कर्नाटक में चिक्कबल्लापुरा जिले के एक गांव में बेटा नहीं होने से दुखी एक
महिला ने अपनी तीन नाबालिग बेटियों के साथ कथित रूप से कुएं में कूद कर खुदकुशी कर
ली। हनुमंतपुरा गांव में 25 वर्षीय
नागाश्री ने अपनी तीन बेटियों नव्याश्री, दिव्याश्री और दो महीने की एक बेटी के
साथ अपनी जान दे दी। नागाश्री की लंबे समय से बेटे की चाहत थी और बेटे को जन्म
नहीं देने की वजह से वह दुखी रहती थी। हालाँकि बताया जा रहा की नागाश्री पर कोई
पारिवारिक दबाव नहीं था लेकिन सामाजिक दबाव न हो इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता।
इस तरह के अधिकांश मामलों में कोई न कोई एक ऐसा दबाव जरूर होता हैं जिसके कारण
इन्सान आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मजबूर हो जाता है।
दरअसल भारतीय समाज में जितने भी दुःख है अधिकांश दुःख की जड़ का मूल अशिक्षा
और अन्धविश्वास है। कई बार इन्सान भले ही अंधविश्वास से बचना भी चाहे लेकिन हमारे
इर्द-गिर्द जमा समाज उसकी ओर धकेल ही देता है। नागाश्री का मामला भले ही पुलिस के
लिए केस, उसके
परिवार के विपदा और समाज के लिए एक खबर हो। पर यह तीनों चीजें एक ही सवाल छोड़ती
नज़र आती हैं जो हमेशा से समाज के गले में डाला गया है कि ‘बेटे के हाथों पिंडदान न हो तो मोक्ष
नहीं मिलता। जब तक चिता को बेटा मुखाग्नि नहीं देता, आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती।’ आज भी हमारे देश की जनसंख्या का एक
बहुत बड़ा हिस्सा मोक्ष के जाल में उलझा हुआ है। मोक्ष यानी आत्मा का जन्मजन्मांतर
के बंधन से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाना।
अंधविश्वास की नगरी में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता
मानी गई है। गरुड़ पुराण के अनुसार, ऐसी
मान्यता है कि पुत्र के हाथों पिंडदान होने से ही प्राणी मोक्ष को प्राप्त करता
है। पुराण के अनुसार, मोक्ष से
आशय है पितृलोक से स्वर्गगमन और वह पुत्र के हाथों ही संभव है। इस वजह से हमारे
समाज में एक धारणा बनी हुई है कि प्रत्येक माता पिता के एक लड़के का जन्म तो होना
ही चाहिए। जिसके बेटा नहीं होता उसे अभागा तक समझा जाता है। लड़के की यह चाहत न
चाहते हुए भी परिवार में संतानों की संख्या और देश की जनसंख्या बढ़ा रही है जो बाद
में देश में बेरोजगारी बढ़ाने और साथ ही एक सामान्य आय वाले परिवार की आर्थिक
स्थिति को बिगाड़ने का काम करती है।
पिछले कुछ सालों में भले ही कानून के डंडे के डर से ‘‘शर्तिया लड़का ही होगा’’ वाले हकीम भूमिगत होकर अपना व्यापार
चला रहे हों लेकिन पांच-सात साल पहले तक सड़कों के आसपास दीवारों, चौराहों, खेतों में बने ट्यूबवेल के कमरों, आदि पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा होता
था ‘‘शर्तिया
लड़का ही होगा मिले श्रीराम औषधालय घंटाघर मेरठ’’ हालाँकि ये व्यापार अभी पूर्णतया बंद
नहीं हुआ अभी भी लड़का पैदा करने के कई नुस्खे भी काम में लिए जाने लगे हैं। शातिर
लोग तो इस चीज के विशेषज्ञ बने बैठे हैं और बड़े-बड़े पढ़े लिखे लोग लड़के की चाहत में
इनकी सेवाएं लेने से नहीं चूकते।
जबकि इनका खेल केवल संभावना के सिद्धांत के आधार पर चलता है। जब इनकी दवा के
प्रयोग के बाद लड़का पैदा हो जाता है तो यह उसे एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते
हैं। मोटी रकम वसूल करते है और जब परिणाम विपरीत आता है तो दवा के प्रयोग करने में
गलती होना बताकर या उसकी किस्मत खराब बताकर सारा दोष प्रयोग करने वाली महिला का
बता देते हैं। जब सब प्रयासों के बाद भी लड़का पैदा नहीं होता तो महिला अपने आपको
कोसती है और कई बार तो कुछ कर्नाटक की नागाश्री जैसे भी कदम उठा देती है।
आप किसी से भी पूछिए कि आखिर लड़का होना क्यों जरूरी है? तो इस प्रश्न के ये जबाब कुछ यूँ
मिलेंगे कि साहब लड़के से ही वंश चलता है, लड़का बुढ़ापे का सहारा होता है लड़की तो
पराई होती है आदि-आदि रटे रटाये जवाब मिलते हैं। जबकि मेरे एक दूर के रिश्तेदार ने
लड़के की चाहत में 6 लड़कियां
पैदा कि बाद में एक लड़का हुआ लेकिन वह लड़का आज नशे, चोरी आदि में लिप्त है और उन बूढ़े
माँ-बाप की देखभाल लड़कियां ही कर रही हैं। किसके यहाँ लड़का पैदा होगा और किसके
यहाँ लड़की इसका निर्धारण हमारे वश में नहीं है और न ही इस बात की कोई गारन्टी है
कि जिसके यहाँ बेटा है उसकी जिंदगी सुखी है और बेटी वाला दुखी है। जो चीज हमारे वश
में न हो उसके लिए कभी विचार नहीं करना चाहिए और जो प्रकृति से हमें मिला है उसका
आनन्द लेना चाहिए।
अलबत्ता तो मृत्यु के बाद मोक्ष की अवधारणा ही कल्पना मात्र है और इस के
लिए भी पुत्र की अनिवार्यता महज अधविश्वास द्वारा फैलाया गया भ्रमजाल है। ऐसा कोई
काम नहीं जो पुत्र कर सके और पुत्री नहीं। आखिर हैं तो दोनों एक ही माता-पिता की
संतान। पर यह समझाया जाता है कि बेटे पर अपने उन पितरों का ऋण है जो उसे इस दुनिया
में लाए थे। यह भी कि यह ऋण उतारना उसकी नैतिक जिम्मेदारी है वरना उस के पूर्वजों
की अतृप्त आत्माएं भटकती रहेंगी। मगर पुत्र ही क्यों? पुत्री भी तो इन्हीं पूर्वजों द्वारा संसार में लाई गई हैं
तो पितृ)ण तो उस पर भी होना चाहिए। अंधविश्वास ने मृत्यु के बाद का एक काल्पनिक
संसार रच दिया है। जबकि इस देश में बहुतेरे ऋषि, मुनि, धर्म ज्ञाता ऐसे भी हुए हैं जिनको
संतान नहीं थी क्या वे सब मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं? आखिर किसने चिता के बाद की दुनिया देखी
है? ‘‘कौन दावे
से कह सकता कि मरने के बाद क्या होता है?’’ लेकिन फिर भी पुत्र पैदा करने के लिए
मानसिक दबाव बनाया जाता है। जिस कारण कोई महिला तांत्रिकों की हवस शिकार बनती है
तो कोई मौत का?.......विनय आर्य
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