यूरोप का विघटन शुरू हो गया ब्रिटेन
के बाद जनमत संग्रह कराकर लन्दन को भी अलग देश बनाकर पाकिस्तानी मूल के सादिक खान को राष्ट्रपति
बनाने की मांग जोर शोर से उठने लगी है| ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से बाहर आना इसकी
शुरुवात का हिस्सा भर है, अभी तो नीदरलैंड्, आयरलैण्ड व् अन्य कई देश इससे बाहर
आने को आतुर होंगे| सब जानते है पिछली एक शताब्दी में यूरोपियन समुदाय की दौलत
जितनी तेजी से बढ़ी है उतनी ही
तेजी से विश्व की मुसलिम जनसंख्या बढ़ी है। सन 1900
में जहाँ मुस्लिम समुदाय विश्व की जनसंख्या का साढ़े
बारह प्रतिशत थे आज वहीं उनकी संख्या पचीस प्रतिशत से अधिक हैं। यूरोप
जितना भोतिक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा उतना ही इस्लामिक समुदाय अपनी जनसँख्या
के कारण एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरकर आया| फ्रेन्च विश्लेषक माइकल गुरफिन्केल का
अनुमान है कि आने वाले वर्षो में यूरोप के देशों में स्वदेशियों की नई पीढ़ी और आप्रवासी मुस्लिमों की
नई पीढ़ी में सड़कों पर आमने-सामने का संघर्ष होगा। यदि वर्तमान स्तिथि यही रही तो समस्त
देश 2050 तक
इसी रास्ते पर चले जायेंगे।
हो सकता इस त्रासदी का अंदाजा अमेरिका को हो तभी उसने ब्रिटेन से यूरोपीय संघ (ईयू) में बने रहने की अपील की है। कुछ विस्लेशको की राय माने
तो अमरीका का मानना है यदि ब्रिटेन यूरोपीय
संघ से बाहर निकलेगा तो उसके पश्चिम के कमजोर होने की आशंका उत्पन्न हो जाएगी। ब्रिटेन के संघ में बने रहने से आतंकवाद, आव्रजन
और आर्थिक संकट जैसी चुनौतियों से सफलतापूर्वक निपटा जा सकेगा। आखिर एकाएक यूरोपीय संघ पर टूटने का खतरा क्यों मंडराने लगा
है। इसका मुख्य कारण शरणार्थी संकट माना जाता है? शरणार्थियों के प्रवेश ने मंदी से जूझ
रहे यूरोपीय देशों, ग्रीस, तुर्की, जर्मनी, साइप्रस, इटली और स्पेन पर न सिर्फ आर्थिक संकट पैदा कर दिया है,
बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सामुदायिकता से संबंधित समस्याएं सिर उठाने लगी हैं। लगातार आ रहे शरणार्थियों के बीच
आतंकवादियों के छिपकर प्रवेश करने का खतरा बढ़ गया
है। सवाल है संघ के सदस्य देशों में यह नाराजगी क्यों
पैदा हुई? इसकी वजह यह रही कि जर्मनी सहित अनेक यूरोपीय देशों में शरणार्थियों के
प्रति नरम रुख अपनाया लिया और उनकी
संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होने लगी कि उसे संभालना मुश्किल हो गया। इससे इन देशों में कई समस्याएं उत्पन्न हो गईं|
पिछले साल यूरोपीय संघ की बैठक में 160,000
शरणार्थियों को
सदस्य देशों के बीच बांटे जाने के मुद्दे पर बात हुई
थी। तब इस समस्या के जटिल होने की चेतावनी
दी गई थी। शरणार्थियों की बाढ़ आने से स्थानीय निवासियों ने
शिकायत की थी कि इनसे अपराध में बढ़ोतरी, आम उपयोग की वस्तुओं की कीमत में उछाल जैसी समस्याएं आ रही हैं। इस बीच स्वीडन,ब्रिटेन,जर्मनी आदि देशों में शरणार्थियों पर हमले होने की खबरें भी आईं,फिर
इन्हें रोकने के लिए सुरक्षा बल तैनात किए गए। स्थानीय स्तर पर लोगों में उनके प्रति घृणा और हिंसा की भावना
देखी गई। यदि लगातार गंभीर हो रही इस समस्या का समय रहते, आपसी समझदारी से समाधान नहीं निकाला
गया तो अन्य देश भी इसकी सदस्यता छोड़ सकते हैं।
कुल मिलाकर देखा जाये तो यूरोपीय संघ आज टूटने के कगार पर है क्योकि अब कई और
देश भी इससे बाहर जाने का रास्ता तलाश करने लगे है जिसका सबसे बड़ा कारण यूरोप में
बढती मुस्लिम आबादी के रूप में देखा जा रहा है| अपने जन्म से ही इस्लाम ने जो भाषा
प्रचलित की, उसने मानव जाति को दो वर्गों में
बांट दिया। इस्लाम को मानने वाले मुसलिम, न मानने वाले काफिर। इस्लाम द्वारा
शासित क्षेत्र दारूल इस्लाम और उससे बाहर का दारूल हर्ब बना दिया गया। और अपनी सोच और संस्कृति को ही पवित्र मान
लिया गया| पूरा विश्व शायद अभी अपनी मूर्छा से नहीं निकला और उसके बौद्धिक जगत में
पिछले डेढ़ हजार वर्ष के
इतिहास को ठीक से समझने और उससे सीख लेने की आकांक्षा नहीं जगी, वरना एक सरसरी दृष्टि डाल कर भी यह
देखा जा सकता है इस्लाम को मानने वालों का राजनीतिक-मजहबी विस्तार कितनी बड़ी
चुनौती है। पिछले चौदह सौ वर्षों का इतिहास के पन्नों से यदि धूल हटे तो देखे आपसी संघर्ष और प्रतिद्वंद्विता का इतिहास रहा
है, जिसकी आंच में भारत को भी एक हजार वर्षो
तक झुलसना पड़ा है
ईश्वर के प्रति निष्ठा और भौतिक जीवन के संचालन को अलग-अलग खानों में रख कर यूरोपीय जाति ने विज्ञान और
प्रौद्योगिकी का विकास करके अपूर्व सामरिक और भौतिक शक्ति अर्जित की है। जबकि उनके पड़ोस में रहने वाले मुसलिम समुदाय के लिए इसका
कोई महत्त्व नहीं रहा है, क्योंकि इस्लाम में अल्लाह के प्रति संपूर्ण निष्ठा ही सब कुछ है| उसका एक बड़ा हिस्सा भौतिकवाद
के हमेशा खिलाफ रहा है इसलिए इस्लाम यूरोप की शक्ति को ललकारने की प्रेरणा बना हुआ है।
हाल के वर्षो
में इस्लाम की कट्टरता यूरोप में एक बड़ा राजनीतिक,सामाजिक,
धार्मिक प्रश्न बन गया है। कई यूरोपीय देश में इस्लाम के प्रथाओं के खिलाफ कानून
बनाये ऐसा इसलिए हुआ कि यूरोप में मजहबी संस्कृति के नाम पर कानून-संविधान का खुल्ला-खुल्लम उंलघन कर राजनीतिक ताकत बढ़ाने
का खेल-खेला जा रहा है। किन्तु जैसे ही उदार समाज व्यवस्था पर इस्लाम ने अपनी
मजहबी संस्कृतियां हावी की और अलग कानून-संविधान कोड की
मांग शुरू की वैसे ही यूरोप का समाज व्यवस्था
ने मजहबी संस्कृतियों के प्रचार-प्रसार के खिलाफ सक्रियता भी दिखानी शुरू की है। फ्रांस में बुर्का के खिलाफ संवैधानिक प्रतिबंध
इसकी सबसे बड़ी कड़ी है। हालाँकि पहले तो इन मजहबी
प्रथाओं को इस्लाम से जुडी संस्थाएं मजबूत कर रहीं थी और अब
मीडिया भी इसमें शामिल हो गया। इस्लामिक
मूल्यों और रूढ़ियों के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक मीडिया यूरोप में खड़े हैं जो इस्लाम और गैर इस्लामिक आबादी
के बीच टकराहट,घृणा का बाजार
लगा रहे हैं।
मीडिया के उपर मजहबी संहिताएं हावी होना न सिर्फ यूरोप में इस्लामिक कट्टरता को बढाने वाला और औरत की आजादी को प्रभावित करने
जैसी चिंताएं शुरू हो गयी है आज यूरोप का भविष्य केवल इसके निवासियों
के लिये ही महत्वपूर्ण नहीं है। वरन हम सबके लिए
महत्पूर्ण है क्योकि अभी
तक जो यूरोप पुरे निरपेक्ष मार्ग की ओर घसीट रहा था जो अब खुद साम्प्रदायिकता आग
में जलता दिखाई दे रहा है| हो सकता है कल यूरोप इस्लामी रंग को अपना ले तो सोचो यूरोप के बाद अगला किसका नम्बर होगा? राजीव चौधरी