लातूर की रहने वाली मोहिनी ने अचानक इस
साल 16 जनवरी को दुपट्टे से फांसी लगाई और मर गईं| मोहिनी तो मौत की
गोद में सो गयी किन्तु उसका लिखा सुसाइड नोट जिन्दा लोगों की आत्मा झझकोरने के लिए
काफी है मोहिनी लिखती है कि, "यह सब आत्मा की शांति के लिए करते हैं
लेकिन मैं अपनी ख़ुशी से यह क़दम उठा रही हूँ|
ख़ुशी होगी कि मैंने दहेज़ और शादी पर आपके जो
रुपए ख़र्च हो जाते, उन्हें बचाया है| आख़िर कब तक बेटी वाले वाले बेटे वालों के
आगे झुकते रहेंगे?" ये प्रश्न जरुर उस समाज के मुंह पर तमाचे जैसा है जो हमेशा दहेज
विरोधी होने का दंभ भरता रहता है| कुछ समय पहले तक लगता था जैसे –जैसे समाज
शिक्षित होगा ये दहेज रूपी कुप्रथा का भी अंत हो जायेगा| किन्तु ऐसा नहीं हुआ और
यह कुप्रथा समय के साथ और मजबूत होती चली गयी| आमतौर पर हमारे देश में गाँवो से
लेकर शहरों तक सब दहेज विरोधी है, जब दहेज विरोध की बात आती है सब एक सुर में
बोलते भी है कि दहेज जैसी बीमारी बंद होनी चाहिए| किन्तु जब बात अपने बेटे या बेटी
की शादी की आती है तो यह कुप्रथा मान सम्मान का रूप धारण कर लेती है|
नब्बे के दशक से बड़े स्तर पर दहेज प्रथा के खिलाफ
जनजागरण अभियान चलाये गये बसों, ट्रको आदि से लेकर दीवारों पर स्लोगन लिखकर लोगों
को जागरूक करने का काम किया गया| किन्तु नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा और दहेज के
आग में बेटियां झुलसती चली गयी| आखिर दहेज की असली बीमारी छिपी कहाँ है? कहीं लोग सच
में तो दहेज लेना- देना पसंद तो नहीं करते है? जो यह बीमारी अपनी जगह यथावत खड़ी
है| इस बीमारी को फ़ैलाने में मीडिया की दोहरी भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा
सकता जैसे पिछले दिनों भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाडी रविन्द्र जडेजा को उसके ससुर
द्वारा एक करोड़ की गाड़ी दिए जाना मीडिया की नजरों में गिफ्ट था| किन्तु यदि कोई
मध्यम वर्ग के तबके में इस तरह के लेन-देन हो तो उसे दहेज बताया जाता है| आखिर ऐसा
क्यों? सब जानते है हमेशा छोटा वर्ग अपने से बड़े वर्ग का अनुसरण करता है यदि बड़ा
शिक्षित, संपन्न वर्ग दिखावा करने को या अपने गुणगान को ऐसे कृत्य करेगा तो
निश्चित ही छोटा वर्ग उसके पदचिन्हों पर चलेगा|
दूसरा पिछले दिनों लक्ष्मी नगर मेट्रो स्टेशन
पर एक लड़की ने ट्रेन के आगे कूदकर इसलिए अपनी जान दे दी थी कि वो जिस लड़के से प्रेम
विवाह करना चाहती थी वो लड़का अपनी माँ के कहने पर दहेज में गाड़ी की मांग कर रहा
था| गाड़ी देने में लड़की पक्ष असमर्थ हो गया और अंत में लड़की ने आत्महत्या को सरल
रास्ता समझा| समझने के लिए काफी है कि दोनों के मध्य उपजे प्रेम सम्बन्ध भी दहेज
प्रथा को झुका न सके! आमतौर पर पुरुष समाज को दहेज का लोभी माना जाता रहा है जबकि
इसमें एक बड़ी भागीदारी महिला समाज की है| एक सास को दहेज चाहिए, एक ननद, देवरानी,
जेठानी सबको दहेज चाहिए यदि नारी जाति अपने परिवारों में दहेज के खिलाफ खड़ी हो
जाये तो हमारा मानना है इस कुप्रथा पर काफी हद अंकुश लग सकता है| अलबत्ता ऐसा नहीं है कि आत्महत्या की
बढ़ती घटनाओं के लिए सिर्फ दहेज प्रथा ही दोषी है कई बार गृहस्थ के जीवन में बढ़
रही निराशा, संघर्ष करने की घटती क्षमता और जीने की इच्छाशक्ति की कमी की ओर भी
संकेत करती हैं। कुछ दिन पहले हरियाणा फतेहाबाद जिले के भूना कस्बे में कल दो सगी बहनों ने गोली मारकर आत्महत्या कर ली
थी आत्महत्या करने वाली दोनों सगी बहनें कोमल और शिल्पा। बेहद पढ़ी-लिखी एमए, एमकॉम और MBA की डिग्री होल्डर थी। लेकिन उनके सुसाइड
की जो वजह सामने आई.. उसे जानकर हर कोई सन्न था किसी को यकीन नहीं हो रहा क्या ऐसा भी हो सकता
है। नौकरी नहीं मिली
तो जान दे दी!! दहेज की तरह यह भी कड़वा सत्य है कई
बार लोग समाज और अपने रिश्तेदारों की अपेक्षाओं पर खरा न उतरने के कारण भी निराशा
में आत्महत्या कर लेते हैं। लेकिन इसे हम
कुप्रथा नहीं निराशावाद या अच्छे संस्कारो की कमी भी कह सकते है
मौजूदा
समय के भौतिकवादी माहौल ने लोगों की
महत्वाकांक्षाओं और अपेक्षाओं को काफी बढ़ा दिया है। अधिकांश माता-पिता और रिश्तेदार भौतिक संसाधनों को मान-सम्मान
से जोड़ देते हैं। जिन परिवारों की लड़कियों को मनपसंद वर मिलने की चाह पूरी नहीं
होती ससुराल में स्वतन्त्रता के साथ अपेक्षाएं पूरी नहीं होती हैं तो वो युवतियां जिंदगी से ही मायूस होकर खुद को दोषी समझकर आत्महत्या का रास्ता चुन लेती
है। आज अच्छे वर का मतलब परिवारों और संस्कारों के बजाय पैसे से तोलकर देखा जाने
लगा है| मसलन ऐसा समझा जाने लगा है कि यदि मेरी जेब खूब पैसा है तो में अपनी ओलाद
के लिए किसी को भी खरीद सकता हूँ!! जबकि सब जानते जीवन की सच्ची खुशियाँ या
पारिवारिक संस्कार पैसो से नहीं खरीदे जा सकते है, पैसो से इन्सान तो खरीद सकते है जीवन की खुशियाँ नहीं!! राजीव चौधरी
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