कला, संस्कृति से लेकर
भगवान और धर्म भी राजनीति के कटघरे में खड़ा नजर आ रहा है। यह स्थिति क्यों बनी
और क्या ऐसी ही स्थिति हमेशा बनी रहेगी? यदि
समय रहते इन
सवालों के हल नहीं खोजे गये तो शायद पश्चाताप के अलावा कुछ नहीं बचेगा। इन दिनों कर्नाटक
धर्म युद्ध का कुरुक्षेत्र बना हुआ है। राजनैतिक पार्टियां इस
कुरुक्षेत्र में आमने-सामने खड़ी हैं। कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार ने विधानसभा
चुनाव से ठीक पहले लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा देने की मांग मान ली
है। इस प्रस्ताव को मंजूरी के लिए केंद्र के पास भेजा गया है। लिंगायत की
मांग पर विचार करने के लिए कुछ समय पहले नागमोहन दास समिति गठित की गई
थी। अब अगर केंद्र की मोहर इस पर लगती है तो भारत में एक और नये धर्म लिंगायत
का जन्म हो जायेगा। जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म के बाद लिंगायत
का जन्म होना सनातन धर्म पर पड़ने वाली ये आधुनिक चोट होगी।
साथ ही सवाल ये भी है कि
लिंगायत कौन है और ये लोग क्यों अपने लिए अलग धर्म की मांग कर रहे हैं? क्या इसका कारण
राजनैतिक है या धार्मिक? उपरोक्त
सभी सवाल
नई बहस और राजनीति को जन्म देने के साथ ही आज सनातन धर्म के मानने वालों से आत्ममंथन
की मांग भी कर रहे है। अगर जातियों, उपजातियों, छुआछुत और सामाजिक भेदभाव
के आधार पर सनातन धर्म से ये शाखाएं इसी तरह टूटती गयी तो सनातन में क्या
बचेगा? क्या
सनातन सिर्फ शब्दों में इतिहास के प्रश्नपत्र
का एक प्रश्न बनकर रह जायेगा?
पिछले वर्ष लिंगायत समुदाय
की पहली महिला जगतगुरु माते महादेवी ने बेलगाव की सभा में लिंगायत की अलग
धर्म के रूप में मांग को लेकर चर्चा को तेज कर दिया था। उसी समय इस
मुद्दे में तेजी आई क्योंकि कर्नाटक चुनाव निकट है अतः सत्तारूढ़ दल ने प्रदेश
में 17 फीसदी
लिंगायत जनसँख्या को वोटों के रूप में
देखते हुए अलग धर्म की मान्यता देने को तैयार हो गये। सामाजिक
रूप से लिंगायत
उत्तरी कर्नाटक की प्रभावशाली जातियों में गिनी जाती है। राज्य के दक्षिणी हिस्से में
भी लिंगायत लोग रहते हैं। लिंगायत का विधानसभा की तकरीबन 100 सीटों पर प्रभाव
माना जाता है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ
नेता बीएस येदियुरप्पा इसी समुदाय से आते हैं। शिवराज सिंह चौहान भी
लिंगायत हैं।
कहा जा रहा है कि 1904 में अखिल भारतीय
वीरशैव महासभा जोकि लिंगायत समुदाय का
प्रतिनिधित्त्व करती हैं के द्वारा आयोजित महासभा में एक
प्रस्ताव पारित किया
गया जिसमें कहा गया कि लिंगायत समुदाय हिन्दू धर्म का ही भाग है किन्तु आज लिंगायत
अपने लिए बौद्ध जैन
और सिखों की तरह स्वतंत्र धर्म की मांग
कर रहे हैं। मांग कुछ भी हो लेकिन पर्दे के आगे धर्म है लेकिन इसके पीछे खड़ी राजनीति
अपना खेल दिखा रही है, क्योंकि
केंद्र सरकार इस पर आसानी से
अपनी मोहर लगाएगी नहीं! इस कारण लिंगायत वोट सत्तारूढ़ दल अपने पक्ष में करने में कामयाब हो
जायेगा। साफ कहें तो दुबारा पांच वर्ष के शासन की महत्वकांक्षा सनातन
धर्म को दो फाड़ कर रही है।
आज भले ही कुछ लोग
लिंगायत की मांग का समर्थन कर इन्हें हिन्दुओं से अलग करने का पुरजोर समर्थन
करके इन्हें राज्य के अन्य हिन्दुओं को अलग-अलग बता रहे हां लेकिन ऑल इंडिया
वीरशैव महासभा के अध्यक्ष पद पर 10 साल
से भी ज्यादा अर्से
तक रहे भीमन्ना खांद्रे जैसे लोग जोर देकर कहते हैं, ये कुछ ऐसा है जैसे इंडिया भारत है
और भारत इंडिया है। वीरशैव और लिंगायतों में कोई अंतर नहीं है। बारहवीं
सदी के लिंगायतों के गुरु बासवन्ना ने अपने प्रवचनों के सहारे जो समाजिक
मूल्य दिए थे, अब
वे बदल गए हैं। हिन्दू धर्म की जिस जाति व्यवस्था का विरोध किया गया था, वो लिंगायत समाज में
पैदा हो गया है।
लिंगायत समाज अंतरर्जातीय
विवाहों को मान्यता नहीं देता, हालांकि
बासवन्ना ने ठीक इसके
उलट बात कही थी। लिंगायत समाज
में स्वामी जी (पुरोहित वर्ग) की स्थिति
वैसी ही हो गई जैसी बासवन्ना के समय ब्राह्मणों की थी।
कहा जाता है सनातन
संदर्भ में धर्म जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है। उसमें सामाजिक और
व्यक्तित्व पक्ष के साथ-साथ ज्ञान और भक्ति क्रिया इन तीनां का सुंदर
समन्वय है। लेकिन यहां धर्म केवल उपासना, पूजा, और ईश्वर पर विश्वास के बजाय राजनितिक
आस्था बना दिया गया है। राजनीति और धर्म दोनों ही ऐसे विषय हैं
जिन्हें कभी भी अलग नहीं किया जा सकता है। चिंतन इस बात पर होना चाहिए कि
राजनीति की दिशा और दशा क्या है क्योंकि ये दोनों ही विषय हर वर्ग के जीवन को
प्रभावित करते हैं। राजनीति और धर्म का संबंध आदिकाल से है। बस हमें धर्म का
अभिप्राय समझने की जरूरत है। वैदिक काल में जब हम जाते हैं तो यही
देखने को मिलता है कि धर्म हमें जोड़ने और जनहित में काम करने का पाठ पढ़ाता
था। यह इतना सशक्त था कि राजा भी इसके विरुद्ध कोई आचरण नहीं कर सकता था।
ऐसा होने पर धर्म संगत निर्णय लेकर राजा को भी दंडित किए जाने की व्यवस्था
थी।
आज भारत में राजनीतिक
दल ही धर्म विरासत के ठेकेदार बन धर्म को दंडित करते दिखाई दे रहे हैं।
धर्म के नाम पर अपनी सत्ता और राजनीतिक मैदान तैयार हो रहे हैं। धर्म ने जो
शिक्षा दी, वह
तो पीछे रह गई। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि राजनीति धर्म के लिए हो रही है या
राजनीति के लिए धर्म की आड़ ली जा रही
है? जहां
धर्म मनुष्य को जोडता है, वहीं
राजनीति ने मानवता को विभाजित कर
दिया है। हालाँकि लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा देने का अंतिम अधिकार केंद्र सरकार के पास
है। राज्य सरकारें इसको लेकर सिर्फ अनुशंसा कर सकती है। लिंगायत को अलग
धर्म का दर्जा मिलने पर समुदाय को मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 25-28) के तहत अल्पसंख्यक
का दर्जा भी मिल सकता है। जो फिलहाल
मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध पारसी और जैन
को अल्पसंख्यक का दर्जा हासिल है लेकिन
कब तक! यदि यही हाल चलता रहा तो एक दिन हिन्दू भी अल्पसंख्यक दर्जा पाने की कतार में
सबसे आगे खड़े दिखेंगे?
चित्र साभार गूगल-लेख राजीव चौधरी
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