घाटी में एक बार फिर से राजनितिक हलचल है| इस
बार जम्मू-कश्मीर की सीएम महबूबा मुफ्ती ने गांदरबल जिले में तुलमुला के क्षीर
भवानी मंदिर में पूजा की। महबूबा के इस कदम को राजनैतिक हलके भले ही पंडितों के
बीच पीडीपी की पहुंच को बढ़ाने के तौर पर देख रहे हो किन्तु उनके इस बयान “पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है” ने विस्थपित कश्मीरी पंडितो के चेहरे
पर कुछ पल को ही किन्तु मुस्कान जरुर भर दी है| हालाँकि इस बयान से अभी उनके
विस्थापन का रास्ता साफ नहीं माना जा रहा है क्योकि कश्मीर में अलगाववादी गुटों ने
कश्मीरी पंडितों को दोबारा कश्मीर में बसाने के सरकार के फैसले का शन्तिपूर्ण
विरोध करने का फैसला लिया है| सब जानते है लोकसभा चुनाव और जम्मू कश्मीर विधान सभा
चुनाव में बीजेपी ने कश्मीरी पंडितों को वापस घाटी में लाने का वादा किया था| शायद
इसी कारण गठबंधन की पीडीपी सरकार केंद्र के सामने लगातार झुकती दिखाई सी दे रही है|
अधिकारियों का कहना है कि वे वापस आने वाले कश्मीरी
पंडितों के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाएंगे जहां वे सुरक्षित रह सकें| लेकिन इस
योजना को उस वक्त घक्का पहुंचा जब कई लोगों ने सरकार पर यह आरोप लगाना शुरू किया
कि सरकार “फिलिस्तीन में इसराइल जैसी व्यवस्था” बनाने की कोशिश कर रही है| किन्तु
अधिकारियों के लिए सबसे बड़ी समस्या यह पैदा हो गई है कि कश्मीरी अलगाववादी नेता
मीरवाइज उमर फारूक, यासीन मलिक और सयैद अली शाह गिलानी ने
सरकार के इस फैसले के खिलाफ आपस में हाथ मिला लिए हैं| कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति
के अध्यक्ष संजय टिक्कू का कहना है कि घाटी छोड़ने वाले 95 फीसदी हिंदुओं ने अपने घर और जमीन बेच
दिए हैं इसलिए जाहिर है कि वे अपने पुराने घर में तो नहीं लौट सकते हैं| इसलिए सरकार
को उनके लिए अलग व्यव् कर देनी चाहिए| लेकिन मीरवाइज उमर फारूक ने बीबीसी से कहा, हम चाहते हैं कि कश्मीरी पंडित वापस आए
हर कश्मीरी मुसलमान इस पर सहमत है हम मानते हैं कि यह एक मानवीय मुद्दा है|
पंडितों को वापस आने का हक है| और सरकार को उन्हें बसाने के लिए अच्छा मुआवजा देना
चाहिए लेकिन हम विशेष तरह की व्यवस्था के खिलाफ है क्योंकि यह कश्मीरियों में गहरी
दरार पैदा करेगा|हालाँकि इस बात को सब जानते है कश्मीरियों में दरार भी इन्हीं
अलगाववादियों की वजह से आई थी| इस आलोचना के बाद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने
अपने फैसले को लगभग बदलते हुए इस बात पर जोर दिया कि वो कश्मीरी पंडितों के तब तक
सिर्फ रहने की जगह मुहैया कराने की बात कर रही थीं जब तक कि वे अपना घर ना तैयार
कर लें| लेकिन घाटी में बहुत सारे लोग उनकी इस सफाई से सहमत नहीं हैं|
संजय टिक्कू कहते हैं, कि पल भर में हालात नहीं बदल सकते हैं 2008
में सरकार ने अमरनाथ हिंदू श्राइन बोर्ड को जमीन आवंटित करने का फैसला किया था
जिसे लेकर कई दिनों तक विरोध-प्रदर्शन होते रहे थे| एक हिंदू के तौर पर यहां मुझे
उस वक्त काफी असुरक्षा महसूस हुई थी|मेरे मुसलमान पड़ोसी जब मुझे देखते थे तो मुझे लगता
मैं 1990 के चरमपंथ के दौर में चला गया हूँ| आज
घाटी में सिर्फ 2764 हिंदू बचे रह गए हैं जो अपने ही देश में
खोफ के साये में जीने को विवश है|आज की पीढ़ी के मुसलमान नौजवानों और पंडितों के
बीच उतना जुड़ाव नहीं है| आखिर कश्मीरी चरमपंथी
मुस्लिम युवा कैसे स्वीकार करेंगे कि विस्थापित पंडित इसी घाटी का हिस्सा है,
संजय टिक्कू का मानना है कि घाटी छोड़कर गए लोग
अब घाटी में इन लोगों के कारण जीवन के दबाव को नहीं झेल पाएंगे और परेशानी आते ही
दोबारा से भाग खड़े होंगे| मैं सोचता हूं
कि इसका हल एक ऐसे स्मार्ट सिटी को बनाकर निकाला जा सकता है जिसमें पचास फीसदी घर
पंडितों के लिए हों और बचे हुए घर मुस्लिम, सिख और दूसरे हर पंथ के लिए हों जो वहां शांति से रहना चाहता है तब
जाकर हम यहां एक सच्ची साझा संस्कृति वाले समाज का निर्माण कर पाएंगे| वरना वहां
इस माहौल में साझे निर्माण की बात करना बेमानी होगा| आखिर इस हाल में कैसे होगा
साझा निर्माण?
आज करीब तीन से 4
लाख कश्मीरी पंडित संघर्ष कर रहे है| उन्हें नहीं पता वो किसके खिलाफ संघर्ष कर
रहे अपने देश के निति निर्मातों के खिलाफ या चरमपंथियों के खिलाफ? क्योकि अब यदि अलगाववादी गुटों की बात
मान भी ली जाये तो क्या गारंटी है कि मिश्रित आबादी होने से 26 सालों से दिलो जमी मेल कुछ पल में दूर
हो जाएगी और चरमपंथी अलगाववादी दल चेन से जीने देंगे? क्या यहां के बहुसंख्यक
मुस्लिम ये चाहते हैं कि कश्मीरी पंडित अपने घरों को लौटें? और एक ऐसा माहौल बने कि चिनाब झेलम के
पानी में चरमपंथियों की मजहब की नफरत की आग के बजाय 26 सालों से पंडितों के रिसते जख्मों को
दो ठंडी बूंद सवेदना की मिल जाये?....चित्र और आंकड़े बीबीसी से साभार ...लेख राजीव चौधरी
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