और सम्मेलन स्थल की सुरक्षा में तैनात नेपाली सुरक्षाकर्मी, अधिकारी भी काफी प्रभावित हुए।
शायद इन्हीं चीजों के माध्यम से तो लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजते
हैं। उनका फैलाव करते हैं और अगली पीढ़ी के हाथों तक उसे सुरक्षित थमाते हैं। मसलन
एक मनुष्य के तौर पर हमारा पहला नैतिक कर्त्तव्य यह बनता है कि यदि हमारे पास कुछ
अच्छाई हैं तो उसे समाज के साथ मिलकर अगली पीढ़ी तक जरूर पहुंचाएं।
अतः अपना नजरिया साफ रखें, अहम के टकरावों और दोहरे रवैये से बचते
हुए निराशावादी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाएं तो आने वाले समय में इन्हीं कार्यक्रमों
के माध्यम से राष्ट्र विरोधी, धर्म और संस्कृति विरोधी ताकतों को चुनौती
दे सकते हैं। ऐसे ही कार्यक्रमों का नतीजा है कि आज भारत के दक्षिणी प्रान्त केरल
में वेद अनुसन्धान केन्द्र खोले जा रहे हैं। पूर्वोत्तर भारत में आर्य समाज की
राष्ट्रीय एकता की विचाधारा को संजोने के लिए स्कूल और गुरुकुल खोले जा रहे हैं।
गरीब आदिवासी जनसमुदाय के बच्चों के लिए उनके सहयोग और शिक्षा से संबन्धित योजनाओं
को धरातल पर उतारा जा रहा है। यदि आपस में मिलेंगे नहीं, एक दूसरे से सम्बन्ध नहीं रखेंगे तो
कैसे स्वामी जी के स्वप्न को सार्थक कर सकते हैं? इसमें सभी आर्यों का योगदान जरूरी है
प्रीतिपूर्वक सहयोग की भावना जब प्रबल होगी तभी तो धर्म और संस्कृति की रखवाली हो
सकेगी तभी पाखण्ड और अंधविश्वास, छुआछूत और संस्कृति के विरोधियों से
लड़ा जा सकता है।
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