लगता है, पूरी दुनिया
का इस्लाम और ईसाइयत भारत से भिन्न है| भारतीय संविधान धर्म की
स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जो किसी अन्य देश में नहीं मिलती| किन्तु फिर भी इन पंथो के धार्मिक ठेकेदारों को झूठ, फरेब और धोखे से भरी अपनी धर्मिक
नींव हमेशा खिसकती दिखाई देती है| किन्तु यह लोग कब तक जनमानस की बुद्धि पर राज
करेंगे? एक ना एक दिन तो इनके भ्रम का जाल हटेगा ही| ज्ञात हो पिछले दिनों योग पर
ओ३म के उच्चारण को लेकर इस्लाम जगत से जुड़े कुछ लोगों ने अतार्किक बयान मीडिया के
सामने रखते हुए कहा था कि योग के दौरान ओ३म का उच्चारण करने से हमारे मजहब को खतरा
है| बिलकुल ठीक ऐसा ही बयान देते हुए मिजोरम के 13 चर्च प्रमुखों ने चर्च के
सदस्यों को योग से दूर रहने को कहा है। उनका कहना है कि इसका उपयोग ईसाइयों को
धर्मपरिवर्तन कराने के लिए किया जा सकता है। मिजोरम सिनॉड ऑफ प्रेस्बीटेरियन चर्च के वरिष्ठ कार्यकारी सचिव रेव ललरैमलियाना पचुउ ने कहा कि चर्च के लिए योग कुछ ऐसा है जो ईसाइयों में नहीं माना जा सकता है। चर्चों के संगठन एमकेएचसी को सदस्यों के लिए संदेश देने को कहा गया है। एमकेएचसी, योग को ईसाई धर्म की शिक्षा और विश्वास के खिलाफ मानती है। अत: हम इस निर्णय पर पहुंचे कि योग हिंदू संस्कार है, जो कि ईसाई धर्म में मिश्रित नहीं हो सकता है। योग किसी स्वास्थ्य में लाभदायक हो सकता है मगर यह ईसाईयों के अपने तरीकों से मेल नहीं खाता है।
ललरैमलियाना पचुउ के
बयान के बाद समूचे इसाई जगत से कई प्रश्न खड़े हो गये है| कि जब ईसाइयत के ठेकेदार
अमरीका, यूरोप के पादरियों को योग से कोई खतरा नहीं तो फिर भारत की इसाईयत को किस
बात का खतरा है? या फिर भारत की ईसाइयत की बुनियाद नवनिर्मित है इसके ढहने का भय
है| हो सकता है, इनकी चिंता का विषय यह भी हो कि गरीब आदिवासी इलाकों में धन का
लालच देकर, ढोंग या चमत्कारिक पाखण्ड दिखाकर जिन लोगों को उनके मूल धर्म से भटकाया
है कहीं वो फिर वापिस अपनी मूल सस्कृति में ना चले जाये और इन लोगों को धर्मपरिवर्तन
के लिए विदेशो से मिलने वाली राशि बंद ना हो जाये! किन्तु इसमें योग को दोष क्यों?
दोष यदि कहीं है तो इन लोगों की अंतरात्मा में बैठे धूर्त कपटी स्वभाव में है| मिजोरम
में हिन्दू समुदाय मात्र 2.7 प्रतिशत हैं। 2001 में वहां 3.55 प्रतिशत हिन्दू थे लेकिन
लेकिन बीते दस सालों उनकी आबादी में गिरावट आई है।
आज़ादी के समय मिज़ोरम, मेघालय और नागालैंड की आबादी हिन्दू बहुल थी, जो कि अब 60 साल में विदेशी मिशनरीयों के भरपूर सहयोग के
कारण ईसाई बहुसंख्यक बन चुके है और हिन्दू वह अल्पसंख्यक बन कर रह गए हैं। इस सबमे गौर करने लायक बात यह है कि भारत जैसे
विकासशील देशों में इन मिशनरियों को सहयोग पहुँचाने वाले व्यक्ति को अक्सर
पुरस्कारों से नवाजा जाता है|
मदर
टेरेसा को शांति का नोबल और संत की उपाधि से नवाज़ा जा चुका है, बिनायक सेन को कोरिया का शांति पुरस्कार दिया गया, अब इन महोदय का नामांकन भी जैसे तैसे कर दिया जायेगा मैगसेसे हो, नोबल हो या कोई अन्य शांति पुरस्कार हो! इनके मिशनरियों के अनुसार सिर्फ़ सेकुलर
व्यक्ति ही सेवा और शांति के लिए
काम करते हैं| तभी आज तक एक भी हिन्दू धर्माचार्य, हिन्दू संगठन, हिन्दू स्वयंसेवी
संस्थाएं जो कि समाज के लिए सेवा व् जागरूकता के लिए काम करने इन पुरस्कारों से
अछूते रह गये| आखिर क्यों? क्या धर्मांतरण के गोरखधंधे में लगे विश्व भर में काम
करने वाले अपने कर्मठ कार्यकर्ताओं,
को पुरस्कार के रूप में "मेहनताना" पहुँचाने के लिये ही इन पुरस्कारों का गठन किया गया है? अंधविश्वास और धार्मिक कट्टरता को अब तक किसी से कोई डर नहीं था, न तो विज्ञान से और न ही तर्कों से। यह लोग खुलेआम अपना धंधा कर रहे थे लेकिन अब योग के बढ़ाते प्रभाव के कारण इन क्षेत्रों में खलबली मचने लगी है। योग में मामले पर चिकित्सा विज्ञान के
जानकार भी एक साथ हो रहे है| ऐसे में इन लोगों का डर स्पष्ट दिखाई दे रहा है| क्योकि अब
विज्ञान जितना आगे जायेगा उतना ही वैदिक धर्म को लोग स्वीकारते जायेंगे|....लेख राजीव चौधरी
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