केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को जाने से न धर्म रोकता सकता है न
संविधान यदि उसे कोई रोक रहा है तो केवल एक सोच और परम्परा जो सदियों पहले कुछ
तथाकथित धर्मगुरुओं द्वारा स्थापित की गयी थी। महाराष्ट्र में शनि शिगणापुर मंदिर
और मुंबई में हाजी अली दरगाह में महिलाएं प्रवेश की जद्दोजहद लगी थीं। अब केरल के
सबरीमाला मंदिर में जाने की इजाजत मांग रही हैं। एक तरफ देश की बेटियां जहाँ आज
ओलम्पिक से पदक लेकर लौट रही हो, विदेशों
में राजदूत बनकर, रक्षा
मंत्री से विदेश मंत्रालय तक का पद सम्हालते हुए देश का प्रतिनिधित्व करने के
साथ-साथ देश की सेना में शामिल हो, जल थल और अंतरिक्ष तक में देश की रक्षा
के लिए खड़ी हैं लेकिन दूसरी तरफ उसे उसके धार्मिक अधिकारों से वंचित रखा जाता हो
तो एक देश समाज के लिए यह शर्मनाक बन जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक से
संबंधित मामला हाल ही में अपनी संविधान पीठ को भेज दिया है। जिसकी सुनवाई प्रधान
न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ करेगी। दरअसल
सबरीमाला मंदिर में परंपरा के अनुसार, 10 से 50 साल की महिलाओं की प्रवेश पर प्रतिबंध
है। मंदिर प्रबंधन की मानें तो यहां 1500 साल से महिलाओं का प्रवेश प्रतिबन्धित
है। इसके कुछ धार्मिक कारण बताए जाते रहे हैं। जैसे पिछले दिनों मंदिर प्रबंधन ने
सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि 10 से 50 वर्ष की आयु तक की महिलाओं के प्रवेश
पर इसलिए प्रतिबंध लगाया गया है क्योंकि मासिक धर्म के समय वे ‘‘शुद्धता’’ बनाए नहीं रख सकतीं। यह परंपरा सदियों
से चली आ रही है और मंदिर प्रबंधन इसे बनाये रखना चाहता है।
हालाँकि सर्वोच्च अदालत ने इससे पहले सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश
को वर्जित करने संबंधी परंपरा पर सवाल उठाते हुये कहा था कि वह इस बात की जांच
करेगा कि क्या ‘आस्था और
विश्वास’ के आधार
पर लोगों में अंतर किया जा सकता है? और सवाल उठाते हुए पूछा है कि क्या यह
परम्परा महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव नहीं है?, क्या यह धार्मिक मान्यताओं का अटूट
हिस्सा है जो टूट नहीं सकता?और क्या
ये परम्परा संविधान के अनुच्छेद 25 यानी
धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का हनन नहीं है?
देश की स्वतंत्रता के इन सात दशकों में महिलाओं के हालात कितने बदले? वे धार्मिक रूप से कितनी स्वतंत्र हो
पाई हैं? कथित
धार्मिक, सामाजिक
जंजीरों से बंधी उस महिला को क्या पूजा उपासना की भी इजाजत नहीं मिलेगी, उनकी धार्मिक इच्छाओं का कोई मोल नहीं
है? भले ही आज
अपने अधिकारों को लेकर वे समाज को चुनौतियां दे रही हां लेकिन शनि शिगणापुर और
हाजी अली दरगाह के बाद यह घटना चौकाने वाली है। यह भेदभाव देश में कई जगह आज भी
मौजूद हैं। बिहार के नालंदा का माँ आशापुरी मंदिर भी इसी कतार में खड़ा है। जहाँ 21वीं सदी के इस भारत में आज भी नवरात्रि
में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। उनकी कथित परम्परा के अनुसार वहां 9 दिनों तक महिलाएं प्रवेश नहीं पा
सकतीं। उनका मानना है कि महिलाएं तंत्र सिद्धि में बाधक होती हैं।
नवरात्रि में मां, महिला और
कन्याओं की पूजा करने वाले देश के सामने इन कथित धर्मगुरुओं का यह धार्मिक
एकाधिकार का सवाल भी मुंह खोले खड़ा है। मध्यप्रदेश के दतिया की पीतांबरा पीठ भले
ही इस पीठ के ट्रस्ट की प्रमुख राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया हैं, लेकिन यह मंदिर भी सुहागिनों के लिए
प्रतिबंधित है। ऐसा कहा जाता
है कि मां धूमावती विधवाओं की देवी हैं। यदि थोड़ा आगे बढें़ तो तमिलनाडू के मदुरे
के येजहायकथा अम्मान मंदिर में तो परम्परा के नाम पर और भी शर्मनाक कार्य होता है
यहाँ सात या उससे अधिक छोटी लड़कियों को देवी की तरह सजाकर उनके ऊपरी वस्त्र उतारकर
पन्द्रह दिनों तक पूजा की जाती है। हालाँकि इस बार प्रशासन की सख्ती के कारण पुरे
वस्त्र पहनाये गये थे।
रोजाना की जिंदगी के छोटे-छोटे निर्णयों में भी धर्म और परम्पराओं के नाम
पर महिलाओं को नियंत्रित किया जा रहा है, क्या ऐसे में एक महिला इस भेदभाव को महसूस नहीं करती होगी? एक तरफ आर्य समाज महिलाओं की शिक्षा, स्वतंत्रता, समानता और उनके बुनियादी अधिकारों को
लेकर खड़ा है तो दूसरी ओर महिलाओं को दोयम दर्जे की वस्तु मानने वाले कथित धार्मिक, सामाजिक विधि-विधान, प्रथा-परम्पराएं, रीति-रिवाज और अंधविश्वास जोर-शोर से
थोपे जा रहे हैं और बेशर्मी देखिये कि इन कृत्यों को यह लोग सनातन परम्परा का अंग
बताने से नहीं हिचकते।
क्या यह लोग बता सकते हैं कि देश में नारियों पर बंदिशें धर्म ने थोपीं या
समाज के ठेकेदारों ने? यदि धर्म
ने थोपी तो वैदिक काल का एक उदहारण सामने प्रस्तुत करें, शिक्षा और स्वतंत्रता से लेकर वर चुनने
का अधिकार देने वाले सनातन वैदिक धर्म के नाम पर आचारसंहिता लागू कर फतवे जारी
करने वाले लोग आज इसे धर्म से
जोड़ रहे हैं। अपनी स्वरचित परम्परा लेकर उसके आत्मविश्वास पर हमला कर रहे हैं। कन्या जब पैदा होती है, तो कुदरती लक्षणों को अपने अंदर लेकर
आती है। यह उसका प्राकृतिक हक है। फिर एक प्राकृतिक व वैज्ञानिक प्रक्रिया से
जोड़कर उसे अपवित्र बताने वाले क्या ईश्वर के बनाये विधान का अपमान नहीं कर रहे हैं? पुरुष की तरह ही ईश्वर ने उसे भी
मनुष्य बनाया है यानि पुरुष का विपरीत लिंगी। ईश्वर ने कोई भेदभाव उसके साथ नहीं
किया, विज्ञान
से उसे मनुष्य जाति में पुरुष के मुकाबले ज्यादा महत्वपूर्ण माना, वेद ने उसे लक्ष्मी और देवी की संज्ञा
देते हुए नारी को समाज निर्माण का प्रमुख अंग बताया पर इन कथित धर्म के ठेकेदारों
की यह सोच आज भी गहराई तक जड़ें जमाए है कि वह अपवित्र है। यदि स्त्री अपवित्र है
तो क्या एक माँ, बहन और
पत्नी भी अपवित्र है?
राजीव चौधरी
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